Thursday, September 30, 2010

और खिल उठे भगवा ब्रिगेड के चेहरे


अंबरीश कुमार
लखनऊ, ।अयोध्या विवाद के साठ साल बाद आए फैसले से हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को नई ऊर्जा मिल सकती है। अयोध्या से लेकर लखनऊ और दिल्ली तक भगवा ब्रिगेड के चेहरे खिल उठे हैं। फैसले की खबर मिलते ही अयोध्या के कारसेवक पुरम में महंत नृत्य गोपाल दास साधू-संतों से निपट गए। तो दूसरी तरफ उमा भारती से लेकर कल्याण सिंह तक ने तहे दिल से अदालत का आभार जताया। भारतीय जनता पार्टी ने फैसले पर ख़ुशी जताते हुए आम जनता से संयम से काम लेने की अपील की । कल तक जो यह कहते थे की अयोध्या में विवादित स्थल में राम लला का जन्म हुआ था आज अदालत ने उसपर मोहर लगा दी। हालांकि वाम दल इस फैसले को सबको संतुष्ट करने वाला राजनैतिक फैसला मान रहे हैं। पर हिंदुत्ववादी ताकतें अब अगले कदम की तैयारी में जुट गयीं हैं। इन ताकतों के मुताबिक यह तो साफ़ हो गया कि अयोध्या में मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई गई थी और उसी जगह पर रामलला का जन्म हुआ था। अब अगला कदम राम मंदिर का होगा। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कहा- 'अयोध्या में रामलला का मंदिर आस्था और विश्वास का मुद्दा रहा है। हिन्दुओं का ये मानना रहा है कि रामलला का जन्म यहाँ हुआ था। आज अदालत ने भी इसे स्वीकार कर लिया है । अब अयोध्या में रामलला का मंदिर बनाने का रास्ता साफ़ हो गया है।
भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डॉ. गिरीश ने कहा-अयोध्या विवाद पर आज के फैसले से हिन्दुत्ववादी ताकतों के हौसले बुलंद हो सकते हैं। वैसे भी यह फैसला सभी को संतुष्ट करने वाला फैसला प्रतीत होता होता है। दूसरी तरफ भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) ने कहा है कि अयोध्या विवाद का संतोषजनक हल देने में इलाहाबाद हाईकोर्ट असफल साबित हुआ है।
भाकपा (माले) के राज्य सचिव सुधाकर यादव ने अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में कहा कि यह फैसला स्थापित कानूनी मान्यताओं के परे जाकर राजनैतिक नज़र आता है। उन्होंने कहा कि असंतुष्ट पक्ष को सर्वोच्च न्यायालय में जाने का पूरा अधिकार है और देश को धैर्य और संयम के साथ अब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ने अयोध्या मामले में उच्च न्यायालय इलाहाबाद की विशेष पीठ के फैसले का स्वागत किया है। शाही ने कहा-हाईकोर्ट का फैसला आनन्द का विषय है साथ ही इस निर्णय से अयोध्या में रामलला के भब्य मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ है। शाही ने आग्रह करते हुये कहा कि सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावे को हाईकोर्ट द्वारा खारिज किये जाने को जय पराजय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। शाही ने कहा कि हाईकोर्ट के निर्णय ने वर्षो से चली आ रही मान्यता की पुष्टि की है कि अयोध्या में जहां पर रामलला विराजमान हैं वही पर उनका जन्मस्थान है। उन्होंने कहा कि आज का निर्णय अयोध्या में भब्य राम मन्दिर बनाने की दिशा में निर्णायक कदम होगा मैं इसका स्वागत करता
हूँ। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र ने कहा कि आज का दिन एतिहासिक है क्योंकि अयोध्या मामले में बहुप्रतिक्षित मुकदमें का हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया है। उन्होंने कहा कि अयोध्या में विवादित भूमि को लेकर विवाद होते रहे हैं तरह-तरह की बातें कहीं जाती रही हैं लेकिन आज के निर्णय में तीनों ही माननीय न्यायाधीशों ने यह माना कि विवादित स्थल ही रामजन्म स्थल है। मिश्र ने कहा कि न्यायालय ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर ही विवादित स्थल को रामजन्म स्थल माना। उन्होंने कहा कि हम न्यायालय के निर्णय का सम्मान करते हैं एवं समाज के सभी धर्म-पंथ के लोगों से अपील करते हैं कि वे मन्दिर निर्माण के लिए आगे आएं।

अयोध्या में न्याय की षष्टिपूर्ति

आलोक तोमर
अयोध्या कांड में न्याय ने मामले की षष्ठिपूर्ति कर दी और इस अवसर पर काफी संशय दूर कर दी। यह जरूर है कि खुद उच्च न्यायालय को मालूम था कि अपील की जाएगी और इसके लिए तीन महीने का समय दे दिया गया है। सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा हालांकि समय सीमा पूरी हो जाने के कारण खारिज किया गया मगर वैसे भी कानूनन इसे पात्र नहीं माना जा रहा था। विस्तार मे फैसला आप अखबार और टीवी पर पढ़ चुके हैं और राम या अल्लाह में से जिसमें आपकी आस्था हो, उससे दुआ कीजिए कि न्याय का यह अवसर षष्टिपूर्ति के बाद शतायु होने के मौके तक नहीं पहुंचे।
पूरा देश दम साध कर इंतजार कर रहा था और फैसला कुल मिलाकर इस विवादित जमीन को राम जन्मभूमि मानने वालों के पक्ष में गया है। दो तिहाई जमीन निर्मोही अखाड़ा और राम जन्मभूमि न्यास को दी गयी है और बाहर की एक तिहाई जमीन मस्जिद के पक्षधरों को। फैसला जाहिर है कि अभी आखिरी नहीं है लेकिन बहुत वर्षों बाद न्यायपालिका की निर्णायकता पर फिर से मुहर लग गयी है। जो लगभग अज्ञात लोग सुलह की बात कर रहे थे और जिन्हें अदालत ने फटकार कर बाहर कर दिया, वे भी इससे बेहतर फैसला शायद नहीं ला सकते थे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि राम जन्म भूमि का वाकई राम जन्म भूमि होना भी कानूनी रूप से पहली बार प्रमाणित किया गया और भगवान राम को राम चबूतरे का मालिक बनाया गया। उम्मीद है कि सदभाव का जो माहौल दिखाई दे रहा है इसमें फैसला सामाजिक रूप से मंजूर किया जाएगा और देश अपनी उर्जा ढंग के काम में लगाएगा।
न्यायपालिका अयोध्या को लेकर हमेशा असमंजस और आपराधिक संशय में रही है। मामले शुरू हुए और पहली याचिका डालने वाले गोपाल चंद्र विशारद और दूसरे पक्ष के सारे पांच लोग अब दुनिया में नहीं हैं। फैजाबाद अदालत ने तो 1989 में ही कह दिया था कि इस मुद्दे पर सब कुछ कानून के दायरे में नहीं आ सकता, कुछ जनविश्वास औऱ आस्था पर भी छोड़ना पड़ेगा।
ऐसा भी कई बार हुआ है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय को इस विवाद का अधिकार क्षेत्र और कानूनी आधार निर्धारित करने के लिए खासतौर पर कहा औऱ एकबार तो आज से बीस साल पहले मामला अपने हाथ में ले लेने के संकेत भी दिए। कुछ तो वजह रही होगी कि उच्च न्यायालय ने अपवाद स्वरूप ही सही, सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को मानने से इंकार कर दिया। मुद्दा ही ऐसा था कि बहस बढ़ी तो बवाल हुआ।
सवाल सबसे बड़ा ये था कि पहली याचिका करने वाले और उसका जवाब देने वाले सारे मर गये। 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने राम मंदिर में हस्तक्षेप नहीं करने का आदेश देने की अपील की और मामला 1886 में वापस पहुंच गया। उस समय अंग्रेज जज कर्नल चेमियर ने कहा था कि यह सही है कि मंदिर गिराकर मस्जिद बनी है लेकिन इतना वक्त बीत गया कि अब उसको आधार नहीं माना जा सकता। साठ साल तक कानून न हिंदुओं की मदद कर सका न इस्लाम मानने वालों की, और अब भी यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में जाएगा, सात हजार से ज्यादा पन्नों की गवाहियां, डेढ़ हजार दस्तावेज औऱ वकीलों के तर्क पढ़े जाएंगे औऱ तब जाकर मामला शुरू होगा। जाहिर है कि न्यायपालिका अयोध्या के मामले में अपनी मति औऱ गति ठीक नहीं कर पायी है।
रही बात सुन्नी वक्फ बोर्ड की अपील की तो यह आजाद भारत का एक विचित्र किंतु सत्य तथ्य है । वक्फ बोर्ड भारत में इस्लामी संपत्तियों की रक्षा के लिए भारत सरकार द्वारा गठित संस्था है। इसको आईएएस अधिकारी चलाते हैं। मुकदमे का मतलब यह है कि भारत सरकार खुद भारत सरकार के खिलाफ अदालत में खड़ी है। इतना ही नहीं जिस मीर बाकी ने मंदिर गिरा कर मस्जिद बनाई थी, वह शिया संप्रदाय का था और सिर्फ इसी आधार पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा खारिज किया जा सकता था।
इसी कहानी में आगे यह सुनना भी जरुरी है कि मस्जिद के मामले में कोई भी कानूनी कार्रवाई मस्जिद के संरक्षक यानी मुतवल्ली ही कर सकते हैं। और बाबरी मस्जिद के मुतवल्ली मीर जावेद हसन मीर बाकी के वंशज हैं और अपने पूर्वज की मजार के पास अयोध्या से दस किलोमीटर दूर अंग्रेजों से मिली चालीस एकड़ जमीन पर खेती करते हैं। मीर जावेद हसन ने सुन्नी वक्फ बोर्ड की याचिका में शामिल होने से इंकार कर दिया था क्योंकि उन्होने कहा था कि वे शिया हैं। उन्होने तो यह भी कहा था कि मस्जिद को उनके गांव में स्थापित कर दिया जाय ताकि वे अपने पूर्वजों की बनाई मस्जिद में नमाज पढ़ सकें। मगर जहां मजहब से ज्यादा जरूरी सियासत हो, वहां तर्क कौन सुनता है।
यह सब इसके बावजूद है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड खुद औपचारिक औऱ सरकारी तौर पर जावेद हसन को बाबरी मस्जिद का मुतवल्ली करार दे चुका है। यह भी सही है कि वक्फ बोर्ड की याचिका तय समय सीमा से ग्यारह साल औऱ तीन सौ साठ दिन देरी से दायर की गई थी। इसलिए सुन्नी वक्फ बोर्ड की याचिका को सुना ही क्यों गया यह आश्चर्य की बात है। आश्चर्य की बात तो यह भी है कि वक्फ बोर्ड की पंजीकृत संपत्तियों में बाबरी मस्जिद का कहीं नाम ही नहीं है। मगर जैसा कि पहले कहा कि जहां सिर्फ बात के लिए बात की जा रही हो, वहां तर्क कौन सुनता है।
1989 में पहली जुलाई को देवकी नंदन अग्रवाल ने राम मंदिर की मालकियत के लिए मंदिर की ओर से अपील की थी औऱ इस पर राजीव गांधी की सरकार की उदारता कहें या एक सोची समझी नासमझी, दो दिन के अंदर फैसला हो गया, मंदिर के ताले खुल गये, वहां पूजा भी होने लगी औऱ वहां रखी मूर्तियों को को भी वैध मान लिया गया। यह सब कुछ दिल्ली के इशारे पर हुआ था इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि कुछ ही घंटे में ताले खुलने का दृश्य दिखाने के लिए दूरदर्शन के कैमरे अखिल भारतीय प्रसारण की व्यवस्था के साथ अयोध्या में मौजूद थे।
जहां तक मंदिर के अस्तित्व का सवाल है तो 1767 में यहूदी पादरी जोसेफ टिफिन थेलर ने राम नवमी के दिऩ हिंदू और मुस्लिम दोनों को मस्जिद के अहाते में राम नाम गाते हुए देखने का दावा किया। उनके वर्णन में मंदिर औरंगजेब ने गिराया औऱ इसके पहले यहां जो महल बना था उसका नाम रामखोट यानी राम का महल था। राम चबूतरा पर पूजा होने की पूष्टि तो 1870 में ब्रिटिश पर्यटक औऱ इतिहासकार पी कारनेगी ने भी की है। और तो औऱ 1858 में बाबरी मस्जिद के मुख्य मौलवी ने भी माना है कि मस्जिद के प्रांगण में राम की पूजा भी होती है। वैसे भी अयोध्या की बजाय फैजाबाद में ज्यादा औऱ अधिक भव्य मस्जिदें हैं औऱ वहां बाबरी मस्जिद से ज्यादा नमाज पढ़ने वाले और हज़ पर जाने वाले जायरीन पहुंचते रहे हैं। राम जन्म भूमि बनी रहे और अजान के सुर गूंजते रहें, इसमें ही देश का वाकई भला है।

Thursday, September 23, 2010

अयोध्या विवाद पर पक्षकार राजी नही तो सुलह कैसी ?


अंबरीश कुमार
लखनऊ सितंबर । अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला टालकर इस मामले में सुलह की जो संभावनाएं तलाशी जा रही ही उनपर फिर पानी फिरता नज़र आ रहा है । सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले बाद फिर सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से फिर यह यह साफ़ कर दिया गया कि इस मामले में वे देश की सबसे बड़ी अदालत में भी वही बात कहेंगे जो अब तक कहते आए है कि सुलह नही फैसला चाहिए । इस मामले के नब्बे वर्षीय मुस्लिम पक्षकार हाशिम अंसारी ने जनसत्ता से कहा - फैसला भले हफ्ते भर बाद आए पर फैसला होना चाहिए अब पंचायत या सुलह की कोई गुंजाइश नही है । यह सारा खेल कांग्रेस का है जिसने यह विवाद पैदा किया और अब फैसले को टालने की कोशिश में जुटी है । इस मामले को टलवाने में जहाँ कांग्रेस की भूमिका पर सवाल खड़ा हो रहा है वही भाजपा का भी सुर कांग्रेस के सुर में मिला हुआ है ।
राजनैतिक हलकों में माना जा रहा है कि फिलहाल यह मामला कुछ समय के लिए टल जाएगा । इस बीच कामनवेल्थ गेम्स और बिहार का चुनाव
निपट जाने से कांग्रेस को राहत मिल जाएगी । यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सबसे पहले कांग्रेस ने स्वागत किया । पर जिस मामले में सुलह के ग्यारह प्रयास हो चुके हों और कोई हल नहीं निकला हो उसके फिर सुलझ जाने की संभावना के क्या आधार होंगे यह कोई नही जनता ।तीन -तीन प्रधानमंत्री और शंकराचार्य तक इस मामले में पहल कर चुके है । इलाहाबाद हाईकोर्ट की जिस बेंच में यह मामला चल रहा है उसने भी जुलाई के आखिरी हफ्ते में सभी पक्षकारों से सुलह के बारे बातचीत की पर कोई तैयार नही हुआ ।
इस मामले में चार मुख्य दावेदार हैं- सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा, रामजन्मभूमि न्यास और दिवंगत गोपाल सिंह विशारद। इनके वकीलों की भी यही राय है कि सुलह की कोई कोशिश नही की गई गई हैं। निर्मोही अखाड़ा ने जरुर फैसले की तारीख तीन दिन बढ़ा कर 27 सितंबर करने की बात की थी। पर जबतक मुस्लिम पक्षकार सुलह के लिए राजी नही होंगे सुलह होगी किससे ,यह कोई नही बता रहा । सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी ने पहले ही कहा था कि कांग्रेस इस मामले को टालने की साजिश में जुटी है । आज भी उन्होंने याचिका करने वाले रमेश चन्द्र त्रिपाठी की भूमिका पर सवाल उठाया और कहा -इनके बारे में और भी जानकारी ली जा रही है । जिलानी ने साफ किया कि सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड का रुख वही है जो पहले था । इस मामले में सुलह की कोई गुंजाइश नही है सिर्फ मामले को लटकाया जा सकता है । दूसरी तरफ श्रीराम जन्म भूमि पुनरुद्धार समिति की वकील रंजना अग्निहोत्री ने कहा -मैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आहत हूं। इस पूरे मामले में त‍थाकथित राजनीतिक तत्वों ने वकीलों की मेहनत पर पानी फिरवा दिया है।
जनसत्ता

Monday, September 20, 2010

धान के खेतों में बत्तखों से मजदूरी




सुभाष चंद्र सिंह
आजमगढ़, सितम्बर । पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में इन दिनों किसान धान के खेतों में बत्तखों से मजदूरी करा रहे हैं । आपको इस बात पर भले ही विश्वास न हो लेकिन पिछले दस सालों से बत्तखें इस काम को बिना पैसे के बखूबी कर रही है ।
खरीफ की फसलों में धान की फसल बहुत ही मुख्य हैं । पूर्वी उत्तर प्रदेश में धान की खेती बहुत ही अधिक मात्र में होती हैं । यह किसानों के लिए बहुत ही मेहनत का काम होती है । समय-समय पर पानी देना उसमें उगने वाले खर- पतवार , कीडॆ-मकोडो व काई की सफाई के लिए खेत मजदूरों एवं कीट नाशकों पर हजारों रुपये खर्च करने होते है । लेकिन जौनपुर के कई गाँव में अब बत्तखें धान के खेत में खेत मजदूरों की जगह इस काम को कर रही है ।
पानी भरे धान के खेत में तैर- तैर कर बहुत ही सफाई से खेत में उगने वाले खर - पतवार, काई के साथ ही साथ धान की फसल को नुकसान पहुचानें वाले कीडॆ-मकोडो को भी खा जाती है । इसके अलावा वह पुरे खेत की निराई - गुडाई भी कर देती है । बत्तखों से इस काम को कराने के लिए किसान बत्तख मालिक के यहाँ लाइन लगा रहे हैं ।
बत्तख पालक सुन्नीलाल राजभर ने बताया कि उसने गरीबी से तंग आकर सन् २००० में बत्तख पालन का काम शुरू किया और फिर उसके अण्डों से उसका खर्च चलने लगा । बत्तखों को चराने के लिए मज़बूरी के कारण धान के खेत में घुसा देता था. बत्तखों ने धान के खेत में उगे खर- पतवार,कीडॆ-मकोडो व काई की सफाई कर डाली. उसकी फसल आस- पास के खेतों की तुलना में सबसे अच्छी हो गई.बस बत्तखों से खेत मजदूरी कराने का सिलसिला यही से शुरू हो गया.उसके दो लड़के हैं वह दोनों भी दिन भर बत्तखे ही चरते हैं । कभी इस खेत में तो कभी उस खेत में ।
सुन्नीलाल ने बत्तखों से धान की खेती में यह नायब तरीका खोज डाला । धान की खेती के समय किसान उससे संपर्क करते है और वह अपने बत्तखों को पानी भरे उनके खेतों में घुसा देता है । बत्तखों को पानी में रोकने के लिए गेंहू बिखेर दिया जाता है । बत्तखे गेंहू खोजने के चक्कर में पुरे खेत की निराई - गुडाई कर देती हैं व खर- पतवार , कीडॆ-मकोडो को भी खा जाती हैं वह भी बिना धान की फसल को कोई नुकसान किये.सबसे बड़ी बात यह है कि इस काम को वह बिना पैसे के करती है.सुन्नीलाल कहता है कि किसान अपने खेत में बत्तख चराने देते हैं बस उसके लिए इतना खाफी हैं ।
सुन्नीलाल के पास २७०० बत्तखें है वह इन बत्तखों से प्रति माह २ से ३ हज़ार रुपये कमा लेता है और हर तीसरे साल वह पूरी बत्तखों को बेच कर १-१.५ लाख रुपये तक की कमाई करता है.सतहडा निवासी आशुतोष ने बताया कि एक एकड़ धान के खेत में सिर्फ निराई - गुडाई में कम से कम २ हज़ार रुपये लग जाते थे इसके अलावा कीडॆ-मकोडो को मारने के लिए कीट नाशको पर ५०० रुपये खर्च पड़ता है । कुल मिला कर एक एकड़ धान की खेती में २.५ से ३ हज़ार रुपये का कम से कम फायदा हो रहा हैं । वही अबबत्तखों की बीट खाद का काम कर जाती है. अब न तो हमेशा मजदूर खोजना है न ही मजदूरी का जुगाड़ करना हैं. यह काम बत्तखों के करने से काफी सहूलियत होने लगी हैं ।
सुन्नीलाल की इस खोज से जौनपुर के कई गाँव के किसानों को फायदा हो रहा हैं धीरे- धीरे उसकी पूछ भी बढ़ती जा रही हैं.लेकिन उसकी माली हालात में कोई बहुत सुधार नहीं हुआ हैं । वैसे देश के और भी भागों में इसका प्रयोग कर किसानों को फायदा पहुचाया जा सकता हैं । सुन्नीलाल कहता है कि कब किसके दिन बदल जाएँ कहा नहीं जा सकता । जनसत्ता

Sunday, September 19, 2010

मीर ,चकबस्त और बेगम अख्तर के फैजाबाद में फिर युद्ध जैसी तैयारी !




फिजा को फसाद में न बदल दे मीडिया
अंबरीश कुमार
अयोध्या , सितंबर। ख्वाजा हैदर अली आतिश ,मीर अनीस ,चकबस्त और बेगम अख्तर का फैजाबाद फिर एक युद्ध जैसी तैयारी में जुटा है । फैजाबाद से अयोध्या में पहरें में विराजमान रामलला के दर्शन करते जाते हुए यही अहसास होगा कि जल्द कोई युद्ध शुरू होने वाला है । आज दूसरे दिन फिर हुए फ्लैग मार्च ने भी रही सही कसर पूरी कर दी । हर चौराहे पर अर्ध सैनिक बलों के जवान ,सीआरपीएफ़-पीएसी के वाहन और सायरन बजाती गाड़ियों का शोर किसी भी यात्री को आशंकित करने के लिए काफी है। जिस शहर में हर यात्री का गर्मजोशी से स्वागत होता वही अजनवी चेहरे को देख लोगों के चहरे के भाव बदल जाते है ।फूल -माला , चूड़ी, सिंदूर टिकुली ,खडाऊ और मिठाई की दुकानों से भीड़ गायब है । सड़क पर साधू संत कम गायों का झुंड ज्यादा नज़र आता है । और शहर भी ऐसा जिसे शहर कहने में शर्म आए । पिछले एक दशक से प्रदेश से लेकर देश की राजनीति बदलने वाला फैजाबाद -अयोध्या आज भी बदहाल और याचक मुद्रा में खड़ा नज़र आता है । कांचीपुरम से लेकर तिरुपती और मदुरै जैसे धार्मिक शहर जहाँ पूरी तरह बदल चुके है वही अयोध्या वही खड़ा है जहाँ अस्सी के दशक में था । यही अयोध्या जिसने उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली की सरकार बदल दी पर किसी ने इसे बदलने की जहमत तक नही उठाई । न कोई उद्योग धंधा लगा न ही शिक्षा का कोई नया केंद्र बनाया गया । गंदगी के ढेर पर बैठे अयोध्या फैजाबाद में एक ढंग का म्यूजियम तक नही है जो इसका इतिहास बता सके । राम की जन्मभूमि यानी अयोध्या तो बहुत प्राचीन शहर है पर बाद में इसी के पास और साथ बसे फैजाबाद का का भी रोचक इतिहास है । अंग्रेजो से अवध में जो संघर्ष हुआ उसमे भी फैजाबाद की महत्वपूर्ण भूमिका रही ।
उर्दू के शेक्सपियर यानी मीर बबर अली अनीश जिनका जिक्र मिर्जा ग़ालिब ,मीर तकी मीर और अल्लामा इकबाल के साथ किया जाता है वे फ़ैजाबाद में ही पैदा हुए थे ।बड़ा शोर सुनते थे पहलु में दिल का ,जो चीरा तो क़तर-ए- खून न निकला ,जैसे नायब शेरों को का तोहफा देने वाले ख्वाजा हैदर अली आतिश ,पंडित बृज नारायण चकबस्त और बेगम अख्तर ने भी इसी शहर में जन्म लिया । हिंदू- मुस्लिम क्रांतिकारियों की पूरी एक जमात है जिसने इस शहर में फिरंगियों से मुकाबला किया ।
पर आज इस शहर की अपनी कोई पहचान ही नही बची है । फैजाबाद के लेखक पत्रकार केपी सिंह ने कहा - अब यह मुर्दों का शहर बन कर रह गया है ।न किसी को इस शहर के इतिहास का पता है और न सांस्कृतिक विरासत का । एक म्यूजियम था तो उसका सामान लखनऊ भेज दिया गया और अब उसमे एसएसपी का दफ्तर चल रहा है । जो कसर बाकी थी उसे मीडिया पूरी कर दे रहा है । प्रिंट में तो ज्यादा हेराफेरी अभी नही शुरू हुई पर चैनेल लगातार बाबरी ध्वंश की क्लिपिंग दिखाकर माहौल बनाने का प्रयास कर रहा है । जबसे अयोध्या पर फैसले की घड़ी करीब आई है लग रहा है कोई जंग शुरू होने जा रही है ।एक तरफ जहाँ नेताओं की साख ख़त्म हुई है वही मीडिया की भूमिका पर भी सवाल खड़ा हुआ ।
राजनैतिक दलों की साख पर हर कोई यहाँ सवाल खड़ा करता है । इसमे भी पहले नंबर पर भाजपा है । आम राय है कि भाजपा ने राम के नाम की राजनीति कर अयोध्या मुद्दे को सत्ता में जाने का रास्ता बनाया । यही वजह है क्योकि अब भाजपा के नेताओं का यहाँ वह स्वागत नही होता जो पहले होता था । कल्याण सिंह कभी अयोध्या में नायक की तरह हाथो हाथ लिए जाते थे पर अब हनुमान गढ़ी के महंत ज्ञानदास न सिर्फ उनसे मिलने से मना करते है बल्कि सवाल उठाते है कि कितनी बार चोला बद्लेगे कल्याण । विवादित ढांचा बचाने की जबान देने के बाद भी उन्होंने इसे नही बचाया । नुक्सान किसका हुआ ,हिन्दुओं का । क्या वहा नमाज पढी जाती थी वहा तो रामलला की पूजा होती थी जिसे तुडवा दिया गया । दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता और बाबरी मामले के पक्षकार हाशिम अंसारी ने कहा -कल्याण सिंह खुद तो कोठी में रहते है और रामलला को तम्बू में पहुंचा दिया है ।
अंसारी सिर्फ एक ही पार्टी नही बल्की सबकी खबर लेते है । बाबरी मस्जिद - राम जन्म भूमि विवाद को वे कुर्सी और करेंसी का खेल बताते है ,धर्म का नही । इस समूचे विवाद के लिए वे कांग्रेस को जिम्मेदार बताते हुए कहते है -मूर्ति कांग्रेस के राज में रखी गई ,शिलान्यास और दर्शन की इजाजत कांग्रेस ने दी और मस्जिद भी उसी के राज में गिरी ।हाशिम अंसारी ने कहा - जब बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखी गई तो पंडित जवाहर लाल नेहरु संतरी थे या प्रधानमंत्री । उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त से कहा और पंत ने कानून व्यवस्था का नाम लेकर पल्ला झाड़ लिया ।यह वही कांग्रेस थी जिसे आजादी के बाद ३५ साल तक मुसलमानों ने सर पर बैठाया । जब बाबरी मस्जिद गिरी तो उस समय संसद में ८० मुस्लिम सांसद थे । दूसरी तरफ कांग्रेस के राज में बीस हजार बलवे हुए।
कांग्रेस ने तो जो किया वो किया पर मुलायम और आज़म खान ने तो ज्यादा बड़ा धोखा दिया । बाबरी मस्जिद के सवाल पर मैंने आजम खान के साथ कितने दौरे किये और समाजवादी पार्टी को सत्ता मिली । लखनऊ से बाराबंकी होते नानपारा ,बलरामपुर बस्ती बनारस तक दौरे करते थे । पर मुलायम सिंह तो बहुत पाजी निकला आजम खान न को ले लिया और सबको छोड़ दिया । आजम खान भी जब तक मंत्री नही बना हर दूसरे महीने यहाँ आता पर मंत्री बनते ही मुलायम सिंह की पालकी उठाने लगा । एक बार भी पलट कर इधर नही आया । आजम खान चित्रकूट जाकर छह मंदिरों में दर्शन कर आया पर अब बाबरी याद नही आ रही ।
अंसारी यही नही रुके मीडिया की भी खबर ली और कहा - एक अंग्रेजी अखबार की मोहतरमा आई थी अपनी बात मेरे मुंह में डाल रही थी ।बार बार पूछे कि आपके पक्ष में फैसला नही आया तो क्या होगा ,मैंने तंग आकर कहा कि फिजां बदल जाएगी पर जो उन्होंने लिखा उसके चलते अब मुझे नब्बे साल की उम्र में अदालत दौड़ना पड़ रहा है । जब पत्रकार फिंजा को फसाद में बदल दे तो कौन उनसे बात करेगा ।
यह नाराजगी अयोध्या के ज्यादातर लोगों की थी । चैनेल पर ज्यादा गुस्सा था क्योकि उनके बनाए माहौल से यात्रियों की संख्या घट गई है और लोगों ने खाने का सामान इकठ्ठा करना शुरू कर दिया है । इस सबसे अयोध्या में सब्जी आदि की कीमते भी बढ़ गई है । हनुमान गढ़ी के रास्ते में करीब सत्तर साल के परस नाथ ने कहा - चैनल वालों ने आफत कर रखा है ।दिनरात दिखा रहे कि कैसे मस्जिद गिरी थी । यह नही बताएँगे कि गिराने वाले यहाँ के नही थे आन्ध्र प्रदेश और कर्णाटक जैसे राज्यों से आए थे । यहाँ के लोग नहीं किसी फसाद में शामिल थे न ढांचा गिराने में पर बदनाम जरुर हुए । यहाँ के लोगो की रोजी रोटी का साधन यही फूल माला ,मिठाई और चढ़ावा आदि का व्यापार है । यहाँ कोई कल कारखाना तो लगवाता नही तो लोग क्या करेंगे । ऐसे में दस दिन कर्फ्यू लग जाये तो भूखो मरने की नौबत आ जाती है । आदमी ही नही ये जो बन्दर देख रहे है ये भी मंदिर बंद हो जाने से परेशान हो जाते है ।करीब दर्जन भर लोगो से बात हुई तो उनका दर्द पता चला । नेताओं ने अयोध्या को मुद्दा बनाया और सत्ता में आए तो मीडिया ने अयोध्या की मार्केटिंग से अपना प्रसार से लेकर मुनाफा बढाया पर यहाँ के पिछड़ेपन और बदहाली पर कुछ नही लिखा । पर एक बड़ा फर्क यह आया है कि अब अयोध्या में मंदिर के मुद्दे को लेकर भावनात्मक रूप से भुनाना किसी के लिए भी आसान नही होगा ।
जनसत्ता

Wednesday, September 15, 2010

अयोध्या -अब सुलह नही फैसला चाहते है पक्षकार

अंबरीश कुमार / त्रियुग नारायण तिवारी
लखनऊ / अयोध्या सितंबर। उत्तर प्रदेश में अयोध्या के फैसले से पहले लखनऊ से लेकर फैजाबाद तक माहौल गरमा गया है । लखनऊ में सियासी पारा बढ़ रहा है तो अयोध्या में आशंका और तनाव । दूसरी तरफ अयोध्या मसले पर दोनों तरफ के पक्षकारों में सुलह की अंतिम कोशिश भी नाकाम होती नज़र आ रही है । इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में इस मामले के पक्षकारों के बीच सुलह की एक और कोशिश के लिए १७ सितम्बर की तारीख़ तय की गई है ।पर कोई पक्षकार सुलह के मूड में नहीं है । दोनों पक्षकारो के वकीलों ने जनसत्ता से बातचीत में सुलह की संभावना से इनकार किया । दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह कल सुबह अयोध्या में राम लला के दर्शन कर साधू संतों के साथ बैठक करने जा रहे है । हालाँकि अयोध्या -फ़ैजाबाद में निषेधाज्ञा लागू कर सभी तरह के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई है । फैजाबाद के एसएसपी राजेश कुमार सिंह राठौर ने जनसत्ता से कहा - जिले में धारा १४४ लागू है और इसके तहत नियमो का पालन करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को अयोध्या में राम लला के दर्शन की इजाजत दी जा सकती है पर निषेधाज्ञा तोड़ने पर गिरफ्तार भी किया जा सकता है । कल्याण सिंह सुबह दस बजे अपने समर्थकों के साथ अयोध्या के लिए रवाना होंगे । उधर भाजपा के उपाध्यक्ष विनय कटियार ने इस मामले में केंद्र सरकार से दखल की मांग की । उन्होंने कहा कि आस्था और विश्वास के मामलें अदालते हल नही कर सकती। कटियार के मुताबिक अदालत ने निर्णय आने के पूर्व दोनो पक्षों को बातचीत का जो मौका दिया है वह सराहनीय है इसलिए अब केन्द्र सरकार को इस मामलें में आगे आना चाहिए।
सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड और अन्य मुस्लिम पक्षकारो के वकील जफरयाब जिलानी ने जनसत्ता से कहा - हमारा साफ मानना है कि इस मसले पर सुलह नहीं हो सकती अदालत अपना फैसला दे । इस तरह की कोशिशे पिछले १९ साल में कई बार हुई और कोई नतीजा नही निकला । इसलिए इस सिलसिले में जो अर्जी दी गई है उसपर विचार करने का कोई अर्थ नहीं है ।हम इस मामले में किसी भी तरह के सुलह के पक्ष में नही है।
दूसरी तरफ रामजन्म भूमि पुनरोद्धार समिति की तरफ से पेश होने वाली वकील रंजना अग्निहोत्री ने भी सुलह की संभावनाओ को ख़ारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर ही सवाल खड़ा कर दिया । रंजना अग्निहोत्री ने कहा - यह तो न्यायपालिका की साख खराब करने की कोशिश है । जिस व्यक्ति ने अर्जी दी वह अब तक कहाँ सोया हुआ था । हम इस मामले में फैसला चाहते है ।
दरअसल अंतिम समय में जिस तरह का दबाव बढ़ा और यह अर्जी दी गई उससे लोग हैरान भी हुए है । लोगो का मानना है कि सभी फैसले का इन्तजार कर रहे ऐसे में इस तरह की कवायद से भ्रम हो सकता है । गौरतलब है की एक पक्षकार रमेश चन्द्र त्रिपाठी की अर्जी पर दोनों पक्षों से सुलह की कोशिश की जा रही है ।
दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह कल अयोध्या जा रहे है । कल्याण सिंह ने जनसत्ता से कहा - मै रामभक्त के रूप में रामलला के दर्शन करने अयोध्या जा रहा हूँ । वहा रामलला के दर्शन के बाद हनुमान गढ़ी जाऊंगा और उसके बाद साधू संतों के साथ सलाह मशविरा करूँगा ।
कल्याण सिंह सुबह दस बजे लखनऊ से रवाना होंगे । उनके साथ करीब डेढ़ सौ गाड़ियों का काफिला होगा । उधर अयोध्या में सुरक्षा और बढ़ा दी गई है ।कई और स्कूलों में सुरक्षा बल के जवान ठहरा दिए गए है । जिले के ५२ स्कूलों को नोटिस दी गई है कि कभी भी उनका परिसर लिया जा सकता है । अयोध्या फैजाबाद में दफा १४४ लगा दी गई है और प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई है । इसके आलावा खुशी या गम का कोई कार्यक्रम भी सार्वजनिक रूप से नहीं मनाया जा सकता है । बढ़ते तनाव का असर अब दिखाई देने लगा है । अयोध्या में लोगों ने खाने व अन्य सामान इकठ्ठा करना शुरू कर दिया है । जिसके चलते शाक सब्जी का दाम भी बढ़ गया है । फैजाबाद प्रशासन कल्याण सिंह के दौरे को लेकर सतर्क है और उन्हें अपने समर्थकों के साथ जाने से रोका जा सकता है । सूत्रों के मुताबिक उन्हें राम सनेही घाट या लखनऊ सीमा में ही रोका जा सकता है ।
जनसत्ता

Sunday, September 12, 2010

रामगढ का राइटर्स काटेज









आलोक तोमर
नैनीताल की भीड़ और झील के आसपास के बाजारों के शोर से बचना हो तो रास्ते तो कई हैं मगर असली मंजिल तक पहुंचाने वाला एक ही रास्ता है जो भुवाली और गागर होते हुए रामगढ़ पहुंचता है। रामगढ़ आज भी गांव है और कल्पना ही की जा सकती है कि एक छोटे से टीले पर हिंदी की महान कवियत्री महादेवी वर्मा ने जब यहां छोटा सा मकान बनाकर साहित्य रचने के प्रयोजन शुरु किए थे तो यहां कितना सन्नाटा रहा था। मुश्किल से पांच दुकानों के बाजार रामगढ़ में पांच सितारा होटलों को मात देने वाले होटल औऱ रिसार्ट हैं औऱ पत्रकारिता से लेकर राजनीति और अफसरशाही तक के सबसे बड़े नाम यहां आकर बस गये हैं। होने को नैनीताल भी हिल स्टेशन है मगर इससे भी लगभग सात हजार फीट उपर रामगढ़ में हवाएं जब ठंडी होती हैं तो बहुत ठंडी होती हैं। बारिश होती है तो आसपास हिमालय की प्रकृति द्वारा बनाई गयी पूरी चित्रकला भीग जाती है। कोहरा आपके घर में घुस आता है और आप भूल जाते है कि आप उसी लोक में हैं जिसे मर्त्यलोक कहा जाता है।
जब तक रामगढ़ का नाम नहीं सुना था और देश और दुनिया के बहुत सारे हिल स्टेशन देख डाले थे तब तक नहीं पता था कि पहाड़ियों की खामौश पवित्रता क्या होती है? रामगढ़ पहुंचने के ठीक पहले गागर में एक बड़ा मंदिर है और उसके ठीक उपर घुमावदार सड़क के आखिरी छोर तक जहां निगाह जाती है, हरियाली ही हरियाली दिखाई पड़ती है। जून के महीने में पके हुए खुमानी ,आलूबुखारा ,स्ट्राबेरी और आड़ू से लदे पेड़ देखते बनते है तो जुलाई के बाद सुर्ख होते सेब । एकांत को तोड़ते हुए बीच बीच में से गुजर जाने वाले स्थानीय लोग जो अब बाहरी लोगों को कौतुक से नहीं अपनी स्वभाविक आत्मीयता से देखते हैं। आप हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं के उस हिस्से में है जहां दुर्गम और सुगम के बीच का फासला मिट जाता है।
पुराने लोगों के जो घर हैं वे अब भी देहाती शैली में बने हुए हैं। सड़क पर हैं तो हवेली जैसा आकार भी देने की कोशिश की गई है। अगर पीछे हैं तो गांव के मकान हैं। वैसे भी रामगढ़ अब तक नगरपालिका भी नहीं बनी , सिर्फ ग्राम पंचायत है। घाटियों और चोटियों के बीच शानदार आशियाने भी बने हैं और इस खामोशी को प्यार करने वाले ऐसे लोग भी हैं जो शेष जीवन के लिए रिटायरमेंट से बहुत पहले आकर बस गये हैं।
खास बात ये है कि इस इलाके का महानगर कहा जाने वाला नैनीताल जहां कोई सिनेमाघर तक नहीं है और जहां दर्जनों हिट फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है, रामगढ़ से सिर्फ पौन घंटे की दूरी पर है। होने को रामगढ़ मे अब एक डाकघर भी है, डिस्पेंसरी भी है और लगभग सभी पार्टियों से जुड़े नेताओं के रईस आशियाने भी हैं। दिल्ली के सबसे भव्य इलाके सुजान सिंह पार्क में एक विराट बंगले में रहने वाले खूबसूरत पत्रकार हिरण्यमय कार्लेकर ने भी यहां घर बना लिया है। भारतीय विदेश सेवा के सर्वोच्च अधिकारी रह चुके शशांक शेखर यहां हैं हीं।
यह कल्पना करना ही सम्मोहित और चकित करता है कि अगर रामगढ़ में महादेवी वर्मा और ज्यादा वक्त बिता पाती तो " अतीत के पता नहीं कितने और चलचित्र " हमे पढ़ने को मिलते। पता नहीं सुमित्रानंदन पंत ने यहां की यात्राओं में क्या लिखा मगर उनके साहित्यिक इतिहास में रामगढ़ का वर्णन नहीं है। रवींद्र नाथ ठाकुर के संस्मरणों में रामगढ़ का वर्णन आता है ।
अगर आप नैनीताल गये और रामगढ़ नहीं गये तो कम से कम आपके जीवन का निजी इतिहास आपको कभी माफ नहीं करेगा। इस धरती पर ऐसी जगहें कम मिलती हैं जहां गर्मी नहीं, शोर नहीं, धुआं नहीं, भीड़ नहीं, पार्किंग के झमेले नहीं और जहां तक नजर जाए वहां तक घाटियां और झरने ही झरने दिखते हैं। कई बार बाघ के बच्चे रामगढ़ में आ जाते हैं और यहां के लोग उन्हे दुलारकर वापस जंगल में छोड़ देते हैं। रामगढ़ को मसूरी या दार्जलिंग की तरह होटलों का जंगल बनाने की कोशिश चल रही है और इसके पहले इस खूबसूरत दुनिया के साथ यह हादसा हो जाय, आप भी रामगढ़ हो आइए...
अंबरीश कुमार ने अपनी खबरों वाली शैली से निकलकर रामगढ़ की जो तस्वीर खींची है वह एक झरोखा है जिसे पार करके और वहां रहकर ही रामगढ़ को प्रतीत किया जा सकता है। जब आप शांति में अपनी सांस की आवाज भी सून पाते हैं तो आपको इस बात पर आश्चर्य नहीं होता कि रामगढ़ में गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर शांति निकेतन का एक केंद्र खोलना चाहते थे। एक सड़क और दो मोड़ों वाले इस कस्बे में अभी शहर नहीं घुसा है और यही इसकी खासियत है। अम्बरीश कुमार सौभाग्यशाली हैं कि उनकी गिनती रामगढ़ के आधुनिक आदिवासियों में से की जा सकती है और मित्रों की एक पूरी कतार है जो उनके कृतज्ञ है कि उन्हे बसने के लिए एक बेहतर विकल्प बताया। बाकी बची कमी वे ईंट गारे से नहीं शब्दों से पूरी कर रहे हैं। उनके इस राइटर्स काटेज में मै कई बार रुका हूँ और अब आप भी एक बार यहाँ जरुर जाए । हिमालय की बर्फ से भरी चोटियाँ देखनी हो तो सितम्बर के आखिरी हफ्ते से लेकर नवम्बर तक का समय बेहतर होगा । बर्फ पर चहलकदमीकरने के लिए दिसंबर के आखिरी हफ्ते से लेकर फरवरी तक समय है । और फल फूल से घिरे रामगढ को देखने के लिए मई से अगस्त तक का समय ठीक रहेगा ।
राइटर्स काटेज और पास पड़ोस की कुछ फोटो अलग अलग मौसम की

Saturday, September 11, 2010

जनसत्ता में राजसत्ता की चमक


अंजनी कुमार
एक अखिल भारतीय क्रांतिकारी पार्टी भी इन सारे मोर्चों पर न तो एक साथ लड़ सकती है और न ही लड़ते हुए गलतियों से बच सकती है। लेकिन गलतियों के खौफ से न तो सपने छोड़े जा सकते हैं और न ही उन्हें मारा जा सकता है। सपने देखना जरूरी है,लेकिन वह दिवास्वप्न न हो। सवाल उठाना जरूरी है,लेकिन वह खारिज करने वाला न हो। उनका जमीनी रिश्ता हो तो वह परिवेश से संवाद और खुद के भीतर एक सर्जक को जन्म देता है। अन्यथा सपने मारने की परम्परा तो चलती ही आ रही है। आप भी इसमें शामिल हैं तो यह कोई नई बात नहीं होगी। आज जरूरत सनसनीखेज खबर की नहीं,वस्तुगत सच्चाई से रू-ब-रू कराने वाली ख़बरों और इसे पेश करने वाले साहसी पत्रकारों की है।
उमा मांडी यानी सोमा मांडी के आत्मसमर्पण एवं सीपीआई (माओवादी)के नेताओं पर बलात्कार के आरोप की कहानी 24अगस्त को टाइम्स ऑफ इंडिया ने सनसनीखेज तरीके से पेश की। एक स्त्री की गरिमा और आम परम्परा तथा विशाखा निर्देशों (महिला हितों की रक्षा के लिए बना कानून)की धज्जी उड़ाते हुए इस अखबार ने उमा मांडी के फोटो और मूल नाम को भी छापा। इस घटना के लगभग दो हफ्ते बाद जनसत्ता में उसी कहानी को सच मानते हुए न केवल माओवादियों पर बल्कि लाल क्रांति पर कीचड़ उछालने वाला मृणाल वल्लरी का लेख छपा।
बीच के दो हफ़्तों में इस संदर्भ में तथ्य संबधी लेख,खबर और प्रेस रिपोर्ट भी छपकर सामने आये,लेकिन न तो लेखिका को पत्रकारिता के न्यूनतम उसूलों की चिंता थी और न ही 'जनसत्ता'को सच को प्रतिष्ठा प्रदान करने की। लगता है कि उनकी चिंता 'कालिमा'को सनसनीखेज तरीके से पेश करने की थी और इसके लिए माओवादी आसान पात्र थे। ठीक वैसे ही जैसे किसी भी जनपक्षधर नेतृत्व को माओवादी घोषित कर पूरे जनांदोलन को सनसनीखेज बनाकर कुचल देने के लिए पूर्व कहानी गढ़ लेना। आइए, दो हफ्ते में गुजरे कुछ तथ्यों पर नजर डालें।
द टेलीग्राफ में 29अगस्त को प्रणब मंडल के हवाले से सोमा यानी उमा मांडी के कथित आत्मसमर्पण की कहानी पर खबर छपी। इस रिपोर्ट के अनुसार उमा मांडी 20अप्रैल को कमल महतो के साथ मिदनापुर से 15किमी दूर राष्ट्रीय राजमार्ग-6पर पोरादीही में गिरफ्तार हुई थीं। कमल महतो को पुलिस ने 17अगस्त को कोर्ट में पेश कियालेकिन सोमा की गिरफ्तारी नहीं दिखाई गयी। इस रिपोर्टर के अनुसार इस बात की पुष्टि न केवल उनके रिश्तेदार, बल्कि पुलिस के एक हिस्से ने भी की।
इसी तारिख को 'यौन उत्पीड़न और राजकीय हिंसा के खिलाफ महिला मंच'ने एक प्रेस रिपोर्ट जारी कर टाइम्स ऑफ़ इंडिया के खबर की तीखी आलोचना करते हुए कुछ सवाल उठाये। एक सवाल का तर्जुमा देखिये :-आत्मसमर्पण के समय उमा द्वारा दिये गये बयान को ही आधार बनाकर खबर दे दी गयी। इसे अन्य स्रोतों से परखा नहीं गया। इस खबर को बाद में भी अन्य स्रोतों के बरक्स नहीं रखा गया। ज्ञात हो कि उपरोक्त मंच में एपवा से लेकर स्त्री अधिकार संगठन और एनबीए जैसे 60संगठन और सौ से ऊपर व्यक्तिगत सदस्य हैं। 11सितम्बर के तहलका (अंग्रेजी) में बोधिसत्व मेइती की खबर के अनुसार ज्ञानेश्वरी रेल त्रासदी के आरोप में 26मई को हीरालाल महतो को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के समय पुलिस ने हीरालाल को एक दूसरी पुलिस जीप में हथकड़ी के साथ बांधी गयी उमा मांडी के सामने पेश करते हुए कहा- यह तुम्हें जानती है कि तुम माओवादी सहयोगी हो। उमा मांडी को पुलिस की जीप में और साथ में पुलिस को वर्दी में देखने वाले ग्रामीणों के बयान को भी इस रिपोर्ट में पढ़ा जा सकता है।
31अगस्त को मानिक मंडल ने प्रेस क्लब, दिल्ली में बताया कि उमा मांडी की कहानी पुलिस द्वारा गढ़ी गयी है। उन्होंने अपने जेल अनुभव सुनाते हुए जेल में बंद पीसीपीए के कार्यकर्ताओं के उन पत्रों का हवाला दिया जिसमें उमा मांडी के पुलिस इन्फोर्मर होने की बात कही गयी है। इस पत्र के कुछ अंश तहलका ने जारी किये हैं। पूरा पत्र संहति ब्लॉग पर कुछ दिनों बाद अंग्रेजी में देखा जा सकेगा।
उपरोक्त तथ्यों के अलावा यदि हम प.मिदनापुर के एसपी मनोज वर्मा के उमा मांडी के आत्मसमर्पण के समय के और बाद के बयानों को देखें तब भी इस मुद्दे के ढीले पेंच नजर आयेंगे। एक संवेदनशील एवं गंभीर मुद्दे पर इन तथ्यों को नजरअंदाज कर लेख लिख मारने और छाप देने के पीछे न तो जल्दीबाजी का मामला दिख रहा है और न ही लापरवाही का। क्योंकि यहाँ हम इस तथ्य से भी वाकिफ हैं कि मृणाल वल्लरी लंबे समय से पत्रकारिता कर रही हैं, 'जनसत्ता' से जुड़ी हुई हैं और उन्हें युवा संभावनाशील पत्रकारों में शुमार किया जाता है। इसी तरह संपादक ओम थानवी के नेतृत्व वाली जनसत्ता की संपादकीय टीम भी ऊँचे दर्जे की पत्रकारिता के लिए स्थापित है।
राजेन्द्र यादव के शब्दों में ले-देकर यही एक अखबार है। यह अखबार भी सीपीआई माओवादी के बारे में अपनी ही पत्रकार के लेख को छापते समय पत्रकारिता की न्यूनतम नैतिकता को तक नजरअंदाज कर जाता है कि उमा मांडी उस पार्टी की सदस्य है भी या नहीं और इस पूरे मामले में पुलिस की भूमिका संदिग्ध है भी है या नहीं। यह अखबार पीसीपीए और सीपीआई माओवादी के बीच के फर्क को भी नजरअंदाज कर जाता है। ठीक वैसे ही जैसे गॉधीवादी हिमांशु को माओवादी घोषित कर दिया जाता है। इसी अंदाज में मृणाल वल्लरी सीपीआई माओवादी पार्टी, माओवादी और मार्क्सवादी होने का फर्क मिटाकर मनमाना लिखने की खुली छूट हासिल कर लेती हैं। गोया पत्रकारिता न होकर सब धान बाइस पसेरी वाली दुकान हो।
ऐसा ही मनमानापन कुछ समय पहले इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में दिखा। पुलिस के बयान पर एक आदिवासी युवा लिंगाराम जोकि दिल्ली में पत्रकारिता कि पढाई कर रहा है, को सीपीआई माओवादी को प्रवक्ता घोषित करते हुए यह बताया गया कि वह दिल्ली में माओवादी समर्थक के यहाँ छिपा हुआ है। यदि यह अपढ़ होने तथा अधकचरेपन का परिणाम होता तो इसे दुरूस्त किया जा सकता है, लेकिन यह सचेत और सतर्कता का परिणाम है। इस मनमानेपन के पीछे पुलिस व शासन तंत्र की डोर कसकर बंधी हुई है। अन्यथा सिर्फ सरकारी बयान के संस्करण के आधार पर लाल क्रांति की चिंता का मनोजगत इस तरह खड़ा नहीं होता और न ही इस तरह की पत्रकारिता से हम रू-ब-रू होते।
मसलन,किसी आंदोलन का मूल्यांकन पार्टी संगठन,विचारधारा और कार्य अनुभव तथा हासिल के मद्देनजर करते हैं। सीपीआई माओवादी पार्टी के संगठन, विचारधारा,कार्य और हासिल के बारे में लेखों, रिपोर्टों आदि की लंबी फेहरिस्त है। ये आमतौर पर उपलब्ध हैं। ठीक इसी तरह अन्य पार्टियों,संगठनों तथा सरकारी तंत्र के कार्यों के बारे में भी तथ्य उपलब्ध हैं। मृणाल वल्लरी यह जरूर बताएं कि किस सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्ट में माओवादी बलात्कारी के रूप में चित्रित हैं। इसी तरह आप सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्टों में सीपीएम व हरमाद वाहिनी,भाजपा,कांग्रेस तथा उनके सलवा जुडुम इत्यादि के चेहरे को भी देखें। ऑपरेशन ग्रीन हंट के कारनामों को देखें।
1967में नक्सलबाडी उभार के समय सिद्धार्थ शंकर रे ने एक तकनीक अपना रखी थी। इसमें पुलिस या आम छोटे दुकानदार को गोली मारने का काम खुफिया के आदमी किया करते थे,लेकिन परचे नक्सलियों के छोड़े जाते थे। आज छत्तीसगढ़ से लेकर मिदनापुर तक में यही कहानी चल रही है। इसमें नये तत्व शामिल हो गये हैं और नये खिलाड़ी भी शामिल हुए हैं। आपने 'लापता' महिलाओं का जिक्र करते हुए पीसीपीए के मिलिशिया पर बलात्कारी और अपहरणकर्ता होने का आरोप मढ़ा है। जिस दिन आपका लेख छपा है उसी दिन के 'जनसत्ता' में यह भी खबर है कि सीपीएम ने नंदीग्राम में 2500लोगों के बेघर होने की सूची सौपी है। आप बंगाल के प्रति चिंतित हैं और इससे निष्कर्ष निकालना चाहती हैं तो वहॉ के गैर माक्र्सवादियों से लेकर आईबी की सरकारी रिपोर्ट पर भी नजर डालें।
अब तक सीपीएम के नेतृत्व में पूरे जंगलमहल में हरमद वाहिनी ने 86 कैंप लगा रखे हैं, एकदम सलवा जुडुम की तर्ज पर। हत्या के बाद शव पर माओवादी साहित्य का जल चढ़ाने वाले हरमद वाहिनी के बलात्कार,हत्या और गायब करने के कारनामों के बारे में 'नारी इज्जत बचाओ कमेटी'के पत्र और प्रेस रिपोर्ट देखिये। पीसीपीए के डुप्लीकेट पर्चे और पोस्टर जिनका रंग मूल पीसीपीए से अलग है, के बारे में जानने के लिए एपीडीआर की रिपोर्ट को देखिए। किसी भी आन्दोलन में भटकाव हो सकता है। इन पर बात करते समय ठोस सच्चाइयों का जिक्र जरूरी है। स्रोत के बारे में न्यूनतम जॉच-पड़ताल जरूरी है।
हिंदी अख़बारों की लघुपत्रिका
इन संदर्भों को भूलकर आन्दोलन,नक्सलवाद व माओवाद पर पत्रकारिता करना भोलापन नहीं है। यह एक ऐसा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार है जिसके चलते आंदोलनों के प्रति संवेदनहीनता और उदासीनता का माहौल बनता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी तरह की पत्रकारिता ने हर विस्फोट को मुस्लिम समुदाय से जोड़कर एक ऐसा माहौल बनाया जिसका फायदा फासिस्ट हिन्दूत्ववादी ताकतों ने उठाया। इसने बहुसंख्यक आबादी को मुस्लिम समुदाय के प्रति पूर्वाग्रही और उनकी तकलीफों के प्रति संवेदनहीन बनाने में एक कारक की भूमिका अदा की।
मृणाल वल्लरी महिला आंदोलन की चुनौतियों को जिस संदर्भ में रखकर चिंता जाहिर कर रही हैं और निष्कर्ष निकाल रही हैं उसमें पुलिसिया संस्करण छोड़ कोई संदर्भ नहीं है। उनकी चिंता और तर्क महिला के प्रति उनके सरोकार के प्रकटीकरण हो सकते हैं,लेकिन महिला मुक्ति का सवाल पुलिसिया संस्करण से हल करने का उनका प्रयास उस संस्करण की व्याख्या होकर ही रह गया है।
मृणाल वल्लरी पूछती हैं कि ”मार्क्स और एंगेल्स के विचारों की बुनियाद पर खड़े कॉमरेडों के कंधों पर लटकती बंदूकों के खौफ से किस सपने का जन्म हो रहा है?“जाहिरा तौर पर उनका जोर कॉमरेडों की बंदूक एवं खौफ पर है और उत्तर नकारात्मक है। वह मानकर चल रही हैं कि बंदूकें सिर्फ कॉमरेडों यानी पुरुषों के पास हैं। जो भी आन्दोलन के बारे कखग जानता होगा वह इस अज्ञानता पर हंस ही सकता है। खौफ से सपने टूटते भी हैं और खौफ पैदाकर सपने देखे भी जाते हैं। यह अपने देश में विभिन्न पार्टियॉ व उनकी सरकारें खूब करती आ रही हैं। आप जहाँ रह रही हैं वहॉ अनुभव से इसी तर्क तक ही पहुंचा जा सकता है और उसे ही आप आजमाने की कोशिश कर रही हैं।
खौफ के खिलाफ खड़े होने की भी एक तर्क प्रणाली है और उससे उपजा हुआ सपना एक तर्क और लोकरंजकता से लबरेज भी होता है। यह एक ऐसी आम सच्चाई है जिसे गीत में भी ढाला जा सकता है और विचार व सिद्धांत में बदला भी जा सकता है। इस पूरी प्रकिया में गलतियाँ भी हो सकती हैं, ठीक वैसे ही जैसे शासक वर्ग की लूट में कुछ अच्छाईंयां दिखती रह सकती हैं। लेकिन मूल मसला सपने का है। सामंती व्यवस्था वाले हमारे समाज में दलित, स्त्री,अल्पसंख्यक,आदिवासी और राष्ट्रियताएँ जिस उत्पीडन की शिकार हैं उससे मुक्ति का रास्ता बहुस्तरीय संघर्षों से होकर जाता है।
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लाल क्रांति के सपने की कालिमा'

मृणाल वल्लरी
वे बलात्कारी हैं। यहां आते ही मैं समझ गई थी कि अब कभी वापस नहीं जा पाऊंगी।’ मुंह पर लाल गमछा लपेटे उमा एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार को बताती है। उमा कोई निरीह और बेचारी लड़की नहीं है। वह एक माओवादी है। कई मिशनों पर बुर्जुआ तंत्र के पोषक सिपाहियों और लाल क्रांति के वर्ग शत्रुओं को मौत के घाट उतारने के कारण सरकार ने उस पर इनाम भी घोषित किया। लेकिन अपने लाल दुर्ग के अंदर उमा की भी वही हालत है जो बुर्जुआ समाज में गरीब और दलित महिलाओं की।
बकौल उमा, माओवादी शिविरों में महिलाओं का दैहिक शोषण आम बात है। वह जब झारखंड के जंगलों में एक कैंप में ड्यूटी पर थी तो भाकपा (माओवादी) ‘स्टेट मिलिटरी कमीशन’ के प्रमुख ने उसके साथ बलात्कार किया। उसने उमा को धमकी दी कि वह इस बारे में किसी को न बताए। लेकिन उमा ने यह बात किशनजी के करीबी और एक बड़े माओवादी नेता को बताई। उमा के मुताबिक इस नेता की पत्नी किशनजी के साथ रहती है। लेकिन उमा की शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। उसे इस मामले में चुप्पी बरतने की सलाह दी गई।
नक्सल शिविरों में यह रवैया कोई अजूबा नहीं है। कई महिला कॉमरेडों को उमा जैसे हालात से गुजरना पड़ा। अपने दैहिक शोषण के खिलाफ मुखर हुई महिला कॉमरेडों को शिविर में अलग-थलग कर दिया जाता है। यानी क्रांतिकारी पार्टी में उनका राजनीतिक कॅरिअर खत्म। कॉमरेडों की सेना में शामिल होने के लिए महिलाओं को अपना घर-परिवार छोड़ने के साथ निजता का भी मोह छोड़ना पड़ता है।
उमा बताती है कि नक्सल शिविरों में बड़े रैंक का नेता छोटे रैंक की महिला लड़ाकों का दैहिक शोषण करता है। अगर महिला गर्भवती हो जाती है तो उसके पास गर्भपात के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। क्योंकि गर्भवती कॉमरेड क्रांति के लिए एक मुसीबत होगी। यानी देह के साथ उसका अपने गर्भ पर भी अधिकार नहीं। वह चाह कर भी अपने गर्भ को फलने-फूलने नहीं दे सकती। महिला कॉमरेड का गर्भ जब नक्सल शिविरों की जिम्मेदारी नहीं तो फिर बच्चे की बात ही छोड़ दें। शायद शिविर के अंदर कोई कॉमरेड पैदा नहीं होगा! उसे शोषित बुर्जुआ समाज से ही खींच कर लाना होगा। जैसे उमा को लाया गया था। उसे अपने बीमार पिता के इलाज में मदद के एवज में माओवादी शिविर में जाना पड़ा था।
माओवादियों की विचारधारा का आधार भी कार्ल मार्क्स हैं। उमा को पार्टी की सदस्यता लेने से पहले ‘लाल किताब’ यानी कम्युनिज्म का सिद्धांत पढ़ाया गया होगा। एक क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य होने के नाते उम्मीद की जाती है कि नक्सल लड़ाकों को भी पार्टी कार्यक्रम की शिक्षा दी गई होगी। उन्हें कम्युनिस्ट शासन में परिवार और समाज की अवधारणा बताई गई होगी। यों भी, पार्टी शिक्षण क्रांतिकारी पार्टियों की कार्यशैली का अहम हिस्सा होता है और होना चाहिए।
मार्क्सवादी-माओवादी लड़ाकों के लिए ‘कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र’ बालपोथी की तरह होता है, जिसमें मार्क्स ने कहा है- ‘परिवार का उन्मूलन! कम्युनिस्टों के इस ‘कलंकपूर्ण’ प्रस्ताव से आमूल परिवर्तनवादी भी भड़क उठते हैं। मौजूदा परिवार, बुर्जुआ परिवार, किस बुनियाद पर आधारित है? पूंजी पर, अपने निजी लाभ पर। अपने पूर्णत: विकसित रूप में इस तरह का परिवार केवल बुर्जुआ वर्ग के बीच पाया जाता है। लेकिन यह स्थिति अपना संपूरक सर्वहाराओं में परिवार के वस्तुत: अभाव और खुली वेश्यावृत्ति में पाती है। अपने संपूरक के मिट जाने के साथ-साथ बुर्जुआ परिवार भी कुदरती तौर पर मिट जाएगा, और पूंजी के मिटने के साथ-साथ ये दोनों मिट जाएंगे।’
एक कम्युनिस्ट व्यवस्था का परिवार पर क्या प्रभाव पड़ेगा? एंगेल्स कहते हैं कि ‘वह स्त्री और पुरुष के बीच संबंधों को शुद्धत: निजी मामला बना देगी, जिसका केवल संबंधित व्यक्तियों से सरोकार होता है और जो समाज से किसी भी तरह के हस्तक्षेप की अपेक्षा नहीं करता। वह ऐसा कर सकती है, क्योंकि वह निजी स्वामित्व का उन्मूलन कर देती है और बच्चों की शिक्षा को सामुदायिक बना देती है। और इस तरह से अब तक मौजूद विवाह की दोनों आधारशिला को निजी स्वामित्व द्वारा निर्धारित पत्नी की अपने पति पर और बच्चों की माता-पिता पर निर्भरता-को नष्ट कर देती है। पत्नियों के कम्युनिस्ट समाजीकरण के खिलाफ नैतिकता का उपदेश झाड़ने वाले कूपमंडूकों की चिल्ल-पों का यह उत्तर है। पत्नियों का समाजीकरण एक ऐसा व्यापार है जो पूरी तरह से बुर्जुआ समाज का लक्षण है और आज वेश्यावृत्ति की शक्ल में आदर्श रूप में विद्यमान है। हालांकि वेश्यावृत्ति की जड़ें तो निजी स्वामित्व में हैं, और वे उसके साथ ही ढह जाएंगी। इसलिए कम्युनिस्ट ढंग का संगठन पत्नियों के समाजीकरण की स्थापना के बजाय उसका अंत ही करेगा।’
बुर्जुआ समाज साम्यवादियों की अवधारणा पर व्यंग्य करता है और मार्क्स भी उसका जवाब व्यंग्य में देते हैं। मार्क्स के मुताबिक, बुर्जुआ समाज में औरतों का इस्तेमाल एक वस्तु की तरह होता है। निजी संपत्ति की रक्षा के लिए राज्य आया और इसी निजी संपत्ति का उत्तराधिकारी हासिल करने के लिए विवाह। विवाह जैसे बंधन के कारण स्त्री निजी संपत्ति हो गई। लेकिन उसी बुर्जुआ समाज में अपने फायदे के लिए औरतों का सार्वजनिक इस्तेमाल भी होता है। वह चाहे सामंतवादी राज्य हो या पूंजीवादी, सभी में औरत उपभोग की ही वस्तु रही। एक कॅमोडिटी।
आखिर कम्युनिस्ट शासन में परिवार कैसा होगा? इस शासन में निजी संपत्ति का नाश हो जाएगा, इसलिए संबंध भी निजी होंगे। कम्युनिस्ट शासन औरत और मर्द दोनों को निजता का अधिकार देता है। इन निजी संबंधों से पैदा बच्चों की परवरिश राज्य करेगा, इसलिए यह कोई समस्या नहीं होगी। उमा की बातों को सच मानें तो कम्युनिज्म की यह अवधारणा नक्सल शिविरों में क्यों नहीं है? क्या मुकम्मल राजनीतिक शिक्षण के बिना पार्टी में कॉमरेडों की भर्ती हो जाती है? सोच के स्तर पर वे इतने अपरिपक्व क्यों हैं कि महिला कॉमरेडों के साथ व्यवहार के मामले में बुर्जुआ समाज से अलग नहीं होते। कम से कम नक्सल शिविरों में तो आदर्श कम्युनिस्ट शासन का माहौल दिखना चाहिए! लेकिन यहां तो महिला कॉमरेड एक ‘सार्वजनिक संपत्ति’ के रूप में देखी जा रही है।
कहीं भी एक ही प्रकार का शोषण अपने अलग-अलग आयामों के साथ अपनी मौजूदगी सुनिश्चित कर लेता है। उमा के मुताबिक अगर किसी बड़े कॉमरेड ?े किसी महिला को ‘अपनी’ घोषित कर दिया है तो फिर वह ‘महफूज’ है। यानी उसकी निजता की सीमा उसके घोषित संबंध पर जाकर खत्म हो जाती है। अब उसके साथ एक पत्नी की तरह व्यवहार होगा। जो किसी की पत्नी नहीं, वह सभी कॉमरेडों की सामाजिक संपत्ति! जंगल के बाहर के जिस समाज को अपना वर्ग-शत्रु मान कर माओवादी आंदोलन चल रहा है, क्या वहां महिला या देह के संबंध उसी बुर्जुआ समाज की तर्ज पर संचालित हो रहे हैं, जिससे मुक्ति की कामना के साथ यह आंदोलन खड़ा हुआ है? जबकि एंगेल्स कम्युनिस्ट शासन में इस स्थिति के खात्मे की बात करते हैं। लेकिन कॉमरेडों ने शायद किसी रटंतू तरह एंगेल्स का भाषण याद किया और भूल गए।
वहीं आधुनिक बुर्जुआ समाज में महिलाओं की निजता के अधिकार की सुरक्षा के लिए कई उपाय किए गए हैं। यह दूसरी बात है कि व्यावहारिक स्तर पर ये अधिकार कुछ लड़ाकू महिलाएं ही हासिल कर पाती हैं। लेकिन इसी समाज में अब वैवाहिक संबंधों में भी बलात्कार का प्रश्न उठाया गया है। यानी विवाह जैसे सामाजिक बंधन में भी निजता का अधिकार दिया गया है। एक ब्याहता भी अपनी मर्जी के बिना बनाए गए शारीरिक संबंधों के खिलाफ अदालत में जा सकती है। कार्यस्थलों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए यौन हिंसा की बाबत कई कानून बनाए गए हैं।
यहां बुर्जुआ समाज का व्यवहार जनवादी दिखता है। लेकिन गौर करने की बात यह है कि पूंजीवादी समाज में भी महिलाओं को अपने शरीर से संबंधित ये अधिकार खैरात में नहीं मिले हैं। पश्चिमी देशों में चले लंबे महिला आंदोलनों के बाद ही स्त्रियों के अधिकारों को तवज्जो दी गई। यह भी सही है कि महिला अधिकारों के कानून बनते ही सब कुछ जादुई तरीके से नहीं बदल गया। अभी इन अधिकारों के लिए समाज में ठीक से जागरूकता भी नहीं पैदा हो सकी है कि अतिरेक मान कर इन कानूनों का विरोध किया जाने लगा है। दहेज, घरेलू हिंसा या यौन शोषण के खिलाफ बने कानूनों को समाज के अस्तित्व के लिए खतरा बताया जाने लगा है। देश की अदालतों में माननीय जजों को भी इन अधिकारों के दुरुपयोग का खौफ सताने लगा है। इस चिंता में घुलने वाले चिंतक महिलाओं के शोषण का घिनौना इतिहास और वर्तमान भूल जाते हैं।
जनवादी महिला आंदोलनों ने ही भारत में स्त्री अधिकारों की लड़ाई की बुनियाद रखी और यहां जब स्त्री के हकों को कुचलने की कोशिश की जाती है तो जनवादी पार्टियां ही उनकी हिफाजत के आंदोलन की अगुआई करती हैं। लेकिन अति जनवाद का झंडा लहराते माओवादी शिविरों में महिला लड़ाकों की देह सामंतवादी रवैए का शिकार क्यों है? उमा ने यह भी बताया कि राज्य समिति का एक सचिव अक्सर गांवों में जिन घरों में शरण लेता था, वहां की महिलाओं के साथ बलात्कार करता था और इसके लिए उसे सजा भी दी गई थी। सवालों को टालने के लिए इसे एक कुदरती जरूरत मानने वालों की कमी नहीं होगी। लेकिन फिर कश्मीर, अफगानिस्तान या दुनिया के किसी भी हिस्से में सैन्य अभियानों के दौरान महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार सहित तमाम अत्याचारों के बारे में क्या राय होगी? यहां यह तर्क भी मान लेने की गुंजाइश नहीं है कि ऐसी अराजकता निचले स्तर के माओवादी कार्यकर्ताओं के बीच है जो कम प्रशिक्षित हैं। यहां तो सवाल शीर्ष स्तर के माओवादी नेताओं के व्यवहार पर है।
जंगलमहल की क्रांति का जीवन पहले भी पत्रकारों और दूसरे स्रोतों से बाहर आता रहा है। अभी तक लोग क्रांति के रूमानी पहलू से रूबरू हो रहे थे कि किस तरह कठिन हालात में बच्चे-बड़े, औरत-मर्द क्रांति की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन लाल क्रांति के अगुआ नेताओं का रवैया भी मर्दवादी-सामंती संस्कारों से मुक्त नहीं हो सका। इस बीच ताजा खबर यह है कि पश्चिम बंगाल में माओवादियों की सक्रियता वाले इलाकों में कई वैसी महिलाएं ‘लापता’ हैं जिन्होंने माओवादी दस्ते या उनके जुलूसों में शामिल होने से इनकार कर दिया था। इनमें से एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता छवि महतो के मामले का खुलासा हो पाया है जिसे पीसीपीए के मिलीशिया उठा कर ले गए थे। उसके साथ पहले सामूहिक बलात्कार किया गया, फिर उसे जमीन में जिंदा गाड़ दिया गया।
क्रांति का समय तो तय नहीं किया जा सकता। लेकिन जो तस्वीरें दिख पा रही हैं, उनके मद्देनजर मार्क्सवादी-माओवादी कॉमरेडों से अभी ही यह सवाल क्यों न किया जाए कि भावी क्रांति के बाद कैसा होगा उनका आदर्श शासन? मार्क्स और एंगेल्स के विचारों की बुनियाद पर खड़े कॉमरेडों के कंधों पर लटकती बंदूकों के खौफ से किस सपने का जन्म हो रहा है?


जनसत्ता

Monday, September 6, 2010

झरना ,बादल और मुक्तेश्वर का डाक बंगला







अंबरीश कुमार
' ब्लू हेवन ' मुक्तेश्वर के डाक बंगले के उस सूट का नाम है जिसमे मै ठहरा हुआ हूँ .बगल के दूसरे सूट ' पर्पल मूड' में पत्रकार आशुतोष और ' पिंक मेमोरीस' में लेखक - पत्रकार सागर है .यह मुक्तेश्वर का अंग्रेजों के ज़माने का डाक बंगला है जिसमे कल अँधेरा घिरने के बाद हम सब पहुंचे तो ठंड बढ़ चुकी थी और धुंध के चलते के चलते ज्यादा दूर तक कुछ भी दिखाई नही दे रहा था .दिन भर पहाड़ी रास्तों पर फूट पड़े झरनों की फोटो खींचते रहे .झरने भी ऐसे की देखते रह जाए .पहाड़ के ऊपर जंगलों से लिपटती मानो कोई बरसाती नदी पूरे वेग से नीचे आ रही हो .हर मोड़ के बाद झरने का पानी नज़र आ रहा था .नैनीताल से मुक्तेश्वर की यह पहली यात्रा थी जिसमे जगह जगह बहते झरनों का दीदार हुआ .इससे पहले शिलांग से चेरापूंजी जाते समय जो झरने देखे थे उनकी याद ताजा हो गई . पूरा पहाड़ नहाया और भीगा हुआ .मौसम इस तेजी से बदल रहा था कि कभी धूप तो कभी धुंध .यह डाक बंगला जहाँ पर है वहां से बीस हजार फुट पर स्थित नंदा गुंती से लेकर त्रिशूल , नंदा देवी और नंदा कोट जैसी चोटियाँ दिखाई पड़ती है .यह जगह समुंद्र तट से साढ़े सात हजार फुट की उंचाई पर है यह भूल जाए तो डाक बंगले में एक शिला लेख याद दिला देता है .
सुबह कमरे के सामने की खिड़की का पर्दा खोला तो धुंध से कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था .आशुतोष कमरे में आए तो खिड़की भी खोल दी .फिर बाहर से बादल भाप की तरह भीतर आने लगा .कमरे में बिजली की केतली में चाय का पानी खौल रहा था और भाप उड़ रही थी .बाहर और भीतर की भाप में कोई फर्क नहीं था .तभी लैपटाप में मेल चेक करने बैठा तो इंदु पुरी का कमेन्ट मिला जो मानसून की पोस्ट पर था .अंत में उन्होंने शाल की जगह साल लिखने की तरफ ध्यान खीचा . मै गूगल से मंगल में एक ऊँगली से कम्पोज करता हूँ जिससे कई बार गलती छूट जाती है इसे माफ़ कर देना चाहिए . मुक्तेश्वर के इस डाक बंगला के पीछे ही उतरांचल सरकार का पर्यटक आवास गृह है जिसमे रात में खाना खाने का मन था पर उनके यहाँ सैलानियों की भीड़ के चलते मैनेजर ने मन कर दिया .फिर डाक बंगले के चौकीदार से पूछा तो उसने कहा सामान लेने दूर जाना पड़ेगा और बरसात के साथ अँधेरा भी गहरा हो गया था .मुक्तेश्वर में आईवीआरआई परिसर में कोई बाजार नहीं है सिर्फ देवदार ,ओक और बलूत आदि के घने जंगल में ब्रिटिश कालीन पुराने बंगले जरुर नज़र आते है .अंत में ड्राइवर अरविन्द को साथ भेज कर रात के खाने का इंतजाम किया गया .इससे पहले रामगढ के अपने राइटर्स काटेज से शाम पांच बजे चले तो डर लग रहा था कही तेज बरसात से रास्ता न बंद हो जाए. एक दिन पहले ही रामगढ के घर का नाम राइटर्स काटेज रखने की दावत देर रात चली थी . कमरे के सामने का देवदार का दरख़्त जब बरसाती हवाओ से लहराने लगा तो मित्र लोग ग्लास के साथ बाहर ही सेब के पेड़ के नीचे बैठ गए .
बरसात ज्यादा तेज नही थी .कुछ देर बैठे तो रहा नहीं गया और छाता मंगवा लिया .इसी बीच केरल काडर के वरिष्ठ आईऐएस अधिकारी और साहित्यकार यूकेएस चौहान से फोन पर बात हुई तो उन्होंने भी राईटर्स काटेज में आकर लिखने की इच्छा जताई .चौहान साहब से विश्विद्यालय के ज़माने से सम्बन्ध है और जब वे उत्तर प्रदेश में सूचना निदेशक और पर्यटन विभाग के एमडी थे तो उतरांचल घुमाया था .उससे पहले कालीकट के कलेक्टर के रूप में बड़ा सांस्कृतिक आयोजन किया और केरल का खुबसूरत इलाका भी उनका आतिथ्य ग्रहण करने की वजह से देखने को मिला . अभिनेत्री मीनाक्षी शेषाद्री ,नृत्यांगना सोनल मानसिंह और नौशाद भी साथ ठहरे थे और इन लोगों से काफी चर्चा भी हुई . ऐसे में उनसे बात कर अच्छा लगा .
रात के दस बज चुके थे और खुले में मधुशाला का माहौल ज्यादा देर तक नहीं चल पाया . बूंदे भारी होने लगी तो भीतर जाना पड़ा .इस बीच खाना बनाने का काम भी शरू हो गया .आशुतोष अच्छे खानसामा भी है यह उनके बनाए अफगानी चिकन टिक्का से पता चला . भवाली से चलते समय देसी मुर्गे दिखे तो सुझाव आया कि यही से ले लिया जाए पर तय हुआ की रामगढ से लिया जाएगा . पर रामगढ़ से डाक बंगला रोड के मोड़ पर मुर्गे के दडबे जब खली नज़र आये तो दूकान वाले से पूछा गया .जवाब मिला आज गाड़ी नहीं आई इसलिए कुछ नहीं मिल पाएगा .फिर भवाली से आ रहे एक सज्जन को कहा गया तो वे चिकन लेकर पहुंचे .जिसे मैरिनेट करने के बाद हम लोग कुछ लोगों से मिलने चले गए और साथ आए एक लेखक अपनी पुस्तक का एक अध्याय लिखने में व्यस्त हो गए .राइटर्स काटेज के शांत माहौल में लिखने पढने का अलग सुख है . जल्द ही लन्दन से एक मोहतरमा यहाँ लिखने पढने के लिए आने का कार्यक्रम बना रही है है . अब सुझाव दिया गया है कि राइटर्स काटेज का उपरी हिस्सा कायाकल्प कर उन लेखकों को भी मुहैया कराया जाए जो दौडभाग की आपा धापी में दस बीस दिन एकांत में लिखना पढ़ना चाहते हो .मकसद व्यावसायिक न होकर अपने व्यापक दायरे के लिखने पढने वालों को प्रोत्साहन देना ज्यादा है .रखरखाव के लिए प्रतीकात्मक सहयोग जरुर लिया जाएगा .इसी वजह से दो तीन मित्र साथ आए और तक्नीकी विशेषज्ञों से बात कर इसे नया रूप दिया जाए . यह काम बरसात के बाद ही हो पाएगा . बगीचा और पूरे परिसर की लैंडस्केपिंग भी नए ढंग से की जाएगी . साथ आए लोगों को आडू ,प्लम ,बादाम और खुमानी के पेड़ों पर कोई फल नहीं मिला . इनका सीजन पहले ही ख़त्म हो जाता है . सेब की देर वाली प्रजाति के खुछ फल जरुर बचे थे .
रामगढ से लेकर मुक्तेश्वर तक के रास्ते में कही कही सेब मिले तो बगीचे वालों ने उसकी पूरी कीमत भी वसूली .पेड़ से तोड़ कर सेब खाने की कीमत मात्र सौ रुपए किलो थी सो जाते मौसम के सेब का भी स्वाद लिया गया . एक जोड़ा जो दिन में सिड़ार लाज में खाना खाते मिला था वह भी पहुँच गया .साथ आए पत्रकारों ने उन मोहतरमा को भी काफी आग्रह के साथ सेब खिलाया. उन लोगों ने भी सेब के पेड़ के इधर उधर होकर फोटो भी खिंचवाई . पर पिछले महीने जिस तरह सुर्ख सेब दिखे थे वह नज़र नहीं आए . सतबूंगा की पहाड़ी पर एक शोध संस्थान बनने जा रहा है जिसकी लोकेशन भी देखनी थी .करीब पौन किलोमीटर की चढ़ाई के बाद यहाँ पहुंचे तो नजारा देखने वाला था .जो जगह चुनी गई है उसके दोनों तरफ घाटियाँ है.बांज के पेड़ से घिरी इस पथरीली पहाड़ी के अंतिम छोर पर झरना है तो सामने हिमालय की तीन सौ फुट लंबी हिमालय की
सृंखला . सामने अगर हिमालय दिखेगा तो पीछे की तरफ जंगल से घिरी घाटी का विहंगम दृश्य .रास्ते में घोड़े दिखे जो संभवतः सड़क तक आने जाने के लिए इस्तेमाल किए जाते होंगे .
अगल बगल खेतों में पत्ता गोभी आकर ले चुकी थी और राजमा की लतर चार पांच फुट तक चढ़ चुकी थी .कही कही मक्का भी तैयार होता नज़र आ रहा था .कई साल के संकट के बाद पहाड़ पर मानसून कुछ ज्यादा ही मेहरबान है .हर पहाड़ भीगा हुआ , चट्टानों से रिसता पानी ,पेड़ों की पत्तियों से टपकता पानी और दुसरे या तीसरे मोड़ पर झरनों की अलग अलग ढंग की गूंजती आवाज .यह आवाज घने जंगलों में संगीत में भी बदल जाती है .झरने भी अलग अलग आकार और उंचाई के .किसी का एक छोर दिख जाता तो ज्यादातर जंगल से निकलते और सड़क पर करते हुए आगे चले जाते .झरनों की आवाज रात में दूर तक गूंजती है . पानी के जो श्रोत गर्मियों में सूख गए थे वे सभी रिचार्ज हो गए है .इससे लगता इस बार गर्मियों में पानी का वैसा संकट नहीं होगा जैसा पिछले कुछ सालों
में हुआ था . जा