Wednesday, October 19, 2011

हजारे के आंदोलन से दूर जा रहे है जन संगठन

अंबरीश कुमार
लखनऊ 19,अक्तूबर। उत्तर प्रदेश में अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जन संगठनों और आमजन का मोहभंग होता नजर आ रहा है । टीम अन्ना के वैचारिक भटकाव और बिखराव के चलते अब उसे वह समर्थन नहीं मिल रहा जो अगस्त में मिला था।इसका अहसास उत्तर प्रदेश के दौरे पर निकली टीम अन्ना के सदस्यों को भी होने लगा है। अगस्त में अन्ना के अनशन के दौरान जो लोग दिल्ली के रामलीला मैदान में जुटे थे उनके लिए सैलाब और जन सैलाब जैसे विशेषण का इस्तेमाल किया गया था पर पिछले दो दिन में उत्तर प्रदेश में पश्चिम से पूरब तक का दौरा करने वाली टीम अन्ना की सभाओं में कही पांच सौ लोग आए तो कही हजार। यह अगस्त क्रांति का दूसरा पहलू है।बांदा,कानपुर,लखनऊ ,फैजाबाद से लेकर गोरखपुर टीम अन्ना ने दौरा किया और कांग्रेस विरोध की मजबूरी भी बताई साथ ही सपा ,बसपा और भाजपा पर भी निशाना साध कर यह संदेश देने का प्रयास किया कि वे किसी राजनैतिक दल के साथ नहीं खड़े है। अन्ना समर्थको का नया नारा है -न हाथ न हाथी ,हम है अन्ना के साथी । न साइकिल न कमल ,हम करेंगे अन्ना पर अमल । पर हिसार में जो गलती टीम अन्ना ने की उसका खामियाजा सामने आने लगा है । मंगलवार को जिस झूलेलाल पार्क में इंडिया अगेंस्ट करप्शन का कार्यक्रम हुआ वह लखनऊ विश्विद्यालय समेत तीन बड़े और ऐतिहासिक कालेजों और दर्जन भर छात्रावासों से घिरा हुआ है । पर शाम छह बजे भी सारी कुर्सियां नहीं भर पाई थी । अन्ना आंदोलन के प्रमुख नेता मुन्ना लाल शुक्ल जो पिछली बार आमरण अनशन पर बैठे थे इस बार हताश थे । मुन्ना लाल शुक्ल ने जनसत्ता से कहा - सौ बच्चों को तो मै हरदोई से लाया था पर फिर भी पांच सौ कुर्सियां नहीं भर पाई क्योकि हमारे नेता कई खेमे में बंट गए है। सौरभ ने तो एलान कर रखा था कि अगर सक्सेना के लोगों ने मंच पर जाने की कोशिश की तो हमारे लड़के उन्हें तोड़ डालेंगे ।वैसे भी वह गांधी की अहिंसा और मद्य निषेध आदि को फालतू मानता है,कहता है आजादी तो गरम दल वालों ने दिलवाई थी। यह बानगी है आंदोलन का संचालन करने वाले नेताओं की दृष्टि की।
अन्ना आंदोलन के एक नेता ने नाम न देने क शर्त पर कहा -अगस्त में जब अन्ना का आंदोलन शुरू हुआ तो सभी विचारधाराओं के लोग उसमे शामिल हुए और बड़ी संख्या में जन संगठनों के कार्यकर्त्ता थे। पर जैसे जैसे आंदोलन आगे बढ़ा आंदोलन में शामिल नेताओ का टकराव और वैचारिक संकट भी बढ़ा। पहली आपति आंदोलन के तौर तरीकों को लेकर हुई। आंदोलन और नेता को एक एकरांड बनाने के सवाल पर पहला मतभेद हुआ तो दूसरा विचारधारा को लेकर । वंदेमातरम के नारे से लेकर दक्षिणपंथी ताकतों से संबंधो पर अगर पहले सफाई दे दी जाती तो आंदोलन पर संघ का ठप्पा तो नहीं लगता। दूसरे चुनावी दखल से हर हालत में बचाना चाहिए था क्योकि यह लड़ाई व्यवस्था परिवर्तन की थी किसी दल को हराने की नहीं।jansatta

1 comment:

विष्णु बैरागी said...

उम्‍मीद बॉंधे हम भारतीयो को एक बडी निराशा का सामना करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।