Wednesday, October 29, 2008

हमारी आवाज़ दबाने की कोशिश

सुशील कुमार सिंह
 
गासिपअड्डा.काम का मकसद नेपथ्य की उन खबरों को सामने लाना रहा है जिन्हें पारंपरिक मीडिया में जगह नहीं मिलती। वे खबरें चाहे राजनीति की हों या अफसरशाही की अथवा खुद मीडिया की। कितनी ही सूचनाएं हैं जो कभी रोशनी में नहीं आ पातीं, अगर इस साइट ने उन्हें प्रकाशित न किय़ा होता। यह ऐसा मंच है जहां पाठक भी अपना सहयोग देकर हमारे प्रयास में भागीदार बन सकते हैं।
 
इस प्रयोग का एक शर्मनाक नतीजा यह निकला कि राजनीतिकों की बजाय नेपथ्य की खबरों से मीडिया के कुछ मठाधीशों को ज्यादा परेशानी हुई। वे ऐसी हरकतों पर उतर आए कि इमरजेंसी की याद आ जाए। 23 अक्तूबर की शाम करीब साढ़े छह बजे लखनऊ से दर्जन भर पुलसियों की एक टीम गासिपअड्डा.काम के संस्थापक सुशील कुमार सिंह को गिरफ्तार करने उनके घर जा धमकी। कुछ ऐसी खबरों के एवज़ में जिनमें हिंदुस्तान टाइम्स संस्थान में घटी कुछ घटनाओं का जिक्र था।
 
सुशील घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी ने उन्हें फोन किया। उन्होंने पुलिसवालों से मोबाइल पर बात करवाई। लखनऊ के गोमती नगर थाने के एक सब-इंस्पेक्टर राजीव कुमार सिंह लाइन पर थे। वे चाहते थे कि सुशील तत्काल घर लौटें। सुशील ने कहा कि वे तो रात दस बजे लौटेंगे। उन्होंने कहा कि अगर पुलिस तुरंत उनसे बात करना चाहती है तो वह प्रेस क्लब आ जाए या फिर पटियाला हाउस अदालत परिसर में एक वकील के चैंबर में। पुलिस टीम इन दोनों जगह आने को तैयार नहीं थी।
 
पुलिस उनके परिवार को एक घंटे तक धमकाती रही। फिर सुशील के एक मित्र और पड़ोसी शरद गुप्ता उनके घर पहुंचे। तब पहली बार पुलिस ने बताया कि मामला क्या है। शायद यह सोच कर कि शरद गुप्ता भी एक पत्रकार हैं।पुलिसियों ने बताया कि गासिपअड्डा.काम के खिलाफ हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप के बारे में कुछ लिखने पर उसके लखनऊ दफ्तर के एक अधिकारी बीएस अस्थाना ने एक एफआईआर दर्ज कराई है। इसमें आरोप लगाया गया है कि गासिपअड्डा.काम से किसी ने फोन करके अस्थाना जी से पचास लाख रुपए की मांग की ताकि भविष्य में ऐसी खबरें इस साइट पर न आएं।
 
जाते-जाते भी पुलिस टीम ने धमकी दी कि वे सुशील कुमार सिंह को उठाने के लिए कभी भी दोबारा आ सकते हैं। एक वकील मित्र ने सुशील को सलाह दी कि किसी हालत में वे पुलिस से अकेले न मिलें। वकील मित्र ने कई बार फोन करके पुलिस टीम को इस बात के लिए राजी करने का प्रयास किया कि वह सुशील से बात करने किसी ऐसी जगह आ जाए जहां वकील मौजूद रहे या फिर मीडिया के कुछ मित्र। मगर पुलिसवाले लगातार जिद करते रहे कि वे तो अकेले सुशील से मिलेंगे।
 
दो-तीन घंटों में यह खबर मीडिया में फैल गई। अनेक पत्रकारों ने हिंदुस्तान टाइम्स संस्थान और उत्तर प्रदेश पुलिस के इमरजेंसी जैसे रवैये की एकजुट होकर निंदा की। प्रेस क्लब आप इंडिया ने एक प्रस्ताव पास कर सुशील कुमार सिंह पर पुलिस कार्रवाई का विरोध किया है। अब तक देश के पांच प्रेस क्लब ऐसा ही प्रस्ताव पास कर चुके हैं। आल इंडिया वेब जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन ने भी एक प्रस्ताव के जरिए अपना विरोध दर्ज कराया है। हम देश-विदेश के उन तमाम साथियों के प्रति आभार प्रकट करना चाहते हैं जिन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले का विरोध करने में हमारा साथ दिया है।चार दिन तक दिल्ली में सुशील कुमार सिंह की तलाश करते रहने के बाद आखिरकार पुलिस टीम लखनऊ लौट गई।गासिप अड्डा.काम इन हथकंडों से घबराने वाला नहीं है। हैरानी की बात है कि ये हथकंडे मीडिया के ही कुछ प्रतिनिधि अपना रहे हैं। इसके बावजूद इस साइट की आवाज को दबाया नहीं जा सकता।www.janadesh.in
 

Monday, October 27, 2008

वेब पत्रकारों की यूनियन!

अंबरीश कुमार
हिन्दी में वेब साइटों की बढ़ती संख्या, पत्रकारों की ब्लाग की दुनिया में बढ़ती दिलचस्पी एक नए युग की शुरूआत कर रही है। पर दिलचस्प बात यह है कि वेब पत्रकार की परिभाषा तक अभी गढ़ी नहीं ज सकी। वर्किग जनर्लिस्ट एक्ट में इस नई विधा के पत्रकारों के लिए कोई नियम-कानून नहीं है। देश में अभी तक साइबर कानून भी नहीं है। सारे मामले भारतीय दंड संहिता के तहत देखे ज रहे हैं। यही वजह है कि पत्रकार सुशील कुमार सिंह को लेकर वेब पत्रकारों के हितों को लेकर नई बहस छिड़ गई है। यदि जल्द ही वेब पत्रकारों को परिभाषित करते हुए उनका संगठन नहीं बना तो आने वाले समय में इस तरह की चुनौतियां और बढ़ेंगी। पेशेवर पत्रकारों को अगर छोड़ दें तो बड़ी संख्या में ब्लागर आए हुए हैं जो अपने ब्लागों पर पूरी आजदी के साथ लिख रहे हैं। कई बार इनका लेखन प्रिंट मीडिया के नियम-कानूनों को तोड़ता हुआ आगे भी बढ़ जता है। चाहे सांप्रदायिकता की बहस हो या फिर जतिवाद का मामला। सुशील कुमार सिंह को जिस तरह के मामले में फंसाया गया है, उसके आधार पर चले तो कई राज्यों में पुलिस सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने, जतीय उत्पीड़न, मानवाधिकार के नाम पर आतंकवाद को बढ़ावा देने और ईलता के बहाने किसी भी ब्लागर या वेब पत्रकार के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत आपराधिक मामला दर्ज कर सकती है। यदि ब्लागर छत्तीसगढ़ या मध्य प्रदेश का है और असम की पुलिस ने कोई मामला दर्ज कर दिया तो संबंधित ब्लागर-पत्रकार के सामने दूसरे राज्य में जकर जमानत लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। 
ब्लाग पर आमतौर पर किस्सा, कविता और ज्ञान-विज्ञान की बातें हो रही हैं। पर अब अखबारों से पहले खबर देने का काम भी ब्लाग पर शुरू हो चुका है। यह ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि जो खबरें प्रिंट मीडिया के लोग रोकने का प्रयास करते हैं, उसे वेब पत्रकार अंतर्राष्ट्रीय वेब मंडी में डाल देते हैं। यह प्रिंट मीडिया के मठाधीशों के लिए नया खतरा बन रहा है। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका-इराक युद्ध के दौरान बगदाद के ब्लागर की जनकारी और फोटो का इस्तेमाल अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने भी किया। दूसरी तरफ अमेरिका में सीनेटर ट्रेन्ट लोन्ट के खिलाफ ब्लागरों की मुहिम ऐसी चली कि उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। भारत में भी आधी दुनिया के मानवीय सवालों को उठाने वाले बेटियों काब्लाग को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिला। यह एक पहलू है। पर दूसरा पहलू यह है कि एक्सप्रेस समूह में एक दशक से ज्यादा समय गुजरने वाले सुशील कुमार सिंह, एनडीटीवी और सहारा न्यूज चैनल में महत्वपूर्ण पदों पर रहे लेकिन उनके खिलाफ पुलिस उत्पीड़न की कार्रवाई पर कोई भी अखबार और चैनल नहीं बोला। इन अखबारों में वे अखबार भी शामिल हैं जो जनर्लिज्म ऑफ करेज का नारा देते हैं और वे भी जो अपने को विश्व का सबसे बड़ा अखबार घोषित करते रहे हैं। यह वेब पत्रकारिता के नए खतरों को चिंहित भी कर रहा है। चाहे ब्लागर हों या फिर वेब पत्रकार, न इनका कोई संगठन है और न यूनियन। कई तो इन्हें पत्रकार मानेंगे ही नहीं। कल को यदि ये संकट में फंसे या किसी ने फर्जी मुकदमा कर दिया तो इनके सवाल को लेकर कौन खड़ा होगा? वक्त आ गया है वेब पत्रकारिता करने वाले साथी इस पर गंभीरता से सोचें। वेब पत्रकारों का न सिर्फ एक संगठन बने बल्कि वर्किग जनर्लिस्ट एक्ट में संशोधन कर इनके हितों की रक्षा की जए। हर राज्य में वेब पत्रकारों के संगठन को मान्यता दिलाई जए। साथ ही वेब पत्रकार के हितों को सुरक्षित किया जए। वरना जिस तरह प्रिंट मीडिया के लोग अपने पत्रकार के फंसने पर उससे न सिर्फ नाता तोड़ते हैं बल्कि उसे नौकरी से बाहर कर उसकी खबर तक नहीं छपने देते हैं। और उनके संगठन उनके पक्ष में आवाज तक नहीं उठाते हैं। यही सुशील कुमार सिंह 1990 के दशक में राम नाथ गोयनका के अखबार द इंडियन एक्सप्रेस पर सत्तारूढ़ दल के हमलों के खिलाफ सड़क के संघर्ष में हमारे साथ थे। पर आज वह अखबार उनको पहचानता नहीं है। तब जनसत्ता के पत्रकारों ने न सिर्फ गुण्डों की लाठियां खाई बल्कि उन पर तेजब भी फेंका गया। यही वजह है कि अब वेब पत्रकारों को इन सब मुद्दों पर गंभीरता से सोचना है।

Saturday, October 25, 2008

गृहमंत्री दखल दें-प्रेस क्लब ऑफ इंडिया

सविता वर्मा
नई दिल्ली,  अक्टूबर। देश के विभिन्न हिस्सों में आज पत्रकार संगठनों और प्रेस क्लब ने दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार सुशील कुमार सिंह के मुद्दे पर तीखा विरोध जताया। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने इस मामले में केन्द्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल और सूचना व प्रसारण मंत्री आनंद शर्मा को ज्ञापन भेज कर पुलिस उत्पीड़न की कार्रवाई पर फौरन रोक लगाने की मांग की है।
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने आज प्रबंध समिति की आपात बैठक बुलाई और उत्तर प्रदेश पुलिस व हिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन की कड़ी आलोचना की। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रायपुर प्रेस क्लब की आपात बैठक बुलाकर सुशील सिंह के मामले में पुलिस कार्रवाई की कड़ी निंदा की गई। चंडीगढ़ में चंडीगढ़-पंजब यूनियन ऑफ जनर्लिस्ट ने इस मुद्दे पर उत्तर प्रदेश सरकार की निंदा करते हुए फर्जी मुकदमा दर्ज कराने वालों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की। चंडीगढ़ प्रेस क्लब ने इस मुद्दे पर प्रस्ताव पास कर उत्तर प्रदेश सरकार की कार्रवाई का विरोध किया। इस बीच मुंबई प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष हरीश पाठक ने बताया कि जल्द ही बांबे यूनियन ऑफ जनर्लिस्ट और मुंबई प्रेस क्लब इस मामले में बैठक बुलाकर पुलिस उत्पीड़न का विरोध करेगा।  सुशील सिंह के खिलाफ दर्ज कराए गए मुकदमे को लेकर दिल्ली गई लखनऊ पुलिस की टीम इस बीच वापस बुला ली गई है। वहीं लखनऊ में पुलिस प्रशासन के आला अफसर इस मुद्दे को लेकर मीडिया के सवालों पर कन्नी काटते नजर आए। 
दिल्ली में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की बैठक में सुशील कुमार सिंह प्रकरण पर गहरी चिंता जताई गई। प्रेस क्लब के महासचिव पुष्पेन्द्र कुलŸोष्ठ ने इस बारे में जनकारी देते हुए कहा-प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की प्रबंध समिति ने बिना किसी नोटिस के उत्तर प्रदेश की पुलिस के सुशील कुमार सिंह के आवास पर देर रात जने पर कड़ी आपत्ति जताई। प्रबंध समिति ने चेतावनी दी कि जब तक सुशील कुमार सिंह के खिलाफ फर्जी मुकदमा खत्म नहीं कर दिया जता, तब तक प्रेस क्लब का विरोध जरी रहेगा। प्रेस क्लब के सदस्यों ने इस बात पर भी हैरानी जताई कि हिन्दुस्तान टाइम्स व हिन्दुस्तान हिन्दी के लखनऊ संस्करण को लेकर गौसिपअड्डा वेबसाइट में एक सामान्य सी जनकारी प्रसारित की थी जिस पर इस प्रतिष्ठान के लोगों ने फर्जी मुकदमा तक दर्ज करा दिया। सुशील कुमार सिंह पिछले ढाई दशक से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं और उनकी साख पर आज तक कोई सवाल नहीं उठा। इस प्रकार की कार्रवाई न सिर्फ अभिव्यक्ति की आजदी का हनन है बल्कि कबीलाई संस्कृति का प्रतीक है। 
प्रेस क्लब ने यह भी कहा कि हिन्दुस्तान टाइम्स समूह आजदी की लड़ाई से निकला हुआ अखबार है जिसकी साख को इस तरह की कार्रवाई से दागदार बनाया ज रहा है। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने इस मामले में केन्द्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल और सूचना व प्रसारण मंत्री आनंद शर्मा को ज्ञापन भेज कर पुलिस उत्पीड़न की कार्रवाई पर फौरन रोक लगाने की मांग की है। चंडीगढ़ और पंजब यूनियन ऑफ जनर्लिस्ट के अध्यक्ष विनोद कोहली के मुताबिक संगठन ने पत्रकार सुशील कुमार सिंह के उत्पीड़न की कड़ी निंदा करते हुए दोषी पुलिस वालों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की है। संगठन ने इसे अभिव्यक्ति की आजदी पर हमला करार दिया। साथ ही यह चेतावनी दी है कि यदि इस मुद्दे पर वाजिब कार्रवाई नहीं हुई तो पत्रकार सड़क पर उतरने को बाध्य होंगे।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आज रायपुर प्रेस क्लब की आपात बैठक बुलाई गई। बैठक में कहा गया कि प्रशासन और पुलिस की नजरें प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के बाद वेब मीडिया पर भी टेढ़ी हो रही हैं। उत्तर प्रदेश की पुलिस ने गौशिपअड्डा डाट काम के प्रमोटर सुशील कुमार सिंह को निशाना बनाकर यह साफ कर दिया है। रायपुर प्रेस क्लब की बैठक की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुसदकर ने की। पुसदकर ने कहा कि रायपुर प्रेस क्लब परिवार उत्तर प्रदेश पुलिस की निंदा करता है और सुशील कुमार सिंह के साथ खड़े पत्रकारों के साथ है। उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ के अन्य जिलों से भी सुशील कुमार सिंह के समर्थन में पत्रकार एक जुट हुए हैं। इस बीच मध्य प्रदेश में भोपाल और इंदौर प्रेस क्लब के पत्रकारों ने भी इस मुद्दे को लेकर विरोध जताना शुरू किया है। चंडीगढ़ प्रेस क्लब के अध्यक्ष सर्वजीत पंढेर और उपाध्यक्ष चरनजीत आहूज ने कहा कि इस मुद्दे पर प्रेस क्लब ने प्रस्ताव पास कर उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्रवाई का विरोध किया है।www.janadesh.in
 

Friday, October 24, 2008

देशभर के पत्रकार एकजुट

जनादेश ब्यूरो
नई दिल्ली । दिल्ली में बनाई गई वेब पत्रकार संघर्ष समिति का देश भर के पत्रकार संगठनों ने स्वागत किया है। अखबारों में जनसत्ता, द इंडियन एक्सप्रेस, दैनिक जगरण, दैनिक भास्कर, अमर उजला, नवभारत, नई दुनिया, फाइनेन्शियल एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान, दी पायनियर, मेल टूडे, प्रभात खबर, डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट व बिजनेस स्टेन्डर्ड जसे तमाम अखबारों के पत्रकारों ने वेब पत्रकार संघर्ष समिति के गठन का स्वागत किया। हिन्दुस्तान के दिल्ली और लखनऊ के आधा दजर्न से ज्यादा पत्रकारों ने इस मुहिम का स्वागत करते हुए अपना नाम न देने की मजबूरी भी बता दी। आईएफडब्ल्यूजे, इंडियन एक्सप्रेस इम्प्लाईज वर्कर्स यूनियन, जनर्लिस्ट फार डेमोक्रेसी, चंडीगढ़ प्रेस क्लब और रायपुर प्रेस क्लब ने इस पहल का समर्थन किया है और सुशील कुमार सिंह के खिलाफ फर्जी आपराधिक मामले में फंसाने की कड़ी आलोचना की है। इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किग जनर्लिस्ट के राष्ट्रीय अध्यक्ष के विक्रम राव ने कहा-अभी तक प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया के मुद्दों को लेकर चर्चा होती रही है। पर पहली बार वेब पत्रकारों ने पहल करते हुए जो संगठन बनाया है, वह आने वाले समय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। हम इस संगठन के गठन का स्वागत करते हैं। 
जनसत्ता के वरिष्ठ पत्रकार और इंडियन एक्सप्रेस इम्प्लाईज वर्कस यूनियन के उपाध्यक्ष अरविन्द उप्रेती ने कहा-हम सुशील कुमार सिंह के साथ हैं। वे हमारे एक्सप्रेस के संघर्ष के दिनों के पुराने साथी हैं। एक्सप्रेस यूनियन की तरफ से मैं उनके खिलाफ होने वाली पुलिसिया कार्रवाई की निंदा करता हूं। इस बीच हिन्दुस्तान में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार और डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट के संपादक प्रभात रंजन दीन ने कहा-सुशील कुमार सिंह के साथ जो हुआ, वह शर्मनाक है। इस मुद्दे पर साथियों की जो भी राय बनेगी, हम वह सब करने को तैयार हैं।
जनर्लिस्ट फार डेमोक्रेसी के संयोजक पंकज श्रीवास्तव ने कहा-वेब पत्रकारों की एकजुटता नई पहल है। आने वाला समय वेब पत्रकारिता का है। ऐसे में पत्रकारों के सामने नई चुनौतियां भी आएंगी जिनका मुकाबला इस प्रकार के संगठनों से किया ज सकेगा। 
इस बीच रायपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर ने सुशील सिंह के मामले में पुलिस उत्पीड़न की कार्रवाई की तीखी निंदा करते हुए उनके खिलाफ सारे मामले वापस लेने की मांग की है। इस बारे में रायपुर प्रेस क्लब में बैठक भी बुलाई ज रही है। पुसदकर ने दिल्ली में वेब पत्रकारों का संगठन बनाए जने का स्वागत करते हुए इसकी छत्तीसगढ़ इकाई शुरू करने का एलान किया। जनादेश वेबसाइट की संपादक सविता वर्मा ने सुशील कुमार सिंह के प्रकरण को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए वेब पत्रकारों की पहल का स्वागत किया है। इससे आने वाले समय में वेब पत्रकारों को फर्जी मामले में फंसाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया ज सकेगा। पश्चिम बंगाल की पत्रकार रीता तिवारी ने दिल्ली में वेब पत्रकारों की संघर्ष समिति बनाए जने का स्वागत करते हुए कहा कि इसकी इकाईयां अन्य राज्यों में भी बनाई जनी चाहिए ताकि राज्यों के वेब पत्रकारों का उत्पीड़न न हो सके। प्रेस क्लबऑफ़ इंडिया के सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार ने कहा-वेब पत्रकारों के सामने जो भी चुनौतियां भी आएंगी उनका मुकाबला किया जाएगा।
लखनऊ श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष सिद्धार्थ कलहंस ने कहा-वेब पत्रकारिता का नया दौर शुरू हुआ है। ऐसे में पत्रकारों की यह पहल महत्वपूर्ण है। चंडीगढ़ प्रेस क्लब के उपाध्यक्ष चरनजीत आहूज ने वेब पत्रकारों की पहल का स्वागत करते हुए इसे हर संभव समर्थन देने का एलान किया है।दूसरी तरफ पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमन राइट्स के शाहनवाज आलम ने सुशील सिंह के खिलाफ फर्जी मामला दर्ज करने की कड़ी निंदा करते हुए इस मामले को मानवाधिकार आयोग ले जने की बात कही है। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के राष्ट्रीय महासचिव चितरंजन सिंह ने कंधमाल से फोन पर कहा-हम दिल्ली लौटते ही इस मुद्दे पर पहल करेंगे।

इससे पहले एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के इशारे पर वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने और पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के खिलाफ वेब मीडिया से जुड़े लोगों ने दिल्ली में एक आपात बैठक की। इस बैठक में हिंदी के कई वेब संपादक-संचालक, वेब पत्रकार, ब्लाग माडरेटर और सोशल-पोलिटिकिल एक्टीविस्ट मौजूद थे। अध्यक्षता मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने की। संचालन विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने किया। बैठक के अंत में सर्वसम्मति से तीन सूत्रीय प्रस्ताव पारित किया गया। पहले प्रस्ताव में एचटी मीडिया के कुछ लोगों और पुलिस की मिलीभगत से वरिष्ठ पत्रकार सुशील को इरादतन परेशान करने के खिलाफ आंदोलन के लिए वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन किया गया।
इस समिति का संयोजक मशहूर पत्रकार आलोक तोमर को बनाया गया। समिति के सदस्यों में बिच्छू डाट काम के संपादक अवधेश बजाज, प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेंदु दाधीच, गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा, तीसरा स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रीय संगठक गोपाल राय, विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी, लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार, मीडिया खबर डाट काम के संपादक पुष्कर पुष्प, भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह शामिल हैं। यह समिति एचटी मीडिया और पुलिस के सांठगांठ से सुशील कुमार सिंह को परेशान किए जाने के खिलाफ संघर्ष करेगी। समिति ने संघर्ष के लिए हर तरह का विकल्प खुला रखा है।
दूसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को परेशान करने के खिलाफ संघर्ष समिति का प्रतिनिधिमंडल अपनी बात ज्ञापन के जरिए एचटी मीडिया समूह चेयरपर्सन शोभना भरतिया तक पहुंचाएगा। शोभना भरतिया के यहां से अगर न्याय नहीं मिलता है तो दूसरे चरण में प्रतिनिधिमंडल गृहमंत्री शिवराज पाटिल और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से मिलकर पूरे प्रकरण से अवगत कराते हुए वरिष्ठ पत्रकार को फंसाने की साजिश का भंडाफोड़ करेगा। तीसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि सभी पत्रकार संगठनों से इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए संपर्क किया जाएगा और एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के खिलाफ सीधी कार्यवाही की जाएगी।
बैठक में प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेन्दु दाधीच का मानना था कि मीडिया संस्थानों में डेडलाइन के दबाव में संपादकीय गलतियां होना एक आम बात है। उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए जाने की जरूरत नहीं है। बीबीसी, सीएनएन और ब्लूमबर्ग जैसे संस्थानों में भी हाल ही में बड़ी गलतियां हुई हैं। यदि किसी ब्लॉग या वेबसाइट पर उन्हें उजागर किया जाता है तो उसे स्पोर्ट्समैन स्पिरिट के साथ लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि संबंधित वेब मीडिया संस्थान के पास अपनी खबर को प्रकाशित करने का पुख्ता आधार है और समाचार के प्रकाशन के पीछे कोई दुराग्रह नहीं है तो इसमें पुलिस के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्होंने संबंधित प्रकाशन संस्थान से इस मामले को तूल न देने और अभिव्यक्ति के अधिकार का सम्मान करने की अपील की।
भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह ने कहा कि अब समय आ गया है जब वेब माध्यमों से जुड़े लोग अपना एक संगठन बनाएं। तभी इस तरह के अलोकतांत्रिक हमलों का मुकाबला किया जा सकता है। यह किसी सुशील कुमार का मामला नहीं बल्कि यह मीडिया की आजादी पर मीडिया मठाधीशों द्वारा हमला करने का मामला है। ये हमले भविष्य में और बढ़ेंगे। एकजुटता और संघर्ष की इसका कारगर इलाज है।
विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने कहा- ''पहली बार वेब मीडिया प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों मीडिया माध्यमों पर आलोचक की भूमिका में काम कर रहा है। इसके दूरगामी और सार्थक परिणाम निकलेंगे। इस आलोचना को स्वीकार करने की बजाय वेब माध्यमों पर इस तरह से हमला बोलना मीडिया समूहों की कुत्सित मानसिकता को उजागर करता है। उनका यह दावा भी झूठ हो जाता है कि वे अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार हैं।''
लखनऊ से फोन पर वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कई पत्रकार पुलिस के निशाने पर आ चुके हैं। लखीमपुर में पत्रकार समीउद्दीन नीलू के खिलाफ तत्कालीन एसपी ने न सिर्फ फर्जी मामला दर्ज कराया बल्कि वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत उसे गिरफ्तार भी करवा दिया। इस मुद्दे को लेकर मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश पुलिस को आड़े हाथों लिया था। इसके अलावा मुजफ्फरनगर में वरिष्ठ पत्रकार मेहरूद्दीन खान भी साजिश के चलते जेल भेज दिए गए थे। यह मामला जब संसद में उठा तो शासन-प्रशासन की नींद खुली। वेबसाइट के गपशप जैसे कालम को लेकर अब सुशील कुमार सिंह के खिलाफ शिकायत दर्ज कराना दुर्भाग्यपूर्ण है। यह बात अलग है कि पूरे मामले में किसी का भी कहीं जिक्र नहीं किया गया है।
बिच्छू डाट के संपादक अवधेश बजाज ने भोपाल से और गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा ने अहमदाबाद से फोन पर मीटिंग में लिए गए फैसलों पर सहमति जताई। इन दोनों वरिष्ठ पत्रकारों ने सुशील कुमार सिंह को फंसाने की साजिश की निंदा की और इस साजिश को रचने वालों को बेनकाब करने की मांग की।
बैठक के अंत में मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि सुशील कुमार सिंह को परेशान करके वेब माध्यमों से जुड़े पत्रकारों को आतंकित करने की साजिश सफल नहीं होने दी जाएगी। इस लड़ाई को अंत तक लड़ा जाएगा। जो लोग साजिशें कर रहे हैं, उनके चेहरे पर पड़े नकाब को हटाने का काम और तेज किया जाएगा क्योंकि उन्हें ये लगता है कि वे पुलिस और सत्ता के सहारे सच कहने वाले पत्रकारों को धमका लेंगे तो उनकी बड़ी भूल है। हर दौर में सच कहने वाले परेशान किए जाते रहे हैं और आज दुर्भाग्य से सच कहने वालों का गला मीडिया से जुड़े लोग ही दबोच रहे हैं। ये वो लोग हैं जो मीडिया में रहते हुए बजाय पत्रकारीय नैतिकता को मानने के, पत्रकारिता के नाम पर कई तरह के धंधे कर रहे हैं। ऐसे धंधेबाजों को अपनी हकीकत का खुलासा होने का डर सता रहा है। पर उन्हें यह नहीं पता कि वे कलम को रोकने की जितनी भी कोशिशें करेंगे, कलम में स्याही उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाएगी। सुशील कुमार प्रकरण के बहाने वेब माध्यमों के पत्रकारों में एकजुटता के लिए आई चेतना को सकारात्मक बताते हुए आलोक तोमर ने इस मुहिम को आगे बढ़ाने पर जोर दिया।
बैठक में हिंदी ब्लागों के कई संचालक और मीडिया में कार्यरत पत्रकार साथी मौजूद थे।www.janadesh.in
 

Wednesday, October 22, 2008

भिंडरावाला बन रहा राज ठाकरे

अंबरीश कुमार
महाराष्ट्र के भिंडरावाला बन रहे हैं राज ठाकरे। और यह पुनीत काम कर रही है कांग्रेस। जरनैल सिंह भिंडरावाला भिंडरावाला को भी कांग्रेस की शीर्ष नेता इंदिरा गांधी ने बनाया था। भिंडरावाला को बनाने का खामियाज भी इंदिरा गांधी को जन देकर चुकाना पड़ा था। देश में हिन्दू-सिख बंट गए थे और १९८४ के दंगों की जिन्हें याद है, वे उसे याद कर ही सिहर उठते हैं। अब राज ठाकरे उसी रास्ते पर चलने का प्रयास कर रहे हैं। उत्तर भारत से रेलवे की परीक्षा देने आए छात्रों को मुंबई की सड़कों पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के गुंडों ने लाठी-डंडों से दौड़ा-दौड़ाकर मारा। यह लंपटों और शोहदों की निर्माण सेना थी या विध्वंस सेना, यह राज ठाकरे ही बता सकते हैं। यह सब संभव हुआ विलासराव देशमुख की निकम्मी सरकार के चलते। देशमुख और कांग्रेस महाराष्ट्र में शिव सेना और भाजपा को निपटाने के लिए आग से खेल रहे हैं। जिस तरह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंजब में अकालियों की राजनीति खत्म करने के लिए भिंडरावाले को खड़ा किया था, वैसे ही महाराष्ट्र से शिव सेना को खत्म करने के लिए कांग्रेस की विलास राव देशमुख सरकार ने राज ठाकरे को खड़ा किया है। हमारे संसदीय लोकतंत्र के लिए यह बड़ा खतरा है। राज ठाकरे की गिरफ्तारी से लेकर जमानत तक की कवायद राज्य सरकार का प्रायोजित नाटक था। जिसका आंखों देखा हाल बताकर चैनल वाले राज ठाकरे को भिंडरावाला की तरह नया ब्रांड बना रहे थे। कांग्रेस के नेता और एक चैनल के मुखिया राजीव शुक्ल टीवी पर चिंता जताते हुए कह रहे थे कि टीवी चैनल वाले राज ठाकरे को ज्यादा अहमियत देकर उसे बड़ा नेता बना रहे हैं। पर इस काम में उनका खुद का चैनल क्या कर रहा है, इस पर वे कुछ नहीं बोलते। 
पिछले चौबीस घंटे में महाराष्ट्र में मराठी मानुष, मराठी भाषा और मराठी अस्मिता के नए ङांडाबरदार राज ठाकरे  बन गए। विलासराव सरकार ने ठाकरे को महाराष्ट्र का भिंडरावाला बनाने का जो बीड़ा उठा रखा है, उसमें यही होना था। आधी रात को मुंबई से दूर रत्नागिरी में राज ठाकरे को गिरफ्तार किया जता है और दूसरे दिन दोपहर दो बजे तक समूचा महाराष्ट्र गर्माने के बाद  उसे अदालत में पेश किया जता है। राज ठाकरे न तो विधायक हैं और न ही सांसद। बावजूद उसके राज ठाकरे को किसी राष्ट्राध्यक्ष की तरह सम्मानित करते हुए महाराष्ट्र की पुलिस उन्हें अदालत तक ले जती है। सुरक्षा के नाम पर आलीशान वातानुकूलित गाड़ी में वे अदालत ले जए जते हैं। यह वह पुलिस करती है जिसके आला अफसर की चुनौती पर राज ठाकरे एलान करते हुए कहते हैं-वर्दी उतारकर सड़क पर आओ तो बताता हूं मुंबई किसके बाप की है।
पिछले चौबीस घंटों में महाराष्ट्र में शिव सेना को निपटाने के लिए राज ठाकरे की गुंडा सेना को खुलकर छूट दी गई। जगह-जगह पर मारपीट, आगजनी और पथराव। उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी ने कहा-हमने पिछले एक दशक में इस तरह की अराजकता नहीं देखी है। सरकार के आगे बड़े-बड़े माफिया भीगी बिल्ली बन जते हैं। माफिया अतीक अहमद का साम्राज्य ध्वस्त हो चुका है। यदि सरकार की इच्छाशक्ति होती तो राज ठाकरे का कालर पकड़कर सड़क पर घुमाते हुए अदालत ले जया ज सकता था। पर सरकार तो खुद राज ठाकरे को बाल ठाकरे का विकल्प बनाने में तुली हुई है। इसकी कीमत उत्तर भारत के लोग दे रहे हैं।
विलासराव सरकार यदि इसी रास्ते पर आगे बढ़ती रही तो वह दिन दूर नहीं जब महाराष्ट्र राज ठाकरे के इशारों पर चलेगा। महानायक अमिताभ बच्चन अपने बेटे की उम्र के बराबर राज ठाकरे से गिड़गिड़ाते हुए माफी मांग चुके हैं। उत्तर भारत के छात्र पिटकर लौट चुके हैं। इनमें एक छात्र का शव भी पटना पहुंच चुका है। मुंबई के आटो वाले और टैक्सी वाले सहमे हुए हैं। हालात नहीं बदले तो वही स्थिति होगी जो अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में भिंडरावाला ने बना दी थी। और फिर एक आपरेशन ब्लू स्टार की जरूरत मुंबई में भी पड़ेगी। यह कांग्रेस को याद रखना चाहिए

Monday, October 20, 2008

मणिपुर-तीन दर्जन उग्रवादी गुट सक्रिय


रीता तिवारी, इंफाल से 

 इंफाल .15 जुलाई 2004. यह तारीख सुन कर कुछ याद आता है आपको? दुनिया के बाकी हिस्सों के लोग अब भले इस दिन को भूल गए हों, पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर की महिलाओं को लगता है मानो यह कल की ही बात हो। उस दिन सुरक्षा बलों की ओर से मनोरमा देवी नामक एक महिला के अपहरण व बलात्कार के बाद उसकी हत्या के विरोध में राजधानी इंफाल में कम से कम 30 महिलाओं ने अपने कपड़े उतार कर प्रदर्शन किया था। उनलोगों ने अपने हाथों में जो बैनर ले रखे थे उन पर लिखा था कि भारतीय सेना हमारे साथ भी बलात्कार करो। हम सब मनोरमा की माताएं हैं। अगले दिन वह तस्वीर देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर के अखबारों में छपी थी। उस घटना के पहले तक इस घाटी की औरतें राजनीतिक तौर पर बहुत सक्रिय नहीं थीं। लेकिन  मनोरमा के साथ बलात्कार व उसकी हत्या ने राज्य में तैनात असम राइफल्स के प्रति उनका आक्रोश भड़का दिया था। असम राइफल्स के मुख्यालय कांग्ला फोर्ट के सामने बिना कपड़ों के प्रदर्शन करने वाली महिलाओं में शामिल एक महिला थाओजामी कहती है कि हम कभी मनोरमा से मिले तक नहीं थे। लेकिन उसके क्षत-विक्षत शव को देखने के बाद हम अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके। उस घटना के बाद राज्य में हिंसा भड़क उठी थी, जो बाद में असम राइफल्स से कांग्ला फोर्ट को खाली कराने के बाद ही थमी थी। लेकिन  घाटी में हालात अब भी जस के तस हैं। लोगों के मन में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को लेकर भारी नाराजगी है। इस अधिनियम ने राज्य में तैनात सुरक्षा बलों को असीमित अदिकार दे दिए हैं। इन अधिकारों का अक्सर दुरुपयोग ही होता रहा है। मनोरमा कांड भी इसी अधिकार की उपज था। लोगों में इस अधिनियम को लेकर नाराजगी तो पहले से ही थी। मनोरमा कांड ने इस चिंगारी को पलीता दिखाने का काम किया।
हाल में राज्य के कांग्रेसी व विपक्षी विधायकों के घर से भारी तादाद में हथियार समेत  एक दर्जन खूंखार उग्रवादियों की गिरफ्तारी की घटना से एक बार फिर साबित हो गया है कि राज्य में उग्रवाद व राजनीति का चोली-दामन का साथ है। हालांकि उन विधायकों ने आरोप लगाया है कि उनके घर पुलिस के छापे राजनीति से प्रेरित थे और सिर्फ उनलोगों के घरों पर ही छापे मारे गए जो मुख्यमंत्री ईबोबी सिंह के नेतृत्व से असंतुष्ट थे। लेकिन इससे यह हकीकत नहीं बदल सकती कि उन नेताओं के घर से उग्रवादियों को हथियार समेत गिरफ्तार किया गया। इस घटना से चिंतित केंद्र सरकार ने राज्य के बड़े अधिकारियों के साथ दिल्ली में एक आपात बैठक कर स्थिति की सममीक्षा की है। उग्रवादियों को गिरफ्तार करने के बावजूद पुलिस ने इस मामले में अब तक किसी भी विधायक को गिरफ्तार नहीं किया है। इन गिरफ्तारियों ने पूठछताछ के दौरान कबूल किया है कि  वे वीआईपी आवास में रह कर दवा कंपनियों व विभिन्न व्यापारियों को उगाही के लिए धमकी भरे पत्र भेजते थे। इससे घाटी की हालत का अनुमान लगाया जा सकता है। जहां सत्ताधारी लोग ही उग्रवादियों को शरण देते हों, वहां आम आदमी की क्या हैसियत हो सकती है?
मणिपुर में बढ़ती उग्रवादी गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1980 में यह कानून लागू किया गया था। इसके तहत सुरक्षा बलों को एक तरह से  बिना किसी सबूत के किसी की भी हत्या का लाइसेंस दे दिया गया है। मोटे आंकड़ों के मुताबिक, इस अधिनियम के लागू होने के बाद से मणिपुर में 20 हजार से भी ज्यादा लोग सुरक्षा बलों के हाथों मारे जा चुके हैं। मनोरमा कांड के बाद स्थानीय लोग इस अधिनियम को वापस लेने की मांग में लामबंद हो गए थे। लेकिन ऐसा करने की बजाय हिंसा बढ़ते देख कर सरकार ने इस अधिनियम के संवैधानिक, कानूनी व नैतिक पहलुओं की समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति उपेंद्र आयोग का गठन कर दिया। लेकिन  इस समीक्षा का कोई खास नतीजा सामने नहीं आया। हालांकि सरकार ने अब तक इस आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है। लेकिन  जानकार सूत्रों का कहना है कि अपनी रिपोर्ट में आयोग ने उक्त अधिनियम को और लचीला व पारदर्शी बनाने की सिफारिश की थी। उसने इसे एक नागरिक कानून का दर्जा देकर देश के तमाम अशांत क्षेत्रों में लागू करने की भी बात कही थी। फिलहाल यह अधिनियम सिर्फ पूर्वोत्तर राज्यों में ही लागू है। सरकार की सोच है कि इस अधिनियम के बिना इलाके में उग्रवाद पर काबू पाना संभव नहीं है। वैसे, इस अधिनियम के लागू होने के 26 वर्षों बाद भी राज्य में उग्रवाद की घटनाएं कम नहीं हुई हैं। यहां छोटे-बड़े लगभग तीन दर्जन उग्रवादी गुट सक्रिय हैं। म्यामां से सटी अंतरराष्ट्रीय सीमा ने भी इसे उग्रवाद पनपने के आदर्श ठिकाने के तौर पर विकसित करने में अहम भूमिका निभाई है।
राज्य के कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी मानते हैं कि विशेषाधिकार अधिनियम ने सुरक्षा बलों व आम लोगों के बीच की दूरी बढ़ाई है। उग्रवाद पर काबू पाने में तो कोई खास कामयाबी नहीं मिली है। इस अधिनियम का विरोध करने वाले दलील देते हैं कि इसके लागू होने के पहले मणिपुर में सिर्फ चार उग्रवादी संगठन ही सक्रिय थे। लेकिन  अब यहां इनकी तादाद देश के किसी भी राज्य के मुकाबले ज्यादा है। जिसकी लाठी उसकी भैंस के तर्ज पर हर संगठन अपने इलाके में सक्रिय है। वे लोगों से जबरन धन उगाही व अपहरण जैसी घटनाओं को कामयाबी से अंजाम दे रहे हैं। ऐसे में उक्त अधिनियम खोखला ही लगता है। अपनी खीज मिटाने के लिए इस अधिकार का इस्तेमाल कर सुरक्षा बल अक्सर बेकसूर नागरिकों को ही अपना निशाना बनाते हैं।
इस राज्य की कई समस्याएं हैं। पहले तो यह कई आदिवासी समुदायों में बंटा है। पड़ोसी राज्य नगालैंड से सटे इलाकों में नगा उग्रवादी संगठन तो सक्रिय हैं ही, ग्रेटर नगालैंड की मांग भी यहां जब-तब हिंसा को हवा देती रही है। यहां उग्रवादी संगठनों के फलने-फूलने व सक्रिय होने की सबसे बड़ी वजह है साढ़े तीन सौ किमी लंबी म्यांमा सीमा से होने वाली मादक पदार्थों की अवैध तस्करी। मादक पदार्थों के सेवन के चलते ही राज्य में एड्स के मरीजों की तादाद बहुत ज्यादा है। नगा बहुल उखरुल जिले में तो नगा संगठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल आफ नगालैंड यानी एनएससीएन के इसाक-मुइवा गुट का समानांतर प्रशासन चलता है। वहां उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं डोलता। वहां हत्या से लेकर तमाम आपराधिक मामलों की सुनवाई भी नगा उग्रवादी ही करते हैं। लोग सरकार व अदालत के फैसलों को मानने से तो इंकार कर सकते हैं लेकिन एनएससीएन नेताओं का फैसला पत्थर की लकीर साबित होती है।
यहां का दौरा किए बिना जमीनी हकीकत का पता नहीं लग सकता। राज्य के बाकी तीन जिलों में हालात अपेक्षाकृत कुछ बेहतर है, लेकि  सुरक्षा की कोई गारंटी वहां भी नहीं है। पुलिस व प्रशासन के अधिकारी भारी सुरक्षा कवच के बीच ही निकलते हैं। उनके दफ्तरों व घरों के इर्द-गिर्द भी सुरक्षा का भारी इंतजाम रहता है। दिलचस्प बात यह है कि यहां इतने उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं कि लोग नहीं चाहते केंद्रीय बलों को यहां से हटा लिया जाए। इंफाल में एक व्यापारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि हम विशेषाधिकार अधिनियम को रद्द किए जाने के पक्ष में हैं, केंद्रीय बलों की वापसी के नहीं। केंद्रीय बलों को वापस भेज देने की स्थिति में राज्य में गृहयुध्द शुरू हो जाएगा। वे कहते हैं कि लोग उग्रवादी संगठनों के अत्याचारों व जबरन वसूली से भी उतने ही परेशान हैं जितना राज्य सरकार की उदासीनता से। बड़े पद पर बैठा हर सरकारी अधिकारी उग्रवादी संगठनों से मिला हुआ है।
इलाके के लोग कहते हैं कि राज्य में लागू युध्दविराम के बावजूद जीने के अदिकार के लिए हमारा संघर्ष जारी है। जब तक विशेषाधिकार अधिनियम की राज्य से विदाई नहीं होती, तब तक विकास की कौन कहे, राज्य में चैन से सांस लेना भी दूभर है। लेकिन राज्य सरकार और केंद्र को क्या यह जमीनी हकीकत नजर आएगी? इस लाख टके के सवाल का जवाब न तो मुख्यमंत्री के पास है और न ही किसी बड़े पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी के पास। उन सबने राज्य के आम लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है

Sunday, October 19, 2008

अंतराष्ट्रीय सीमा के बीच में बसे हैं


फोटो में पत्रकार मृणाल तालुकदार

रीता तिवारी, गुवाहाटी से

रमेन पुरकायस्थ, तपती दास और धीरेन दास यों तो खुद को भारतीय नागरिक कहते हैं. लेकिन उनकी नागरिकता सूरज की पहली किरण के साथ शुरू होती है और फिर शाम को सूरज ढलने के साथ ही खत्म भी हो जाती है. यह तीनों और असम में भारत-बांग्लादेश सीमा पर रहने वाले इनके तरह के ऐसे हजारों लोग हर रात १२ घंटे के लिए अपनी भारतीय नागरिकता गंवा देते हैं जिनके घर कंटीले तारों की बाड़ और अंतरराष्ट्रीय सीमा के बीच हैं. यह सुनने में अजीब लग सकता है लेकिन है बिल्कुल सच. असम से लगी बांग्लादेश की सीमा पर बसे दो गांवों-झारपाटा और लाफासाई गांवों के लोग आजादी के बाद से ही रात का कर्फ्यू झेलने को अभिशप्त हैं. लाफासाई गांव तो ठीक अंतराष्ट्रीय सीमा पर है. सीमा सुरक्षा बल के जवान रोजाना सुबह छह बजे कंटीले तारों की बाड़ में बना गेट खोलते हैं. शाम छह बजते ही यह गेट बंद हो जाता है. उसके बाद इन गांवों के लोग कंटीले तारों की बाड़ और अंतरराष्ट्रीय सीमा के बीच कैद हो कर रह जाते हैं.
 इनलोगों ने अपने जीवन की एक रात भी भारतीय नागरिक के तौर पर नहीं गुजारी है. इन गांवों की विडंबना यह है कि ये सीमा पर घुसपैठ रोकने के लिए लगाई गई कंटीले तारों की बाड़ और अंतराष्ट्रीय सीमा के बीच में बसे हैं. पेशे से पत्रकार मृणाल तालुकदार ने इन गांवों के जीवन पर १९ मिनट की एक डाक्यूमेंट्री बनाई है. बीते दिनों मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के विशेष वर्ग में प्रर्दशित इस डाक्यूमेंट्री को काफी सराहा गया. नोबाडीज मैन शीर्षक इस डाक्यूमेंट्री में गांव के लोगों की दुर्दशा को कैमरे में कैद करते हुए बताया गया है कि किस तरह वहां के लोग आज भी विभाजन का दंश झेलने के लिए मजबूर हैं.
भारत-बांग्लादेश की सीमा पर कंटीले तारों की बाड़ में लोहे का एक दरवाजा है. यह दरवाजा सीमा पर बसे लोगों की आवाजाही के लिए है. दरवाजा सुबह छह बजे खुलता है और शाम के ठीक छह बजे बंद कर दिया जाता है. गांववालों को इस दरवाजे को पार करने के लिए सीमा सुरक्षा बल की चौकी पर अपना पंजीकरण कराना होता है और शाम को छह बजे से पहले वापस लौटना उनके लिए जरूरी और मजबूरी है. जो लोग शाम छह बजे के पहले वापस नहीं लौट पाते और सीमा सुरक्षा बल की चौकी में अपनी वापसी की सूचना नहीं दे पाते, उनको हिरासत में ले लिया जाता है. विडंबना यह है कि इसी दरवाजे से होकर गांववालों को बाजार करने और बच्चे पढ़ने जाते हैं. बीमार व्यक्तियों को इलाज के लिए भी इसी दरवाजे से ले जाया जाता है. यानी यह दरवाजा ही उनकी जिंदगी है. लेकिन इन सभी को शाम छह बजने से पहले किसी भी हालत में वापस लौटना होता है. इन सभी विडंबनाओं और दिक्कतों को डाक्यूमेंट्री में दिखाने का प्रयास किया गया है. 
असम की राजधानी गुवाहाटी में एक समाचार एजेंसी में पूर्वोत्तर के प्रभारी के तौर पर काम कर रहे मृणाल कहते हैं कि वे महज एक पत्रकार हैं, फिल्म निर्माता नहीं. वे कहते हैं कि ‘डाक्यूमेंट्री बनाना  मेरे लिए महज एक अलग मंच के जरिए आम लोगों की समस्याओं को उठाने का तरीका है. यह दरअसल मेरी पत्रकारिता का एक्सटेंशन है.’ वैसे, तालुकदार इससे पहले चेरापूंजी में पीने के पानी की किल्लत पर वेट डेजर्ट और असम के बेरोजगार युवकों की समस्या पर इन सर्च आफ जाब शीर्षक डाक्यूमेंट्री भी बना चुके हैं.
इस डाक्यूमेंट्री का निर्देशन मृणाल और अभिजीत दास ने किया है. इसे ठीक अंतराष्ट्रीय सीमा पर फिल्माया गया है. मृणाल बताते हैं कि ‘फिल्म भले १९ मिनट की हो, लेकिन इसकी राह आसान नहीं रही. इसके लिए जरूरी मंजूरी के लिए फाइलें दिसपुर और दिल्ली के बीच दौड़ती रहीं. केंद्रीय गृह मंत्रालय व सीमा सुरक्षा बल से अनुमति मिलने में कोई आठ महीने लग गए. इसके बाद शूटिंग के दौरान बांग्लादेश राइफल्स (बीडीआर) की आपत्तियों से भी लगातार जूझना पड़ा.’ इस फिल्म के लिए आर्थिक सहायता मिली सेंटर फार सिविल सोसायटी (सीसीएस) से. मृणाल ने सीमा पर रहने वाले इन नागरिकों के रात होते ही देशविहीन हो जाने की समस्या को बड़े असरदार तरीके से उठाया है. वे कहते हैं कि ‘भारत-बांग्लादेश की पूरी सीमा पर इस समस्या से जूझने वाले लोगों की तादाद एक लाख से ज्यादा है.’ और इस समस्या का फिलहाल कोई समाधान भी नजर नहीं आता. यानी अभी इन गांवों की कई पीढ़ियां सिर्फ डे सिटीजन यानी दिन के नागरिक के तौर पर पूरी जिंदगी बिताने को मजबूर हैं.

Friday, October 17, 2008

पांडिचेरी के समुद्र तट पर


सविता वर्मा 
जनादेश  
चेन्नई से समुद्र से लगे रास्ते पर आगे बढ़े तो नारियल के घने विस्तार सामने थे। सुबह के समय हवा में ठंडक थी और अच्छी सड़क की वजह कार की रफ्तार भी काफी तेज थी। हम महाबलीपुरम से करीब दस किलोमीटर पहले एक ढाबे पर काफी पीने के लिए उतरे। सड़क के दाहिने तरफ दूर समुद्र का नीला पानी नजर आ रहा था।  उसके किनारे नारियल के लहराते पेड़। यहां से हमें पांडिचेरी जना था जो अब पुंडुचेरी कहलाता है। चेन्नई से करीब 160 किलोमीटर पर बसे पांडिचेरी का रास्ता भी काफी खूबसूरत है। रास्ते में महाबलीपुरम का पड़ाव, दक्षिण के मशहूर पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो चुका है। इस सैरगाह में कई खूबसूरत बीच रिसार्ट हैं। पिछले दो दशक के दौरान महाबलीपुरम के कुछ बीच रिसार्ट पर कई रुक चुकी हूं। इसलिए सीधे पांडिचेरी की तरफ बढ़ गए। हालांकि 1990 के दशक में पांडिचेरी की भी कई यात्राएं की पर देश में विदेशी परिवेश वाले इस शहर का आकर्षण हमेशा आमंत्रित करता रहा है। यह बात अलग है कि पांडिचेरी शहर में समुद्र का तट पत्थरों वाला है, सुनहरी रेतवाला नहीं। न तो केरल के कोवलम जसे अर्धचंद्र्राकर बीच यहां है और न ही गोवा जसे विशाल समुद्र तट।
 पांडिचेरी का बीच रोड करीब दो किलोमीटर लंबा है जो समुद्र तट के किनारे-किनारे चलता है। सड़क के एक तरफ काले बड़े-बड़े पत्थरों से टकराती लहरे नजर आती हैं तो सामने भव्य फ्रांसिसी होटल द प्रोमेदे का चमचमाता डायनिंग हाल। करीब चार घंटे में पांडिचेरी पहुंचने के बाद हम अरविंदो आश्रम के काटेल गेस्टहाउस में रुके। साफ-सुथरा गेस्टहाउस जहां शांति पसरी हुई थी। कमरे में पानी की सुराही रखने आई तमिल युवती ने चाय पर आने का न्योता दिया। काटेज गेस्टहाउस में नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात के भोजन का समय तय है। रात साढ़े आठ तक भोजन का समय समाप्त हो जता है। जो करीब सवा सात बजे शुरू होता है। तय समय के बाद पहुंचने पर निराश होना पड़ सकता है या फिर बाहर के होटल में जना पड़ेगा। यह कड़ा अनुशासन आश्रम व्यवस्था का अंग है। हालांकि बीच पर बने अरविंदो गेस्टहाउस में कुछ ज्यादा आजदी मिल जती है। वहां एक अलग रेस्त्रां भी है जो समुद्र तट से लगा हुआ है।
 पांडिचेरी शहर काफी साफ सुथरा और सेक्टर की तरह कई हिस्सों में बंटा हुआ है। समुद्र के किनारे का हिस्सा तो किसी फ्रांसीसी शहर जसा ही लगता है। चाहे आवास हो या होटल या फिर अन्य कोई ईमारत। फ्रांसीसी वास्तुशिल्प पर आधारित है। नाम भी रोमा रोला स्ट्रीट, विक्टर सिमोनेल स्ट्रीट और सेंट लुई स्ट्रीट जसे नजर आते हैं। पांडिचेरी पर १८१६ पर फ्रांसिसों का जो वर्चस्व स्थापित हुआ उसने मछुआरों के गांव को फ्रांसीसी रंग में रग दिया। यही वजह है कि यहां की जीवन शैली, संस्कृति और वास्तुशिल्प पर फ्रांस का काफी असर पड़ा है। करीब तीन साल के फ्रांसीसी शासन ने इस शहर को फ्रांसीसी शहर में बदल डाला है।  फ्रांसीसी उपनिवेश का असर आज भी नजर आता है। समुद्र तट के पास पुरानी इमारतें हों या फिर होटल या मयखाने। हर जगह फ्रांस का असर नजर आता है। जिस तरह गोवा में पुर्तगाल दिखता है उसी तरह पांडिचेरी में फ्रांस। फ्रांस के व्यंजन से लेकर मशहूर ब्रांड की मदिरा भी यहां मिल जएगी। और तो और यहां के बहुत से नागरिकों की नागरिकता भी फ्रांस की है। 
पांडिचेरी में अरविंदो आश्रम है, फ्रांसीसी वास्तुशिल्प का नायाब नमूना, गवर्नर का निवास जो अब राजभवन कहलता है। और एक नहीं कई भव्य चर्च हैं। यहां पर कई एतिहासिक मंदिर हैं। पर मंदिर जते समय ध्यान रखना चाहिए कि दोपहर बारह बजे के बाद ये मंदिर बंद हो जते हैं और चार बजे खुलते हैं। यह परंपरा दक्षिण के ज्यादातर मंदिरों में नजर आती है। महर्षि अरविंद का आश्रम तो यहां का मुख्य पर्यटन स्थल भी है। इस आश्रम में अनोखे फूल नजर आएंगे और कोई आवाज नहीं सुनाई पड़ती। लोग खामोशी से लाइन लगाकर महर्षि अरविंद के समाधि स्थल तक पहुंचते हैं और कुछ देर रुक कर उनके आवास देखते हुए बाहर आते हैं। इसकी स्थापना १९२६ में की गई थी। उनके साथ रहीं फ्रांस से आई मदर मीरा जो बाद में मां/मदर के नाम से मशहूर हुईं। उन्होंने १९६८ में ओरविल नामक अंतरराष्ट्रीय नगर बनाया। अंतरराष्ट्रीय बंधुत्व के सिद्धांत पर आधारित यह नगर पांडिचेरी से दस किलोमीटर दूर एक नई दुनिया दिखाता है। इस नगर की व्यवस्था में करीब १५ हजर लोगों को रोजगार मिला हुआ है। शिक्षा, चिकित्सा, कला, विज्ञान, हस्तशिल्प से लेकर अध्यात्म तक के केंन्द्र्र देखने वाले हैं। 
शाम होते होते बीच रोड पर रौनक बढ़ जती है तो अंधेरा घिरते ही मदिरालय गुलजर हो जते हैं। बीच रोड के बीच में अत्याधुनिक फ्रांसीसी रेस्त्रां समुद्र से लगा हुआ है। कुछ रेस्त्रां के बाहर रखे  कुर्सियों पर बैठने पर कई बार लहरों की कुछ बूंदे उछल कर ऊपर आ जती हैं। सूरज डूबने के बाद सड़क बिजली की रोशनी में नहा जती है और सामने पड़े बड़े-बड़े पत्थरों पर कई युवा जोड़े नजर आते हैं। एक तरफ समुद्र की लहरों का शोर और दूसरी तरफ तेज हवाओं से कपड़े संभालती युवतियां नजर आती हैं। सड़क की दूसरी तरफ सम्रुन्द्री मछलियों के व्यंजन का स्वाद लेते कई सैलानी नजर आते हैं। तटीय इलाकों में मछली, छींगा, लोबस्टर और केकड़े का काफी प्रचलन है और सड़क के किनारे ढेला लगाकर इन्हें बेचा जता है। पुरी हो या गोवा के समुद्र तट सब जगह यह नजरा दिखाई पड़ जता है। बीच रोड पर शाम से लेकर रात तक काफी भीड़ रहती है। यहीं पर महात्मा गांधी की प्रतिमा के नीचे खेलते बच्चे नजर आते हैं तो थोड़ी दूर पर फ्रांस के सैनिकों की याद का स्मारक और लाइट हाउस यहीं है। लाइट हाउस के पीछे आईपंडपम नाम का एक स्मारक है। कहा जता है कि यह एक वेश्या का स्मारक है जिसने लोगों को लिए तालाब खुदवाया था। बाद में नपोलियन तृतीय ने उससे प्रभावित होकर यह स्मारक बनवाया। 
यहां सूर्योदय के समय खामोशी नजर आती है। समुद्र में कब सूरज एक पीले गोले से नारंगी रंग में बदलता हुआ बाहर आ जता है पता ही नहीं चलता। सूरज के सामने मछुआरे की नाव आती है तो दृश्य देखने वाला था। पांडिचेरी अब पर्यटकों को लुभाने के लिए गोवा की तर्ज पर पहल कर रहा है। हालांकि जिस तरह गोवा अपसंस्कृति का शिकार हुआ है उसका अगर ध्यान नहीं रखा गया तो पांडिचेरी भी गोवा में बदल जएगा। शहर में विदेशी मदिरा की महासेल इसका उदाहरण है। 

Thursday, October 16, 2008

 जोगी की टक्कर का नेता नही

संजीत त्रिपाठी

रायपुर , अक्टूबर। राज्य में राजनैतिक दलों में विधानसभा चुनाव के प्रत्याशी भले ही अभी तय न हुए हों पर कांग्रेस-भाजपा दोनों ही एक दूसरे के बडे नेताओं को घेरने की रणनीति बनाने में लगे हुए है। वही  इन पार्टियों के अन्दर के धडे अपने ही पार्टी के नेताओं के भी पर कतरने की कोशिश में लगे हुए हैं। भारतीय जनता पार्टी चाहकर भी अब तक पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की काट या उनकी टक्कर का नेता नही ढूंढ पाई है जो जोगी को ताल ठोंककर  चुनौती दे सके। वहीं जोगी लगातार मुख्यमंत्री रमन सिंह को चुनौती देने में लगे हुए है। भाजपा के कुछ रणनीतिकार इसके चलते जोगी का ध्यान रमन से हटाकर रेणु जोगी की सीट पर केंद्रित करवाने की योजना पर काम कर रहे हैं। बताया जाता है कि अगर यह योजना सफल हो गई तो एक तीर से कई शिकार होने वाली बात हो जाएगी। इसके तहत भाजपा की तेज -तर्रार प्रवक्ता व दुर्ग की महापौर सरोज पाण्डेय को रेणु जोगी के खिलाफ उतारने का प्रस्ताव रखा गया है, हालांकि सरोज पाण्डेय की पसंद सिर्फ और सिर्फ शहरी क्षेत्र है उसमें भी सिर्फ दुर्ग ही उनकी पहली पसंद है। भाजपा सूत्रों की मानें तो दरअसल सरोज पाण्डेय को रेणु जोगी के खिलाफ उतारकर पार्टी दुर्ग के वर्तमान विधायक व मंत्री हेमचंद यादव को वहां से लड़ने के लिए हरी झंडी देना चाहती है। क्योंकि यादव  समर्थक पार्टी की प्रत्याशी चयन समिति के सामने मुखर होकर सरोज पाण्डेय को टिकट दिए जाने की मुखालफत कर चुके है।
इसी तरह यह बात सर्वविदित है कि सरोज पाण्डेय को राजनीति मे आगे बढ़ाने वाले वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष प्रेप्रकाश पाण्डेय ही हैं। पर इस बार मामला इसलिए दिलचस्प होता नजर आ रहा है कि प्रेमप्रकाश पाण्डेय खुद ही सरोज पाण्डेय को  दुर्ग शहर से टिकट दिए जाने का विरोध करते हुए यहां तक धमकी दे रहे है कि अगर सरोज पाण्डेय को टिकट दी जा रही है तो मुझे न दी जाय। बताया जाता है इसके पीछे पी पी पी यह तर्क दे रहे हैं कि आसपास लगी हुई दो सीटों पर ब्राम्हण  उम्मदवारों के होने परिणाम गड़बड़ा सकते है . गौरतलब है कि प्रेमप्रकाश पाण्डेय भिलाई नगर विधानसभा सीट के दावेदार हैं जो दुर्ग शहर से लगी ही हुई है। इसी सबके चलते सरोज पाण्डेय को रेणु जोगी के खिलाफ उतारा जा सकता है और वहां बडे नेताओं की सभाएं भी करवाई जा सकती है ताकि अजीत जोगी प्रचार के लिए अपनी सीट के साथ साथ कोटा सीट से ही बंध कर रह जाएं।
गौरतलब है कि भाजपा ने करीबन इसी तर्ज पर अपनी राष्ट्रीय प्रवक्ता सुषमा स्वराज को भी सोनिया गांधी के खिलाफ कर्नाटक के बेल्लारी  लोकसभा चुनाव में उतार दिया था । नतीजे चाहे जो भी आए रहे हों पर इसके पार्टी के अंदर सुषमा स्वराज का प्रभाव तत्कालिक रूप से कम हो गया था। इसी तरह छत्तीसगढ़ में दोनो ही पार्टियां जिस रणनीति पर काम कर रही है उसके तहत 'साजा के राजा' माने जाने वाले कांग्रेसी विधायक व पूर्व मंत्री  रविन्द्र चौबे के खिलाफ भाजपा ऐसे किसी साहू उम्मीदवार की तलाश में है जिसे वहां से उतारा जा सके । इस बार तो परिसीमन के कारण हालात और भी बदले नजर आ रहे हैं क्योंकि परिसीमन के चलते साजा विधानसभा क्षेत्र में कई गांव अलग हो गए है व कई ऐसे नए गांव जुडे हैं जो साहू बहुल हैं।
इसी तरह पाटन क्षेत्र के तेज-तर्रार कांग्रेसी विधायक व पूर्व मंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ  सांसद ताराचंद साहू की ही पुत्री झमिता साहू को उतारा जा सकता हैं। ध्यान देने लायक बात यह है कि झमिता साहू पूर्व में पार्टी की टिकट न मिलने पर जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव  निर्दलीय लड़कर जीत चुकी हैं। बहरहाल, पार्टियां जब तक अपने उम्मीदवार तय नही कर लेतीं तब तक  रणनीति बनाने का यह दौर जारी रहेगा।
 वह तो चांदनी चौक या सदर बाजार के नेता ही कहे जा सकते हैं। ऐसे में भाजपा का यह चयन सही ठहराया जा सकता है क्योंकि उसने उस रिक्तता को भरने की कोशिश की है जोकि मदन लाल खुराना के पार्टी छोड़ने के बाद से थी। हालांकि खुराना अब पार्टी में लौट चुके हैं लेकिन पार्टी ने उन्हें कोई भूमिका नहीं देकर साफ कर दिया है कि उसने अभी तक उनको पूरी तरह से माफ नहीं किया है। मल्होत्रा के चयन से एक और बात साफ हो गई है कि दिल्ली भाजपा में पंजाबी समुदाय का बोलबाला बरकरार है। पूर्व में खुराना और केदारनाथ साहनी होते थे और अब मल्होत्रा मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं और वह पंजाबी समुदाय से हैं। दिल्ली विधानसभा में इस समय विपक्ष के नेता जगदीश मुखी भी पंजाबी समुदाय से हैं। दिल्ली की महापौर आरती मेहरा भी पंजाबी समुदाय से हैं। दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी के घोषणापत्र समिति के प्रमुख पूर्व उपराज्यपाल विजय कपूर भी पंजाबी समुदाय से हैं। 
दिल्ली चुनावों के लिए प्रभारी बनाये गये अरुण जेटली भी पंजाबी समुदाय से हैं। दरअसल पंजाबी समुदाय दिल्ली में भाजपा का परंपरागत वोटर माना जाता रहा है। ऐसा कम से कम खुराना के समय तक तो था ही, खुराना के जाने के बाद कहीं वह वोटर छिटके नहीं इसलिए भी मल्होत्रा के नाम को उचित माना गया। पार्टी ने विजय गोयल और हर्षवर्धन को लोकसभा चुनावों में उम्मीदवार बनाने का आश्वासन दिया है। विजय गोयल की तो सीट पहले से ही निर्धारित है। हर्षवर्धन को पार्टी पूर्वी दिल्ली से उम्मीदवार बना सकती है। 

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव-आसान नहीं बीजापुर से कांग्रेस की राह

देश के पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र ‘जनादेश’  इन राज्यों की राजनीति और उससे जुड़ी हलचलों पर विशेष फोकस करने जा रहा है। इसकी शुरुआत आज से ही की जा रही है। हम छत्तीसगढ़ की एक-एक विधानसभा सीट की वर्तमान राजनैतिक हालात की समीक्षा प्रस्तुत करेंगे।

आसान नहीं बीजापुर से कांग्रेस की राह
संदीप पुराणिक

रायपुर।  बीजापुर विधानसभा क्षेत्र के मतदाता वर्तमान विधायक राजेन्द्र पामभोई से नाराज बताए जाते हैं। नक्सलियों द्वारा दी गई धमकी के बाद उन्होंने क्षेत्र में जाना बंद कर दिया है। राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि यदि कांग्रेस उन्हें प्रत्याशी बनाती है तो वे अपना प्रचार कैसे करेंगे? यहां इस बार भाजपा के पक्ष में वर्तमान विधायक व विकास कार्यों तथा सरकारी योजनाओं के कारण अच्छा माहौल दिखाई दे रहा है। इस चुनाव में यहां से  भाजपा को फायदा मिल सकता है। 
बीजापुर विधानसभा ने अक्सर कांग्रेस पर अपना विश्वास व्यक्त किया है। सन् 52 से आज तक 10 बार क्षेत्र के मतदाताओं ने कांग्रेस प्रत्याशी को विजयश्री दिलाकर विधायक बनाया है। गहन नक्सल प्रभावित इस क्षेत्र में सन् 1993 में भाजपा के प्रत्याशी को भी सफलता मिली। वर्तमान में कांग्रेस के अजीत जोगी के कट्टर समर्थक माने जाने वाले राजेन्द्र पामभोई विधायक हैं। 1952 में कांग्रेस के हीराशाह ने नामांकन दाखिल किया लेकिन किसी अन्य ने उनके खिलाफ पर्चा नहीं भरा। हीराशाह 52 में निर्विरोध निर्वाचित होकर विधानसभा में पहुंचे थे। 1957 के चुनाव में देश की आजादी का प्रभाव था। कांग्रेस सबके दिलों पर राज कर रही थी। क्षेत्र में भी इसका पूरा प्रभाव था मतदाताओं ने कांग्रेस के बी.आर. पामभोई को विधायक चुनकर अपना राजनीतिक सफर शुरू किया। अगले चुनाव 1962 में हुए कांग्रेस के हीराशाह ने पचा भरा उनके सामने मुकाबले में कोई नहीं आया वे निर्विरोध निर्वाचित घोषित किए गए। इस प्रकार वे दो बार निर्विरोध निर्वाचित हुए हैं। लेकिन एक घटनाक्रम के बाद यहां 27 अप्रैल 62 को उपचुनाव कराने पड़े कांग्रेस के पूर्व विधायक बी.आर. पामभोई पुन: विधायक बनाए गए उनका मुकाबला दो निर्दलीय आयतूराम व कोसा ने किया। सन् 1967 में 5 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे पहली बार जनसंघ ने हंगा मेंडा को अपना प्रत्याशी बनाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। कांग्रेस ने बकैया राज को प्रत्याशी बनाया लेकिन दोनों राजनैतिक दलों को निर्दलीय दृगपाल शाह केशरीशाह ने मात देकर विजय प्राप्त की। सन् 1972 चुनावी समर में फिर 5 प्रत्याशी उतरे कांग्रेस के किष्टैया पप्पैया विधायक बने। उन्होंने निर्दलीय पूर्व विधायक दृगपाल को हराया। जनसंघ प्रत्याशी कन्हैया राजैय्या तीसरे क्रम में खड़े दिखाई दिए। 1977 में जनता लहर गहन बीहड़ वन क्षेत्र में पहुंच गई। जनता पार्टी ने महादेव आयतूराम को प्रत्याशी बना दिया। इस चुनाव में क्षेत्र के मतदाताओं ने परिवर्तन करके यह संदेश दिया कि देश की राजनैतिक हलचलों से यह बीहड़ क्षेत्र बराबर का सरोकार रखता है, महादेव आयतूराम विधायक बने। 1980 में कांग्रेस के महादेव राणा विधायक बने, उनका मुकाबला निर्दलीय राजेन्द्र कुमार बकैया पामभोई से हुआ। जनसंघ तीसरे क्रम पर ही खड़ी दिखाई दी। सन् 85 में भी कांग्रेस की विजय पताका शिशुपाल शाह ने विधायक बनकर फहराई। इस चुनाव में  उनका मुकाबला भाकपा के चिंतुर सुखराम से हुआ। जनसंघ भाजपा बन चुकी थी, फिर भी वह तीसरे क्रम पर ही खड़ी रही। 1990 के चुनाव में भाजपा ने यकायक मुकाबले पर आकर अपना जनाधार साबित कर दिया। उनके प्रत्याशी राजाराम तोडेम कांग्रेस प्रत्याशी राजेन्द्र पामभोई से मात्र 96 मतों से हार गए। लेकिन अपनी बढ़ी हुई शक्ति का प्रदर्शन कर दिया। 1993 में भाजपा से सतर्क कांग्रेस ने राजेन्द्र पामभोई को चुनाव मैदान में उतारा। राजाराम तोडेम ने कड़ा मुकाबला किया और 877 मतों से जीत हासिल कर पहली बार भाजपा का केशरिया ध्वज फहराया। क्षेत्र के लिए राजेन्द्र व राजाराम परंपरागत प्रतिद्वंद्वी बन गए। मतदाताओं ने दोनों पर भरपूर प्यार लुटाया आंकड़ों की गणित कभी राजेन्द्र कभी राजाराम के पक्ष में गई। 1998 में पुन: राजेन्द्र पामभोई विधायक बने। उन्होंने तोडेम को 7141 मतों से मात दी। 2003 में जब बस्तर का मतदाता भाजपा को जीत के मत डाल रहा था बीजापुर के मतदाता कांग्रेस पर अपनी मुहर लगा रहे थे। राजेन्द्र पामभोई ने तोडेम को 2721 मतों से फिर परास्त कर दिया। क्षेत्र महेन्द्र कर्मा के नेतृत्व में चल रहे आदिवासियों के सलवा जुडूम से प्रभावित है। राजेन्द्र पामभोई भी उसके अगुवा बने महेन्द्र कर्मा का साथ दिया। मंचासीन हुए लेकिन गुटबाजी की राजनीति व जोगी का नेतृत्व स्वीकार कर अपने गुट के इशारे पर उन्होंने बड़ी खूबसूरती से सलवा जुडूम आंदोलन से कन्नी काट कर लिया कल तक जुडूम जिंदाबाद के नारे लगाने वाले पामभोई जुडूम व महेन्द्र कर्मा के खिलाफ आग उगलने लगे। कल के दोस्त महेन्द्र कर्मा से छत्तीस का आंकड़ा बन गया। दोनों नेताओं में क्षेत्र के लोग एक मूल फर्क यह बताते हैं कि महेन्द्र को नक्सलियों ने बीजापुर में चुनौती दी तो वे सीना तान कर बीजापुर में घुसे चुनौती को स्वीकार किया लेकिन भैरमगढ़ क्षेत्र में हुए एक बारूदी विस्फोट में बच जाने के बाद राजेन्द्र पामभोई ने आज तक क्षेत्र की तरफ पलट कर भी नहीं देखा। लोग कहते हैं वे क्षेत्र में विकास तो हो रहा है पर धीमी चाल में और उसका श्रेय विधायक को नहीं जिले के मंत्री डा. सुभाऊ कश्यप को लोग देते हैं। लोग श्री पामभोई से नाराज दिखाई दिए। आगामी चुनाव में भी राजेन्द्र पामभोई की दावेदारी इस क्षेत्र की टिकट पर है। श्री पामभोई की टिकट का विरोध महेन्द्र कर्मा कर रहे हैं और पूर्व में कम्युनिस्ट पार्टी में रहे शंकनी चन्दैया को टिकट दिलाना चाहते हैं। ज्ञात रहे कि ये वही शंकनी चन्दैया है जिन्होंने पिछला चुनाव भाकपा की टिकट पर राजेन्द्र पामभोई के खिलाफ लड़ा था। एक घटनाक्रम में सलवा जुडूम से प्रभावित होकर उन्होंने महेन्द्र कर्मा के नेतृत्व में कांग्रेस प्रवेश कर लिया। श्री कर्मा ने हाईकमान से कहा है कि पामभोई के स्थान पर किसी अन्य को टिकट देने की मांग की है। भाजपा से टिकट के दावेदार राजाराम तोडेम व महेश जागड़ा है। बीजापुर विधानसभा क्षेत्र में भाकपा का कोई खास प्रभाव नहीं है। यहां कांग्रेस व भाजपा के बीच ही सीधा मुकाबला होगा। इस चुनाव में भाजपा को सीधा फायदा होने के आसार है। क्योंकि वर्तमान विधायक राजेन्द्र पामभोई जब से उन्हें नक्सलियों की धमकी मिली है तब से क्षेत्र में जाना बंद कर दिए हैं। क्षेत्र के मतदाताओं के मन में उनके प्रति काफी नाराजगी है। संसदीय सचिव सुभाऊ कश्यप ने क्षेत्र में शासकीय योजनाओं का लाभ दिलाए हैं, तथा विकास कार्य काफी कराए हैं। इसका सीधा फायदा भाजपा को ही मिलेगा। यदि कांग्रेस पामभोई को प्रत्याशी बनाती है तो उन्हें मतदाताओं को अपने पक्ष में करने तथा उनका आक्रोश दूर करने में समय व्यतीत हो जाएगा। मान मनौव्वल में समय व्यतीत करने से उनका यह चुनाव जीत पाना कठिन है। जिस नक्सली धमकी के कारण वे क्षेत्र में जाना बंद कर दिए हैं उस क्षेत्र में वे अपना चुनाव प्रचार कैसे करेंगे यह भी सोचनीय प्रश्न है? बीजापुर क्षेत्र धूर नक्सल प्रभावित है। यहां भी कई गांव नक्सली आतंक के कारण खाली हो चुके हैं। काफी संख्या में ग्रामीण शिविर में रह रहे हैं। सरकार ने शिविर में रहने वाले ग्रामीणों की सुरक्षा व्यवस्था, रहने की व्यवस्था, रोजगार के साधन, पेयजल व्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा की व्यवस्था की है। जानकारों का कहना है कि वर्तमान विधायक ने शिविर में रहने वाले ग्रामीणों का हालचाल भी जानने का शिविर स्थल में जाकर प्रयास नहीं किया है। विधायक के क्षेत्र में नहीं रहने के कारण क्षेत्र में विकास कार्य भी प्रभावित हुआ है। राजेन्द्र पामभोई को कांग्रेस ने चार बार प्रत्याशी बनाकर मैदान में उतारा वे तीन बार जीते हैं और एक बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा है।

मायावती से अब सर्वजन का मोहभंग

अंबरीश कुमार 

लखनऊ, अक्टूबर। बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का दिल्ली का रास्ता दूर होता नजर आ रहा है। बहुजन और सर्वजन की नाव पर सवार होकर सत्ता में आई मायावती से अब सर्वजन का मोहभंग होना शुरू हो गया है। रायबरेली में रेल कोच फैक्ट्री के लिए जमीन वापस लेना, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की जनसभा कानून व्यवस्था के बहाने रद्द करवा देना और सोनिया गांधी पर नाटक करने का आरोप आदि कुछ उदाहरण हैं जिसके चलते पिछले एक हफ्ते में मायावती की छवि को दागदार बना दिया है। अब वे लोग मायावती के खिलाफ नजर आ रहे हैं जो कल तक उनके धुर समर्थक थे। चाहे पीएचडी चैम्बर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री की प्रदेश इकाई हो या फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जो मायावती सरकार का समर्थन करती रही है, इस मुद्दे पर उनके खिलाफ खड़ी हो गई है। यही प्रतिक्रिया शिक्षा जगत से लेकर समाज के अन्य प्रबुद्ध तबकों से मिल रही है। यह सर्वजन है जिसकी मदद से ही मायावती दिल्ली की गद्दी पर बैठ सकती हैं। इसके अलावा जिलों-जिलों से मिल रही खबरों से साफ है कि मायावती का करिश्मा अब उतार पर है। यह बसपा के लिए खतरे की घंटी भी है जो ‘यूपी हुई हमारी है-अब दिल्ली की बारी है’ का नारा उछाले हुए है।
बुधवार को मायावती की प्रेस कांफ्रेंस में उनके तेवर से साफ था कि वे बचाव की मुद्रा में हैं। मायावती ने ढेर सारे तर्क दिए पर यह किसी के गले नहीं उतर पाया कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की जनसभा क्यों रद्द करवा दी गई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मायावती का समर्थन कर रही है। पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक मिश्र ने कहा,‘रायबरेली में जिस तरह रेल कोच फैक्ट्री की जमीन वापस ली गई और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की जनसभा कानून व्यवस्था के नाम पर रद्द कर दी गई, उसका कोई भी समङादार व्यक्ति समर्थन नहीं कर सकता। मायावती जब सत्ता में आई थी तो वे राष्ट्रीय राजनीति में आगे बढ़ती नजर आ रही थीं। पिछले कुछ दिनों से उनका राजनैतिक ग्राफ स्थिर नजर आता था पर अब इस घटना के बाद वह पीछे जता नजर आ रहा है।’ दूसरी तरफ पीएचडी चैम्बर आफ कामर्स एंड इंडस्ट्री की प्रदेश इकाई के चेयरमैन शिशिर जयपुरिया ने कहा-राज्य सरकार के इस फैसले से उद्योग जगत को तगड़ा ङाटका लगा है। इस घटना के बाद कोई भी उद्यमी सोच-समङाकर प्रदेश में निवेश करेगा।
सीआईआई के प्रदेश इकाई के अध्यक्ष अमिताभ नागिया ने कहा-इस फैसले से रायबरेली के लोगों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसका राजनैतिक संदेश दूरगामी होगा जबकि ऐसोचैम के महासचिव एसबी अग्रवाल ने कहा-यह फैसला उद्यमियों का मनोबल तोड़ने वाला है जिससे प्रदेश का विकास प्रभावित होगा। यह प्रतिक्रियाएं उद्योग जगत की थी। पर इसका सबसे ज्यादा असर राजनैतिक दलों और बुद्धिजीवियों पर पड़ा है। लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रमोद कुमार उन लोगों में शामिल हैं जिन्होंने सबसे पहले मायावती के सत्ता में आने की आहट को महसूस किया था और कहा था। प्रमोद कुमार ने कहा,‘मायावती के कौन राजनैतिक सलाहकार हैं, यह हमें नहीं पता लेकिन पिछले एक हफ्ते में जो घटनाएं हुई हैं, उससे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का कद और बढ़ा और मायावती की छवि धूमिल हुई है। शिक्षकों और छात्रों के बीच तो यही प्रतिक्रिया है। मायावती जसी नेता से न्यूनतम राजनैतिक शालीनता की उम्मीद जो लोग कर रहे थे, उनका मोहभंग हो गया है। यही वह सर्वजन है जिसकी पीठ पर सवार होकर मायावती को दिल्ली तक जना है।’
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने कहा-मायावती ने १८ महीने के अपने शासन में प्रदेश को १८ साल पीछे ढकेल दिया है। रायबरेली की घटना दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे सब की आंखें खुल गई। वैसे भी मायावती के राज में न अल्पसंख्यक सुरक्षित है और बहुसंख्यक। किसानों का शोषण हो रहा है। जिले-जिले में उगाही की मुहिम चल रही है। यही वजह है कि हमारी पार्टी इसका प्रतिकार करने के लिए २१, २२ और २३ अक्टूबर को पूरे प्रदेश में डेरा डालो, घेरा डालो कार्यक्रम करने ज रही है।
मायावती सरकार की उपलब्धियों से ज्यादा अब उनकी नाकामियों पर चर्चा हो रही है। मुख्यमंत्री कार्यालय पंचम तल हर कुछ दिन में कोई न कोई सांप सीढ़ी की तर्ज पर ऊपर से नीचे ढकेल दिया जता है। पहले शलेश कृष्ण गए और अब कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह को लेकर सत्ता के गलियारे में चर्चा तेज है। सत्ता के केन्द्र में अब नए अफसर विजय शंकर पांडे आ गए हैं। मायावती के लिए मीडिया को संभालने की जिम्मेदारी भी इन्हीं पर है। हालांकि बसपा का पुराना नारा रहा है कि बहुजन पर मीडिया का कोई असर नहीं पड़ता है इसलिए मीडिया की वे परवाह भी नहीं करते। पर सर्वजन के जुड़ने के बावजूद इस सिद्धांत में कोई बदलाव नहीं आया है। मीडिया का सबसे ज्यादा असर सर्वजन पर पड़ता है। यह बात बसपा के सिपहसालार नहीं समङा पा रहे हैं। पिछले पांच दिन की राजनैतिक घटनाओं की मीडिया कवरेज से सबसे ज्यादा असर सर्वजन पर पड़ा है। यह मायावती के लिए दिल्ली का रास्ता दूर कर सकता है।
(साभार- जनसत्ता)

  

Monday, October 6, 2008

मध्य प्रदेश-सौ बच्चों की मौत

 
-फिरदौस खान-
बेशक भारत आर्थिक और परमाणु शक्ति बनने की ओर अग्रसर है, लेकिन बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में वह काफी पीछे है। मध्य प्रदेश में कुपोषण से हो रहीं मौतें इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं। गौरतलब है कि पिछले करीब एक पखवाड़े में मध्यप्रदेश के खंडवा, झाबुआ, सतना और शिवपुरी जिलों में करीब सौ बच्चों की मौत हो चुकी है और दो सौ से ज्यादा अस्पताल में भर्ती हैं। 
संसद में पेश एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 46 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-3), 2005-06 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में तीन साल से कम उम्र के करीब 47 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं। इसके कारण उनका शारीरिक विकास भी रुक गया है। देश की राजधानी दिल्ली में 33.1 फीसदी बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, जबकि मध्य प्रदेश में 60.3 फीसदी, झारखंड में 59.2 फीसदी, बिहार में 58 फीसदी, छत्तीसगढ में 52.2 फीसदी, उडीसा में 44 फीसदी, राजस्थान में भी 44 फीसदी,  हरियाणा में 41.9 फीसदी, महाराष्ट्र में 39.7 फीसदी, उत्तरांचल में 38 फीसदी, जम्मू कश्मीर में 29.4 फीसदी और पंजाब में 27 फीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं। 

यूनिसेफ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के कुल कुपोषणग्रस्त बच्चों में से एक तिहाई आबादी भारतीय बच्चों की है। भारत में पांच करोड 70 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। विश्व में कुल 14 करोड 60 लाख बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं। विकास की मौजूदा दर अगर ऐसी ही रही तो 2015 तक कुपोषण दर आधी कर देने का सहस्राब्दी विकास लक्ष्य 'एमडीजी' 2025 तक भी पूरा नहीं हो सकेगा। रिपोर्ट में भारत की कुपोषण दर की तुलना अन्य देशों से करते हुए कहा गया है कि भारत में कुपोषण की दर इथोपिया, नेपाल और बांग्लादेश के बराबर है। इथोपिया में कुपोषण दर 47 फीसदी तथा नेपाल और बांग्लादेश में 48-48 फीसदी है, जो चीन की आठ फीसदी, थाइलैंड की 18 फीसदी और अफगानिस्तान की 39 फीसदी के मुकाबले बहुत ज्यादा है। यूनिसेफ के एक अधिकारी के मुताबिक भारत में हर साल बच्चों की 21 लाख मौतों में से 50 फीसदी का कारण कुपोषण होता है। भारत में खाद्य का नहीं, बल्कि जानकारी की कमी और सरकारी लापरवाही ही कुपोषण का कारण बन रही है। उनका यह भी कहना है कि अगर नवजात शिशु को आहार देने के सही तरीके के साथ सेहत के प्रति कुछ सावधानियां बरती जाएं तो भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के छह लाख से ज्यादा बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है।
दरअसल, कुपोषण के कई कारण होते हैं, जिनमें महिला निरक्षरता से लेकर बाल विवाह, प्रसव के समय जननी का उम्र, पारिवारिक खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, टीकाकरण, स्वच्छ पेयजल आदि मुख्य रूप से शामिल हैं। हालांकि इन समस्याओं से निपटने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चलाई हैं, लेकिन इसके बावजूद संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आए हैं। देश की लगातार बढती जनसंख्या भी इन सरकारी योजनाओं को धूल चटाने की अहम वजह बनती रही है, क्योंकि जिस तेजी से आबादी बढ रही है उसके मुकाबले में उस रफ्तार से सुविधाओं का विस्तार नहीं हो पा रहा है। इसके अलावा उदारीकरण के कारण बढी बेरोजगारी ने भी भुखमरी की समस्या पैदा की है। आज भी भारत में करोडाें परिवार ऐसे हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पाती। ऐसी हालत में वे अपने बच्चों को पौष्टिक भोजन भला कहां से मुहैया करा पाएंगे। एक कुपोषित शरीर को संपूर्ण और संतुलित भोजन की जरूरत होती है। इसलिए सबसे बडी चुनौती फिलहाल भूखों को भोजन कराना है। हमारे संविधान में कहा गया है कि 'राज्य पोषण स्तर में वृध्दि और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझेगा।' मगर आजादी के छह दशक बाद भी 46 फीसदी बच्चे कुपोषण की गिफ्त में हों तो जाहिर है कि राज्य अपने प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्यों में नकारा साबित हुए हैं।
1996 में रोम में हुए पहले विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन (डब्ल्यूएफएस) के दौरान तकरीबन सभी देशों के  प्रमुखों ने यह वादा दोहराया था कि पर्याप्त स्वच्छ और पोषक आहार पाना सभी का अधिकार होगा।उनका मानना था कि यह अविश्वसनीय है कि दुनिया के 84 करोड लोगों को पोषक जरूरतें पूरी करने के लिए अनाज उपलब्ध नहीं है। कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है। विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वजन का है। यह संख्या करीब एक करोड 46 लाख है। नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।
हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फसल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पडी ग़ली-सडी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं। महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूडेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकडाें को उठाते हुए देखा जा सकता है। रोजगार की कमी और गरीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं। इस हालत में भी सबसे ज्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पडता है, क्योंकि वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए।  
काबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की जरूरत होती है तो दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तडपते हुए दम तोड देते हैं। यह एक कडवी सच्चाई है कि हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक गरीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाईर् गईं, लेकिन लालफीताशाही के चलते वे महज कागजों तक ही सीमित होकर रह गईं। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है। एक तरफ गोदामों में लाखों टन अनाज सडता है तो दूसरी तरफ भूख और कुपोषण से लोग मर रहे होते हैं। ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है? 

परिवार एवं कल्याण राज्य मंत्री रेणुका चौधरी भी कुपोषण की इस हालत पर चिंता जताते हुए इसे भयावह और शर्मनाक करार देती हैं। उनका मानना है कि नेताओं समेत शिक्षित वर्ग का एक बडा हिस्सा कुपोषण की समस्या को समझने में नाकाम रहा है। कुपोषण के लिए कृषि में आए बदलाव को काफी हद तक जिम्मेदार ठहराते हुए वे कहती हैं कि नगदी फसलों के प्रति बढे रुझान के कारण किसानों ने अपनी खाद्यान्न सुरक्षा खो दी है।

आज के बच्चे कल का भविष्य हैं। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि उन्हें भरपेट संतुलित आहार मिले। इसके लिए सरकार को पंचायती स्तर पर प्रयास करने होंगे। हमारे देश में अनाज के भंडार भरे हुए हैं, ऐसी हालत में भी अगर बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं तो इसकी जवाबदेही प्रशासन की है।

Sunday, October 5, 2008

बैलेट का विकल्प नहीं बुलेट-माओवादी

काठमांडू से राजकुमार सोनी
काठमांडू .माओवादियों को मुख्यधारा में लाने के लिए मध्यस्थ की भूमिका का निभा चुके नेपाल की संसद एवं संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष सुभाष चंद्र निमांग का यह मानना है कि जनता की आकांक्षाओं की असली अभिव्यक्ति बैलेट ही है। बुलेट के जरिए कभी भी विकास के रास्ते पर चला नहीं ज सकता। कुछ यही विचार भारत और नेपाल के विभिन्न हिस्सों में लंबे समय तक भूमिगत रहने वाले माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्य सचेतक दीनानाथ शर्मा का है। शर्मा छत्तीसगढ़ के पत्रकारों से चर्चा कर रहे थे . निमांग एवं शर्मा ने कहा- नक्सली जिस रास्ते पर चल रहे हैं उस रास्ते से उन्हें सौ सालों में सफलता नहीं मिल सकती। उनका मानना है कि नेपाल में माओवादियों ने बैलेट के जरिए ही सफलता पाई है, इसलिए बुलेट को विकल्प नहीं माना ज सकता।  
  निमांग एवं शर्मा ने कहा कि नेपाल में नए गणतंत्र की स्थापना से एक अच्छा संदेश गया है। अब नेपाल को इज्जत की निगाहों से देखा जने लगा है।नए नेपाल के गठन की तैयारी में जुटे नेताओं ने बताया कि राजशाही से देश की जनता परेशान हो चुकी थी। राजशाही ने नेपाल में ऐसा कुछ नहीं किया जिससे जनता का भला होता। उन्होंने बताया कि राजशाही के खिलाफ संघर्ष के दौरान लगभग १४ हजर लड़ाकों की जनें चली गई है। इन लड़ाकों को अब शहीद का दज्र देते हुए उनके परिजनों को दस-दस लाख रूपए का मुआवज देने की तैयारी चल रही है। लोकतंत्र की नई व्यवस्था के बारे में जनकारी देते हुए नेताओं ने बताया कि नेपाल किसी भी देश की लोकतंत्रीय व्यवस्था की फोटोकापी लागू करने के पक्ष में नहीं हैं। उन्होंने बताया कि राजशाही में नेपाल का तराई वाला इलाका, गरीब-दलित सभी छूट गए थे, लेकिन नए नेपाल में 21 वीं सदी का लोकतंत्र गढ़ा ज रहा है जिसमें हर हाल में जनता के अधिकार और सम्मान की गारंटी होगी। छह सौ एक सदस्यीय संविधान सभा नेपाल को बदलने तैयारी में लगी हुई है। इस सभा की अब तक 20 से ज्यादा बैठकें हो चुकी है।
नक्सलियों द्वारा तिरुपति से पशुपति तक रेड कारीडोर बनाए जने की बात को अस्वीकार करते हुए नेताओं ने कहा कि भारत में यह प्रचार भारतीय जनता पार्टी के द्वारा किया गया था। नेताद्वय ने माना कि भ्रम के आधार पर जनता के बीच यकीन की जड़े जमाई नहीं ज सकती।
नेपाल के हिन्दू राष्ट्र नहीं रहने के सवाल पर शर्मा ने कहा कि धर्म हमेशा से व्यक्ति मसला होता है। वे धार्मिक नहीं है, लेकिन किसी से यह नहीं कहेंगे कि जओं अमुक जगह की मस्जिद तोड़ दो।www.janadesh.in 

Saturday, October 4, 2008

छवि खराब की -जज ने कहा

संजीत त्रिपाठी

रायपुर , सितंबर। बहुचर्चित रामअवतार जग्गी हत्याकांड में फैसले से जुडे होने का दावा करती एक सीडी बुधवार को जारी होने के बाद आज जज बी एल तिड़के के पुत्र अजय तिड़के ने सीडी जारी करने वालों के खिलाफ पुलिस में रपट लिखाई हैं। वहीं देर शाम दूसरे पक्ष के अनवर ढेबर व उमंग गोयल ने रपट दर्ज करवा दी है। दोनो ही पक्ष ने एक दूसरे पर जान से मारने की धमकी देने का आरोप लगाया हैं।
अपनी रपट में अजय तिड़के ने कहा है कि 6-7 महीने पहले राक्सी रेस्टारेंट में उसकी मुलाकात अनवर ढेबर व उमंग गोयल से हुई । तब उसे यह नही पता था कि ये दोनो जग्गी मर्डर केस में आरोपियों के भाई हैं। जब मालूम चला तो इनसे अलग हो गया । अलग होने के बाद इन लोगों ने जान से मारने की धमकी दी। अलग होने पर जब पहले दोस्ती हुई थी तब 4-5 बार इन लोगों ने शराब पिलाकर परिवार वालों के बारे में पूछताछ की। सिविल लाइन थाने में अनवर ढेबर व उमंग गोयल के खिलाफ धारा 506 के तहत मामला दर्ज कर लिया गया हैं।
 वहीं आज शाम में अनवर ढेबर व उमंग गोयल ने भी थाने पहुंचकर जज बी.एल. तिड़के के पुत्र अजय तिड़के पर जान से मारने की धमकी देने का आरोप लगाते हुए रपट लिखाई । पुलिस ने मामले को जांच में ले लिया हैं।
गौरतलब है कि बुधवार को एक प्रेस कान्फेंस में अनवर ढेबर व उमंग गोयल ने जग्गी मर्डर केस में अमित जोगी की रिहाई में लेन-देन का आरोप लगाते हुए एक सीडी जारी की थी।

दूसरी तरफ जज बीएल तिड़के ने एक अखबार में छपे बयान में  है कि फर्जी सीडी के जरिए उनकी छवि खराब करने की कोशिश की जा रही है।  उन्होंने कहा है कि बिना स्पष्टीकरण लिए पत्रकारवार्ता में आरोप लगाना और उसे छापना न्यायालय की अवमानना है। ऐसे लोगों को प्रोत्साहित नही किया जाना चाहिए। प्रकरण के फैसले से पूर्व     भी मुझे धमकियां मिल रही थी। शिकायत करने पर एसपी ने मुझे सुरक्षा गार्ड उपलब्ध करवाए थे। सीडी में चालाकी से आवाज की नकल  की गई है ताकि वे न्यायाधीश को बदनाम कर सकें। ऐसे लोगों को वे कानूनी नोटिस भेज रहे हैं।





Friday, October 3, 2008

टाटा के जाने से टूट गए सपने

प्रभाकर मणि तिवारी
कोलकाता, अक्तूबर। सिंगूर से टाटा मोटर्स के हाथ खींचने की वजह से पश्चिम बंगाल में औद्योगिकीरण की प्रक्रिया को तो करारा ङाटका लगा ही है, कई सपने टूट गए हैं। इस बात का अंदेशा तो उसी समय पैदा हो गया था जब दो सितंबर को टाटा मोटर्स ने ¨सगुर संयंत्र का काम औपचारिक तौर पर बंद रखने का फैसला किया था। लेकिन बुधवार को रतन टाटा ने औपचारिक तौर पर सिंगूरसे वापसी का एलान कर उन तमाम सपनों पर पानी फिर गया, जो इस परियोजना के इर्द-गिर्द पनपने लगे थे। नैनो टाटा समूह के प्रमुख रतन टाटा के सपनों की कार तो थी ही, इस कार संयंत्र के आसपास बसे लोगों की आखों में भी इसने कई नए सपनों को जन्म दिया था। इलाके के नवधनाढच्यों के पैसों को भुनाने के लिए इलाके में कार व मोटरसाइकिलों के शोरूम तो खुले ही थे, बैंकों की कई शाखाएं भी खुल गई थीं। दिसंबर 2006 तक ¨सिंगूरमें महज दो बैंकों की ही शाखाएं थी, लेकिन अब यह तादाद सात तक पहुंच गई थी। इन बैंकों का टर्नओवर भी लगातार बढ़ रहा था।
वैसे, सिंगूर से टाटा की रवानगी की उल्टी गिनती तो उसी समय शुरू हो गई थी जब अगस्त के आखिर में तृणमूल के लोगों ने कर्मचारियों के साथ मारपीट की और उनको संयंत्र में काम पर जने से रोक दिया था। बीते २२ अगस्त को रतन टाटा ने जब यहां ¨सगुर से हाथ खींचने की चेतावनी दी थी, तब उन्होंने इसके लिए कोई समयसीमा नहीं तय की थी। शायद उनको उस समय भी हालात बदलने की उम्मीद रही होगी। टाटा ने आज माना भी कि उनको हालत सुधरने की उम्मीद थी। लेकिन डेढ़ महीने के इंतजर के बावजूद गतिरोध टूटते नहीं देख टाटा का धैर्य जवाब दे गया। टाटा ने कहा था कि भारी निवेश के बावजूद अपने कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए वे इस परियोजना को कहीं और ले ज सकते हैं।। उन्होंने दो-टूक शब्दों में कहा था कि अगर वे ¨सगुर से हाथ खींचते हैं तो राज्य में निवेश की टाटा समूह की भावी योजनाओं का प्रभावित होना तय है। सिंगुर में काम बंद होने से सिर्फ यहां से लखटकिया निकालने का टाटा समूह का सपना ही नहीं टूटा, बेशुमार लोगों के सपने टूट गए हैं। इनमें इस संयंत्र को जरिए राज्य में औद्योगिकीकरण अभियान को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाने का मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का सपना है तो इस संयंत्र में रोगजर पाने और इससे इलाके का कायाकल्प होने का लोगों का सपना भी टूटा है। टाटा के इस फैसले से राज्य में जरी औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को भारी ङाटका लगेगा। 
हुगली जिले के इस अनाम-से कस्बे में लखटकिया कार के लिए जमीन देने वाले ज्यादातर किसान भी चाहते थे कि नैनो इसी संयंत्र से बाहर निकले। इस परियोजना ने स्थानीय लोगों का जीवन और रहन-सहन का स्तर ही बदल दिया है। टाटा मोटर्स की इस परियोजना में सैकड़ों स्थानीय लोगों को रोजगार तो मिला ही था, जमीन के बदले किसानों को जितने पैसे मिले, उसकी तो उन लोगों ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। लेकिन अब उन लोगों के सामने वजूद का सवाल खड़ा हो गया है। जमीन के एवज में मिले लाखों रुपए ने दो जून भरपेट भात के लिए तरसने वाले इन किसानों की ¨जदगी में पहिए लगा दिए थे। जिस जमीन की कीमत कल तक कौड़ियों में थी, वह रातोंरात आसमान चूमने लगी थी। परियोजना के जमीन देवे वाले कृष्णोंदु दास का कहना था कि इस परियोजना ने इलाके के लोगों में रोजगार और समृद्धि की उम्मीदें जगाई थी। इलाके के कई युवक तो इसमें काम भी कर रहे हैं। लेकिन अब तो हम न घर के रहे और न घाट के। 
इलाके के ज्यादातर लोगों का मानना है कि परियोजना पूरी होने के बाद इलाके में विकास की प्रक्रिया और तेज हो जती। लेकिन अब बेहतर भविष्य के स्थानीय लोगों खासकर युवकों के सपने धुंधलाने लगे हैं।यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि टाटा को अपने इस फैसले से सिर्फ आर्थिक नुकसान ही उठाना पड़ेगा। लेकिन उनके इस फैसले से ¨सगुर समेत पूरे राज्य और इसकी साख को जो नुकसान होगा उसकी भरपाई कर पाना काफी मुश्किल होगा। टाटा ने भले कहा हो कि राज्य में निवेश के माहौल से इस फैसले का कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन इसका असर भावी निवेशकों पर भी पड़ना तय है। इस फैसले के दूरगामी नतीजे तो बाद में सामने आएंगे, लेकिन इससे व्यावसायिक तबके में जो उथल-पुथल शुरू हो गई है, उसके ङाटके तो अभी से महसूस होने लगे हैं।जनसत्ता से

Thursday, October 2, 2008

रायपुर से कांग्रेस का 'सेनापति' पत्रकार?

संदीप पुराणिक/संजीत त्रिपाठी

रायपुर , अक्टूबर। रायपुर की चारों विधानसभा में सबसे कठिन मानी जा रही दक्षिण विधानसभा सीट पर कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेता अपनी-अपनी चौसर बिछाकर प्यादों के नाम आगे पीछे करने में लगे हुए हैं पर बृजमोहन पिछले चार चुनावों से अजेय बने हुए हैं। कहीं न कहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता उनके खिलाफ एक ऐसा प्रत्याशी ढूंढने में लगे हुए हैं जो भले ही उन्हें पराजित न कर पाए लेकिन ऐसी टक्कर देकर यह महसूस करवा दे कि उनके अभेद्य दुर्ग में सेंध लग चुकी है और उनकी 'बादशाहत' अब सुरक्षित नहीं रही। इसी तारतम्य में कांग्रेस के बूढ़े शेर कहलाने वाले एक वरिष्ठ नेता ने दक्षिण विधानसभा सीट से एक वरिष्ठ पत्रकार अनल प्रकाश शुक्ला का नाम आगे बढ़ाया है जिसके नाम का विरोध अन्य कोई वरिष्ठ नेता नहीं कर सकता।  क्योंकि इस वरिष्ठ पत्रकार ने अपने 30 साल के साफ सुधरे बेदाग कैरियर में एकाध को छोड़कर बाकी सभी नेताओं को नेता बनते देखा है। कांग्रेस में प्रत्याशी चयन को लेकर छानबीन समिति की बैठक 3 अक्टूबर को है। संभवत: बैठक में श्री शुक्ला का नाम तय कर केन्द्रीय समिति को भेज दिया जाएगा।
उल्लेखनीय है कि राजस्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल लगातार चार बार से रायपुर शहर विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने जा रहे हैं। नए परिसीमन में रायपुर के दो विधानसभा क्षेत्र बढ़कर चार हो गए हैं। कांग्रेस का गढ़ कहे जाने वाले रायपुर शहर विधानसभा क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी की हैसियत से बृजमोहन अग्रवाल ने ही फतह हासिल की थी। बृजमोहन अग्रवाल ने इस सीट को भाजपा का गढ़ बना दिया है। रायपुर दक्षिण विधानसभा सीट को कांग्रेस प्रतिष्ठा की सीट मानकर चल रही है, इस बार कांग्रेस यहां जीत हासिल करना चाहती है। कांग्रेस में दक्षिण विधानसभा सीट से टिकट के लिए संतोष दुबे, योगेश तिवारी, प्रमोद दुबे, हाजी नाजिमुद्दीन, पप्पु फरिश्ता सहित अन्य कई नाम चर्चा में रहे हैं। रायपुर दक्षिण सीट से प्रदेश के एक बड़े नेता ने काफी सोच विचार कर वरिष्ठ पत्रकार अनल प्रकाश शुक्ला का नाम सामने कर दिया। श्री शुक्ला का नाम सामने आने से प्रदेश के बाकी नेताओं ने भी कोई विरोध नहीं किया है। उनके नाम पर सभी सहमत बताए जाते हैं। जानकारों का कहना है कि रायपुर दक्षिण विधानसभा सीट में सर्वाधिक ब्राम्हण समाज के मतदाता हैं। ब्राम्हण समाज के मतदाताओं के अलावा मूल छत्तीसगढ़िया अन्य जाति भी इस क्षेत्र में निवास करते हैं। शहरी क्षेत्र में जातिवाद व छत्तीसगढ़िया वाद कभी हावी नहीं रहा है, लेकिन यदि कांग्रेस श्री शुक्ला को प्रत्याशी बनाकर मैदान में उतारती है तो यहां मुकाबला काफी दिलचस्प होगा और राजस्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के लिए यह सीट आसान नहीं होगी। श्री शुक्ला की छवि साफ-सुथरी है, वे राजनीति में सक्रिय नहीं है, लेकिन समाज में उनकी पकड़ को देखते हुए उन्हें मजबूत उम्मीदवार माना जा रहा है। यदि श्री शुक्ला को प्रत्याशी बनाया जाता है तो इस चुनाव में श्री अग्रवाल को काफी संघर्ष करना पड़ेगा।
रायपुर की एक सीट ओबीसी को दिया जाना लगभग तय है। इनमें चंदशेखर यादव, सुधीर कटियार और मोतीलाल साहू का नाम चर्चा में है। बाकी दो सीटों में एक पर सत्यनारायण शर्मा का नाम तय हो गया है। एक अन्य सीट पर रमेश वर्ल्यानी के नाम पर सहमति मानी जा रही है। सूत्रों के अनुसार छानबीन समिति की आखरी बैठक शुक्रवार को होगी। बैठक में अंतिम रूप से नाम छटनी कर केन्द्रीय समिति को भेज दिया जाएगा। केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक 8 व 9 अक्टूबर को होगी। प्रत्याशियों की सूची दशहरे के बाद जारी होने की संभावना है।

Wednesday, October 1, 2008

योग गुरु बाबा रामदेव का खेल

 नई दिल्ली,  अक्टूबर - रामायण में चर्चित हुई संजीवनी बूटी की फिर से तलाश कर लेने का स्वामी रामदेव का दावा खतरे में है। रामदेव और उनकी पतंजलि योग पीठ तो संजीवनी बूटी के पेटेंट की भी तैयारी कर चुकी थी। यह वही बूटी है जिसके बारे में रामायण में कहा गया है कि युद्व में बेहोश पड़े लक्ष्मण को जीवित करने के लिए हनुमान पूरा पहाड़ ही उठा लाए थे।  

पतंजलि पीठ के आचार्य बाल कृष्ण ने मीडिया से कहा था कि हमने संजीवनी बूटी खोज ली है और अब संसार की किसी भी बीमारी का इलाज असंभव नहीं रह गया। लेकिन वैज्ञानिक और खास तौर पर वनस्पति वैज्ञानिक इस दावे को बेहूदा बता रहे है और कह रहे है कि यह स्वामी रामदेव का प्रचार का एक और टोटका है। जिन प्रोफेसर आरडी गौर को स्वामी रामदेव खुद बहुत बड़ा विद्वान मानते हैं और जो अभी हाल तक हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविधालय के वनस्पति विभाग के प्रमुख थे, खुद इस दावे के खिलाफ खड़े हो गए।  श्री गौर ने कहा है कि जो बूटी कही जा रही है वह असल में वनस्पति विज्ञान की भाषा में सैलिनम कैडोलिल और गॉसीफिफोरा नाम के वे पौधे हैं जो हिमालय में सदियों से पाए जाते हैं और इनके औषधिय गुणों की जानकारी इलाके के बच्चे बच्चे को है। उन्होंने यह भी कहा कि रामायण के अनुसार संजीवनी बूटी में वे रसायन है जिनकी वजह से वह रात को जगमगाती है, इसमें बेहोशी दूर करने के गुण है और यह स्नायु तंत्र को ताकतवर बनाती है। श्री गौर के अनुसार जो पौधे संजीवनी बूटी बताए जा रहे हैं उनमें इनका एक भी गुण नहीं है। 

इतना ही नहीं हिमालय की औषधीय वनस्पतियों और अन्य पौधों के विशेषज्ञ और पदम श्री प्राप्त प्रोफेसर ए एन पूरोहित ने भी रामदेव की मंडली की इस दावे को बड़बोलपन और जनता को मुनाफे के लिए बेवकूफ बनाने की कोशिश बताया है। इस झगड़े में उत्तराखंड सरकार भी फंस गई है क्योंकि तीन महीने पहले स्वास्थ्य मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने संजीवनी बूटी खोजने के लिए एक सरकारी अभियान शुरू किया था लेकिन पतंजलि पीठ के दावे से इस अभियान पर भी सवालिया निशान लग गया है। श्री निशंक ने आज कहा कि सरकार संजीवनी बूटी खोजने का अपना कल्याणकारी कार्यक्रम जारी रखेगी। डेटलाइन इंडिया