Friday, October 8, 2010

पलामू बंगले के बरामदे में


वीना श्रीवास्तव
शनिवार की सुबह हम साढ़े पांच बजे जग गए। पूरब की दिशा में आकाश में बादल थे, लगा शायद सूर्योदय नहीं देख पाएंगे। फिर भी हम कैमरे के साथ वाच टावर पहुंच गए। वहां तीन लोग पहले से ही मौजूद थे।वातावरण में ठंडी हवा बह रही थी। पौने छह बजे मध्यम सा एक लाल गोला बादलों के बीच झलका लेकिन वह एक नजर में नहीं दिखाई दे रहा था। मैने कहा वह देखो सूरज उग रहा है। सब लोगों की निगाह आकाश पर लग गई। तब तक हल्का सा लाल गोला थोड़ा और ऊपर उठ चुका था, सामने की पहाड़ियों और सखुआ के पेड़ों के ऊपर। वाकई दिल को मोह लेने वाला दृश्य। हम 15 मिनट तक बाल सूरज को देखते रहे।
जीतन किसान ने नीचे से आवाज लगाई, बाबू चाय तैयार है, ऊपर ही लाएं क्या। हमने कहा नहीं, हम ही नीचे आते हैं। नीचे उतर कर हमने गेस्ट हाउस के बरामदे में गुनगुनी धूप के साथ चाय पी। इस दौरान हम घूमने की योजना पर भी चर्चा कर रहे थे। तय हुआ कि नाश्ते के बाद हम सनसेट प्वाइंट तक जाएंगे। वहां से लौटकर नेतरहाट स्कूल देखा जाएगा और फिर गेस्टहाउस लौटकर लंच लेंगे।
निर्धारित समय यानी ठीक साढ़े आठ बजे नाश्ता लगा। पराठें और आलू की भुजिया। यहां दही और दूध का रिवाज नहीं है। जीतन ने बताया था कि इसके अलावा टोस्ट बटर व आमलेट मिल सकता है। नाश्ते के बाद, हम सनसेट प्वाइंट की ओर रवाना हुए। पलामू बंगले से यह स्थान करीब 6 किमी है। रास्ता बेहद खूबसूरत। पतली सी सड़क सीधी सखुआ और चीड़ के बीच से। नेतरहाट स्कूल के बाद एक छोटी सी आदिवासी बस्ती पड़ी। सुंदर और शालीन घर। दूर से बटुली में पानी लाते बच्चे व महिलाएं। गाय व बकरियों के लिए चारे का इंतजाम करते लोग। जगह-जगह महिलाएं सड़क पर मक्का सुखा रहीं थीं। यहां कभी-कभार ही बाहरी लोग दिखाई देते हैं, सो लोग हमें कौतूहल से देख रहे थे।
रास्ते में चीड़ों के झुंड इतने शेप में दिख रहे थे जैसे किसी ने इनकी कटिंग कर ऐसा बनाया हो लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं होता है। हवा ही इन पेड़ों को संवारती है और शेप देती है। हमारी कार धीमे-धीमे चल रही थी और हम जंगल, हवा और मनोरम वातावरण का आनंद लेते हुए आगे बढ़ रहे थे। थोड़ी देर में हम सनसेट प्वाइंट पहुंच गए। वहां सनसेट देखने के लिए एक सीढ़ीदार प्लेटफार्म बना है। तीन साल पहले बने इस प्लेटफार्म की फर्श उखड़ चुकी है। उस पर लगे पत्थर गायब हैं, यहां तक कि उद्घाटन का पत्थर भी लोग उखाड़ ले गए।
सरकारी उपेक्षा से प्राकृतिक खूबसूरती तो उखड़ती नहीं है लिहाजा इस प्वाइंट से खूबसूरत नजारा देखने को मिलता है। इस प्वाइंट का नाम है मैग्नोलिया सनसेट प्वाइंट। इस प्वाइंट से नीचे एक गहरी खांईं है। बीच में घाटी है और फिर पहाड़ियों। सूरज इन्हीं पहाड़ियों के बीच डूबता है।
इस नाम के पीछे एक कहानी है- लोग बताते हैं यहां पहले एक अंग्रेज साहब रहता था जिसकी बेटी थी मैग्नोलिया। मैग्नोलिया बहुत खूबसूरत थी। हिंदुस्तान में ही पैदा हुई मैग्नोलिया यहां की भाषा भी अच्छे से आती थी। घुड़सवारी के दौरान उसकी मुलाकात एक आदिवासी नौजवान से हुई। यह नौजवान बहुत अच्छा बांसुरीवादक व गायक था। बांसुरी की तान जंगलों में और भी मारक हो जाती थी। तान सुनकर मैग्नोलिया बेचैन हो उठती थी। मुलाकात का दौर शुरू हुआ और धीरे-धीरे मैग्नोलिया के मन के कोमल से भाव ने मोहब्बत का रूप ले लिया। मैग्नोलिया उस आदिवासी के साथ रहना चाहती थी लेकिन उसके मां-बाप को यह मंज़ूर नहीं था। अंग्रेज साहब को जब कोई रास्ता न सूझा तो उसने आदिवासी युवक की हत्या करा दी। जब मैग्नोलिया को पता चलता है तो वह पागल हो उठती है। कहती है मुझे उस लड़के से मिलना है। अपने घोड़े पर सवार होती है और घोड़ा दौड़ाते हुए उस खांईं में छलांग लगा देती है। लोगों का कहना है कि कभी-कभी मधुर आवाज इस खांईं से आज भी सुनाई देती है और घोड़े पर सवार मैग्नोलिया भी दिखाई दे जाती है। इस तरह इस प्वाइंट का नाम मैग्नोलिया प्वाइंट पड़ गया।
शाम को लोहरदगा से आग्रह हुआ कि शनिवार की रात हम फारेस्ट रेस्टहाउस में स्थित लागहाउस में ठहरें। ठहरना तो नहीं हुआ लेकिन हम शाम को वहां चाय पीने जरूर गए। दरअसल हमने सोचा कि जब हम सनसेट देखने जाएंगे तो उधर से होते हुए जाएंगे। शाम को बादल छा गए लिहाजा सनसेट देखने का कार्यक्रम रद करना पड़ा और हम पहुंच गए फारेस्ट रेस्टहाउस।
साढ़े पांच बजे से बारिश शुरू हो गई। करीब आठ बजे तक जबरदस्त बारिश होती रही। घुप अंधेरा, तेज बारिश और केरोसिन लैंप के साथ हम बैठे पलामू बंगले के बरामदे में। प्रकृति ने जो माहौल बना रखा था कि उसका मजा ही अलग। बारिश की बूंदों के साथ सखुआ और चीड़ की जो जुगलबंदी शुरू हुई थी, वह तेज होती बारिश में डूब गई और फिर शुरू हुआ बादलों का मांदर। घड़ी की सुइंयां इतने धीमे चलती नजर आ रही थीं कि समय जैसे ठहर गया हो।
रविवार यानी 3 अक्टूबर को सुबह काफी चहलपहल थी। जब हम नाश्ता कर रहे थे तभी वहां विकास भारती संस्था के मुखिया अशोक भगत वहां आ गए। राजेंद्र को देखकर वह चौंक गए। नमस्कार हुआ। उन्होंने कहा कि गांधी जयंती पर विकास भारती आदिवासी युवक-युवतियों व बच्चों की एक दौड़ का आयोजन कर रहा है। यह दौड़ नेतरहाट स्कूल से शुरू होकर बनारी पर खत्म होगी। यानी करीब 25 किमी। अशोक भगत ने राजेंद्र से दौड़ को हरी झंडी दिखाने का आग्रह किया जिसे राजेंद्र ने सविनय मना कर दिया।
वापस होते हुए रास्ते में हमने देखा कि बड़ी संख्या में लड़के-लड़कियां (अधिकतर नंगे पांव) दौड़ते हुए नीचे जा रहे थे। विकास भारती ने जगह-जगह पानी का इंतजाम कर रखा था। कहीं से नहीं लग रहा था कि ये बच्चे नक्सली बनकर बंदूक उठाने का विकल्प अपनाएंगे यदि इन इलाकों को विकास मुख्यधारा में शामिल कर लिया जाए।
अशोक भगत के आग्रह पर हम बिशुनपुर में विकास भारती के परिसर स्थित गेस्टहाउस में चाय पीने के लिए रुके। विकास भारती के कामों की जानकारी हमें दी गई। हमने उनका स्वावलंबन केंद्र देखा कि कैसे स्थानीय लोगों को स्वरोजगार के लिए न सिर्फ ट्रेन किया जा रहा है बल्कि उनके लिए प्लेटफार्म का काम भी विकासभारती कर रही है। यही नहीं, दुनिया की सबसे पुरानी अयस्क से लोहा व एलुमुनियम बनाने की तकनीक को भी बचाए रखने का काम भी यहां चल रहा है।
लौटते में हम कुड़ू होकर नहीं बल्कि लोहरदगा से बेड़ो वाली सड़क से रांची आए। अच्छी सड़क, मनोहारी दृश्यों के बीच पता नहीं चला कि कब हम रांची पहुंच गए। कुल मिलाकर मुझे लगता है कि यदि आप दो-तीन दिन दुनिया-जहां से कटकर कुछ पल सुकून से बिताना चाहते हैं तो नेतरहाट सबसे मुफीद जगह है।
कैसे पहुंचे नेतरहाट
दिल्ली, कोलकाता, पटना व मुंबई से रांची वायुमार्ग से जुड़ा है। रेलमार्ग से रांची मुख्यरूप से दिल्ली व कोलकाता से जुड़ा है। रेल से धनबाद होकर भी रांची पहुंचा जा सकता है। धनबाद से रांची 160 किमी है। लखनऊ से आने के लिए कानपुर से ट्रेन पकड़े। रांची से टैक्सी लेकर नेतरहाट पहुंचा जा सकता है। सात में हल्के गर्म कपड़े ले जाना न भूलें।

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