Wednesday, December 24, 2008

यहां सब कुछ है जेल के सिवा !

रीता तिवारी
ईटानगर, दिसंबर। पूर्वोत्तर में चीन की सीमा से लगे सामरिक लिहाज से महत्वपूर्ण अरुणाचल प्रदेश में वह सब कुछ है जो देश के किसी भी राज्य में हो सकता है। खूबसूरत पहाड़ियां, गुलमर्ग को मात करता जीरो, जहां साल के ज्यादातर महीनों के दौरान बर्फ जमी रहती है, तावांग की बौद्धगुफा और वहीं चीनी सीमा। इस राज्य को अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के चलते उगते सूरज का देश कहा जाता है। वैसे स्थानीय भाषा में अरुणाचल का मतलब भी उगते सूरज की धरती होता है. इसकी खूबसूरती की तुलना जम्मू-कश्मीर के साथ की जाती है।
लेकिन इन सबके बावजूद यहां एक ऐसी चीज नहीं है जो देश के तमाम राज्यों तो क्या हर जिले में मौजूद है। आखिर क्या? वह चीज है जेल। सुनकर हैरत हो सकती है। लेकिन यह सच है कि इस राज्य में कोई जेल नहीं है। तीन साल पहले राजधानी ईटानगर में बनी जेल की एक खूबसूरत इमारत अब तक अपने उद्घाटन की राह देख रही है।
मौजूदा दौर में किसी राज्य में जेल नहीं होने की बात नामुमकिन ही लगती है। लेकिन पूर्वोत्तर में नेफा यानी नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी कहा जाने वाला अरुणाचल प्रदेश इस मामले में देश का अकेला ऐसा राज्य है। लेकिन यहां जेल नहीं होने का मतलब यह भी नहीं है कि इस पर्वतीय राज्य में अपराध ही नहीं होते। जी हां, यहां अपराध होते हैं। लेकिन राज्य में कोई जेल नहीं होने की वजह से राज्य के अभियुक्तों को पड़ोसी राज्य असम की जेलों में रखा जाता है।असम की राजधानी गुवाहाटी स्थित हाईकोर्ट की अरुणाचल प्रदेश खंडपीठ ने अब तक विभिन्न अपराधों के सिलसिले में 26 लोगों को सजा सुनाई है. इन सबको असम की जेलों में रखा गया है।
फिलहाल राज्य में अपराधियों को चार्जशीट नहीं होने तक पुलिस लाकअप में ही लंबा समय बिताना पड़ता है। राज्य के गृह मंत्री जारोबाम गैमलिन मानते हैं कि यह मानवाधिकारों का उल्लंघन है। लेकिन जेल का उद्घाटन जल्दी कर दिया जाएगा। बीते साल ही तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटील के हाथों इसका उद्घाटन होना था। लेकिन पोप जान पॉल दो के निधन के चलते यह समारोह रद्द हो गया था। इस जेल में 50 कैदियों को रखने की क्षमता है। फिलहाल सजायाफ्ता अपराधियों को पड़ोसी असम की विभिन्न जेलों में रखा जाता है। सरकारी सूत्रों के मुताबिक, फिलहाल अरुणाचल के ऐसे 26 अपराधी असम की विभिन्न जेलों में अपनी सजाएं काट रहे हैं।
अब राज्य में छोटी-बड़ी कई अन्य जेलों का निर्माण कार्य भी चल रहा है। यहां यह बता दें कि यहां कार्यपालिका और न्यायपालिका में कोई विभाजन रेखा नहीं है। किसी जिले के जिलाशासक को ही सत्र न्यायालय में न्यायाधीश की भूमिका निभाते हुए हत्या, बलात्कार और डकैती के मामलों की सुनवाई करनी पड़ती है। सरकारी सूत्रों का कहना है कि नए कर्मचारियों की नियुक्ति के बाद कार्यपालिका और न्यापालिका का बंटवारा कर दिया जाएगा।
पूर्व मुख्यमंत्री गेगांग अपांग कहते हैं कि हमारे राज्य में छोटे-बड़े सभी मामले ग्रामीण पंचायतें अपने पारंपरिक कानूनों की सहायता से निपटा लेती हैं। इस राज्य में इन परिषदों को काफी अधिकार मिले हैं। इसलिए यहां कभी जेल बनाने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई. कुछ साल पहले जेल की एक इमारत बनी। लेकिन विभिन्न वजहों से उसका उद्ध्घाटन नहीं हो सका है। ध्यान रहे कि अपांग राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर सबसे लंबे अरसे तक रह चुके हैं। पहली बार उन्होंने लगातार 19 वर्ष इस कुर्सी पर रहने का रिकार्ड बनाया था। अरुणाचल को वर्ष 1975 में केंद्रशासित क्षेत्र और 20 फरवरी, 1987 को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था।
दिलचस्प बात यह है कि इस राज्य के ज्यादातर हिस्सों में अब भी पारंपरिक कानून ही लागू हैं। यह कानून भी हर जनजाति के लिए अलग-अलग हैं और इनके तहत फैसले का अधिकार ग्रामीण परिषदों को है। वर्ष 1945 में बने असम सीमांत अधिनियम एक के तहत इन कानूनों को मान्यता दी गई थी। इसी वजह से राज्य में किसी भी सरकार ने जेलों की स्थापना की जरूरत ही नहीं महसूस की। राज्य के वरिष्ठ पत्रकार मामंग दाई कहते हैं कि ‘राज्य में आतंकवादी गतिविधियों या संगठित अपराधों का कोई इतिहास नहीं है।’ यह जानना भी दिलचस्प है कि इस राज्य में भारतीय दंड संहिता लागू नहीं है। कोई छह साल पहले सरकार ने टाडा की तर्ज पर यहां संगठित अपराध नियंत्रण अध्यादेश जारी किया था। आम लोगों ने उस समय इसका जम कर विरोध किया था। इसके बावजूद मुकुट मिथी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इसे विधानसभा में पारित करा लिया।
अरुणाचल प्रदेश छात्र संघ (आप्सू) के पूर्व अध्यक्ष माजी मार्गिंग कहते हैं कि ‘राज्य सरकार ने इस अध्यादेश को कानूनी जामा पहनाने के पहले आम लोगों की भावनाओं को ध्यान में नहीं रखा।’ वे कहते हैं कि ‘पूर्वोत्तर के इस सबसे शांतिपूर्ण राज्य को ऐसे किसी कानून की जरूरत ही नहीं है. राजनीतिक पार्टियां समय-समय पर अपने फायदे के लिए इसका समर्थन करती रही हैं।’ वे दलील देते हैं कि ‘राज्य में किसी जेल का नहीं होना ही इस बात का सबूत है कि यहां ऐसे किसी खतरनाक कानून की जरूरत नहीं है.’

Monday, December 22, 2008

जड़हन का भात और मकई की रोटी

हरिकृष्ण यादव

ड़हन और जोनहरी (मकई) पैदा होने वाले गांव में जन्मे त्रिलोचन शास्त्री परिवार के लिए कोलकाता में रिक्शा चलाया ताकि घरवालों को बेस्वाद जड़हन का भात और मकई की रोटी खाकर ही गुजरा न करना पड़े। इन्हीं लोगों के लिए ही बनारस, इलाहाबाद, मुरादाबाद, आगरा, रांची, भोपाल, दिल्ली और सागर जसे शहरों में दिनरात भटकते रहे। साथ ही अपना शौक (कविता, कहानी, नाटक लिखना और हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू भाषाओं में विद्वता हासिल करना) पूरा किया। 
पिछले साल कुछ दिनों के लिए गांव जना हुआ। वहां दुनियादारीमें एेसे उलङा हुआ था कि महीना बीत गया पता नहीं चला। दिल्ली से नौ दिसंबर की देर रात बेटे अंकुर ने फोन किया। बताया ‘पापा, त्रिलोचनजी का निधन हो गया। सुनो, टीवी पर उन्हीं के बारे में ही बता रहे हैं।’ बेटे ने मोबाइल टीवी के पास रख दिया। संयोग से उस वक्त त्रिलोचन शास्त्री की आवाज सुनाई दे रही थी। पहले रिकार्डिग की बातचीत और महीने भर पहले उनसे हुई बातचीत की आवाज में कोई फर्क नहीं था। बोलने का वही लहज सुन कर मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा गीत ‘एक दिन बिक जएगा माटी के मोल, जग में रह जएंगे प्यारे तेरे बोल’ गूंजने लगा। 
महीने भर पहले जब उनसे मिला था तो मुङासे डेढ़-दो घंटे खूब बतियाए। गांव से लेकर दिल्ली तक के संगी-साथियों की चर्चा की। अपने बचपन की कुछ यादें ताज की। यह सब उस समय जब उनके छोटे बेटे सहित उनके संगी-साथी और शुभचिंतक उन्हें देखने के बाद टिप्पणी कर रहे थे- ‘त्रिलोचन की याददाश्त खत्म हो गई है, वे किसी को पहचानते तक नहीं, न ही किसी से बात करते हैं। बस गुमसुम बैठे रहते हैं।’ यह सब सुन कर मैं भी बेमन, मात्र दर्शन की भावना से उन्हें देखने गया। वहां पहुंचने पर लोगों के कहे पर विश्वास करके दस मिनट तक चुपचाप उन्हें निहारता रहा। उसके बाद मैंने कहा, ‘हमार घर मोतिगरपुर आहै।’ तब उन्होंने कहा, ‘दियरा के पास।’ उसके बाद बतकही का जो सिलसिला शुरू हुआ खत्म होने की उम्मीद नहीं थी। लेकिन मुङो नियत समय पर कहीं पहुंचना था। इसलिए उनका चरणस्पर्श करके न चाहते हुए भी वहां से चल दिया। यह उम्मीद लेकर कि  फिर मिलने आऊंगा तो ढेर सारी बातें करूंगा।  
घर से निकल तो आया पर ध्यान उन्हीं पर लगा रहा। सोचा, ‘सब कुछ होते हुए कुछ भी नहीं है’ को एक शब्द में कहना हो तो ‘त्रिलोचन’ शायद ही अतिशयोक्ति हों! उनका  कुनबा संपन्न है और सुधीजनों की लंबी कतार। दो पुत्रों के पिता त्रिलोचन ‘अपनों’ को देखने के लिए तरस रहे थे। उनके दिवंगत छोटे भाई का परिवार गांव में रहता है। व्यावहारिक रूप से पैतृक संपत्ति के वे ही मालिक हैं। त्रिलोचन नाम से इंटर कालेज और लाइब्रेरी की देखभाल भी वे ही करते हैं। एक बेटा वकील है तो दूसरा ठेकेदार। यानी भाई का भी खाता-पीता परिवार है। 
शास्त्रीजी के बड़े बेटे कें्रीय विश्वविद्यालयों में बरसों पढ़ाने के दौरान प्राच्य म्रुा विशेषज्ञ के रूप में जने गए। फिलहाल वे बनारस में निजी अनुसंधान कें्र में कार्यरत हैं। दूसरा दिल्ली में अखबारनवीस हैं। लेकिन परिवार ताश के पत्तों की तरह बिखरा है। बड़ा बेटा और बहू बनारस में रहते हैं। पौत्र अमेरिका में, पौत्रियों में एक गाजियाबाद में डाक्टर है, दूसरी दिल्ली में फैशन डिजइनर है। छोटे बेटे की बहू हरिद्वार में वकील हैं, जिनके पास शास्त्रीजी काफी समय से रह रहे थे। पौत्र कोलकाता में प्रबंधन में है और पौत्री दिल्ली में पिता के साथ रह कर पढ़ रही है। 
शुभचिंतकों में अशोक वाजपेयी, विष्णु चं्र शर्मा, विष्णु प्रभाकर, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह जसे कई दिग्गज साहित्यकार और कवि शास्त्रीजी के सुख-दुख में साथ रहे। समय-समय पर इन लोगों ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। 
शास्त्रीजी ने परिवार की जिम्मेदारियां भरसक ईमानदारी से निभाईं। परिवार में बड़ा होने के नाते कम आयु में ही कुनबे की जिम्मेदारी संभाल ली। इसलिए कच्ची उम्र में ही साल में चार महीने खेत-खलिहान में काम करते। बाकी आठ महीने बाहर जकर मेहनत मजदूरी। जड़हन और जोनहरी (मकई) पैदा होने वाले गांव में जन्मे त्रिलोचन ने परिवार के लिए कोलकाता में रिक्शा चलाया ताकि घरवालों को बेस्वाद जड़हन का भात और मकई की रोटी खाकर ही गुजरा न करना पड़े। इन्हीं लोगों के लिए ही बनारस, इलाहाबाद, मुरादाबाद, आगरा, रांची, भोपाल, दिल्ली और सागर जसे शहरों में दिनरात भटकते रहे। साथ ही अपना शौक (कविता, कहानी, नाटक लिखना और हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू भाषाओं में विद्वता हासिल करना) पूरा किया। 
बचपन से सरस्वती के पीछे भागने वाले त्रिलोचन जीवन के अंतिम क्षण तक उनसे विमुख न हो सके। जब कभी-कभार लक्ष्मी उनके पास आईं तो परिजनों को सौंप दिया। पिछले साल जब परिवार वालों को कुछ करने की बारी आई तो सबने मुंह फेर लिया। अपनों की बाट जोह रहे त्रिलोचन शायद इसीलिए अपने आख्रिरी दिनों में सुधीजनों से बोलना और उन्हें पहचानना जरूरी नहीं समङाते रहे हों। 
परिवार वालों ने गजब का फर्ज निभाया। जीवन के अंतिम दौर में भतीजों ने गांव से ही एक-दो दफा फोन पर हालचाल पूछ कर फर्ज अदा किया गया। बड़ा बेटा जिस पर उन्हें बड़ा नाज था देखने तक नहीं आया। छोटा बेटा अपनी नौकरी और पौत्री पढ़ाई के साथ उनकी कितनी सेवा कर पाए होंगे इसका अंदाज लगाया ज सकता है। बावजूद उन्हें कभी किसी से कोई गिलवा शिकायत नहीं रही। यदि होती तो उस दिन जरूर मुङासे बताते। उनके जीते जी उनके लिए जिन्होंने जो कुछ किया वे सुधीजन ही थे। उनकी सेवा करके वे धन्य हुए!

Friday, December 19, 2008

विष्णुपुर के टेराकोटा मंदिर

रीता तिवारी
कभी मल्ल राजाओं की राजधानी रहा बांकुड़ा (पश्चिम बंगाल) का विष्णुपुर शहर टेराकोटा के मंदिरों, बालूचरी साड़ियों व पीतल की सजावटी वस्तुओं के अलावा हर साल दिसंबर के आखिरी सप्ताह में लगने वाले मेले के लिए भी मशहूर है। यह विष्मुपुर मेला कला व संस्कृति का अनोखा संगम है। यहां दूर-दूर से अपना हुनर दिखाने कलाकार आते हैं तो उनकी कला के पारखी पर्यटक भी आते हैं। साल के आखिरी सप्ताह के दौरान पूरा शहर उत्सव के रंगों में रंग जाता है। मल्ल राजाओं के नाम पर इसे मल्लभूमि भी कहा जाता था। यहां लगभग एक हजार वर्षों तक इन राजाओं का शासन रहा। उस दौरान विष्णुपुर में टेराकोटा व हस्तकला को तो बढ़ावा मिला ही, भारतीय शास्त्रीय संगीत का विष्णुपुर घराना भी काफी फला-फूला।
वैष्णव धर्म के अनुयायी इन मल्ल राजाओं ने 17वीं व 18वीं सदी में जो मशहूर टेराकोटा मंदिर बनवाए थे, वे आज भी शान से सिर उठाए खड़े हैं। यहां के मंदिर बंगाल की वास्तुकला की जीती-जागती मिसाल हैं। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से कोई दो सौ किमी दूर बसा यह शहर राज्य के प्रमुख पर्यटनस्थलों में शामिल है। खासकर मेले के दौरान तो यहां काफी भीड़ जुटती है। मल्ला राजा वीर हंबीर और उनके उत्तराधिकारियों-राजा रघुनाथ सिंघा व वीर सिंघा ने विष्णुपुर को तत्कालीन बंगाल का प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। शहर के ज्यादातर मंदिर भी उसी दौरान बनवाए गए।
यहां स्थित रासमंच पिरामिड की शक्ल में ईंटों से बना सबसे पुराना मंदिर है। 16वीं सदी में राजा वीर हंबीरा ने इसका निर्माण कराया था। उस समय रास उत्सव के दौरान पूरे शहर की मूर्तियां इसी मंदिर में लाकर रख दी जाती थीं और दूर-दूर से लोग इनको देखने के लिए उमड़ पड़ते थे। इस मंदिर में टेराकोटा की सजावट की गई है जो आज भी पर्यटकों को लुभाती है। इसकी दीवारों पर रामायण, महाभारत व पुराणों के श्लोक खुदाई के जरिए लिखे गए हैं। इसी तरह 17वीं सदी में राजा रघुनाथ सिंघा के बनवाए जोरबंगला मंदिर में भी टेराकोटा की खुदाई की गई है। शहर में इस तरह के इतने मंदिर हैं कि इसे मंदिरों का शहर भी कहा जा सकता है।
टेराकोटा विष्णुपुर की पहचान है। यहां इससे बने बर्तनों के अलावा सजावट की चीजें भी मिलती हैं। मेले में तो एक सिरे से यही दुकानें नजर आती हैं। इसके अलावा पीतल के बने सामान भी यहां खूब बनते व बिकते हैं। इन चीजों के अलावा यहां बनी बालूचरी साड़ियां देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर हैं। इन साड़ियों पर महाभारत व रामायण के दृश्यों के अलावा कई अन्य दृश्य कढ़ाई के जरिए उकेरे जाते हैं। बालूचरी साड़ियां किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इन साड़ियों ने अपनी अलग पहचान कायम की है। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि इन रंग-बिरंगी चमकीली साड़ियों को बनाने वाले कलाकारों की जिंदगी में अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं है। छोटे-अंधेरे कमरों में बैठ कर अपने दक्ष हाथों व पावर लूम की सहायता से बालूचरी साड़ियों पर पौराणिक गाथाएं उकेरने वाले इन कलाकारों को एक साड़ी बनाने के लिए महज दो से तीन सौ रुपए ही मिल पाते हैं। एक बालूचरी साड़ी बनाने में कम से कम एक सप्ताह का वक्त लगता है। दो लोग मिल कर इसे बनाते हैं। लेकिन  सरकारी उपेक्षा, कच्चे माल के अभाव व बिचौलियों की सक्रियता के चलते इन कलाकारों के लिए लागत निकालना भी मुश्किल  हो रहा है। राज्य के मुर्शिदाबाद जिले के बालूचर गांव में शुरूआत करने वाली बालूचरी साड़ियों ने बीती दो सदियों के दौरान एक लंबा सफर तय किया है। नवाब मुर्शीद अली खान 18वीं सदी में बालूचरी साड़ी की कला को ढाका से मुर्शिदाबाद ले आए थे। उन्होंने इसे काफी बढ़ावा दिया। बाद में गंगा नदी की बाढ़ में बालूचर गांव के डूब जाने के बाद यह कला बांकुड़ा जिले के विष्णुपुर पहुंची। अब विष्णुपुर व बालूचरी एक-दूसरे के पर्ययाय बन गए हैं। पहले विष्णुपुर में मल्ल राजाओं का शासन था। उस दौरान यह कला अपने निखार पर थी। मल्ला राजाओं ने इलाके में टेराकोटा कला को काफी बढ़ावा दिया था। वहां टेराकोटा के मंदिर हर गली में बिखरे पड़े हैं। बालूचरी साड़ियों पर भी इन मंदिरों का असर साफ नजर आता है। इन साड़ियों की खासियत यह है कि इन पर पौराणिक गाथाएं बुनी होती हैं। कहीं द्रौपदी के विवाह का प्रसंग है तो कहीं राधा-कृष्ण के प्रेम का। महाभारत के युध्द के दौरान अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए भगवान कृष्ण की तस्वीर भी इन साड़ियों पर नजर आती है।
लेकिन  रेशम के बारीक धागों से इन कहानियों को साड़ी पर उकेरना कोई आसान नहीं है। दो मजदूर मिल कर एक सप्ताह में एक साड़ी तैयार करते हैं। काम की बारीकी के हिसाब से उस साड़ी की कीमत एक से दस हजार रुपए तक होती है। लेकिन बुनकरों या कलाकारों को इसका फाययदा नहीं मिल पाता। एक कलाकार रमेन तांती का कहना है कि हाल में कच्चे माल की कीमतें काफी बढ़ गई हैं। लेकिन हम मजबूरी में दाम नहीं बढ़ा पाते। ऐसे में हमें दो से तीन सौ रुपए ही मिल पाते हैं। असली मुनाफा बिचौलिए लूट लेते हैं। विष्णुपुर से निकल कर बड़े शहरों की दुकानों तक पहुंचते-पहुंचते इन साड़ियों की कीमत दोगुनी से ज्यादा हो जाती है। रमेन के मुताबिक, सरकार ने इस कला को बढ़ावा देने या कलाकारों के संरक्षण की दिशा में कोई खास कदम नहीं उठाया है। बुनाई के बाद साड़ियों पर चमक लाने के लिए उनकी पालिश की जाती है। किसी जमाने में यह साड़ियां बंगाल के रईस या जमीदार घरानों की महिलाएं ही पहनतीं थी। अब भी शादी-ब्याह के मौकों पर यह साड़ी पहनी जाती है। 
बालूचरी साड़ी बनाने वालों का कहना है कि राज्य सरकार को इस कला के संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाना चाहिए। 
यहां अगस्त में एक सांप उत्सव भी आयोजित किया जाता है। कोलकाता से विष्णुपुर पहुंचने के लिए कई ट्रेनें और बसें चलती हैं जो लगभग चार घंटे में पर्यटकों को यहां पहुंचा देती हैं। विष्णुपुर मेले के दौरान पांच दिनों तक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। यहां मेले के प्रति पर्यटकों की बढ़ती दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए कई नए होटल बन गए हैं। इसलिए रहने की कोई दिक्कत नहीं है।

 

Thursday, December 18, 2008

दहशतगर्द देवबंदी धारा के-बरेलवी

अंबरीश कुमार/वीरेन्द्र नाथ भट्ट
लखनऊ, १८ दिसम्बर। संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के स्थाई प्रतिनिधि अब्दुल हुसैन हारून के बयान पर बरेलवी और देवबंदी मुसलमान आमने-सामने आ गए हैं। बरेलवी समुदाय ने कहा है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के रास्ते पर चल रहे नौजवान देवबंदी विचारधारा मानने वाले हैं। इससे पहले पाकिस्तान के बयान पर देवबंद ने तीखी प्रतिक्रिया जताते हुए माफी मांगने की मांग की थी पर अब यह मुद्दा मुसलिम समुदाय के बीच ही विवाद बढ़ाता नजर आ रहा है। 
बरेलवी समुदाय के प्रमुख नेता मौलाना तौकीर रज खान ने कहा,‘हमने पाकिस्तान के राजनयिक का पूरा बयान नहीं देखा है पर यह तो साफ है कि जम्मू और कश्मीर में जो लोग आतंकवाद के रास्ते पर चल रहे हैं, वे देवबंदी जहनियत के हैं। हमें उनकी दहशतगर्दी को जेहाद का नाम दिए जने पर सख्त आपत्ति है।’ दूसरी तरफ आल इंडिया पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी ने कहा-यदि पाकिस्तान ने देवबंद के उलेमा से कोई अपील की है तो इसमें विवाद क्यों हो रहा है? हालांकि पाकिस्तान को इस तरह की अपील केन्द्र सरकार के माध्यम से करनी चाहिए थी। यदि पाकिस्तान में लोग देवबंद की विचारधारा को मानते हैं तो इस पर फक्र होना चाहिए। वैसे भी आजदी की लड़ाई के समय से देवबंद का प्रभाव मुसलिम समुदाय के बड़े वर्ग पर रहा है। आज भी यदि देवबंद विचारधारा को मानने वाले गलत रास्ते पर चल रहे हैं तो उन्हें समङाने में कोई बुराई नहीं है। 
गौरतलब है कि पाकिस्तान के राजनयिक अब्दुल हुसैन हारून ने भारत और पाकिस्तान में बढ़ रही आतंकवादी घटनाओं के संदर्भ में कहा था कि मेरा यह सुङाव है कि देवबंद के उलेमा जिनका पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी फंट्रियर प्रांत और केन्द्र शासित आदिवासी क्षेत्र में खासा असर है, उन्हें भारत और पाकिस्तान में निर्दोष लोगों की हत्या के खिलाफ फतवा जरी करना चाहिए। इस बयान के बाद दारूल उलूम देवबंद के रेक्टर मौलाना मगरूबुर रहमान का एक बयान नायब मोहतमिम मौलाना अब्दुल खालिक मदरासी ने जरी करते हुए कहा-हम पाकिस्तान के इस बयान की भत्र्सना करते हैं। पाकिस्तान के जिम्मेदार अफसर को इस तरह का गैर जिम्मेदाराना बयान अंतरराष्ट्रीय फोरम पर देने से बचना चाहिए। बयान में आगे कहा गया कि दारूल उलूम देवबंद हमेशा से शांति, सद्भाव और इस्लाम की शिक्षा के प्रसार में लगा रहा है। हमने देश के कई बड़े शहरों जिसमें दिल्ली और हैदराबाद भी शामिल हैं, वहां आतंकवाद के विरोध में सम्मेलन किए हैं। 
दूसरी तरफ बरेलवी समुदाय के धर्मगुरू और किछौछा दरगाह के सज्जादनसीं मौलाना सैय्यद हाशिम ने पाकिस्तान के राजनयिक के बयान का समर्थन करते हुए कहा-सिर्फ देवबंदी विचारधारा के लोग ही भारत और इस महाद्वीप में आतंकवाद के रास्ते पर चल रहे हैं। केन्द्र सरकार को देवबंदी मदरसों पर नजर रखनी चाहिए कि वे वहां क्या पढ़ा रहे हैं और उनका पाठ्यक्रम क्या है?
यह पहली बार हुआ कि आतंकवाद के सवाल पर देवबंद मुसलिम समुदाय बरेलवी के अलावा पाकिस्तान के भी निशाने पर आया है। हालांकि मुसलिम समुदाय में पहले यह चर्चा दबी जुबान से होती थी पर अब पाकिस्तान के सुङाव के बाद इस पर नए सिरे से बहस शुरू हो गई है। देवबंदी मदरसों को लेकर अभी तक हिन्दुत्ववादी संगठन सवाल उठाते रहे हैं पर बरेलवी समुदाय के आरोप के बाद यह विवाद और आगे बढ़ सकता है। देवबंदी विचारधार के लोग विश्व के कई मुसलिम देशों में हैं और भारत-पाकिस्तान व बांगलादेश में इनकी संख्या काफी ज्यादा है। जनसत्ता / इंडियन एक्सप्रेस

न्याय को निरस्त्र करता वैकल्पिक कानून

आलोक तोमर

एक और कानून और एक और जांच एजेंसी। आतंकवाद के खिलाफ जितने ज्यादा कड़े और बेरहम कानून बने, मानवाधिकार के सापेक्ष मुहावरे को छोड़ कर उनका स्वागत भी किया जाना चाहिए और एक नई राष्ट्रीय बल्कि संघीय जांच एजेंसी की मांग काफी समय से चल रही थी और अब अगर एक सर्वशक्तिमान जांच एजेंसी बन रही है तो उसका बनना भी देशहित में माना जाने के अलावा अगर किसी और विकल्प की तलाश की जाती है तो ऐसा होना बहुत खतरनाक होगा। 

मगर कुछ सवाल अब भी बाकी है। आखिर भारत में सीबीआई भी हैं और राज्य सरकारों की आम और विशेष अधिकारों वाली पुलिस भी। इसके बावजूद आतंकवाद से निपटा नहीं जा सका और आंतरिक सुरक्षा के सवाल भारत को और ज्यादा खतरनाक रूप से सता रहे हैं तो यह समझना स्वाभाविक हो जाता है कि अब तक भारत के कानून में क्या कमिया थी और इन कमियों को तमाम कोशिशों के बावजूद सुलझाया क्यों नहीं जा सका। 

नए कानून और नई एजेंसी का क्या अर्थ यह है कि भारत का पुराना कानून जो अब भी लागू है, आतंकवाद के मुद्दे पर विफल हो गया है? यह सवाल पूछना इसलिए और भी जरूरी है क्योंकि जो कश्मीर आतंकवाद का पर्यायवाची बन चुका है और जहां हर दूसरी तीसरी खबर मुठभेड़ या कत्लेआम की आती है वहां अभी से यह माहौल बनाया जा रहा है कि इस नई राष्ट्रीय जांच एजेंसी को कश्मीर में काम नहीं करने दिया जाए और नए कानून में शामिल धाराओं का भी कोई पालन राज्य की पुलिस नहीं करे। धारा 370 नाम का जो खतरनाक झुनझुना कश्मीर को एक निरर्थक विशेषाधिकार के तौर पर थमाया गया है, उसके तहत कश्मीर सरकार यह कर भी सकती है। आखिर देश भर में तीन साल से लागू और प्रशासन की पारदर्शिता बढ़ा रहे सूचना के अधिकार कानून को भी कश्मीर में अभी तक लागू नहीं किया गया है। 

सबसे पहले चलिए यह समझिए कि नए कानून में मुख्य बात क्या है? एक सबसे महत्वपूर्ण और विवाद में पड़ सकने वाला प्रावधान इस कानून में यह है कि आतंकवाद के मामले में गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को अपना निर्दोष होना खुद सिध्द करना पड़ेगा। इतना ही नहीं नए कानून के तहत पकड़े गए लोगों को जमानत आसानी से नहीं मिलेगी और इसके अलावा उनकी न्यायिक हिरासत यानी जेल में रहने की अवधि को भी तीन महीने से बढ़ा कर छह महीने कर दिया गया है। इस तरह की धाराओं के दुरूपयोग की आशंका भी जाहिर की जा रही है लेकिन भारत में कानूनों का दुरूपयोग होना कोई नई बात नहीं हैं और यह कोई ऐसा तर्क भी नहीं हैं जिसकी वजह से कानूनों में जरूरी सुधार नहीं किए जाए। 

यहीं पर एक आसान सा लेकिन मुश्किल जवाब वाला मुद्दा यह है कि हम डेढ़ सौ साल पुराने कानून से जिसकी बहुत सारी धाराए अप्रासंगिक हो चुकी है जिसमें पतंग उड़ाना भी कानूनी अपराध है, छिप के क्यों हुए हैं? भारत की संविधान सभा जो अब संसद हैं, संविधान बनाते वक्त शायद इतनी हड़बड़ी में थी कि उसने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून को जैसे के तैसा ग्रहण कर लिया। अंग्रेजों ने जो कानून बनाया था वह अपनी मूल रूप में ही प्रजा विरोधी था क्योंकि अंग्रेज शासक बगावत या विप्लव का कोई विकल्प प्रजा के सामने छोड़ना ही नहीं चाहते थे। इसीलिए धारा 144 बनाई गई जिसमें पांच से अधिक लोगों का एक साथ जमा हो कर गपशप करना भी गुनाह है। इसी कानून में धारा 107 और धारा 151 भी है जिसमें आप अगर घर में बैठे हुए हों और आराम से टीवी देख रहे हों तो भी पुलिस का कोई सिपाही या हवलदार आपको उठा कर ले जा सकता है क्योंकि उसकी विद्वान बुद्वि के मुताबिक कानूनी भाषा में आपको निरूध्द नहीं किए जाने से समाज में अशांति फैलने की आशंका है। आपको कोई तर्क नहीं दिया जाएगा, आपके पास जमानत के सिवा और कोई विकल्प नहीं होगा और इसी आदिकालीन कानून में जमानत की अर्जी की जो भाषा है उसके अनुसार आप पहले अकारण अपना अपराध मंजूर करते हैं और फिर अदालत से आवेदन करते हैं कि आप एक सभ्य नागरिक की तरह आचरण करेंगे और पुलिस ने अगर आपके आचरण को सभ्य नहीं पाया तो वह आपको हवलदार के विवेक के आधार पर कभी भी गिरफ्तार कर सकती है। 

एक पुरानी कहावत है कि कानून तो होता ही उन लोगों के लिए है जो कानून तोड़ते हैं। इस कहावत का सार यह है कि जिन लोगों को कानून तोड़ने की आदत ही पड़ गई है उन्हें काबू में रखने के लिए कानून बनाया गया। यह अपने आप में एक विकट विरोधाभास है क्योंकि जो कानून तोड़ना चाहते और तोड़ना जानते हैं, उनके लिए कोई भी कानून हो उससे फर्क नहीं पड़ता। बाकी सब जानते हैं कि हत्या करने पर फांसी और बलात्कार करने पर उम्र कैद की सजा है मगर अपने देश में रोज औसतन 5 हत्याएं और 3 बलात्कार होते हैं। यहां यह आंकड़ा उन मामलों का हैं जो अदालत तक पहुंचे हैं। बहुत सारे मामले तो कभी अदालत तक पहुंच ही नहीं पाते। 

क्या आपको इस बात की जरूरत महसूस नहीं होती कि हमारे देश में और हमारे जैसे समाज में न्याय के अधिकार को लागू करने के लिए ही एक सक्षम कानून होना चाहिए? इस कानून के जरिए कम से कम यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि थाने में कोई भी शिकायत हो तो उसकी एफआईआर लिखी जाए और यह भी कि अगर किसी ने अपनी दुश्मनी निकालने के लिए नाहक एफआईआर लिखवाई है और झूठे तथ्य दिए हैं तो उसके खिलाफ भी इसी कानून की धाराओं में किसी कड़ी सजा का प्रावधान हों। 

हरि शंकर परसाई ने कहीं लिखा था कि जब नई शादी करनी हो तो उसके लिए पुरानी पत्नी में हजारों खोट खोजे जाते हैं। यही बात हमारे कानून पर भी लागू होती हैं। नए कानून बनाने की प्रक्रिया में मौजूदा कानून की इतनी खामिया गिनाई जाती है कि यह सवाल पूछने का मन करने लगता है कि अगर पुराना कानून गड़बड़ था तो उसकी धाराओं के तहत जिन लोगों को सजा दी गई है उन्हें छोड़ क्यों नहीं दिया जाता? जिन्हें मौजूदा कानून के तहत फांसी पर चढ़ाया गया है उनके परिवारों को माफी मांगते हुए मुआवजा क्यों नहीं दिया जाता? 

आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई असल में समाज को लड़नी है और कानून की भूमिका इस लड़ाई में मित्र की होगी या होनी चाहिए जो नागरिक का हमेशा साथ दे। नए और समदर्शी किस्म के जो कानून तात्कालीक परिस्थितियों से निपटने के लिए बनते हैं, उनके साथ यह खतरा हमेशा बना रहता है कि जिन परिस्थितियों से जूझने के लिए यह कानून बनाए गए हैं उनके अलावा भी इनका दुरुपयोग किया जाएगा। दिल्ली पुलिस में आतंकवादी और देशद्रोही घटनाओं और उनके अभियुक्तों से निपटने के लिए जो स्पेशल सैल बनाया गया है, उसने तो मुझे भी एक छोटा सा आर्थिक मामला बना कर बंद कर दिया था जबकि दिल्ली पुलिस के पास आर्थिक अपराधों से निपटने के लिए एक विशेष पुलिस शाखा अलग से है। अपना उदाहरण इसलिए दिया क्योंकि यह एक भोगा हुआ यथार्थ है। इसलिए आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ नए कानून और नई एजेंसी का स्वागत कीजिए मगर साथ में यह उम्मीद भी करिए कि सरकार की नीयत निश्पाप होगी और कानून की धाराओं का इस्तेमाल आम आदमी को अकारण सताने में नहीं किया जाएगा।
(शब्दार्थ)

Monday, December 15, 2008

श्रीरंगपट्टनम होते हुए .....

रीता तिवारी
मैसूर। कर्नाटक की राजधानी बंगलूर से कोई १४0 किमी दूर स्थित इस ऐतिहासिक व पौराणिक शहर में हर कदम पर राजशाही के निशान बिखरे हैं। शहर के हर कोने में या तो वाडियार राजओं का बनवाया कोई महल है या फिर कोई मंदिर। पौराणिक मान्यता के मुताबिक, शहर से ऊपर चामुंडी पहाड़ी पर रहने वाली चामुंडेश्वरी ने इसी जगह पर महिषासुर को मारा था। पहले इस शहर का नाम महीसूर था जो बाद में धीरे-धीरे मैसूर बन गया। महाभारत के अलावा सम्राट अशोक से भी इस शहर का गहरा रिश्ता रहा है। वाडियार राजओं के शासनकाल में फले-फूले इस मंथर गति वाले शहर का मिजज अब भी राजसी है। मंथर इसलिए कि शहर में आम जनजीवन काफी सुस्त है। वाहनों की रफ्तार पर भी अंकुश है। शहर की चौड़ी सड़कों पर ४0 किमी प्रति घंटे से ज्यादा गति से कोई वाहन चलाने पर पाबंदी है।
शहर की गति भले सुस्त हो, लेकिन अगर लोगों व प्रशासन का उत्साह देखना हो तो यहां दशहरे में आना चाहिए। यहां का दशहरा दुनिया भर में मसहूर है। उस दौरान देश-विदेश से बारी तादाद में सैलानी यहां जुटते हैं। आम तौर पर इस शांत व सुस्त शहर को उन दिनों लगभग दो महीने पहले से ही पंख लग जते हैं। इसके दौरान शहर मानों फिर से राजशाही के दौर में लौट जता है। इसके लिए पूरे शहर में साफ-सफाई का काम महीनों पहले शुरू हो जता है। मैसूर राजमहल व शहर के दूसरे महलों को भी दुल्हन की तरह सजया जता है। बंगलूर से शहर में घुसते ही एक विशाल स्टेडियम नजर आता है। स्थानीय निवासी मुदप्पा बताते हैं कि इस स्टेडियम में दशहरा उत्सव के दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए जते हैं। साल के बाकी दिनों में इस स्टोडियम का इस्तेमाल सामूहिक विवाह जसे सामुदायिक कार्यो के लिए होता है। वे कहते हैं कि मैसूर का सौंदर्य देखना हो तो दशहरे के दौरान यहां आना चाहिए। 
शहर की अर्थव्यवस्था के दो मजबूत स्तंभ हैं। पहला सिल्क उद्योग व दूसरा पर्यटन । साथ ही चंदन की लकड़ियों से बनी वस्तुएं भी बहुतायत में मिलती हैं। दशहरा उत्सव के दौरान शहर के तमाम होटल महीनों पहले से ही बुक हो जते हैं। दशहरा उत्सव के लिए नागरहोल नेशनल पार्क से हाथियों दस्ता भी शहर में आता है। इस उत्सव की शुरूआत चामुंडेश्वरी मंदिर में पूज के साथ होती है। इस दौरान मैसूर राजमहल पूरे दस दिन बिजली की रोशनी में चमकता रहता है।
वर्ष १७९९ में टीपू सुल्तान की मौत के बाद यह शहर तत्कालीन मैसूर राज की राजधानी बना था। उसके बाद यह लगातार फलता-फूलता रहा। विशाल इलाके में फैले इस शहर की चौड़ी सड़कें वाडियार राजओं की यादें ताज करती हैं। शहर की हर प्रमुख सड़क इन राजओं के नाम पर ही है। राजओं के बनवाए महलों में से कुछ अब होटल में बदल गए हैं तो एक में आर्ट गैलरी बन गई है। मैसूर राजमहल से सटे एक भवन में राज के वंशज एक संग्रहालय भी चलाते हैं।
शहर के आसपास भी देखने लायक जगहों की कोई कमी नहीं है। कावेरी बांध के किनारे बसा विश्वप्रसिद्ध वृंदावन गार्डेन, चामुंडी हिल्स, ललित महल, चिड़ियाखाना, जगमोहन महल, टीपू सुल्तान का महल व मकबरा--यह सूची काफी लंबी है। मशहूर पर्वतीय पर्यटन स्थल ऊटी भी यहां से महज १५0 किमी ही है। यही वजह है कि यहां पूरे साल देशी-विदेशी पर्यटकों की भरमार रहती है। 
बंगलूर से निकल कर मैसूर जने के दौरान हाइवे के किनारे बने एक दक्षिण भारतीय होटल में दोपहर के खाने के दौरान ही दक्षिण भारत की पाक कला की ङालक मिलती है। तमाम वेटर पारंपरिक दक्षिण भारतीय ड्रेस में। दक्षिण भारत में लंबा अरसा गुजरने के बाद इडली की विविध आकार-प्रकार इसी होटल में देखने को मिले। मैसूर पहुंच कर होटल में कुछ देर आराम करने के बाद हमारा भी पहला ठिकाना वही था जो यहां आने वाले तमाम सैलानियों का होता है। यानी वंृदावन गार्डेन। होटल के मैनेजर ने सलाह दी कि जल्दी निकल जइए वरना गेट बंद हो जएगा। वहां पहुंच कर कार की पार्किग के लिए माथापच्ची और भीतर घुसने के लिए लंबी कतार। खैर, भीतर जकर तरह-तरह के रंगीन ङारनों के संगीत की धुन पर नाचते देखा। लेकिन सबसे दिलचस्प है ङाील के पास गार्डेन के दूसरी ओर का नजरा। न जने कितनी ही ¨हदी फिल्मों में हीरो-हीरोइन को ठीक उसी जगह गाते देख चुकी थी। पुरानी यादें अतीत की धूल ङाड़ कर एक पल में सजीव हो उठी। उस बागान में टहलते हुए मन में रोमांच के साथ-साथ गर्व भी महसूस होता है। लगता है कि कभी इसी जगह जितें्र ने रेखा और श्रीदेवी के साथ कई नृत्यों की शू¨टग की होगी। काश समय को पीछे खींच कर ले जया ज सकता। दो घंटे वहां गुजरने के बाद भी दिल नहीं भरता। लेकिन मजबूरी है-अब गार्डेन बंद होने का समय है। एक चौकीदार पर्यटकों को बाहर निकलने को कह रहा है।
अगले दिन पहाड़ी के ऊपर चामुंडेश्वरी मंदिर में जकर दर्शन और पूज से दिन की शुरूआत होती है। मंदिर के सामने ही महीषासुर की विशालकाय मूर्ति है। मन में किसी राक्षस के बारे में जसी कल्पना हो सकती है, उससे भी विशाल और भयावह। मंदिर के करीब से पूरे मैसूर शहर का खूबसूरत नजरा नजर आता है। नीचे उतरते हुए मैसूर रेस कोर्स का फैलाव नजर आता है। हमारा अगला पड़ाव है मैसूर का राजमहल। कैमरा और बैग वगैरह मुख्यद्वार के पास ही टोकन के एवज में जमा करना पड़ता है। अब यह पुरात्तव विभाग के अधीन है। वहां सुरक्षा के लिहाज से पुलिस के जवान तैनात हैं। महल की खूबसूरती और वास्तुकला एपने आप में बेजोड़ है। यह तय करना मुश्किल है कि राजदरबार ज्यादा भव्य है या रनिवास। महल परिसर में ही चंदन की लकड़ी और अगरबत्तियां बिकती हैं। सब खरीद रहे थे लिहाज हमने भी खरीदी। निशानी के तौर पर। यूं यह सब चीजें कोलकाता के कर्नाटक इम्पोरियम में भी सहज ही मिल जती हैं। लेकिन लगा कि जब यहां तक आए हैं तो कुछ ले ही लेना चाहिए।
वहां से निकलने के बाद ज्यादातर लोगों की तरह हम भी बाजर की ओर निकल पड़े। मौसूर सिल्क की साड़ियों के दीदार के लिए। साड़ियां तो बहुत-सी जंची। लेकिन एक दिक्कत थी। जो साड़ी जंचती थी उसके दाम सुन कर एअरकंडीशन दुकान में भी माथे पर पसीना छलकने लगता था। और जो कुछ कम कीमत की थी वह जंचती नहीं थी। हां और नहीं की कश्माकश में कुछ देर उलङाने के बाद यही सोच कर एक साड़ी ले ली कि आखिर पड़ोसियों से क्या कहूंगी। यहां आने के पहले दो-तीन पड़ोसनें कह गई थीं कि ज रही हो तो साड़ी जरूर ले लेना। मेरे वो पिछली बार वहां से बहुत बढ़िया साड़ी ले आए थे। पानी की कीमत में। अब लगा कि उसकी बातें कितनी सच थी। तीन दिन के सफर के आखिर में हिसाब लगाया तो पता चला कि पड़ोयिों के फेर में बजट से लगभग दोगुने पैसे खर्च हो गए। भला हो इन बैंकों का जिन्होंने अब जगह-जगह एटीएम मशीनें लगा दी हैं और बेहिचक क्रेडिट कार्ड बांट रहे हैं। वरना होटला का बारी-भरकम बिल चुकाना ही भारी पड़ता। 
खैर, वापसी में बंगलूर से कोलकाता की उड़ान शाम को थी। इसलिए तय हुआ कि रास्ते में श्रीरंगपट्टनम होते हुए निकलेंगे। श्रीरंगपट्टनम यानी टीपू सुल्तान की बसाई नगरी और राजधानी। वहां अब टूपी सुल्तान का मकबरा है। काफी भीड़ जुटती है वहां भी। देखने के लिए टिकट लेना पड़ता है। वहां जगह-जगह पुरानी पेंटिग्स हैं जिनमें टीपू सुल्तान को अंग्रेजों से लोहा लेते हुए दिखाया गया है। यहां आकर स्कूली किताबों में पढ़े वे तमाम अध्याय बरबस ही याद आने लगते हैं जो जीवन की आपाधापी में मन के किसी कोने में गहरे दब गए थे।
यहां एक और बात का जिक्र जरूरी है। कोलकाता से पहुंचने के बाद बंगलूर एअरपोर्ट से निकलने के बाद पूरे शहर में जहां भारी ट्रैफिक जम से पाला पड़ा था। तब बंगलूर भी कहीं से कोलकाता जसा ही लगा था। लेकिन शहर की सीमा से निकल कर मैसूर की ओर बढ़ते ही राज्य सरकार की ओर से बनवाया गया बंगलूर-मैसूर हाइवे देख कर यह धारणा कपूर की तरह उड़ जती है। चिकनी सड़क पर न कहीं कोई गड्ढा, न कोई गंदगी और न ही ट्रैफिक जम। एक जगह का जिक्र किए बिना यह कहानी अधूरी ही रह जएगी। बंगलूर-मैसूर हाइवे पर ही स्थित है रामनगर। ऊंची-ऊंची चट्टानों से घिरा रामनगर वही जगह है जहां जी.पी.सिप्पी ने अपनी मशहूर फिल्म शोले का सेट लगा कर उसे रामगढ़ में तब्दील कर दिया था। उन पहाड़ियों को देखते ही शोले का दृश्य आंखों के सामने सजीव हो उठता है। लगता है मानो अभी किसी कोने से आवाज आएगी-तेरा क्या होगा कालिया?www.janadesh.in

Friday, December 12, 2008

शांति तलाश रहा शांतिनिकेतन



शांति तलाश रहा शांतिनिकेतन
रीता तिवारी
कोलकाता।शांतिनिकेतन का चेहरा तेजी से बदल रहा है। कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में बोलपुर नामक प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर एक गांव में जब इसकी स्थपना की थी तब यह अपने नाम को सार्थख करता था। लेकिन अब यह अपने नाम को ही मुंह चिढ़ाता नजर आ रहा है। बीते एक-डेढ़ दशक के दौरान इस कस्बे के शहरीकरण की प्रक्रिया इतनी तेज हो गई है कि इसमें शांतिनिकेतन को तलाशना मुश्किल है। यहां अब सब कुछ है सिवाय शांति के। अभी दस साल पहले तक यहां किसी भी घर की खिड़की से सरसों के पीले फूलों से भरे खेत नजर आते थे। लेकिन अब वहां उन खेतों में फूलों की जगह बहुमंजिली इमारतें उघ आई हैं। 
बीते खास कर 10 वर्षों में शांतिनिकेतन का चेहरा ही बदल गया है। कभी गांव जैसा रहा यह कस्बा अब शहरीकरण की पूरी चपेट में आ गया है। जाने-माने चित्रकार जोगेन चौधुरी कभी अपने बागान में पक्षियों के कलरव के बीच चित्र बनाया करते थे। लेकिन अब यह कलरव कभी सुनाई नहीं देता। इसकी जगह अब वाहनों के शोर ने ले ली है। अब स्थानीय लोगों ने शांतिनिकेतन की हवा और पानी को प्रदूषण से बचाने की पहल करते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की है।
कविगुरू रवींद्रनाथ टैगोर ने जिस माहौल को ध्यान में रखते हुए कोलकाता से लगभग डेढ़ सौ किमी दूर बोलपुर में शांतिनिकेतन की स्थापना की थी, वह माहौल बीते तकरीबन एक दशक में तेजी से बदला है। किसी जमाने में अपनी शांति और प्रदूषणमुक्त माहौल और विश्वभारती विश्विद्यालय के  लिए दुनिया भर में मशहूर रहे शांतिनिकेतन की छवि अब पर्यटकों के सैरगाह के तौर पर विकसित  हो रही है। क्रांकीट के तेजी से पसरते जंगल में इसका असली ग्रामीण स्वरूप कहीं खो गया है।  कच्चे मकानों की जह अब रोज नए सेटेलाइट टाउनशिप बन रहे हैं। राजधानी कोलकाता के धनाढय लोगों ने यहां अपने फार्म हाउस व पक्के मकान बनवा लिए हैं जहां वे महीने में दो-चार दिन अपने मित्रों व परिजनों के साथ छुट्टियां मनाने चले आते हैं। बोलपुर स्टेशन से बाहर निकलते ही अब या तो क्रांकीट की बड़ी-बड़ी इमारतें नजर आती हैं या फिर होटलों के बोर्ड। बाहरी लोगों की आवाजाही बढ़ने से लाज व होटलों की तादाद और कमाई बढ़ी है लेकिन साथ ही इस छोटे से  शहर का प्रदूषण भी तेजी से बढ़ा है। यह कस्बा तेजी से शहर में बदल रहा है। सबसे बड़ी दिक्कत सीवरेज की है। यह कस्बा न तो पंचायत समिति के अधीन है और न ही यहां कोई नगरपालिका है।
रवीद्रनाथ के पिता देवेंद्रनाथ टैगोर ने वर्ष  1863 में सात एकड़ जमीन पर एक आश्रम की स्थापना की थी। वहीं आज विश्वभारती है। रवीद्रनाथ ने 1901 में सिर्फ पांच छात्रों को लेकर यहां एक स्कूल खोला। इन पांच लोगों में उनका अपना पुत्र भी शामिल था।  1921 में  राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा पाने वाले विश्वभारती में इस समय लगभग छह हजार छात्र पढ़ते हैं।  इसी के ईर्द-गिर्द शांतिनिकेतन बसा था। बोलपुर रेलवे स्टेशन से इस विश्व विद्यालय तक तीन किमी लंबी पतली  सड़क पर पहले जहां सिर्फ रिक्शे नजर आते थे वहीं अब  तिपहिया स्कूटरों और कारों की भीड़ लगी रहती है।  
  अब इसे शहरीकरण के चंगुल से बचाने की पहल के तहत स्थानीय नागरिकों ने शांतिनिकेतन अंचल आवासिक समिति का गठन किया है। समिति ने इस इलाके का पर्यावरण, स्वरूप और धनी सांस्कृतिक  विरासत बचाने के  लिए कलकत्ता हाईकोरट में एक याचिका भी दायर की है। बीरभूम जिले में स्थित शांतिनिकेतन तक कोलकाता से मजह ढाई घंटे के ट्रेन के सफर में पहुंचा जा सकता है।  समिति के सुशांत टैगोर बताते हैं कि शांतिनिकेतन को व्यावसायिक नजरिए से कांक्रीट के जंगल में बदलने की सुनियोजित साजिश हो रही है। अब न्यायापालिका ही इसे बचा सकती है। कविगुरू ने अपनी आत्मकथा जीवन-स्मृति और आश्रमेर रूप ओ विकास में जिस खोवाई इलाके का बार-बार जिक्र किया था वह अब झोपड़ियों से पट गया  है और जल्दी ही  वहां नौ एकड़ जमीन पर एक आवासीय परियोजना शुरू होने वाली है। इसके अलावा वहां अब डुप्लेक्स मकानों की  लंबी कतारें भी नजर आने लगी हैं।  स्थानीय लोग 
कहते हैं कि अगर तेजी से हो रहे निर्माणों पर कोई अंकुश नहीं लगाया गया तो दस साल बाद यह जगह रहने लायक नहीं रह जाएगी। 
स्थानीय लोग मौजूदा हालात के लिए श्रीनिकेतन शांतिनिकेतन विकास प्राधिकरण (एसए सडीए) को  जिम्मेवार ठहराते हैं। उनका आरोप है कि प्राधिकरण को सिर्फ मुनाफा कमाने की चिंता है,स्थानीय विरासत को  बचाने की नहीं। प्राधिकरण अब यहां लाहाबंद में 24 एकड़ जमीन पर एक  मनोरंजन पार्क बनाने में जुटा है। इसे एक निजी कंपनी को सौंपा गया  है।  इस जमीन पर 17 एकड़ में फैला एक तालाब भी था। लोग बताते हैं कि इस तालाब के किनारे हर साल प्रवासी पक्षियों की भीड़ जुटती थी लेकिन अब उन्होंने अपना मुंह मोड़ लिया है।  बीते कुछ वर्षों से दूर-दराज से आने वाले पक्षियों की तादाद काफी कम हो चुकी है। लोकसभा अध्यक्ष और माकपा सांसद सोमनाथ चटर्जी ही उक्त प्राधिकरण के अध्यक्ष रहे हैं। उसके गठन के बाद हाल में इस्तीफा देने तक। प्राधिकरण के एक अधिकारी कहते हैं कि हमने तो मनमाने तरीके से होने वाले निर्माण पर अंकुश लगाया है। प्राधिकरण को अदालतों में कई मामलों पर काफी रकम खर्च करनी पड़ रही है लेकिन हम अपना काम जारी रखेंगे।  विश्वभारती से चार किमी दूर प्रांतिक रेलवे स्टेशन के  पास अब कई  नए रिसार्ट और सोनार तरी नामक आवासीय परियोजनाएं तैयार हो गई हैं।
लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं जो विकास को सही मानते हैं। विश्वभारती के वाइस-चांसलर सुजीत बसु कहते हैं कि अब हर जगह बदलाव की लहर चल रही है और शांतिनिकेतन भी कोई अपवाद नहीं है। वे कहते हैं कि आखिर हम घड़ी की सुईयों को उल्टा तो नहीं घुमा सकते न। विश्वभारती में पहले यह अलिखित परंपरा थी कि शांतिनिकेतन में कोई भी मकान कविगुरू के दोमंजिले मकान उदयन से ऊंचा नहीं होना चाहिए। लेकिन अब यह नियम भी बदल रहा है। अब हर मकान में तीन मंजिल की नींव देने की बात कही जा रही है।
विश्वभारती भी हाल के दिनों में गलत वजहों से सुर्खियों में रहा है। कभी टैगोर के नोबेल पदक की चोरी की वजह से तो कभी प्रेम प्रसंग के चलते परिसर में होने वाली हत्याओं के। इन घटनाओं ने विश्वविद्यालय में सुरक्षा व्यवस्था पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
 लेकिन क्या शांतिनिकेतन को शहर में बदलने से बचाना संभव है। इसका जवाब  फिलहाल किसी के पास नहीं है। लेकिन बाहर से यहां आकर बसने वालों को यहां  मकान बनवाने में कुछ भी गलत नहीं लगता। 65 वर्ष के राजा भट्टाचार्य ने बीते साल ही यहां एक फ्लैट खरीदा है। वे सवाल करते हैं कि अगर बाकी लोग यहां मकान खरीद और बनवा सकते हैं तो हम ऐसा  क्यों नहीं कर सकते?स्थानीय लोगों, पुराने वाशिंदों और प्रशासन के बीच शुरू इस तितरफा लड़ाई के क्या नतीजे होंगे और यह कब तक जारी रहेगी, यह तो बताना मुश्किल है लेकिन आने वाले दिनों में  इस मुद्दे के और तूल पकड़ने का अंदेशा है।

खतरे में है शांतिनिकेतन की सांस्कृतिक विरासत-महाश्वेता देवी
बांग्ला की जानी-मानी लेखिका महाश्वेता देवी शांतिनिकेतन के बदलते स्वरूप से चितिंत हैं। वे कहती हैं कि पर्यटन केंद्र बनाने के ना म पर शांतिनिकेतन का बेतरतीब तरीके से विकास किया जा रहा है। बहुमंजिली इमारतों के कारण पुरानी और ऐतिहासिक स्मृतियां मिट रही हैं। इसके चलते विश्वभारती का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। यह दूसरे केंद्रीय विश्वविद्यालयों की तरह महज एक विश्वविद्यालय बन कर रह गया है। बीते कुछ  वर्षों के दौरान शांतिनिकेतन और आसपास के इलाके में बड़े पैमाने पर होने  वाले निर्माण के चलते कविगुरू का आश्रम और खोवाई इलाका संकट में पड़ गया है। बसंतोत्सव और पौष मेला का ऐतिहासिक महत्व है लेकिन प्रशासन इनका इस्तेमाल पर्यटकों को लुभाने के लिए कर रहा है। सोनार तरी नामक आवासीय परियोजना से पर्यावरण के लिए खतरा पैदा हो गया है क्योंकि इन फ्लैटों का कूड़ा-कचरा और गंदगी साफ करने के कोई इंतजाम नहीं किए गए हैं।
लाहाबांध में 17 एकड़ इलाके में फैला तीन सौ साल पुराना जलाशय पाट कर एक  मनोरंजन पार्क और गोल्फ कोर्स बनवाया जा रहा है। यह जलाशय टैगोर और उनके शिष्यों का प्रिय रहा है। इलाके से चुन-चुन कर इस तरह की ऐतिहासिक यादों को मिटाने का प्रयास किया जा रहा है। तमाम नियमों की अनदेखी  कर विश्वभारती के  पास ही शराब की चार दुकानों को लाइसेंस दिए गए हैं। इससे 
विश्वभारती की संस्कृति नष्ट होगी। मैंने राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री का ध्यान भी इस ओर आकर्षित किया है और जरूरत पड़ने पर राज्य सरकार से भी बात करूंगी। तेजी से बन रही आधुनिक इमारतों के कारण शांतिनिकेतन का मूल स्वरूप ही नष्ट हो गया है।
फोटो-एक छात्र की हत्या के बाद शोक जुलुस

Wednesday, December 3, 2008

मीडिया का मोतियाबिंद

शंभूनाथ शुक्ल
मुंबई में ताज और ओबराय होटल में हुए बम विस्फोट  के बाद
पहली बार अचानक मध्य वर्ग राजनेताओं के प्रति बेहद आक्रामक हो
उठा है। इसकी एक जह तो यह है कि इस बार की आतंकी घटना
ने उन लोगों को भी परेशान कर दिया है जो कभी मुंबई की
लोकल ट्रेनों या दिल्ली की डीटीसी अथा कनॉट प्लेस के
फुटपाथों पर नहीं चले। जिन्हें कभी कचहरियों के  चक्कर नहीं
लगाने पड़ते और कभी भी भीड़ भरे रेले स्टेशनों या बस
अड्डों पर खड़ा नहीं होना पड़ा। उन्हें इस बार टीवी 
की अनरत और धाराहिक की तरह चलने वली आतंकी रिपोर्टिग
ने दहला दिया है। घरों में औरतें और बच्चे रात-रात भर टीवी
के स्टार पत्रकारों की फूली-फूली आंखें और उनके भर्राए
गलों को देखते रहे। सुरक्षा बलों की कार्रा ई की सीधी करेज
ने सुरक्षा दस्तों  पुलिस के शहीद अफसरों के  प्रति लोगों में
कृतज्ञता का भाव  भी भरा। ओज और व ीरता का बखान सबसे ज्यादा
भानाओं को उद्यत करता हैं। नेताओं की बयानबाजी ने भी
उन्हें चिढ़ाया। और फिर ऐसे-ऐसे एसएमएस का बाजार गर्म हो
गया जिन्हें पढ़कर लगता है कि हमें सिर्फ पुलिस और प्रशासन के
अफसर ही आतंकाव द से बचा सकते हैं।
लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभ हैं- व्यस्थापिका, कार्यपालिका,
न्यायपालिका। तीनों की साङाी व्यवस्था ही लोकतंत्र को चलाती है।
मीडिया को लोकतंत्र में सबसे ज्यादा छूट होती है। चूंकि उसकी
भूमिका जनता को लोकतंत्र के  इन तीनों पहरुओं के कामकाज से
अगत कराने की होती है इसीलिए उसे भी चौथे स्तंभ का
अनौपचारिक दर्जा मिला है। लेकिन २६ नंबर की घटना के बाद विजुअल
 मीडिया ने अचानक जो भूमिका ओढ़ने की कोशिश की है उसने
समूचे लोकतंत्र के लिए ही साल खड़ा कर दिया है। कोई भी
राजनेता लोकतंत्र से बड़ा नहीं होता क्षसलिए यह कहना कि हमें
खतरा बोट के जरिए आए आतंकियों से नहीं वोट  के  जरिए
सत्तारूढ़ हुए नेताओं से ज्यादा है, एक तरह से लोकतंत्र का ही
मजाक उड़ाना है। अगर हमें नेता ठीक नहीं लगते तो हम
उन्हें चुना में मजा चखा सकते हैं। लेकिन समूचे लोकतंत्र को
इस तरह नाकारा साबित करने का क्या मतलब? क्या सुरक्षा बल अथा
प्रशासन के लोग इतने ही चुस्त-दुरुस्त होते हैं जैसे कि टीवी  में
दिखाए गए? और अगर हां तो फिर बाटला हाउस कांड में दिल्ली
पुलिस और साध्ी प्रकरण में  मुंबई की एटीएस सालों के घेरे
में क्यों है? क्यों अलग-अलग समुदायों को इनकी भूमिकाएं राजनीति
से प्रेरित नजर आ रही हैं? क्या इन पुलिस टीमों को राजनेताओं
ने ऐसा करने को कहा और अगर यह सच है तो इन टीमों के
लीडरों ने अपने ेिक से काम क्यों नहीं लिया?
ऊपर के  दबा की बात बनाना सच्चई से मुंह छिपाना है। जब हम
कमजोर होते हैं तो सिस्टम में गड़बड़ी या ऊपर की दखलंदाजी
की बात करने लगते हैं। जो लोग आज हमें राजनीतिकों को
जोकर एं पुलिस-प्रशासन को बहादुर बता रहे हैं व भूल जाते
हैं कि क्यों आखिर इतने बहादुर और जांबाज लोगों के रहते
हुए भी हमारी पुलिस ने आज तक कोई ऐसा नामी गिरामी माफिया या
डान क्यों नहीं मारा जो पहले से चर्चित रहा हो। क्यों सारे
एनकाउंटर के बाद पुलिस बताती है कि मारा गया व्यक्ति अमुक
संगठन का स्यंभू कमांडर या बड़ा अपराधी था। इन एनकाउंटर
शेिषज्ञ पुलिस अफसरों में से ज्यादातर अपनी नामी और बेनामी जायदाद
के कारण ािदों में क्यों हैं? नौकरशाही और सुरक्षा बलों
के अफसरों का ग्राफ कोई बहुत शानदार नहीं है। जम्मू काश्मीर
में उनकी भारी दखल के बाजूद हालात हां काबू में पिछले तीन
दशकों से क्यों नहीं आ रहे हैं? बांग्लादेशियों की घुसपैठ से
नाक भौं सिकोड़ने वला मध्य वर्ग भूल जाता है कि इस पूरी सीमा पर
सीमा सुरक्षा बल के जान तैनात हैं फिर े घुसपैठ पर अंकुश
क्यों नहीं लगा पाते?
राजनीतिक समस्याओं का हल राजनीति से ही निकलता है। वट के
जरिए हम भ्रष्ट एंव  निक मे राजनेताओं को धूल चटा सकते हैं।
लोकतंत्र को अंटशंट बताने से हम न तो देश का भला कर रहे
होते हैं न ही किसी समस्या का हल निकाल रहे होते हैं। एनएसजी
के कमांडोज निश्चय ही बड़े बहादुर और अत्याधुनिक हथियारों
से लैस होते हैं पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि हर समस्या का हल
एनएसजी  एटीएस को ही मान लिया जाए। जनता के वटों से चुने गए
हमारे लोकतंत्र को नाकारा बताने में ही लोग ज्यादा रुचि ले
रहे हैं जिनकी नजरों में हमारा लोकतंत्र भदेस, अनगढ़ तथा
गांरू है। उन्हें अंग्रेजी बोलने व ला, एसएमएस के जरिए वोट
करने व ाला और शेयर बाजार पर टिका लोकतंत्र चाहिए। अपना सपना
मनी मनी टाइप मध्य व र्ग शेयर बाजार के धड़ाम होने से बेचैन है।
पर क्या कभी उसने उन लाखों किसानों के बारे में सोचा जो
पिछले कई र्षो से सेज और खेती की जमीनों के शहरीकरण के
चलते बेघरबार हो गए हैं। हताशा और बेव सी में हर साल
हजारों किसान  मजदूर खुदकुशी कर लेते हैं। इन्हें कोई
सुरक्षा बल नहीं बचा सकता इन्हें राजनीति ही बचाएगी। जरूरी नहीं कि
उस राजनीति में व वे लोग हों जो आज समुदायों की भानाओं से
खिलाड़ कर रहे हैं। टी के जो पत्रकार लाखों रुपए माहाव र
पाकर बताएं कि देखिए हम आपको ताजा दिखाने के लिए खुद कितने बासी
होते जा रहे हैं और इसलिए आपसे गुजारिश करते हैं कि देश
ये अनगढ़ और अनपढ़ राजनेता नहीं चला सकते, व  े क्या सच बात कर
रहे हैं? तब क्यों नहीं इन्होंने ीपी सिंह की मृत्यु की खबर भी
उसी तत्परता से दिखाई। पूना के फग्र्युसन कालेज से ज्ञिान स्नातक
ीपी सिंह यूपी के  एक बड़े जागीरदार परिार से ताल्लुक रखते थे।
एक जमाने में े मध्यर्ग और अंग्रेजी पढ़ी लिखी जमात के हीरो थे।
सेना, पुलिस और प्रशासन के अफसरों के बीच व े अत्यंत लोकप्रिय थे
क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री राजी गांधी के बोफर्स तोप सौदे
में दलाली लिए जाने का भंडाफोड़ किया था। यह अलग बात है कि ह
आरोप कभी साबित नहीं हुआ। पर प्रधानमंत्री बनने के बाद जब
उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं तो वे मध्य
र्ग की नजरों से अचानक खारिज कर दिए गए।
आज जो लोग राजनीति और राजनेताओं से मुक्ति की बात कर रहे
हैं व े भूल जाते हैं कि एक राजनेता में व ैध्यि होता है इसीलिए
व ह बड़ा होता है। चाहे जितना कुलीन समाज का नेता हो जनता के
बीच उसे रमना-रचना होता ही है। राहुल गांधी भले दिखो के
लिए कर रहे हों लेकिन जेठ-बैशाख की लू के बीच वे बुंदेलखंड
गए और गांव -गांव घूमे। मायाती, लालू या मुलायम सिंह भले जातिवादी
राजनेता माने जाते रहे हों लेकिन सत्ता में आने के बाद
उन्होंने कभी भी जातिव दी राजनीति नहीं की है।
(लेखक अमर उजाला में कार्यकारी संपादक हैं)