Friday, October 3, 2008

टाटा के जाने से टूट गए सपने

प्रभाकर मणि तिवारी
कोलकाता, अक्तूबर। सिंगूर से टाटा मोटर्स के हाथ खींचने की वजह से पश्चिम बंगाल में औद्योगिकीरण की प्रक्रिया को तो करारा ङाटका लगा ही है, कई सपने टूट गए हैं। इस बात का अंदेशा तो उसी समय पैदा हो गया था जब दो सितंबर को टाटा मोटर्स ने ¨सगुर संयंत्र का काम औपचारिक तौर पर बंद रखने का फैसला किया था। लेकिन बुधवार को रतन टाटा ने औपचारिक तौर पर सिंगूरसे वापसी का एलान कर उन तमाम सपनों पर पानी फिर गया, जो इस परियोजना के इर्द-गिर्द पनपने लगे थे। नैनो टाटा समूह के प्रमुख रतन टाटा के सपनों की कार तो थी ही, इस कार संयंत्र के आसपास बसे लोगों की आखों में भी इसने कई नए सपनों को जन्म दिया था। इलाके के नवधनाढच्यों के पैसों को भुनाने के लिए इलाके में कार व मोटरसाइकिलों के शोरूम तो खुले ही थे, बैंकों की कई शाखाएं भी खुल गई थीं। दिसंबर 2006 तक ¨सिंगूरमें महज दो बैंकों की ही शाखाएं थी, लेकिन अब यह तादाद सात तक पहुंच गई थी। इन बैंकों का टर्नओवर भी लगातार बढ़ रहा था।
वैसे, सिंगूर से टाटा की रवानगी की उल्टी गिनती तो उसी समय शुरू हो गई थी जब अगस्त के आखिर में तृणमूल के लोगों ने कर्मचारियों के साथ मारपीट की और उनको संयंत्र में काम पर जने से रोक दिया था। बीते २२ अगस्त को रतन टाटा ने जब यहां ¨सगुर से हाथ खींचने की चेतावनी दी थी, तब उन्होंने इसके लिए कोई समयसीमा नहीं तय की थी। शायद उनको उस समय भी हालात बदलने की उम्मीद रही होगी। टाटा ने आज माना भी कि उनको हालत सुधरने की उम्मीद थी। लेकिन डेढ़ महीने के इंतजर के बावजूद गतिरोध टूटते नहीं देख टाटा का धैर्य जवाब दे गया। टाटा ने कहा था कि भारी निवेश के बावजूद अपने कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए वे इस परियोजना को कहीं और ले ज सकते हैं।। उन्होंने दो-टूक शब्दों में कहा था कि अगर वे ¨सगुर से हाथ खींचते हैं तो राज्य में निवेश की टाटा समूह की भावी योजनाओं का प्रभावित होना तय है। सिंगुर में काम बंद होने से सिर्फ यहां से लखटकिया निकालने का टाटा समूह का सपना ही नहीं टूटा, बेशुमार लोगों के सपने टूट गए हैं। इनमें इस संयंत्र को जरिए राज्य में औद्योगिकीकरण अभियान को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाने का मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का सपना है तो इस संयंत्र में रोगजर पाने और इससे इलाके का कायाकल्प होने का लोगों का सपना भी टूटा है। टाटा के इस फैसले से राज्य में जरी औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को भारी ङाटका लगेगा। 
हुगली जिले के इस अनाम-से कस्बे में लखटकिया कार के लिए जमीन देने वाले ज्यादातर किसान भी चाहते थे कि नैनो इसी संयंत्र से बाहर निकले। इस परियोजना ने स्थानीय लोगों का जीवन और रहन-सहन का स्तर ही बदल दिया है। टाटा मोटर्स की इस परियोजना में सैकड़ों स्थानीय लोगों को रोजगार तो मिला ही था, जमीन के बदले किसानों को जितने पैसे मिले, उसकी तो उन लोगों ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। लेकिन अब उन लोगों के सामने वजूद का सवाल खड़ा हो गया है। जमीन के एवज में मिले लाखों रुपए ने दो जून भरपेट भात के लिए तरसने वाले इन किसानों की ¨जदगी में पहिए लगा दिए थे। जिस जमीन की कीमत कल तक कौड़ियों में थी, वह रातोंरात आसमान चूमने लगी थी। परियोजना के जमीन देवे वाले कृष्णोंदु दास का कहना था कि इस परियोजना ने इलाके के लोगों में रोजगार और समृद्धि की उम्मीदें जगाई थी। इलाके के कई युवक तो इसमें काम भी कर रहे हैं। लेकिन अब तो हम न घर के रहे और न घाट के। 
इलाके के ज्यादातर लोगों का मानना है कि परियोजना पूरी होने के बाद इलाके में विकास की प्रक्रिया और तेज हो जती। लेकिन अब बेहतर भविष्य के स्थानीय लोगों खासकर युवकों के सपने धुंधलाने लगे हैं।यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि टाटा को अपने इस फैसले से सिर्फ आर्थिक नुकसान ही उठाना पड़ेगा। लेकिन उनके इस फैसले से ¨सगुर समेत पूरे राज्य और इसकी साख को जो नुकसान होगा उसकी भरपाई कर पाना काफी मुश्किल होगा। टाटा ने भले कहा हो कि राज्य में निवेश के माहौल से इस फैसले का कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन इसका असर भावी निवेशकों पर भी पड़ना तय है। इस फैसले के दूरगामी नतीजे तो बाद में सामने आएंगे, लेकिन इससे व्यावसायिक तबके में जो उथल-पुथल शुरू हो गई है, उसके ङाटके तो अभी से महसूस होने लगे हैं।जनसत्ता से

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

जानकारि के लिए आभार।