Friday, October 8, 2010

तो सड़क का रास्ता पकड़िए


सुप्रिया रॉय
संयुक्त राष्ट्र संघ को हिंदी या जो भाषा वे समझते हों, उसमें समझाना पड़ेगा कि वे भारत का पंच बनने की कोशिश न करे। उनके पंचायती राज में भारत शामिल नहीं है। अरुणाचल प्रदेश और कश्मीर को विवादित और स्वतंत्र क्षेत्रों की सूची में शामिल कर के संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय डेरी फाउंडेशन ने अरुणाचल और कश्मीर को लगभग अलग देश बना दिया है। बैठा होगा कोई अनपढ़ अफसर जो चार पैग लगा कर रिपोर्ट लिख रहा होगा। भारत को ऐसी फालतू विवरणों से कोई फर्क नहीं मिलता और इसीलिए आज तो आप अरुणाचल प्रदेश के सफर का मजा लीजिए। सबसे पहला पड़ाव गुवाहाटी है। गुवाहाटी हवाई अड्डा बहुत मजेदार जगह है। कभी यहां से बांग्लादेश और भूटान को सीधी उड़ाने जाती है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा होने का जुगाड़ कर के यहां बार भी बनाया गया है और सिगरेट पीने का विशेष लाउंज भी। इसके अलावा उड़ाने आम तौर पर देरी से आती जाती है इसलिए श्रध्दालु कामाख्या देवी सिध्द तीर्थ के दर्शन कर के वापस लौट सकें, इसकी व्यवस्था भी प्राइवेट टेक्सी ऑपरेटरों के अलावा खुद हवाई अड्डे के प्रबंधकों ने की है। काफी धार्मिक आग्रह उनके भीतर जान पड़ता है। मगर आपकी मंजिल गुवाहाटी या दिसपुर या आसपास की नहीं हो तो इस हरे भरे, खूबसूरत, गोलियों की दहशत से भरे, खतरनाक सड़कों वाले रास्ते आपका इंतजार कर रहे हैं। आपकी आंखे जुड़ा जाएं, ऐसे दृश्य और आपका दिल बार बार बैठ जाने की धमकी दे, ऐसी खाइयां। मगर जिसने लेह, लद्दाख और कारगिल की खाइयां देखी हो जहां आपकी गाड़ी कई जगह सोलह हजार फीट की ऊंचाई पर अचानक बन गई खाई को लोहे के तख्तों पर से पार सकती है तो ज्यादा डर नहीं लगेगा। रही बात दूसरे साधनों की तो 25 सीटों वाला एक तीन इंजन एक साथ चलाने वाला हैलीकॉप्टर मौजूद है। यह हैलीकॉप्टर मध्य प्रदेश मूल की एक ऐसी विमान सेवा चलाती है जो तकनीकी रूप से कभी शुरू ही नहीं हो पाई। किराया भी ज्यादा नहीं हैं। तीन हजार रुपए में आप वह सफर आधे घंटे में कर लेते हैं जिसके लिए आपको सड़क पर आठ घंटे बिताने पड़ते हैं। फिर भी उत्तर पूर्व की खूबसूरती देखनी हो, वहां की ओंस को महसूस करना हो, बादलों के बीच से हो कर गुजरना हो तो सड़क का रास्ता ही बेहतर है। अरुणाचल की राजधानी ईटानगर में हैलीकॉप्टर शहर से काफी बाहर बने हैलीपैड पर उतरता है। पायलटों में से एक तुरंत बाहर उतर कर हैलीकॉप्टर के ठीक सामने खड़े हो कर सिगरेट सुलगा लेते हैं। जाहिर है कि उन्हें उस कानून की कोई परवाह नहीं हैं जिसमें हवाई पट्टी पर धूम्रपान करने की सजा कम से कम चार साल है और यह अपराध गैर जमानती है। खैर कानून को छोड़िए और नजारे देखिए। काफी विकट पहरे में मौजूद ईटानगर हैलीपैड और छोटे जहाज उतारने लायक हवाई पट्टी से बाहर निकल कर ईटानगर के मुख्य मार्ग पर आते ही सबसे पहले पंजाब पर गर्व होगा। पंजाब से तीन हजार किलोमीटर दूर ईटानगर में पंजाब पर गर्व इसलिए होता है कि सबसे ज्यादा दुकानें अपने सिख भाईयों की है और उन्होंने सारी स्थानीय भाषाएं बोलना भी सीख लिया है। कुछ ढाबे हैं और सबसे ज्यादा शराब की दुकाने है। एक से एक बड़े विदेशी ब्रांड। चीन में बनने वाली शराब भी। अरुणाचल आपको याद होगा कि चीन सीमा पर बसा है और चीन तो इसे अपना हिस्सा मानता है। इसीलिए अरुणाचलवासियों को चीन भारतीय नागरिक के तौर पर वीजा भी नहीं देता। अंग्रेजों ने कभी तिब्बत के हिस्से रहे अरुण्ााचल को भी एक अलग देश बनाने के चक्कर में 1914 में यहां एक निजी सीमा बना दी थी और बनाने वाले के नाम पर ही इसका नाम मैकमोहन लाइन रखा गया था। कहा गया था कि यह समझौता ब्रिटिश और तिब्बत सरकार के बीच का है। भारत में तो 1950 में इसे लागू कर भी दिया मगर चीन ने इसे कभी नहीं माना और 1962 का भारत-चीन युद्व सबसे भयंकर रूप में यहीं लड़ा गया था और अगर इलाके की खाइयां और उस जमाने की दुर्गम सड़कों की कल्पना करें तो हम सोच सकते हैं कि चीनियों से इसे बचाने के लिए भारतीय सेना को कितना गर्म लोहा निगलना पड़ा होगा। ईटानगर राजधानी है लेकिन पहाड़ियों और घाटियों में बसा हुआ एक नन्हा नादान सा शहर है। राजकीय अतिथि गृह से देखे तो शहर आपके सामने थाली में दीपकों की तरह बिखरा हुआ नजर आता है। शहर का सबसे बड़ा बाजार अपनी दिल्ली की ठीक ठाक कॉलोनियों की मोहल्ला मार्केट से ज्यादा बड़ा नहीं हैं और वहां धड़ल्ले से हिंदी फिल्मों की और गानों की सीडी और डीवीडी बिकती हैं। यहां के मूल निवासियों के बारे में माना जाता है कि वे तिब्बत में बौद्व धर्म के जन्म के भी दो तीन हजार साल पहले वहां से आ कर बसे हैं। महाभारत में यहां के राजा भीष्मका को बहुत महिमा मंडित किया गया हैं मगर इसके ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। यह नाम अरुणाचल के किसी इलाके में किसी मंदिर या समाधि पर भी नहीं मिलता। जाहिर यह है कि तिब्बत और वर्मा यानी मंगोल मूल के लोग ही यहां के आदिवासी और मूलवासी है। अरुणाचल का असली इतिहास सोलहवीं शताब्दी में असम के आहोंम इतिहास के साथ ही लिखा गया था। इसमें मूनपा और शेरदुकपेन नाम के दो ताकतवर कवियों का जिक्र है और हाल ही खुदाई में चौदहवीं शताब्दी के वैष्णव हिंदू मंदिर सियांग इलाके की घाटियों से मिले हैं। वास्तु कला के हिसाब से सारे मंदिर दक्षिण की ओर खुलते हैं और असम की सीमा के पास है। यहां के तवांग बौद्व मठ को सीधे तिब्बती बौध्द इतिहास से जोड़ कर देखा जाता है और छठवें दलाई लामा भी यहीं पैदा हुए थे। वर्तमान और कायर दलाई लामा हाल में ही तवांग गए थे तो चीन ने ऐतराज जाहिर किया था। मगर चीन तो भारत के प्रधानमंत्री की अरुणाचल यात्रा पर भी ऐतराज करता है। चीन को बावली बीबियों की तरह अनसुना कर देना चाहिए मगर उनके बेलन से फिर भी बच कर रहना चाहिए। गए थे हैलीकॉप्टर से मगर लौटे अरुणाचल- असम सीमा पर बसे असम के शहर तेजपुर के पास बने हवाई अड्डे से। वहां एक डक्कन एयरवेज का एक चालीस सीटाें वाला लेकिन आरामदेह जहाज इंतजार कर रहा था जिसने 25 मिनट में गुवाहाटी पहुंचा दिया था। अब जहाज की यात्राएं तो जहाज की यात्राएं ही होती हैं, जहां खिड़कियाेंं से बादल और कभी कभी बहुत दूर की जमीन नजर आ जाती है इसलिए निवेदन है कि उत्तर पूर्व घूमना है तो सड़क का रास्ता पकड़िए। जीवन धन्य हो जाएगा।

पलामू बंगले के बरामदे में


वीना श्रीवास्तव
शनिवार की सुबह हम साढ़े पांच बजे जग गए। पूरब की दिशा में आकाश में बादल थे, लगा शायद सूर्योदय नहीं देख पाएंगे। फिर भी हम कैमरे के साथ वाच टावर पहुंच गए। वहां तीन लोग पहले से ही मौजूद थे।वातावरण में ठंडी हवा बह रही थी। पौने छह बजे मध्यम सा एक लाल गोला बादलों के बीच झलका लेकिन वह एक नजर में नहीं दिखाई दे रहा था। मैने कहा वह देखो सूरज उग रहा है। सब लोगों की निगाह आकाश पर लग गई। तब तक हल्का सा लाल गोला थोड़ा और ऊपर उठ चुका था, सामने की पहाड़ियों और सखुआ के पेड़ों के ऊपर। वाकई दिल को मोह लेने वाला दृश्य। हम 15 मिनट तक बाल सूरज को देखते रहे।
जीतन किसान ने नीचे से आवाज लगाई, बाबू चाय तैयार है, ऊपर ही लाएं क्या। हमने कहा नहीं, हम ही नीचे आते हैं। नीचे उतर कर हमने गेस्ट हाउस के बरामदे में गुनगुनी धूप के साथ चाय पी। इस दौरान हम घूमने की योजना पर भी चर्चा कर रहे थे। तय हुआ कि नाश्ते के बाद हम सनसेट प्वाइंट तक जाएंगे। वहां से लौटकर नेतरहाट स्कूल देखा जाएगा और फिर गेस्टहाउस लौटकर लंच लेंगे।
निर्धारित समय यानी ठीक साढ़े आठ बजे नाश्ता लगा। पराठें और आलू की भुजिया। यहां दही और दूध का रिवाज नहीं है। जीतन ने बताया था कि इसके अलावा टोस्ट बटर व आमलेट मिल सकता है। नाश्ते के बाद, हम सनसेट प्वाइंट की ओर रवाना हुए। पलामू बंगले से यह स्थान करीब 6 किमी है। रास्ता बेहद खूबसूरत। पतली सी सड़क सीधी सखुआ और चीड़ के बीच से। नेतरहाट स्कूल के बाद एक छोटी सी आदिवासी बस्ती पड़ी। सुंदर और शालीन घर। दूर से बटुली में पानी लाते बच्चे व महिलाएं। गाय व बकरियों के लिए चारे का इंतजाम करते लोग। जगह-जगह महिलाएं सड़क पर मक्का सुखा रहीं थीं। यहां कभी-कभार ही बाहरी लोग दिखाई देते हैं, सो लोग हमें कौतूहल से देख रहे थे।
रास्ते में चीड़ों के झुंड इतने शेप में दिख रहे थे जैसे किसी ने इनकी कटिंग कर ऐसा बनाया हो लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं होता है। हवा ही इन पेड़ों को संवारती है और शेप देती है। हमारी कार धीमे-धीमे चल रही थी और हम जंगल, हवा और मनोरम वातावरण का आनंद लेते हुए आगे बढ़ रहे थे। थोड़ी देर में हम सनसेट प्वाइंट पहुंच गए। वहां सनसेट देखने के लिए एक सीढ़ीदार प्लेटफार्म बना है। तीन साल पहले बने इस प्लेटफार्म की फर्श उखड़ चुकी है। उस पर लगे पत्थर गायब हैं, यहां तक कि उद्घाटन का पत्थर भी लोग उखाड़ ले गए।
सरकारी उपेक्षा से प्राकृतिक खूबसूरती तो उखड़ती नहीं है लिहाजा इस प्वाइंट से खूबसूरत नजारा देखने को मिलता है। इस प्वाइंट का नाम है मैग्नोलिया सनसेट प्वाइंट। इस प्वाइंट से नीचे एक गहरी खांईं है। बीच में घाटी है और फिर पहाड़ियों। सूरज इन्हीं पहाड़ियों के बीच डूबता है।
इस नाम के पीछे एक कहानी है- लोग बताते हैं यहां पहले एक अंग्रेज साहब रहता था जिसकी बेटी थी मैग्नोलिया। मैग्नोलिया बहुत खूबसूरत थी। हिंदुस्तान में ही पैदा हुई मैग्नोलिया यहां की भाषा भी अच्छे से आती थी। घुड़सवारी के दौरान उसकी मुलाकात एक आदिवासी नौजवान से हुई। यह नौजवान बहुत अच्छा बांसुरीवादक व गायक था। बांसुरी की तान जंगलों में और भी मारक हो जाती थी। तान सुनकर मैग्नोलिया बेचैन हो उठती थी। मुलाकात का दौर शुरू हुआ और धीरे-धीरे मैग्नोलिया के मन के कोमल से भाव ने मोहब्बत का रूप ले लिया। मैग्नोलिया उस आदिवासी के साथ रहना चाहती थी लेकिन उसके मां-बाप को यह मंज़ूर नहीं था। अंग्रेज साहब को जब कोई रास्ता न सूझा तो उसने आदिवासी युवक की हत्या करा दी। जब मैग्नोलिया को पता चलता है तो वह पागल हो उठती है। कहती है मुझे उस लड़के से मिलना है। अपने घोड़े पर सवार होती है और घोड़ा दौड़ाते हुए उस खांईं में छलांग लगा देती है। लोगों का कहना है कि कभी-कभी मधुर आवाज इस खांईं से आज भी सुनाई देती है और घोड़े पर सवार मैग्नोलिया भी दिखाई दे जाती है। इस तरह इस प्वाइंट का नाम मैग्नोलिया प्वाइंट पड़ गया।
शाम को लोहरदगा से आग्रह हुआ कि शनिवार की रात हम फारेस्ट रेस्टहाउस में स्थित लागहाउस में ठहरें। ठहरना तो नहीं हुआ लेकिन हम शाम को वहां चाय पीने जरूर गए। दरअसल हमने सोचा कि जब हम सनसेट देखने जाएंगे तो उधर से होते हुए जाएंगे। शाम को बादल छा गए लिहाजा सनसेट देखने का कार्यक्रम रद करना पड़ा और हम पहुंच गए फारेस्ट रेस्टहाउस।
साढ़े पांच बजे से बारिश शुरू हो गई। करीब आठ बजे तक जबरदस्त बारिश होती रही। घुप अंधेरा, तेज बारिश और केरोसिन लैंप के साथ हम बैठे पलामू बंगले के बरामदे में। प्रकृति ने जो माहौल बना रखा था कि उसका मजा ही अलग। बारिश की बूंदों के साथ सखुआ और चीड़ की जो जुगलबंदी शुरू हुई थी, वह तेज होती बारिश में डूब गई और फिर शुरू हुआ बादलों का मांदर। घड़ी की सुइंयां इतने धीमे चलती नजर आ रही थीं कि समय जैसे ठहर गया हो।
रविवार यानी 3 अक्टूबर को सुबह काफी चहलपहल थी। जब हम नाश्ता कर रहे थे तभी वहां विकास भारती संस्था के मुखिया अशोक भगत वहां आ गए। राजेंद्र को देखकर वह चौंक गए। नमस्कार हुआ। उन्होंने कहा कि गांधी जयंती पर विकास भारती आदिवासी युवक-युवतियों व बच्चों की एक दौड़ का आयोजन कर रहा है। यह दौड़ नेतरहाट स्कूल से शुरू होकर बनारी पर खत्म होगी। यानी करीब 25 किमी। अशोक भगत ने राजेंद्र से दौड़ को हरी झंडी दिखाने का आग्रह किया जिसे राजेंद्र ने सविनय मना कर दिया।
वापस होते हुए रास्ते में हमने देखा कि बड़ी संख्या में लड़के-लड़कियां (अधिकतर नंगे पांव) दौड़ते हुए नीचे जा रहे थे। विकास भारती ने जगह-जगह पानी का इंतजाम कर रखा था। कहीं से नहीं लग रहा था कि ये बच्चे नक्सली बनकर बंदूक उठाने का विकल्प अपनाएंगे यदि इन इलाकों को विकास मुख्यधारा में शामिल कर लिया जाए।
अशोक भगत के आग्रह पर हम बिशुनपुर में विकास भारती के परिसर स्थित गेस्टहाउस में चाय पीने के लिए रुके। विकास भारती के कामों की जानकारी हमें दी गई। हमने उनका स्वावलंबन केंद्र देखा कि कैसे स्थानीय लोगों को स्वरोजगार के लिए न सिर्फ ट्रेन किया जा रहा है बल्कि उनके लिए प्लेटफार्म का काम भी विकासभारती कर रही है। यही नहीं, दुनिया की सबसे पुरानी अयस्क से लोहा व एलुमुनियम बनाने की तकनीक को भी बचाए रखने का काम भी यहां चल रहा है।
लौटते में हम कुड़ू होकर नहीं बल्कि लोहरदगा से बेड़ो वाली सड़क से रांची आए। अच्छी सड़क, मनोहारी दृश्यों के बीच पता नहीं चला कि कब हम रांची पहुंच गए। कुल मिलाकर मुझे लगता है कि यदि आप दो-तीन दिन दुनिया-जहां से कटकर कुछ पल सुकून से बिताना चाहते हैं तो नेतरहाट सबसे मुफीद जगह है।
कैसे पहुंचे नेतरहाट
दिल्ली, कोलकाता, पटना व मुंबई से रांची वायुमार्ग से जुड़ा है। रेलमार्ग से रांची मुख्यरूप से दिल्ली व कोलकाता से जुड़ा है। रेल से धनबाद होकर भी रांची पहुंचा जा सकता है। धनबाद से रांची 160 किमी है। लखनऊ से आने के लिए कानपुर से ट्रेन पकड़े। रांची से टैक्सी लेकर नेतरहाट पहुंचा जा सकता है। सात में हल्के गर्म कपड़े ले जाना न भूलें।

Monday, October 4, 2010

सखुआ और चीड़ की जुगलबंदी



वीना श्रीवास्तव
नेतरहाट को यदि नेचर हाट कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। चीड़ और सखुआ के जंगल, नाशपाती के बागान, बादलों की सरपट दौड़ और शांत-मनोहारी माहौल व मौसम। रात को सखुआ के पत्तों पर एक बूंद भी गिरे तो आवाज सुनाई देती है। 3900 फुट की ऊंचाई पर बसा नेतरहाट किवदंतियों से भी भरा है। कोई भी आदमी आपको एक नया किस्सा सुना देगा।
30 सितंबर को हम लोग बात कर रहे थे कि झारखंड में रहते हुए एक साल हो गया और हम लोग अब तक झारखंड में कहीं नहीं गए। एक लंबा वीकेंड हमारे सामने था लिहाजा विचार शुरू हुआ कि कहां जाया जाए। बाबाधाम से शुरुआत हुई लेकिन दूरी 325 किमी थी लिहाजा दूसरे विकल्पों पर नजर डाली गई। मैथन डैम, तिलैया डैम, बेतला फारेस्ट पर बात करते-करते हम आए नेतरहाट पर। इस बीच राजेंद्र फोन करके रहने की व्यवस्था की जानकारी लेते रहे। नेतरहाट रांची से सिर्फ 140 किमी है और कार से जाने पर ज्यादा से ज्यादा चार घंटे का समय। लिहाजा तय हुआ कि नेतरहाट ही चलेंगे। राजेंद्र का पूरे झारखंड में अपना नेटवर्क है। उन्होंने लोहरदगा के एक पत्रकार साथी से नेतरहाट का फारेस्ट बंगला रिजर्व कराने को कहा लेकिन पता चला कि वहां जनरेटर नहीं है और पानी की भी दिक्कत है। अब दूसरा विकल्प था पलामू बंगला जो लातेहार जिला परिषद के नियंत्रण में है। लातेहार के एक वरिष्ठ पत्रकार साथी की मदद से यह बंगला दो दिन के लिए बुक कराया गया।
शुक्रवार को दोपहर एक बजे रांची से नेतरहाट के लिए निकलने की योजना बनी। हम तैयार थे कि राजेंद्र को याद आया कि अपनी दोनों कारों का इंश्योरेंस सितंबर में खत्म हो गया है। तो इंश्योरेंस रिन्यू कराने में थोड़ा समय लगा और हम ढाई बजे रांची से निकल पाए। रातू, मांडर और कुड़ू होते हुए हम करीब शाम 4 बजे लोहरदगा पहुंचे। रास्ता बहुत खराब था। कई जगह सड़क टूटी हुई थी लिहाजा समय ज्यादा लगा। हम लोगों ने सोचा था कि लंच कुडू के पास एक लाइन होटल में करेंगे लेकिन देर होने की वजह से हमने लंच ड्राप कर दिया। आपको बताते चलें कि इस इलाके में हाईवे पर स्थिति ढाबों को लाइन होटल कहते हैं। लोहरदगा में विभिन्न अखबारों के पत्रकार साथी मिले। वे राजेंद्र से जानना चाहते थे कि वह कौन सा अखबार ज्वाइन कर रहे हैं। दरअसल राजेंद्र हिंदुस्तान के झारखंड के संपादक थे। पिछले दिनों स्थानांतरण की वजह से उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। इन पत्रकार साथियों ने हमारे लिए एक स्थानीय होटल में लंच की तैयारी कर रखी थी। इस आग्रह को टाला न जा सका लिहाजा और देर हो गई। चलते समय एक पत्रकार साथी भी हमारे साथ हो लिए। रात को नेतरहाट जाना जोखिम भरा माना जाता है क्योंकि आसपास का पूरा इलाका नक्सल प्रभावित है और थाना आदि उड़ाए जाने के किस्से यहां आपको डराने के लिए काफी हैं। लेकिन राजेंद्र ने कहा कि जब हम फरवरी 2002 में रात को एक बजे जम्मू-कश्मीर में उस समय के सबसे खतरनाक इलाके में स्थित गुलमर्ग जा सकते थे तो यहां क्या। फिर हम पत्रकार हैं, हमसे किसी की क्या दुश्मनी।
करीब 5.30 बजे हम लोहरदगा से नेतरहाट के लिए निकले। घाघरा पहंचते हुए अंधेरा छा गया और अभी हम करीब 60 किमी दूर थे। रास्ते में हमें सिर्फ बाक्साइट भरे ट्रक आते ही दिखाई दिए बाकी कोई आवागमन नहीं था। बिशुनपुर पार करते-करते पूरी तरह से अंधेरा हो गया। मुझे डर लग रहा था लेकिन मैं कुछ बोल नहीं रही थी। बनारी पार करने के बाद शुरू हुआ पहाड़ी रास्ता। भीगी सड़क देखकर लग रहा था कि यहां थोड़ी देर पहले बारिश हुई है। रास्ता बहुत अच्छा नहीं था। सड़क टूटी हुई थी और जगह-जगह पत्थर और कीचड़ था। हम ठीक सवा सात बजे नेतरहाट पहुंचे। राजेंद्र की ड्राइविंग की एक बार फिर दाद देनी होगी कि हम मानकर चल रहे थे कि आठ बजे नेतरहाट पहुंचेंगे लेकिन हम जल्दी पहुंच गए।
थोड़ा समय पलामू बंगला ढूंढ़ने में लगा। वहां महुआडांड़ के पत्रकार साथी लिली हमारा इंतजार कर रहे थे। उन्होंने हम लोगों को देखकर राहत की सांस ली। वहां के सेवक जीतन किसान ने बेहतरीन गरमा-गरम चाय हमें पिलाई। जो थोड़ी-बहुत थकान थी वह काफूर हो गई। नेतरहाट का सूर्योदय और सूर्यास्त बहुत खूबसूरत होता है और नेतरहाट इसके लिए जाना जाता है। जीतन ने बताया कि सूर्योदय पलामू बंगला प्रांगण में बने वाच टापर से ही देखा जा सकता है या फिर पास के प्रभात होटल से। हम लोगों ने तय किया सुबह वाच टावर पर सूर्योदय देखते हुए सुबह की चाय पिएंगे।
(जारी)

Saturday, October 2, 2010

प्रेम से मोक्ष का एक रास्ता खुलता


सुप्रिया रॉय  
प्रेम से मोक्ष का एक रास्ता खुलता है। रूपमती और बाज बहादुर की प्रेम कहानी मांडू के जिन पत्थरों में लिखी है, वहां से लगभग कावेरी के किनारे किनारे धामनोद के रास्ते चलते चले जाए तो अंतत: पहुंचेगे वहां जहां कावेरी नर्मदा से मिलती हैं दोनों ही नदियां तेज धार वाली है, मगर मिलन के ठी पहले उनकी धार दोस्ती की यानी धीमी हो जाती हैं इसका श्रेय आप या यहां केपहाड़ी भूगोल को दे, या नदियों के मिलन के प्रेम रूपक को या यहां की धार्मिक किंवदंती बन गए धर्म स्थल ओंकारेश्वर को मगर सच यह है कि नदियां इतनी खामोशी से एक दूसरे में विलीन नहीं होती। खास तौर पर नर्मदा तो दुनिया की अकेली नदी है, जो पूर्व की तरफ नहीं पश्चिम की तरफ बहती है। एक बागी नदी को भी आत्मीय बनाने का यह चमत्कार ओंकारेश्वर में होता है।
दोनों नदियां सीधे नहीं मिलती। थोड़ा घूम कर लजाते शर्माते एक दूसरे के करीब आती है और उनके इसी प्रवाह में एक द्वीप बन गया हैं पड़ोस के पर्वतों या हेलीकॉप्टरों से देखें तो यह द्वीप सीधे ओम अक्षर की आकृति में बना है। इस द्वीप के नाम पर इस तीर्थ का नामकरण हुआ है- ओंकारेश्वर। इंदौर-महाराष्ट्र राजमार्ग पर बाड़वाह से 12 किलोमीटर जंगलों से घिरे एक रास्ते पर चलें तो आेंकारेश्वर की दुनिया प्रकट होती है।
रास्ते में ओंकारेश्वर बांध के कारण बस गया नर्मदा नगर का रास्ता भी है फिर हमेशा एक आस्तिक मेले की शकल में जागता रहने वाला ओंकारेश्वर तीर्थ है, जोहै तो नर्मदा के पार मगर वहां पहुंचने के लिए दो पुल मौजूद है। एक सीधा और दूसरा झूलता हुआ। पूल पार करते ही ऊपर एक बहुत प्राचीन लेकिन बसे हुए किले के नीचे रास्ता चला जाता है और वहां से एक तंग लेकिन उदार गली आप को आेंकारेश्वर महादेव के परम प्राचीन मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचा देती है। हाइटेक जमाना आ गया ह, इसलिए मंदिर के प्रेवश द्वार के सामने ही इस तीर्थ की महिमा बखानने वाली सीडी भी बिकती है और आम इसे देख सकें, इसकी व्यवस्था भी है।
आज तो आवागमन और संचार के सब साधन मौजूद है- जैसे ओंकारेश्वर के एटीएम से आप पैसे निकाल सकते हैं, दुनिया भर में बात कर सकते हैं, बीबीसी और सीएनएन देख सकते हैं, इंटरनेट पर संदेशें भेज सकते हैं और इसी कारण उस युग की कल्पना करना जरा कठिन प्रतीत होता है। जब भगवान राम के पूर्वज मांधाता ने यहां तपस्या करके सीधे भगवान शिव का दर्शन पया था और यही आदि शंकराचार्य ने अपने प्रारंभिग शिष्यों मेंसे एक को दीक्षा दी थी। मंदिर के तलघर में एक चट्टानी गुफा अब भी मौजूद हे, जहां मांधाता ने तपस्या की थी ओर इसके ठीक ऊपर एक कक्ष में एक आसन भी रखा है, जिसे राजा मांधाता का आसन कहा जाता हैं कहावत तो यह भी है कि इसी रघुवंश के राजा परीक्षित का जब नागदेव से झगड़ा हो गया था और नागदेवता राजा परीक्षित को दंडित और दंशित करने पर तुले हुए थे, मांधाता के तप ने ही मध्यस्थता की थी।
यही भगवान शिव की तपस्या करने नक्षत्र मंडल से उतर कर शनि देवता के आने की कथा भी कहीं जाती है और उसी पहाड़ी चट्टान पर शनि की एक सिध्द मंदिर भी है। ओंकारेश्वर मंदिर को श्री ओंका मांधाता मंदिर के नाम से भी जाना जाता है और यह एक मल लंबे और आधा मील चौड़े चट्टानी द्वीप पर बना हुआ हैं।
चूंकि स्वयं भगवान शिव यहां प्रकट हुए थे, इसलिए वे अपने आगमन के स्मारक के रूप में एक ज्योर्तिलिंग की शक्ल में यहां स्थापित है और ओंकारेश्वर इसलिए संसार में 12 ज्योतिर्लिंग में से एक गिना जाता हैं एक उत्सुक साधारण यात्री के लिए ओेंकारेश्वर का महत्व इसलिए भी ज्यादा है कि यह बद्रीनाथ, केदारनाथ और गंगोत्री जैसे शिव को समर्पित तीर्थों की तुलना में सबसे कम दुरूह रास्ते के अंत पर बसा है। इंदौर से सवा घंटे में आप या कर के कारक युग में पहुंच जाते हैं और वहां से जप तप के कर्मकांड से गुजर कर वापस अपने इस इस नश्वर संसार में अपने दुनियादारी के कर्तव्य पूरे कर सकते है।
वैसे अगर समय हो तो ओंकारेश्वर में हर धर्म और हर विचार का अपना तीर्थ मौजूद है। मध्य कालीन ब्राम्हणी विचार धारा का अति प्राचीन सिध्दनाथ मंदिर है, जहां एक ही चट्टान पर हाथियों की पूरी बारात मौजूद है। चौबीस अवतार के नाम से हिंदू और जैन मंदिरों का एक पूरा सिलसिला मौजूद है जो धर्म के अलावा अपने स्थापात्य के लिए भी देखा जाना चाहिए। सिर्फ 6 किलोमीटर दूर दंसवी सदी के मंदिरों का एक समूह है हां फिर कलाकरों के भक्ति से जुड़ने की साक्षात कथा देखी जा सकती है। पिकनिक का मन हो तो नो किलोमीटर दूर पर काजल रानी गुफाए हैं, जो 21 वीं सदी में भी आपको जंगल बुक की दुनिया में होने का एहसार करवा सकती है।
वैसे आेंकारेश्वर महादेव मंदिर के एक दम पड़ोस में गायत्री शक्ति पीठ भी लगभग बन कर तैयार है और वह भी कम तीर्थ नहीं हैं ठहरने की चिंता छोड़ दीजिएं दस रुपए रोज की धर्मशालाओं से ले कर 700 रुपए तक के वातालुकूलित कमरे मौजूद हैं और जब तीर्थ में आए है तो मैन्यू देख कर खाने का क्या लाभ? शाकाहारी भोजनालयों की कतार लगी है, भरपेट खाइए, चाहें तो सो जाइए या फिर नर्मदा में चल रही नावों पर नौका विहार करके आइए। आप बहुत सारे ईश्वरों और देवताओं की छत्र छाया में हैं इसलिए चिंता की कोई बात नहीं।