Monday, August 9, 2010

हरियाली ,हिमालय और सुर्ख होते सेब








अंबरीश कुमार
दार्जलिंग से शिवानी ने सतबुंगा जाने का कार्यक्रम इस शर्त पर बनाया कि मै गाइड के रूप में मुक्तेश्वर तक कई जगहों को दिखाने ले जाऊंगा .इस वजह से अचानक नैनीताल जाने का कार्यक्रम बना और रामगढ पहुंचा .गागर से नीचे उतरते ही बरसात की वजह से हरियाली ऐसी नज़र आई कि देखते मन न भरे .घर के बगीचे में फूल कम हो गए थे पर सेब के पेड़ लदे थे .दरवाजे पर लगा किंग डेविड प्रजाति का सेब सुर्ख हो चुका था तो बगीचे में डेलिशियस प्रजाति के पेड़ों में लगे सेब सुर्ख तो नहीं थे पर मिठास भरपूर थी .शाम तक बारिश और बादल के बीच आस पास घूमते रहे .गर्मियों के मुकाबले ठंढ ज्यादा थी इसलिए शाल से राहत मिली .रात में खाना बनाने का जिम्मा साथ आए एक मित्र ने लिया जो एक राष्ट्रीय अखबार के दिल्ली से बाहर के संपादक भी है .खाना बनाने के लिए सारा सामान बाज़ार से लेना था क्योकि गर्मियों में जो भी बचता है सब बहादुर को दे दिया जाता है .दूसरे साथ आए एक साथी मछली मुर्गे के बिना खाना अधूरा मानते है.गनीमत थी कि रोहू और टेंगन जैसी मछली भी उपलब्ध थी .खाना बनना रात आठ बजे शुरू हुआ और देर रात तक बैठकी चली .बीच बीच में थोड़ी देर के लिए बाहर निकल कर बरसात और ठंढ का अंदाजा लगाते .रात में ही तय हुआ सुबह सात बजे गाड़ी आने से पहले सभी तैयार मिले. पर रात भर रिमझिम के बाद भी सुबह भीगी नज़र आई .निकलते निकलते आठ बज चुके थे और सिंधिया एस्टेट से आगे का रास्ता घने बादलों के चलते नही दिख रहा था .फ़ॉग लाइट की मदद से धीमी गति आगे बढे .बारिश तो नही ओस जैसी बूंदे थी पर बादल बार बार घेर ले रहे थे .
सतबुंगा आते ही लगा पहाड़ों पर से पर्दा हटा दिया गया .आसमान भी खुल चुका था और सामने था हिमालय का अनंत विस्तार .घाटी के बीच पहाड़ी के सीढ़ीदार खेत और सेब के बड़े बड़े बागान.सेब के सुर्ख रंग देखकर बाहर के मित्र हैरान थे .ऐसे लदे थे जैसे अपने यहाँ देसी आम के पेड़ लद जाते है.रास्ते भर सेब , नासपाती और बब्बूगोसा के पेड़ों से फल तोड़कर खाते रहे .मुक्तेश्वर पहुंचे तो सबसे पहले जोशी जी की दूकान पर चाय पीने बैठे .सामने ही डाकखाना है .देवदार के पेड़ों से घिरे मुक्तेश्वर से लोग रानीखेत और अल्मोड़ा के भी दर्शन करा देते है .समूचे कुमायूं में इतने खूबसूरत जंगल ,पहाड़ और वादियाँ नहीं मिलेंगी .महाभारत के समय का एक शिव मंदिर पहाड़ी पर है जो सात हजार फुट की ऊँचाई पर है .जहाँ से आसमान साफ़ होने पर हिमालय की तीन सौ किलोमीटर लम्बी श्रंखला साफ़ दिखाई पड़ती है और लगता है कुछ ही किलोमीटर दूर बर्फ के पहाड़ है .एक दिन पहले ही लखनऊ में गर्मी से जान निकल रही थी और यहाँ ठंड से हालत खराब हो रही थी .
वापस सतबुंगा लौटे तो एक पतले रास्ते से पहाड़ पर चढ़ना था .ड्राइवर से छाता निकालने को कहा तो साथ चल रहे सतबुंगा के निवासी सत्यप्रकाश ने कहा - साहब अब घंटे दो घंटे बारिश नहीं होगी .फिर मैने छाता ले लिया .पहाड़ी पगडंडी पर का रास्ता कुछ देर बाद ही सीढ़ीदार खेतों और बगीचों के बीच चला गया .सतबुंगा की एक छोटी पर मंदिर है और उसके आगे घने जंगल .यह पूरा इलाका बाघ , गुलदार जैसे जानवरों का है .जंगल से पहले ही रास्ते में तेज बूंदे पड़ने लगी .पथरीले रास्ते पर तेज चलने से फिसलने का खतरा भी था .कुछ दुरी पर बच्चों का स्कूल नजर आया तो टिन की छत के नीचे शरण ली गई .पत्थरों से बने चार पांच घर थे पर कोई नज़र नही आ रहा था .पता चला यही पर विवादस्पद पचौरी का भी घर है जो गंगा ,ग्लेशियर पर अपने विचारों से विवाद में घिर गए थे .और नीचे भाजपा के सांसद पत्रकार चन्दन मित्र का घर भी लगभग तैयार हो गया है .
सतबुंगा की हरियाली ,हिमालय और बागान आपको आसानी से वापस नहीं लौटने देंगे .यही वजह है कि रामगढ पहुँचते पंहुचते रात हो गई .दूसरे दिन जब दिल्ली में आलोक तोमर और सुप्रिया को सेब की फोटो दिखाई तो सुप्रिया इस बात से नाराज थी कि सेब लेकर क्यों नहीं आया क्योकि उनके बगीचे पेड़ों में भी सेब लदे थे .मैंने बताया कि बगीचे के फल तो जून में ही बिक जाते है जिसके बाद सिर्फ एक दो पेड़ के फल चौकीदार के बच्चों के लिए छोड़ देते है .पर यह शिकायत वाजिब थी कि जब सत्तर रुपए बोरी वहा सेब मिल रहा हो तो लाना तो चाहिए था .


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