Monday, December 27, 2010

विनायक सेन की रिहाई के लिए आंदोलन


लखनऊ दिसम्बर। पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डा विनायक सेन की रिहाई के लिए उत्तर प्रदेश प्रदेश के कई जिलों में आज धरना , प्रदर्शन कर विरोध जताया गया है । इलाहाबाद, वाराणसी, आजमगढ़, बलिया, गाजीपुर समेत कई जिलों में बुद्धिजीवी, सामाजिक संगठनों और छात्र-युवा संगठनों ने प्रदर्शन कर विनायक सेन की रिहाई की मांग की । इलाहाबाद में जहां असहमति दिवस मनाया गया तो वहीं वाराणसी में विनायक सेन पर देशद्रोह का आरोप लोकतंत्र की अवमानना मानते हुए विरोध प्रदर्शन हुए। इस बीच भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक मिश्र ने विनायक सेन को सजा दिए जाने का विरोध करते हुए इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताया । उन्होंने कहा - जिस देश में तरह तरह के अपराधी छुट्टा घूम रहे हो वहां विनायक सेन को सजा दिया जाना लोकतंत्र का उपहास उड़ाने जैसी घटना लगती है जिसके खिलाफ आवाज उठानी चाहिए ।
इलाहाबाद के सिविल लाइन्स, सुभाष चौराहे पर आयोजित धरने को संबोधित करते हुए प्रसिद्ध गांधीवादी डाक्टर बनवारीलाल शर्मा ने कहा कि विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सरकार के उस व्यापक प्रचार कार्यक्रम का हिस्सा है जिसमें वह निर्दोष विनायक सेन पर राष्ट्द्रोह के आरोप के शोर में जल-जंगल-जमीन की लूट के मुद्दे को खामोश कर देना चाहती है। हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता रवि किरन जैन ने फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए राजनीतिक दबाव में दिया गया फैसला कहा। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका द्वारा दिया गया यह फैसला सिर्फ और सिर्फ जनतांत्रिक आवाजों को दबाने वाला फैसला है। डीवाइएफआई के प्रदेश सचिव सुधीर सिंह ने कहा कि यह फैसला लोकतंत्र में अभिव्यक्ति के अधिकार व नागरिक आजादी पर कुठाराघात है तो वहीं आइसा के प्रदेश सचिव रामायन राम ने कहा कि विकास के हत्यारे माडल और दमन के खिलाफ लड़ते हुए लोकतंत्र और मानवाधिकार की जिस लड़ाई को आगे बढ़ाया उसकी सजा विनायक सेन को दी गई है। कवि अंशु मालवीय ने कविता के माध्यम से कहा कि विनायक ने अलिफ के बजाय बे से शुरु किया था और सबसे पहले जनता के अधिकारों के लिए सलवा जुडूम के खिलाफ बगावत की थी।
काशी के बुद्धिजीवियों ने विनायक सेन की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए कहा है कि 31 तारीख को बीएचयू गेट से लेकर चितरंजन पार्क तक एक मौन जुलूस निकाल इस फैसले का वे विरोध करेंगे। वाराणसी कचहरी में धरने को संबोधित करते हुए पीयूसीएल के प्रदेश अध्यक्ष चितरंजन सिंह ने कहा कि न्यायालय ने फैसले के माध्यम से तमाम जनतांत्रिक आवाजों को यह चेतावनी दी है कि अगर राज्य के लूट तंत्र के खिलाफ वह आवाज उठाएंगे तो उनका हश्र भी यही होगा। इस प्रतिरोध में फादर आनंद, सुनील सहस्त्रबुद्धे, बल्भाचार्य, लेनिन रघुवंशी समेत अनेक संगठनों ने शिरकत की। डीबेट सोसाइटी की गुंजन सिंह ने बताया कि सभी ने एक स्वर में छत्तीसगढ़ लोक सुरक्षा कानून जैसे असंवैधानिक कानूनों को रद्द करते हुए विनायक सेन को तत्काल रिहा करने की मांग की।
पत्रकार संगठन जेयूसीएस ने भी अपील जारी करते हुए कहा कि विनायक सेन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर न्यायपालिका ने अपने गैरलोकतांत्रिक और फासीवादी चेहरे को एक बार फिर उजागर किया है। विनायक सेन प्रकरण के इस फैसले ने अन्ततः लोकतांत्रिक ढ़ांचे को ध्वस्त करने का काम किया है। यह न्यायपालिक की सांस्थानिक जनविरोधी तानशाही है, जिसका हम विरोध करते हैं। आतंकवाद के नाम पर निर्दोषों के उत्तपीड़न के मरकज बन गए आजमगढ़ के लोग भी विनायक सेन पर देशद्रोह के आरोप के खिलाफ संजरपुर में सामाजिक व मानवाधिकार संगठनों के लोगों ने बैठक कर इस मानवाधिकार विरोधी फैसले के खिलाफ ‘न्याय के सवाल पर’ राष्ट्रीय स्तर का मानवाधिकार सम्मेलन करने की घोषणा की। मानवाधिकार नेता मसीहुद्दीन संजरी और तारिक शफीक ने कहा कि जब एक मानवाधिकार नेता का मानवाधिकार सुरक्षित नहीं रह सकता तो आम आदमी को आतंकवाद के फर्जी मुकदमों में फसाकर उसके जीवन को बर्बाद करना देना तो मामूली बात है। इसी क्रम में बलिया और गाजीपुर में बैठक कर इस फैसले का विरोध किया गया।
छत्तीसगढ़ लोक सुरक्षा कानून जिसके तहत विनायक सेन को देशद्रोही कहा गया वह खुद ही एक जनविरोधी कानून है। जो सिर्फ और सिर्फ प्रतिरोध की आवाजों को खामोश करने वाला कानून है। विनायक सेन लगातार सलवा जुडुम से लेकर तमाम जनविरोधी प्रशासनिक हस्तक्षेप के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाते थे बल्कि वहां की आम जनता के स्वास्थ्य शिक्षा से जुड़े सवालों पर भी लड़ते थे। हम यहां इस बात को भी कहना चाहेंगे कि जिस तरह न्यायालय ने डा सेन को आजीवन करावास दिया, ठीक इसी तरह भारतीय न्यायालय की इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ बेंच ने तीस सितंबर 2010 को कानून और संविधान को ताक पर रखकर आस्था और मिथकों के आधार पर अयोध्या फैसला दिया। न्यायपालिका के चरित्र को इस बात से भी समझना चाहिए कि देश की राजधानी दिल्ली में हुए ‘बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ कांड’ पर न्यायालय ने पुलिस का मनोबल गिरने की दुहाई देते हुए इस फर्जी मुठभेड़ कांड की जांच की मांग को खारिज कर दिया था। भंवरी देवी से लेकर ऐसे तमाम फैसले बताते हैं कि हमारी न्यायपालिका का रुख दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिला विरोधी रहा है। जनसत्ता

क्योकि वे गरीबों के पक्षधर हैं


एमजे अकबर
मैं बिनायक सेन के राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए। भारत दोहरे मापदंडों वाले लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है।
भारत एक अजीब लोकतंत्र बनकर रह गया है, जहां बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है और डकैत खुलेआम ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं। सरकारी खजाने पर डाका डालने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए भी सरकार को खासी तैयारी करनी पड़ती है। जब आखिरकार उन पर ‘धावा’ बोला जाता है, तब तक उन्हें पर्याप्त समय मिल चुका होता है कि वे तमाम सबूतों को मिटा दें। आखिर वह व्यक्ति कोई मूर्ख ही होगा, जो तीन साल पहले हुए टेलीकॉम घोटाले के सबूतों को इतनी अवधि तक अपने घर में सहेजकर रखेगा। तीन साल क्या, सबूतों को मिटाने के लिए तो छह महीने भी काफी हैं। क्योंकि इस अवधि में पैसा या तो खर्च किया जा सकता है, या उसे किसी संपत्ति में परिवर्तित किया जा सकता है या विदेशी बैंकों की आरामगाह में भेज दिया जा सकता है। राजनेताओं-उद्योगपतियों का गठजोड़ कानून से भी ऊपर है। अगर भारत का सत्ता तंत्र बिनायक सेन को कारावास में भेजने के बजाय उन्हें फांसी पर लटका देना चाहे, तो वह यह भी कर सकता है।
बिनायक ने एक बुनियादी नैतिक गलती की है और वह यह कि वे गरीबों के पक्षधर हैं। हमारे आधिपत्यवादी लोकतंत्र में इस गलती के लिए कोई माफी नहीं है। सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और यकीनन रमन सिंह के लिए इस बार का क्रिसमस वास्तव में ‘मेरी क्रिसमस’ होगा। कांग्रेस और भाजपा दो ऐसे राजनीतिक दल हैं, जो फूटी आंख एक-दूसरे को नहीं सुहाते। वे तकरीबन हर मुद्दे पर एक-दूसरे से असहमत हैं। लेकिन नक्सल नीति पर वे एकमत हैं। नक्सल समस्या का हल करने का एकमात्र रास्ता यही है कि नक्सलियों के संदेशवाहकों को रास्ते से हटा दो।
मीडिया इस गठजोड़ का वफादार पहरेदार है, जो उसके हितों की रक्षा इतनी मुस्तैदी से करता है कि खुद गठजोड़ के आकाओं को भी हैरानी हो। गिरफ्तारी की खबर रातोरात सुर्खियों में आ गई। प्रेस ने तथ्यों की पूरी तरह अनदेखी कर दी। हमें नहीं बताया गया कि बिनायक सेन के विरुद्ध लगभग कोई ठोस प्रमाण नहीं पाया गया था। अभियोजन ने गैर जमानती कारावास के दौरान बिनायक के दो जेलरों को पक्षविरोधी घोषित कर दिया था। सरकारी वकीलों की तरह जेलर भी सरकार की तनख्वाह पाने वाले नुमाइंदे होते हैं। लेकिन दो पुलिसवालों ने भी मुकदमे को समर्थन देने से मना कर दिया। एक ऐसा पत्र, जिस पर दस्तखत भी नहीं हुए थे और जो जाहिर तौर पर कंप्यूटर प्रिंट आउट था, न्यायिक प्रणाली के संरक्षकों के लिए इस नतीजे पर पहुंचने के लिए पर्याप्त साबित हुआ कि बिनायक सेन उस सजा के हकदार हैं, जो केवल खूंखार कातिलों को ही दी जाती है।
बिनायक सेन स्कूल में मेरे सीनियर थे। वे तब भी एक विनम्र व्यक्ति थे और हमेशा बने रहे, लेकिन वे अपनी राजनीतिक धारणाओं के प्रति भी हमेशा प्रतिबद्ध रहे। मैं उनके राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए। भारत धीरे-धीरे दोहरे मापदंडों वाले एक लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है। जहां विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए हमारा कानून उदार है, वहीं वंचित तबके के लोगों के लिए यही कानून पत्थर की लकीर बन जाता है।
यह विडंबनापूर्ण है कि बिनायक सेन को सुनाई गई सजा की खबर क्रिसमस की सुबह अखबारों में पहले पन्ने पर थी। हम सभी जानते हैं कि ईसा मसीह का जन्म 25 दिसंबर को नहीं हुआ था। चौथी सदी में पोप लाइबेरियस द्वारा ईसा मसीह की जन्म तिथि 25 दिसंबर घोषित की गई, क्योंकि उनके जन्म की वास्तविक तिथि स्मृतियों के दायरे से बाहर रहस्यों और चमत्कारों की धुंध में कहीं गुम गई थी। क्रिसमस एक अंतरराष्ट्रीय त्यौहार इसलिए बन गया, क्योंकि वह जीवन को अर्थवत्ता देने वाले और सामाजिक ताने-बाने को समरसतापूर्ण बनाने वाले कुछ महत्वपूर्ण मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। ये मूल्य हैं शांति और सर्वकल्याण की भावना, जिसके बिना शांति का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। सर्वकल्याण की भावना किसी धर्म-मत-संप्रदाय से बंधी हुई नहीं है। क्रिसमस की सच्ची भावना का सबसे अच्छा प्रदर्शन पहले विश्व युद्ध के दौरान कुछ ब्रिटिश और जर्मन सैनिकों ने किया था, जिन्होंने जंग के मैदान में युद्धविराम की घोषणा कर दी थी और एक साथ फुटबॉल खेलकर और शराब पीकर अपने इंसान होने का सबूत दिया था। अलबत्ता उनकी हुकूमतों ने उन्हें जंग पर लौटने का हुक्म देकर उन्हें फिर से उस बर्बरता की ओर धकेल दिया, जिसने यूरोप की सरजमीं को रक्तरंजित कर दिया था।
यदि काल्पनिक सबूतों के आधार पर बिनायक सेन जैसों को दोषी ठहराया जाने लगे तो हिंदुस्तान में जेलें कम पड़ जाएंगी। ब्रिटिश राज में गांधीवादी आंदोलन के दौरान ऐसा ही एक नारा दिया गया था। यह संदर्भ सांयोगिक नहीं है, क्योंकि हमारी सरकार भी नक्सलवाद के प्रति साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक रवैया अख्तियार करने लगी है।


लेखक ‘द संडे गार्जियन’ के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं।

Friday, December 24, 2010

धसकने वाले है टिहरी के गाँव


आशुतोष सिंह
लखनऊ , दिसंबर । टिहरी बांध के आसपास के दर्जनों गाँव कभी भी धसक कर बांध की झील में समा सकते है । सितम्बर में हुई तेज बारिश के बाद टिहरी बांध के जलाशय में पानी का स्तर काफी ज्यादा बढ़ा और कई गाँव डूब क्षेत्र में आ गए । साथ ही कई गाँव में जबरजस्त भूस्खलन की चपेट में आए पर अब यह खतरा और बढ़ता जा रहा है । कई जगह पहाड़ धसक रहे है और जमीन फट रही है । बीते सत्रह दिसंबर को मलबा गिराने से टिहरी बांध में बिजली के उत्पादन पर भी असर पड़ चुका है । यह बात पूर्वांचल ग्रामीण विकास संस्थान की पत्रिका ' डिजास्टर मैनेजमेंट एंड डेवलपमेंट , की कवर स्टोरी से सामने आई है । यह पत्रिका प्राकृतिक और मानवीय आपदा के साथ जलवायु परिवर्तन , पर्यावरण ,जल ,जंगल और जमीन के सवाल पर फोकस करेगी । यह जानकारी पूर्वांचल ग्रामीण विकास संस्थान के सीईओ और प्रबंध संपादक एपी सिंह ने यहाँ दी । पत्रिका के प्रधान संपादक डाक्टर भानु है जो पिछले दो दशक से डिजास्टर यानी आपदा खासकर बाढ़ आपदा के क्षेत्र
में काम कर रहे है । पत्रिका के पहले अंक की कवर स्टोरी धसकते पहाड़ और फटती जमीन में नई टिहरी में भूस्खलन का जायजा लेते हुए लिखा गया है -उप्पू गाँव तक पहुँचते पहुँचते टिहरी बांध से बनी झील के किनारे लगे पहाड़ पर बसे गांवों में रहने वालों की त्रासदी समझ में आ जाती है । कई गाँव झील में समा चुके है तो कई गाँव झील में समाने वाले है । नाकोट गाँव में बड़ा पुल बन रहा है जो झील के उस पार बसे लोगों को इधर आने का रास्ता देगा । फिलहाल वे मोटर बोट से आते जाते है । नाकोट गाँव के गजेंद्र रावत ने उस पर बसे गांवों की व्यथा सुनाते हुए कहा - बांध बनाने से पहले ये लोग पुरानी टिहरी के पुल से पंद्रह बीस मिनट में नई टिहरी वाली सड़क पर आ जाते थे पर अब सड़क के जरिए आने जाने में कई घंटे लग जाते है । पर समस्या यही ख़त्म नही होती । खेत झील के पानी में समा चुका है और गाँव पर खतरा मंडरा रहा है । जब लगातार बरसात हुई तो लोगों की रातों की नींद हराम हो गई । कब कौन सा घर झील में गिर जाए यह पता नहीं था । सामने देखिए गाँव के जो घर है उनके ठीक नीचे से पहाड़ धसक कर झील में जा चुका है । ऐसे गाँव ७० से ज्यादा है जिनपर खतरा मंडरा रहा है ।
टिहरी बांध के विनास का यह नया आयाम है जिसपर किसी का ध्यान नही गया है । जिस तरह जमीन धसक रही है उससे देर सबेर दर्जनों गाँव झील में समा जाएंगे। बड़े बांधों के खिलाफ आंदोलन छेड़ने वाले माटू संगठन का मानना है कि इस क्षेत्र में ७५ गांवों पर खतरा मंडरा रहा है और इस सिलसिले में जल्द कोई पहल नही हुई तो अगली बारिश में हालत गंभीर होंगे । छाम गाँव के रहने वाले पूरण सिंह राणा बांध की वजह से भूस्खलन और विस्थापित हुए लोगों का सवाल उठाते है और अब खुद भी विस्थापितों के लिए हरिद्वार में बसाए गाँव में रहते है क्योकि उनका घर नही बचा । बाद में दूसरे भाइयों ने और ऊँचाई पर घर बनाया जहाँ वे जाते रहते है ।
रपट में टिहरी बांध के आसपास बसे गांवों पर भूस्खलन के बढ़ते खतरे को बताया गया है । टिहरी बांध को लेकर शुरू से ही विरोध होता रहा है और पर्यावरण का सवाल उठाने वाले इसे जोखम वाला बांध मानते रहे है । बीते सत्रह दिसंबर को जिस तरह मलबा गिरने के बाद बांध का कामकाज प्रभावित हुआ इससे बांध विरोधी आंदोलनकारियों की बात सही भी साबित होती है ।
पत्रिका की दूसरी विशेष रपट में गंगा , पद्मा और तिस्ता नदी से होने वाली तबाही के बारे में जानकारी दी गई है । पत्रिका के पहले अंक में बारिश और बाढ़ आदि पर पश्चिम बंगाल , तमिलनाडु ,उतराखंड और उत्तर प्रदेश की रपट दी गई है । जबकि अगला अंक हिमालय पर फोकस होगा जो कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक की जानकारी देगा ।

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Wednesday, December 22, 2010

दसवें के घाट पर वाजपेयी का जन्मदिन !


अंबरीश कुमार
लखनऊ दिसम्बर। अपने को हिंदुत्व का अलंबरदार मानने वाले भाजपाई पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी का ८७ वां जन्मदिन २५ दिसंबर को को लखनऊ के कुडिया घाट पर मना रहे है जो सनातन काल से दसवें का घाट है और चौक इलाके के गुलाला शमशान घाट का क्रिया घाट भी है । इस कार्यक्रम को अशुभ माना जा रहा है पर भाजपाई जो एक बार ठान लेते है तो जल्दी पीछे नही हटते है , यह तर्क पार्टी की तरफ से दिया गया । इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली होंगे । यह कार्यक्रम लखनऊ के सांसद लालजी टंडन के संरक्षण में हो रहा है । ये वही टंडन है जिनके जन्मदिन पर साड़ी बाँटने के दौरान भगदड़ मची तो दो दर्जन से ज्यादा के महिलाओं की मौत हो गई थी । दसवें के घाट पर वाजपेयी का जन्मदिन मनाने को चौक इलाके जिसे छोटी काशी भी कहा जाता है वहां के ब्राह्मणों को रास नही आया । पंडित द्वारका दास ने कहा -- जिस घाट पर दसवां होता है ,घंट बांधा जाता है , क्या वही जगह भाजपा वालों को मिली , ऐसे घाट पर तो तांत्रिक भोज होता है किसी के जन्मदिन का उत्सव नही । लगता है इस पार्टी ने तो परंपरा ,संस्कृति और संस्कार सभी को तिलांजलि दे दी है । दूसरी तरफ भाजपा प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा -कुडिया घाट पर पहले भी वाजपेयी का जन्मदिन मनाया जा चुका है ।
इस कार्यक्रम को लेकर भाजपा में विरोध के स्वर मुखर नही हो पा रहे है क्योकि टंडन से कोई टकराव लेकर राजनैतिक भविष्य खराब नही करना चाहता । वैसे भी टंडन का यह कार्यक्रम राजनैतिक ज्यादा है । जबसे मुरली मनोहर जोशी और कलराज मिश्र का लखनऊ का दौरा बढ़ा है टंडन सतर्क हो गए है । ब्राह्मण के नाम पर इस लखनऊ की संसदीय सीट पर दूसरा दावेदार न आ जाए यह चिंता भी है । अरुण जेटली का दौरा उसी पेशबंदी का नतीजा है । पर लोग इस बात से हैरान है कि लालजी टंडन वाजपेयी का जन्मदिन दसवें के घाट पर क्यों मना रहे है ।जानकारी के मुताबिक कुडिया घाट पर वाजपेयी के जन्मदिन पर भजन आदि के बाद भोजन का भी कार्यक्रम है । समूचा कार्यक्रम दिन में दो बजे तक निपट जाएगा।
गोमतीनगर के कार्यकर्त्ता मनोज कुमार ने कहा - जबसे टंडन ने दसवें के घाट पर वाजपेयी का जन्मदिन मनाना शुरू किया है तभी से उनका स्वास्थ्य भी गड़बड़ा गया है । वैसे तो वैज्ञानिक दृष्टि से इन सब बातों का कोई महत्व नही पर जो पार्टी मर्यादा पुरषोत्तम राम के नाम पर सत्ता में आ चुकी हो और हिंदुत्व की बात करती हो उसे तो यह ध्यान रखना चाहिए कि जन्मदिन का उत्सव कहा मनाया जा सकता है और कहाँ नही । पार्टी को वाजपेयी की वह कविता ध्यान रखनी चाहिए जिसमे उन्होंने कहा था - हिंदू तन मन हिंदू जीवन ,रग रग मेरा हिंदू परिचय,सागर में समायु तो बदव नल बनकर उभरू । बेहतर हो पार्टी इस कार्यक्रम की जगह बदल कर अनावश्यक विवाद से बचे । और अरुण जेतली को भी ऐसी जगह नही जाना चाहिए जिससे पुरे हिंदू समाज में गलत संदेश जाए ।
ख़ास बात यह है कि वाजपेयी के जन्मदिन पर लखनऊ में कई और कार्यक्रम हो रहे है । भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यसमिति सदस्य हीरो बाजपेयी ने बताया -पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी का जन्मदिन (25 दिसम्बर) हम सबके लिए एक पर्व के समान है। श्रद्धेय अटल जी का व्यक्तित्व विराट है। वे 86 बरस के हो गये हैं। अटल जी के दीर्घायु और अच्छे स्वास्थ्य की कामना के लिए उनके 87वें जन्मदिवस के एक दिन पूर्व 24 दिसम्बर को सुबह 10 बजे हनुमान मंदिर आम्रपाली चौराहा, ए-ब्लाक इन्दिरा नगर, लखनऊ पर सामूहिक हवन-पूजन का आयोजन किया जा रहा है। इस कार्यक्रम में प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही, महापौर डॉ0 दिनेश शर्मा, सांसद कुसुम राय, पूर्व क्षेत्रीय अध्यक्ष एवं वरिष्ठ नेता भाजपा जयपाल सिंह विशेष रूप से उपस्थित रहेंगे। इसके पश्चात् लवकुश नगर बस्ती ए-ब्लाक इंदिरा नगर में मिष्ठान वितरण होगा।
दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी के पूर्व प्रदेश मंत्री एवं विधायक सुरेश श्रीवास्तव ने बताया कि विश्वपटल पर भारत का मान बढ़ाने वाले श्रद्धेय अटल बिहारी बाजपेयी के जन्मदिवस की पूर्व संध्या पर दिनांक 24 दिसम्बर को शाम पांच बजे कोठारी बंधु पार्क राजाजीपुरम् में एक भजन संध्या का आयोजन किया गया है जिसमें भजन गायक किशोर चतुर्वेदी का गायन होगा। इस अवसर पर सांसद लालजी टंडन, महापौर डॉ दिनेश शर्मा, सांसद कुसुम राय, पूर्व क्षेत्रीय अध्यक्ष जयपाल सिंह, नगर अध्यक्ष नीरज गुप्ता, पूर्व नगर अध्यक्ष प्रदीप भार्गव उपस्थित रहेंगे।

Monday, December 20, 2010

समाजवादी चेतना के प्रकाश पुंज


विजय प्रताप
लोकतांत्रिक - समाजवादी विचारों, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और सादगी की जिंदगी जीने के लिए प्रसिद्ध सुरेंद्र मोहन केवल भारतीय समाजवादी धारा के नेता नही थे, बल्कि सभी वामपंथी कार्यकर्ता, चाहे वे किसी भी विचारधारा से जुड़े हों, उन्हें अपना नेता, सलाहकार और खैरख्वाह मानते थे।
सुरेंद्र मोहन ने युवा अवस्था में ही अंबाला से राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में शरीक होकर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। भारतीय समाजवादी आंदोलन के सभी स्वरुपों में उनकी अग्रणी भूमिका रही। इंदिरा गांधी की तानाशाही-आपातकाल - के खिलाफ चली मुहिम में भी उन्होने महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। जय प्रकाश नारायण के विश्वासपात्र होने के साथ-साथ वे विभिन्न राजनीतिक धाराओें को एक जुट कर जनता पार्टी बनाने में सक्रिय प्रमुख व्यक्तियों में थे। आपातकाल के बाद हुए चुनाव और उसके बाद बनी सरकार के दौरान वे जनता पार्टी के महामंत्री थे। 1978 से 1984 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। वे पीयूसीएल के संस्थापक सदस्य थे और लगातार उनके संरक्षक के रुप में सक्रिय रहे। अस्सी के दशक में हिंद मजदूर सभा के साथ उन्होनें ‘काम का अधिकार’ के लिए देश व्यापी अभियान खड़ा किया जिसमें विभिन्न श्रमिक संघों और राजनीतिक धाराओं ने एक जुट होकर इस मांग को बुलंद किया। 1990 में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए मंडल आयोग की सिफारिश पर अमल कराने में उनका भी अहम योगदान था।
काशी विद्यापीठ में दो साल समाजशास्त्र पढ़ाने के बाद सुरेंद्र मोहन ने नौकरी छोड़ कर पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ता बनना तय किया था। पर पढ़ना-लिखना उनके जीवन का अभिन्न अंग बना रहा। हिंदी और अंग्रजी के अखबारों में उनके विश्लेषणात्मक लेख, अनेक पुस्तिकाएं और तीन पुस्तके प्रकाशित हुईं हैं। वे अंग्रजी में प्रकाशित पत्रिका ‘जनता’के सह-संपादक भी थे।
वे ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनल’ और भारत-पाकिस्तान आवामी फोरम के सदस्य थे। दक्षिण एशिया में भारत और नेपाली समाजवादियों के बीच उनकी अहम भूमिका थी। नेपाली कांग्रेस के अनेक नेता उन्हें अपना मित्र, संरक्षक और सलाहकार मानते थे। सुरेंद्र मोहन के शब्द कोश में ‘सफलता’ और ‘विफलता’ दोनों शब्द नही थे। उनके जीवन का एक ही मकसद था, समाजवादी मूल्यों के लिए अनवरत कोशिश। इस मामले में वे संपूर्ण-संभव अर्थों में विदेह थे। सत्ता और संपत्ति के मोह से पूरी तरह ऊपर उठ चुके थे। जीवन संगिनी मंजू मोहन भी ऐसी मिलीं कि उनका घर देश भर के समाजवादी और जेपी आंदोलन के कार्यकर्ताओं के लिए अपने घर जैसा था। कोई कभी भी उनके घर आता तो मंजू जी सबसे पहले पूछतीं - खाना खाया है। मुझे याद है 1977 के चुनाव पूर्व की स्थिति।
15 अप्रैल, 1977 को उनकी दूसरी संतान बिटिया अनघा मोहन को इस दुनिया में आना था। फिर भी सुरेंद्र मोहन सुबह से देर रात तक ऐतिहासिक चुनाव अभियान के लिए मुद्दे और प्रेस वक्तव्य तैयार करने, नौकरशाही में लोकतंत्र के लिए प्रसिद्ध वरिष्ठ अफसरों से संवाद रख कर संभावित साजिशों को भापनें और नाकाम करने की योजना बनाने में जुटे रहते थे और मंजू जी आने वाले हर कार्यकर्ता की देखभाल के लिए अपनें को झोंके रहती थीं।
इंदिरा गांधी ने 1976 में कुछ नेताओं को छोड़ा जरुर था, लेकिन सत्ता पर अपना कब्जा बनाए रखने के लिए वे अंत तक साजिशें करती रही थीं। मगर हमारी नौकर शाही, बीएसएफ, सेना और चुनाव आयोग सभी में लोकतंत्र के लिए प्रतिबद्ध लोगों के होने, उनके सुरेंद्र मोहन को आवश्यक सूचनाएं देने और सुरेंद्र मोहन द्वारा आवश्यक कदम उठाने के कारण लोकतंत्र की जीत हुई। इंदिरा जी को बार-बार ऐसी कोशिशों से बाज आने के लिए सार्वजनिक तौर पर ललकारने की भी जनता पार्टी की जीत में एक निर्णायक भूमिका थी। जनता की ‘नब्ज’ पहचानने वाले कई वरिष्ठ जननेता 1977 के चुनाव के बहिष्कार के पक्ष में थे। सुरेंद्र मोहन ऐसे लोगों में थे जो शुरु से मानते थे कि चुनावी मैदान में उतरने से ही दूसरी आजादी की जंग जीती जा सकती है।
1977 के अभियान और जनता पार्टी को चलाने की जिम्मेवारी अन्य तत्कालीन महामंत्रियों, लाल कृष्ण आडवाणी और रामकृष्ण हेगड़े की भी थी, लेकिन जनता पार्टी के थिंक टैंक- प्रो. जेडी सेठी, एलसी जैन, प्रो. राजकृष्ण- द्वारा तैयार सामग्री का धारदार इस्तेमाल जिस प्रकार सुरेंद्र मोहन करते थे, उनकी बानगी उन दिनों के समाचार पत्रों को पढ़ कर आज भी जानी जा सकती है।
सुरेंद्र मोहन आपातकाल में अगस्त में गिरफ्तारी से पहले भी बिहार आंदोलन के दौरान दो अक्तूबर, 1974 को गिरफ्तार हुए थे और 13 अक्टूबर, 1974 को छूटे। उसके बाद वे कई बार छोटी-छोटी अवधि के लिए सत्याग्रहों में शरीक रहे।
जेल में सुरेंद्र मोहन न केवल खुद स्वाध्याय में अपना समय बिताते थे, बल्कि अन्य साथियों को भी पढ़ने-गुनने की प्रेरणा देते थे। जेल में जिंदादिली से कैसे जिया जाता है, वह सुरेंद्र मोहन और और उनके अन्य साथियों बलवंत सिंह अटकान, सांवल दास गुप्ता, ललित मोहन गौतम और राजकुमार जैन आदि के साथ वालों के लिए आज भी एक मीठी याद जैसा है।
सुरेंद्र मोहन अपने विदेह भाव के कारण भविष्य में झांकने की अद्भुत क्षमता रखते थे। जो नकारात्मक पूर्वानुमान थे, वे भी सही निकले। जेल में वे समाजवादी पार्टी को किसी बड़ी पार्टी में विलीन कर देने के स्पष्ट रुप से विरोधी थे। उनका मानना था कि जनसंघ, संघठन कांग्रेस और लोकदल के समाजवाद विरोधी तत्व समाजवादियों और समाजवाद के कार्यक्रमों के खिलाफ एक हो जाएंगे। उनकी राय में समाजवादियों को एक फेडरल फ्रंट ही बनना चाहिए, जिससे हमारी समाजवादी पहचान कायम रहे। लेकिन इसे विडबंना ही कहा जाएगा कि जब जेपी ने सभी पार्टियों के विलय को अपने अभियान में शामिल होने की पूर्व शर्त के बतौर रख दिया तो सुरेंद्र मोहन ने ही निस्पृह भाव सभी नेताओं को एक करने और साझे झंडे, चुनाव चिह्न, घोषणा- पत्र और साझे- सामूहिक नेतृत्व को तैयार करने में महत्ती भूमिका निभाई।
कौन आदमी किस कद का है, यह नापने-जानने की भी सुरेंद्र मोहन में अद्भुत क्षमता थी। आज भी अगस्त 1977 की वह रात याद करके मेरे शरीर में झनझनाहट सी पैदा होती है। जनता पार्टी में विभिन्न घटक कैसे कैसे फिर से टूट सकते हैं, कौन नेता चाल चल सकता है और जनता पार्टी का प्रयोग कैसे अधबीच ही चरमरा सकता है, इस बात को उन्होनें शतरंज की बिसात की तरह चित्रित किया था। दुर्भाग्य से अधिकतर नेताओं ने अपनी चालें ऐसे चलीं तो सामने वाला क्या हारता और क्या जीतता, जनता पार्टी के प्रयोग की गाड़ी जुलाई 1979 में पटरी से उतर गई।
आज भी मेरे लिए यह सवाल अनसुलझी पहेली की तरह है कि जब वे भविष्य के नकारात्मक पहलुओं को इतना स्पष्ट देख लेते थे फिर भी शुभ के लिए, समाजवाद के लिए इतनी निष्ठा, एकाग्रता से कैसे जुटे रहते थे। जीवन के आखिरी क्षणों तक समाजवाद के सांगठनिक ढांचे को फिर से मरम्मत करके खड़ा कर देना है, इसके लिए वैचारिक चौखटे के पुनर्कथन, समाजवादी आंदोलन के विभिन्न संगठनों को चुस्त-दुरुस्त करने और एक साझी, बड़ी और प्रभावी समाजवादी पार्टी बनाने के मिशन में जुटे थे।
सुरेंद्र मोहन चौरासी वर्ष की उम्र में हमसे जुदा हुए। उनके परिवार में सहकर्मी पत्नी, बेटा और बेटी के परिवार ही नहीं, हजारों ऐसे सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, जिनको सुरेंद्र मोहन के जाने से व्यक्तिगत क्षति का आभास हुआ होगा। सामाजिक आंदोलन और उपेक्षित वर्गों के अधिकारों के लिए चल रहे तमाम अभियानों ने भी आज तक ऐसा आघात सहा है, जो कोई पूरा नही कर सकता।



Thursday, December 16, 2010

मुर्दों के नाम टैक्स वसूलते मंत्री

लखनऊ , दिसंबर । मायावती सरकार के होम्योपैथिक चिकित्सा और धर्मार्थ कार्य राज्य मंत्री राजेश त्रिपाठी जिन्हें मुर्दों पर टैक्स वसूलने के चक्कर में लोकायुक्त के यहाँ पेश होना पड़ा था वे आज अपनी बात से मुकर गए । राजेश त्रिपाठी ने आज गोरखपुर में कहा - मैंने लोकायुक्त से कोई माफ़ी नहीं मांगी । मै तो सिर्फ अपना पक्ष रखने गया था । इस मामले में मै इस्तीफा भी नहीं देने वाला हूँ । राजेश त्रिपाठी ने आगे कहा - बहन जी का निर्देश है की मुझे २०१२ का विधान सभा चुनाव लड़ना है । यही वजह है की विरोधी मुझे फंसा रहे है । दूसरी तरफ राजेश त्रिपाठी के खिलाफ लोकायुक्त को जो शिकायत की गई है उसमे आरोप लगाया गया कि वे मुर्दों के दाह संस्कार के लिए टैक्स वसूलते है । जो प्रति मुर्दे के हिसाब से सौ से डेढ़ सौ रुपए के बीच होती है । समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने आरोप लगाया कि मायावती सरकार में वसूली का दायरा शराब से लेकर शमशान तक फ़ैल चुका है ।
धर्मार्थ कार्य मंत्री राजेश त्रिपाठी के खिलाफ गोरखपुर के विजय कुमार शुक्ल ने करीब एक साल पहले लोकायुक्त के यहाँ शिकायत दर्ज कराई थी कि बड़हलगंज में नारकोटिक्स विभाग की जमीन पर कब्ज़ा करने वाले मंत्री राजेश त्रिपाठी शमशान घाट में मुर्दों के पंजीकरण का टैक्स वसूलते है । इसी शिकायत के आधार पर लोकायुक्त जस्टिस एनके मल्होत्रा ने मंत्री राजेश त्रिपाठी को बुधवार को तलब किया था । जानकारी के मुताबिक मल्होत्रा ने यह सवाल किया कि वे किस तरह मुर्दों के पंजीकरण का शुल्क लेते है । इस पर त्रिपाठी ने सफाई दी कि यह धनराशि लोग स्वेच्छा से देते है वसूला नही जाता है । मंत्री राजेश त्रिपाठी बड़हलगंज शमशान घाट मुक्ति पथ सेवा संस्थान के अध्यक्ष भी है । त्रिपाठी ने लोकायुक्त के सामने गलती स्वीकार की और इस संस्थान के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने की बात कही । पर आज गोरखपुर पहुँचते ही वे पलट गए ।
राजेश त्रिपाठी ने गोरखपुर में कहा कि इस्तीफा देने का सवाल ही नही पैदा होता है । किसी भी पद से इस्तीफा नही देने वाला हूँ । त्रिपाठी ने यह भी कहा कि जब वे लोकायुक्त क सामने पेश हुए तो वहा कोई और नही था फिर इतनी बातें मीडिया में कैसे आ गई । मैंने न तो कोई गलती मानी और न ही माफ़ी मांगी है । यह संब मुझे बदनाम करने की साजिश है । राजेश त्रिपाठी ने कहा - इस मामले में मै अपनी जनता और नेता मायावती से बात कर ही कोई फैसला करूँगा । हालाँकि लोकायुक्त के सामने त्रिपाठी ने फ़ौरन इस्तीफे की पेशकश की थी । मंत्री के खिलाफ लोकायुक्त को जो शिकायत की गई है उसमे अवैध कब्ज़ा कर शमशान घाट, दूकान और होटल बनवाने का आरोप है । इसक आलावा कछुवों की तस्करी म शामिल होने का भी आरोप है । समाजवादी पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा - मायावती सरकार में वसूली का दायरा शराब से लेकर शमशान तक फ़ैल चुका है । इस घटना से साफ़ है कि इस सरकार के मंत्री कैसे कैसे पैसा वसूल रहे है । दूसरी तरफ भाजपा प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा - सरकार के कई मंत्रियों के खिलाफ शिकायते आ चुकी है । लोकायुक्त के यहाँ जब ऎसी शिकायतों का ढेर लग जाए तो बिगड़ते हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है ।
मायावती सरकार के दर्जन भर से ज्यादा मंत्री किसी न किसी मामले में फंसे हुए है । पर यह मामला अलग किस्म का है जिसमे मंत्री पर शमशान घाट में वसूली का आरोप लगा है । मंत्री भले ही यह दावा करे कि लोग स्वेच्छा से अंतिम संस्कार के लिए दान देते है पर यह किसी के गले आसानी से उतरने वाला नही है । सरकार के कई मंत्री पहले भी अलग अलग विवादों के चलते सरकार को सांसत में डाल चुके है अब यह नया विवाद भी टूल पकड़ सकता है ।

Monday, December 13, 2010

तीस साल बाद


अंबरीश कुमार
चार पांच दिन पहले की बात है दफ्तर में बैठा था तभी एक मोहतरमा की आवाज आई जो फाइनेंशियल एक्सप्रेस की पत्रकार दीपा से पूछ रही थी , अंबरीश जी कहा बैठते है । खबर बनाते हुए मेरा ध्यान उधर गया और फिर कोफ़्त हुई कि रिसेप्शन से बिना बात किए क्यों किसी को मेरे पास भेज दिया गया । खबर बनाने का समय अमूमन शाम छह बजे से सात बजे तक होता है और उस बीच न तो कोई फोन अटेंड करता हूँ और न ही किसी को मिलने के लिए भेजा जाता है क्योकि ध्यान टूटने पर खबर का तारतम्य बिगड़ जाता है ।इस बात को ज्यादातर परिचित लोग जानते है और वे इसका ध्यान भी रखते है । ऐसे में सिर्फ अनजान लोग ही कई बार आ जाते है । वे मोहतरमा आई और एक प्रेस रिलीज देते हुए बोली - मै अपर्णा गुप्ता हूँ । मैंने कहा , यह रिलीज नीचे ही दे देती । पर मैंने ध्यान दिया तो वह रिलीज किसी कवियित्री की याद में हुई सभा की थी जिसमे एक जगह मशहूर कवियित्री अपर्णा गुप्ता भी लिखा था । मैंने पूछा -क्या आप ही मशहूर कवयित्री अपर्णा गुप्ता है , इस पर वे कुछ झिझक कर बोली -मेरी कुछ पुस्तके प्रकाशित हो चुकी है । साहित्य से अपना कोई ख़ास रिश्ता नही रहा है और जनसत्ता में अब साहित्य का मामला काफी संवेदनशील भी माना जाता है। सुना है काफी खेमेबाजी है पर न तो इस क्षेत्र में कोई ज्ञान है और न दखल । साहित्यकार के रूप में मेरा परिचय सिर्फ मंगलेश डबराल से रहा और वे भी काफी नाराज रहते थे । मंगलेश डबराल जब तक थे तब तक अपने साथी अजित अंजुम सवाल उठाते थे - आपके यहाँ जोशी , डबराल ,उनियाल ,डंगवाल और बडथ्वाल जैसे लोग ही क्यों छापते है । पर अब कोई सवाल नही उठाता । खैर अचानक मेरा ध्यान रिलीज के अंत में गया जिसमे उस सभा में शामिल होने वालों का नाम था और उसमे अजय मेहरोत्रा से लेकर जौहर तक का नाम नजर आया । अजय पचपन के मित्र और सहपाठी रहे है । एक ज़माने में केन्द्रीय संचार मंत्री वीर बहादुर सिंह के ओएसडी थे और बाद में गृह राज्य मंत्री के ओएसडी बने तो सरकारी हवाई जहाज से देश के कई सुदूर हिस्सों का मंत्री महोदय के साथ दौरा भी कराया । घर आते थे तो फ़तेह बहादुर सिंह को भी लाते थे जो अब उत्तर प्रदेश सरकार में काबीना मंत्री है और अपन उनकी खबर जनसत्ता में लेते रहते है । खैर अजय फिलहाल एक बड़े ओद्योगिक घराने में आला अफसर है । अजय का नाम और प्रेस रिलीज पर दिया पता देख कर सब ध्यान आ गया । सन १९८० के दौर में अपर्णा गुप्ता लखनऊ विश्विद्यालय में मेरी क्लास में थी और जब मै छात्रसंघ का चुनाव लड़ा तो जिन छात्राओं ने प्रचार किया उनमे वे भी शामिल थी । उस दौर में विश्विद्यालय के दूसरे विभागों के छात्रों की भीड़ उन्हें देखने के लिए मनोविज्ञान विभाग में जमा रहती थी और मेरी यादाश्त में अभी भी आधा दर्जन से ज्यादा घटनाएं है जब अपर्णा गुप्ता को लेकर झगडा फसाद हुआ । वे विश्विद्यालय की सबसे खुबसूरत छात्राओं में एक थी । पर आज देखकर झटका लगा । तीस साल का समय ज्यादा होता है पर उम्र का असर कुछ लोगों पर ज्यादा पड़ता है तो कुछ पर कम । रामगढ में प्रोफ़ेसर रस्तोगी करीब ८५ साल के है और उनकी पत्नी अस्सी के आसपास होंगी । उनके घर में जो फोटो लगी है उसे देखकर लगता है १९५० की वैजंतीमाला की फोटो है । पर अस्सी साल की उम्र में भी उनके चेहरे को आप उस फोटो से मिला सकते है । पर अपर्णा गुप्ता में काफी बदलाव नजर आ रहा था । अपर्णा से विश्विद्यालय के दौर में कोई घनिष्ठता नही रही और ज्यादा जानकारी भी नही थी । बाद में उनके भाई द्विजेन्द्र से जान पहचान हुई तो उनके घर भी जाना हुआ । वर्ष १९८६ में जो लखनऊ छूटा तो ज्यादातर लोगों का साथ भी छुट गया । अपर्णा करीब घंटे भर बैठी तो विश्विद्यालय के समय की चर्चा हुई । उन्होंने बताया कि सिर्फ कुमकुम का पता है पर मै उन्हें नही जानता था । उस दौर के सहपाठियों में सिर्फ अखिलेश दास यहाँ है जो पहले केंद्र में मंत्री थे अब बसपा के सांसद है । कुछ समय पहले अखिलेश दास ने फोन कर बताया था कि वे मेरी क्लास में थे । खैर अपर्णा गुप्ता से मिलकर काफी अच्छा लगा पर झटका भी कम नही लगा । जो चेहरा दिमाग में था वह १९८० का था और वे उसके बाद २०१० की अंतिम बेला में मिली । वे दिल्ली दूरदर्शन में अफसर है । फिर बताया - लखनऊ विश्विद्यालय के सामने से गुजरी तो द्विजेन्द्र से कहा कि गाड़ी से ही एक चक्कर लगवा दो । अपर्णा चली गई । जो प्रेस रिलीज दे गई वे दिल्ली के अखबार के लिहाज से महत्वपूर्ण भी नही थी इसलिए कम्पोज हो जाने के बाद भी नहीं भेजा ।अटपटा जरुर लगा तीस साल बाद कोई आए और उसका छोटा सा अनुरोध भी पूरा न किया जा सके पर मजबूरी थी ।
अपर्णा के जाने के बाद लगा एक बार मै भी लखनऊ विश्विद्यालय के मनोविज्ञान विभाग से लेकर सांख्यकी विभाग का चक्कर लगा लूँ । आखिर उसी शहर में सात साल से हूँ पर कभी अपने विभाग जाने का मौका नही मिला । उस मनोविज्ञान विभाग में तो कई शिक्षिकाए अभी भी है जिन्होंने मुझे पढाया था ।
फोटो -लखनऊ विश्विद्यालय

Wednesday, December 1, 2010

राजीव दीक्षित का जाना कोई खबर नही है


अंबरीश कुमार
तीस नवम्बर को मंसूरी से देहरादून आते समय सोचा कि क्यों न ऋषिकेश में राजीव दीक्षित से मिल लिया जाए जो बाबा रामदेव के साथ काम कर रहे है । पर वापसी का टिकट कन्फर्म न होने की चिंता ने सारा कार्यक्रम ध्वस्त कर दिया । एक दिसंबर जब खबर बना रहा था तभी इंडियन एक्सप्रेस के वीरेंदर नाथ भट्ट का फोन आया , अरे आपके मित्र राजीव दीक्षित की डेथ हो गई है , आस्था चैनल पर खबर आ रही है । मै चौक गया ,यह कैसा संयोग है कल ही उनसे मिलने जा रहा था । उनके बारे में पहले पता चला कि कोई दुर्घटना हुई । बाद में पता चला कि दिल का दौरा पड़ा है । समझ नही आया कि जो व्यक्ति बाबा रामदेव के साथ हो और खुद लोगो को स्वास्थ्य के बारे में आगाह करता हो उसे दिल का दौरा पड़ जाए । पिछली मुलाकात चेन्नई में शोभाकांत जी घर हुई जहा राजीव के कहने पर सभी ने गर्म पानी पीना शुरू किया था । आज चेन्नई में प्रदीप जी से बात हुई तो बोले - कुछ गड़बड़ है । उनके बारे में कही कोई खबर तक नहीं आई । कई लोग किसी साजिश का अंदेशा भी जता रहे है ।
राजीव दीक्षित से अपना संबंध अस्सी के दशक से था जव छात्र युवा संघर्ष वाहिनी और अन्य जन संगठनों में सक्रिय था । बाद में दिल्ली में जनसत्ता में आने के बाद आंदोलनों पर लिखना शुरू किया तो आजादी बचाओ आंदोलन पर काफी कुछ लिखा । १९८९ के बाद से राजीव दीक्षित इलाहाबाद से जब भी आते तो सीधे बहादुरशाह जफ़र स्थित इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग के निचले तल पर जनसत्ता संपादकीय विभाग में मेरी सीट के सामने बैठ कर इंतजार करते । घर पर फोन करते और कहते - अंबरीश भाई , आराम से आए आप से चर्चा करनी है । उनसे बातचीत के बाद जब खबरे लिखनी शुरू की तो कुछ समय बाद ही कुछ कुंठित किस्म के लोगो ने एतराज किया और उनका नाम न देने की बात की । तब जनसत्ता हिंदी पत्रकारिता में शीर्ष पर था और हिन्दी पट्टी में काफी पढ़ा जाता था । कोई आगे बढे तो विघ्नसंतोषी तत्त्व खसरा खतौनी लेकर सात पुश्तों का हिसाब किताब ढूँढ़ लाते है । यह परम्परा पुरानी है और हिंदी मीडिया में कुछ ज्यादा ही है । इसलिए न तब परवाह की और न अब करता हूँ , यही वजह है राजीव दीक्षित से संबंध बना रहा । रायपुर में एक दिन कांग्रेस दफ्तर के सामने साइबर कैफे से इंडियन एक्सप्रेस को खबर भेज रहा था तभी राजीव दीक्षित का फोन आया और बोले -अंबरीश भाई मुलाकात कब हो सकती है तो मैंने घर आने को कहा । तभी जो लड़की खबर कम्पोज कर रही थी उसने बात सुनी और कहा क्या ये आजादी बचाओ आंदोलन वाले राजीव जी है ? मेरे हाँ कहने पर वह चौंकी और उनसे मिलने की इच्छा जताई । उसने ही बताया कि उनके कैसेट सुने जाते है । रात में राजीव घर आए तो उनके साथ करीब बीस गाड़ियों का काफिला भी था । मैंने छूटते कहा - राजीव जी आप तो अब ब्रांड बन गए है । जवाब में सिर्फ मुस्कुराए और बोले नागपुर से एक अखबार निकलना चाहता हूँ जो आंदोलन को आगे बढाए । आपकी मदद भी चाहिए । करीब घंटे भर साथ रहे । उसके बाद चेन्नई में वाहिनी के मित्र मिलन में उनसे मुलाकात हुई थी । करीब हफ्ता भर पहले ही बाबा रामदेव की खबर में उनका जिक्र किया था । आज सरे अखबार देख डाले कही कोई खबर नहीं । राखी सावंत से लेकर इंडियन आयडल अभिजीत सावंत की पिटाई तक की खबर है पर राजीव दीक्षित की खबर नही है ।
इसी समाज के लिए लड़ रहे थे राजीव दीक्षित ।