Monday, October 6, 2008

मध्य प्रदेश-सौ बच्चों की मौत

 
-फिरदौस खान-
बेशक भारत आर्थिक और परमाणु शक्ति बनने की ओर अग्रसर है, लेकिन बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में वह काफी पीछे है। मध्य प्रदेश में कुपोषण से हो रहीं मौतें इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं। गौरतलब है कि पिछले करीब एक पखवाड़े में मध्यप्रदेश के खंडवा, झाबुआ, सतना और शिवपुरी जिलों में करीब सौ बच्चों की मौत हो चुकी है और दो सौ से ज्यादा अस्पताल में भर्ती हैं। 
संसद में पेश एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 46 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-3), 2005-06 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में तीन साल से कम उम्र के करीब 47 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं। इसके कारण उनका शारीरिक विकास भी रुक गया है। देश की राजधानी दिल्ली में 33.1 फीसदी बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, जबकि मध्य प्रदेश में 60.3 फीसदी, झारखंड में 59.2 फीसदी, बिहार में 58 फीसदी, छत्तीसगढ में 52.2 फीसदी, उडीसा में 44 फीसदी, राजस्थान में भी 44 फीसदी,  हरियाणा में 41.9 फीसदी, महाराष्ट्र में 39.7 फीसदी, उत्तरांचल में 38 फीसदी, जम्मू कश्मीर में 29.4 फीसदी और पंजाब में 27 फीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं। 

यूनिसेफ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के कुल कुपोषणग्रस्त बच्चों में से एक तिहाई आबादी भारतीय बच्चों की है। भारत में पांच करोड 70 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। विश्व में कुल 14 करोड 60 लाख बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं। विकास की मौजूदा दर अगर ऐसी ही रही तो 2015 तक कुपोषण दर आधी कर देने का सहस्राब्दी विकास लक्ष्य 'एमडीजी' 2025 तक भी पूरा नहीं हो सकेगा। रिपोर्ट में भारत की कुपोषण दर की तुलना अन्य देशों से करते हुए कहा गया है कि भारत में कुपोषण की दर इथोपिया, नेपाल और बांग्लादेश के बराबर है। इथोपिया में कुपोषण दर 47 फीसदी तथा नेपाल और बांग्लादेश में 48-48 फीसदी है, जो चीन की आठ फीसदी, थाइलैंड की 18 फीसदी और अफगानिस्तान की 39 फीसदी के मुकाबले बहुत ज्यादा है। यूनिसेफ के एक अधिकारी के मुताबिक भारत में हर साल बच्चों की 21 लाख मौतों में से 50 फीसदी का कारण कुपोषण होता है। भारत में खाद्य का नहीं, बल्कि जानकारी की कमी और सरकारी लापरवाही ही कुपोषण का कारण बन रही है। उनका यह भी कहना है कि अगर नवजात शिशु को आहार देने के सही तरीके के साथ सेहत के प्रति कुछ सावधानियां बरती जाएं तो भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के छह लाख से ज्यादा बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है।
दरअसल, कुपोषण के कई कारण होते हैं, जिनमें महिला निरक्षरता से लेकर बाल विवाह, प्रसव के समय जननी का उम्र, पारिवारिक खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, टीकाकरण, स्वच्छ पेयजल आदि मुख्य रूप से शामिल हैं। हालांकि इन समस्याओं से निपटने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चलाई हैं, लेकिन इसके बावजूद संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आए हैं। देश की लगातार बढती जनसंख्या भी इन सरकारी योजनाओं को धूल चटाने की अहम वजह बनती रही है, क्योंकि जिस तेजी से आबादी बढ रही है उसके मुकाबले में उस रफ्तार से सुविधाओं का विस्तार नहीं हो पा रहा है। इसके अलावा उदारीकरण के कारण बढी बेरोजगारी ने भी भुखमरी की समस्या पैदा की है। आज भी भारत में करोडाें परिवार ऐसे हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पाती। ऐसी हालत में वे अपने बच्चों को पौष्टिक भोजन भला कहां से मुहैया करा पाएंगे। एक कुपोषित शरीर को संपूर्ण और संतुलित भोजन की जरूरत होती है। इसलिए सबसे बडी चुनौती फिलहाल भूखों को भोजन कराना है। हमारे संविधान में कहा गया है कि 'राज्य पोषण स्तर में वृध्दि और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझेगा।' मगर आजादी के छह दशक बाद भी 46 फीसदी बच्चे कुपोषण की गिफ्त में हों तो जाहिर है कि राज्य अपने प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्यों में नकारा साबित हुए हैं।
1996 में रोम में हुए पहले विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन (डब्ल्यूएफएस) के दौरान तकरीबन सभी देशों के  प्रमुखों ने यह वादा दोहराया था कि पर्याप्त स्वच्छ और पोषक आहार पाना सभी का अधिकार होगा।उनका मानना था कि यह अविश्वसनीय है कि दुनिया के 84 करोड लोगों को पोषक जरूरतें पूरी करने के लिए अनाज उपलब्ध नहीं है। कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है। विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वजन का है। यह संख्या करीब एक करोड 46 लाख है। नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।
हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फसल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पडी ग़ली-सडी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं। महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूडेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकडाें को उठाते हुए देखा जा सकता है। रोजगार की कमी और गरीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं। इस हालत में भी सबसे ज्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पडता है, क्योंकि वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए।  
काबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की जरूरत होती है तो दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तडपते हुए दम तोड देते हैं। यह एक कडवी सच्चाई है कि हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक गरीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाईर् गईं, लेकिन लालफीताशाही के चलते वे महज कागजों तक ही सीमित होकर रह गईं। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है। एक तरफ गोदामों में लाखों टन अनाज सडता है तो दूसरी तरफ भूख और कुपोषण से लोग मर रहे होते हैं। ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है? 

परिवार एवं कल्याण राज्य मंत्री रेणुका चौधरी भी कुपोषण की इस हालत पर चिंता जताते हुए इसे भयावह और शर्मनाक करार देती हैं। उनका मानना है कि नेताओं समेत शिक्षित वर्ग का एक बडा हिस्सा कुपोषण की समस्या को समझने में नाकाम रहा है। कुपोषण के लिए कृषि में आए बदलाव को काफी हद तक जिम्मेदार ठहराते हुए वे कहती हैं कि नगदी फसलों के प्रति बढे रुझान के कारण किसानों ने अपनी खाद्यान्न सुरक्षा खो दी है।

आज के बच्चे कल का भविष्य हैं। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि उन्हें भरपेट संतुलित आहार मिले। इसके लिए सरकार को पंचायती स्तर पर प्रयास करने होंगे। हमारे देश में अनाज के भंडार भरे हुए हैं, ऐसी हालत में भी अगर बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं तो इसकी जवाबदेही प्रशासन की है।

1 comment:

shelley said...

aalekh achchha hai. kuposhan ke shikar anmuman har rajya me hai. pae haal filhal kuchh rajya samne aaye. jo aakde media me pesh kiye kaye hai haqikat usse v bhayawah hai.
aap ye shabd pushtikaran hatade.