Monday, September 6, 2010

झरना ,बादल और मुक्तेश्वर का डाक बंगला







अंबरीश कुमार
' ब्लू हेवन ' मुक्तेश्वर के डाक बंगले के उस सूट का नाम है जिसमे मै ठहरा हुआ हूँ .बगल के दूसरे सूट ' पर्पल मूड' में पत्रकार आशुतोष और ' पिंक मेमोरीस' में लेखक - पत्रकार सागर है .यह मुक्तेश्वर का अंग्रेजों के ज़माने का डाक बंगला है जिसमे कल अँधेरा घिरने के बाद हम सब पहुंचे तो ठंड बढ़ चुकी थी और धुंध के चलते के चलते ज्यादा दूर तक कुछ भी दिखाई नही दे रहा था .दिन भर पहाड़ी रास्तों पर फूट पड़े झरनों की फोटो खींचते रहे .झरने भी ऐसे की देखते रह जाए .पहाड़ के ऊपर जंगलों से लिपटती मानो कोई बरसाती नदी पूरे वेग से नीचे आ रही हो .हर मोड़ के बाद झरने का पानी नज़र आ रहा था .नैनीताल से मुक्तेश्वर की यह पहली यात्रा थी जिसमे जगह जगह बहते झरनों का दीदार हुआ .इससे पहले शिलांग से चेरापूंजी जाते समय जो झरने देखे थे उनकी याद ताजा हो गई . पूरा पहाड़ नहाया और भीगा हुआ .मौसम इस तेजी से बदल रहा था कि कभी धूप तो कभी धुंध .यह डाक बंगला जहाँ पर है वहां से बीस हजार फुट पर स्थित नंदा गुंती से लेकर त्रिशूल , नंदा देवी और नंदा कोट जैसी चोटियाँ दिखाई पड़ती है .यह जगह समुंद्र तट से साढ़े सात हजार फुट की उंचाई पर है यह भूल जाए तो डाक बंगले में एक शिला लेख याद दिला देता है .
सुबह कमरे के सामने की खिड़की का पर्दा खोला तो धुंध से कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था .आशुतोष कमरे में आए तो खिड़की भी खोल दी .फिर बाहर से बादल भाप की तरह भीतर आने लगा .कमरे में बिजली की केतली में चाय का पानी खौल रहा था और भाप उड़ रही थी .बाहर और भीतर की भाप में कोई फर्क नहीं था .तभी लैपटाप में मेल चेक करने बैठा तो इंदु पुरी का कमेन्ट मिला जो मानसून की पोस्ट पर था .अंत में उन्होंने शाल की जगह साल लिखने की तरफ ध्यान खीचा . मै गूगल से मंगल में एक ऊँगली से कम्पोज करता हूँ जिससे कई बार गलती छूट जाती है इसे माफ़ कर देना चाहिए . मुक्तेश्वर के इस डाक बंगला के पीछे ही उतरांचल सरकार का पर्यटक आवास गृह है जिसमे रात में खाना खाने का मन था पर उनके यहाँ सैलानियों की भीड़ के चलते मैनेजर ने मन कर दिया .फिर डाक बंगले के चौकीदार से पूछा तो उसने कहा सामान लेने दूर जाना पड़ेगा और बरसात के साथ अँधेरा भी गहरा हो गया था .मुक्तेश्वर में आईवीआरआई परिसर में कोई बाजार नहीं है सिर्फ देवदार ,ओक और बलूत आदि के घने जंगल में ब्रिटिश कालीन पुराने बंगले जरुर नज़र आते है .अंत में ड्राइवर अरविन्द को साथ भेज कर रात के खाने का इंतजाम किया गया .इससे पहले रामगढ के अपने राइटर्स काटेज से शाम पांच बजे चले तो डर लग रहा था कही तेज बरसात से रास्ता न बंद हो जाए. एक दिन पहले ही रामगढ के घर का नाम राइटर्स काटेज रखने की दावत देर रात चली थी . कमरे के सामने का देवदार का दरख़्त जब बरसाती हवाओ से लहराने लगा तो मित्र लोग ग्लास के साथ बाहर ही सेब के पेड़ के नीचे बैठ गए .
बरसात ज्यादा तेज नही थी .कुछ देर बैठे तो रहा नहीं गया और छाता मंगवा लिया .इसी बीच केरल काडर के वरिष्ठ आईऐएस अधिकारी और साहित्यकार यूकेएस चौहान से फोन पर बात हुई तो उन्होंने भी राईटर्स काटेज में आकर लिखने की इच्छा जताई .चौहान साहब से विश्विद्यालय के ज़माने से सम्बन्ध है और जब वे उत्तर प्रदेश में सूचना निदेशक और पर्यटन विभाग के एमडी थे तो उतरांचल घुमाया था .उससे पहले कालीकट के कलेक्टर के रूप में बड़ा सांस्कृतिक आयोजन किया और केरल का खुबसूरत इलाका भी उनका आतिथ्य ग्रहण करने की वजह से देखने को मिला . अभिनेत्री मीनाक्षी शेषाद्री ,नृत्यांगना सोनल मानसिंह और नौशाद भी साथ ठहरे थे और इन लोगों से काफी चर्चा भी हुई . ऐसे में उनसे बात कर अच्छा लगा .
रात के दस बज चुके थे और खुले में मधुशाला का माहौल ज्यादा देर तक नहीं चल पाया . बूंदे भारी होने लगी तो भीतर जाना पड़ा .इस बीच खाना बनाने का काम भी शरू हो गया .आशुतोष अच्छे खानसामा भी है यह उनके बनाए अफगानी चिकन टिक्का से पता चला . भवाली से चलते समय देसी मुर्गे दिखे तो सुझाव आया कि यही से ले लिया जाए पर तय हुआ की रामगढ से लिया जाएगा . पर रामगढ़ से डाक बंगला रोड के मोड़ पर मुर्गे के दडबे जब खली नज़र आये तो दूकान वाले से पूछा गया .जवाब मिला आज गाड़ी नहीं आई इसलिए कुछ नहीं मिल पाएगा .फिर भवाली से आ रहे एक सज्जन को कहा गया तो वे चिकन लेकर पहुंचे .जिसे मैरिनेट करने के बाद हम लोग कुछ लोगों से मिलने चले गए और साथ आए एक लेखक अपनी पुस्तक का एक अध्याय लिखने में व्यस्त हो गए .राइटर्स काटेज के शांत माहौल में लिखने पढने का अलग सुख है . जल्द ही लन्दन से एक मोहतरमा यहाँ लिखने पढने के लिए आने का कार्यक्रम बना रही है है . अब सुझाव दिया गया है कि राइटर्स काटेज का उपरी हिस्सा कायाकल्प कर उन लेखकों को भी मुहैया कराया जाए जो दौडभाग की आपा धापी में दस बीस दिन एकांत में लिखना पढ़ना चाहते हो .मकसद व्यावसायिक न होकर अपने व्यापक दायरे के लिखने पढने वालों को प्रोत्साहन देना ज्यादा है .रखरखाव के लिए प्रतीकात्मक सहयोग जरुर लिया जाएगा .इसी वजह से दो तीन मित्र साथ आए और तक्नीकी विशेषज्ञों से बात कर इसे नया रूप दिया जाए . यह काम बरसात के बाद ही हो पाएगा . बगीचा और पूरे परिसर की लैंडस्केपिंग भी नए ढंग से की जाएगी . साथ आए लोगों को आडू ,प्लम ,बादाम और खुमानी के पेड़ों पर कोई फल नहीं मिला . इनका सीजन पहले ही ख़त्म हो जाता है . सेब की देर वाली प्रजाति के खुछ फल जरुर बचे थे .
रामगढ से लेकर मुक्तेश्वर तक के रास्ते में कही कही सेब मिले तो बगीचे वालों ने उसकी पूरी कीमत भी वसूली .पेड़ से तोड़ कर सेब खाने की कीमत मात्र सौ रुपए किलो थी सो जाते मौसम के सेब का भी स्वाद लिया गया . एक जोड़ा जो दिन में सिड़ार लाज में खाना खाते मिला था वह भी पहुँच गया .साथ आए पत्रकारों ने उन मोहतरमा को भी काफी आग्रह के साथ सेब खिलाया. उन लोगों ने भी सेब के पेड़ के इधर उधर होकर फोटो भी खिंचवाई . पर पिछले महीने जिस तरह सुर्ख सेब दिखे थे वह नज़र नहीं आए . सतबूंगा की पहाड़ी पर एक शोध संस्थान बनने जा रहा है जिसकी लोकेशन भी देखनी थी .करीब पौन किलोमीटर की चढ़ाई के बाद यहाँ पहुंचे तो नजारा देखने वाला था .जो जगह चुनी गई है उसके दोनों तरफ घाटियाँ है.बांज के पेड़ से घिरी इस पथरीली पहाड़ी के अंतिम छोर पर झरना है तो सामने हिमालय की तीन सौ फुट लंबी हिमालय की
सृंखला . सामने अगर हिमालय दिखेगा तो पीछे की तरफ जंगल से घिरी घाटी का विहंगम दृश्य .रास्ते में घोड़े दिखे जो संभवतः सड़क तक आने जाने के लिए इस्तेमाल किए जाते होंगे .
अगल बगल खेतों में पत्ता गोभी आकर ले चुकी थी और राजमा की लतर चार पांच फुट तक चढ़ चुकी थी .कही कही मक्का भी तैयार होता नज़र आ रहा था .कई साल के संकट के बाद पहाड़ पर मानसून कुछ ज्यादा ही मेहरबान है .हर पहाड़ भीगा हुआ , चट्टानों से रिसता पानी ,पेड़ों की पत्तियों से टपकता पानी और दुसरे या तीसरे मोड़ पर झरनों की अलग अलग ढंग की गूंजती आवाज .यह आवाज घने जंगलों में संगीत में भी बदल जाती है .झरने भी अलग अलग आकार और उंचाई के .किसी का एक छोर दिख जाता तो ज्यादातर जंगल से निकलते और सड़क पर करते हुए आगे चले जाते .झरनों की आवाज रात में दूर तक गूंजती है . पानी के जो श्रोत गर्मियों में सूख गए थे वे सभी रिचार्ज हो गए है .इससे लगता इस बार गर्मियों में पानी का वैसा संकट नहीं होगा जैसा पिछले कुछ सालों
में हुआ था . जा

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