Monday, September 26, 2011

घटता सरोकार,बढ़ता प्रसार



अंबरीश कुमार
भूख, भुखमरी और कर्ज में डूबे किसानों का सवाल हो या फिर जल, जंगल, जमीन के मुद्दे, अखबारों में इनकी जगह कम होती जा रही है। अस्सी के दशक में जब हमने पत्रकारिता शुरू की थी तो उस समय समाज के बारे में, जन आंदोलनों के बारे में लिखने का रूझान था। आपातकाल के बाद छात्र आंदोलन खासकर जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े नौजवानों का एक वर्ग पत्रकारिता में भी आया। इसका सकारात्मक असर भी दिखा। अस्सी के दशक में ही हिन्दी पत्रकारिता की याचक व सुदामा वाली दयनीय छवि को पहले रविवार ने तोड़ा फिर जनसत्ता के उदय ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। उससे पहले हिन्दी पत्रकार का वह रूतबा नहीं होता था जो अंग्रेजी के पत्रकार का होता था। सन १९८४ के दंगों में सिखों के कत्लेआम की खबरें जनसत्ता ने जिस अंदाज में दीं, उसने इस अखबार को नई ऊंचाई पर पहुंचाया। इसके बाद के राजनैतिक घटनाक्रम और मीडिया कवरेज में हिन्दी मीडिया की भूमिका बदली। उस समय तक दिल्ली की पत्रकारिता में अंग्रेजी का वर्चस्व था।
इसी दौर में राजनैतिक घटनाओं की कवरेज हिन्दी मीडिया ने अंग्रेजी मीडिया से लोहा भी लिया। उस दौर में प्रसार संख्या का वह दबदबा नहीं था जो आज है। यह भूमंडलीकरण के पहले के दौर की बात है। तब किसी अखबार में प्रबंधक यह नहीं समझ सकता था कि कैसी खबरें लिखी जाएं? पर नब्बे के दशक के बाद हालात तेजी से बदले। पहले मंडल फिर कमंडल ने मीडिया को भी विभाजित कर दिया। सन १९९२ में बाबरी मस्जिद ध्वंस के साथ ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने वाली खबरें थीं तो दूसरी तरफ सांप्रदायिकता का मुकाबला करने वाले पत्रकार थे। उत्तर प्रदेश में कुछ अखबारों की प्रसार संख्या उसी दौर में तेजी से बढ़ी भी। इसके बाद उदारीकरण का नया दौर शुरू हुआ और सामाजिक सरोकार से जुड़ी खबरें हाशिए पर जने लगीं। नब्बे के दशक के बाद से ही संपादक नाम की संस्था खत्म होने लगी। प्रबंधन तंत्र में मार्केटिंग विभाग का दबदबा बढ़ने लगा। अब प्रबंधन संपादकों को प्रसार और विज्ञापन बढ़ाने के नए तौर-तरीकों पर फोकस करने का दबाब डालने लगा।
उसी दौर में हमारे नए संपादक ने बैठक कर सवाल किया कि हमारे अखबार की यूएसपी क्या है? यूएसपी जैसा शब्द सुनकर संपादकीय विभाग के पुराने लोग कुछ समझ नहीं पाए। तब बताया गया कि इस शब्द के मायने यूनिक सेलिंग प्वाइंट यानी अखबार को बेचने की खासियत क्या होगी? उसके बाद राजनैतिक और सामाजिक सवालों को किनारे कर प्रसार और विज्ञापन बढ़ाने वाले कवरेज पर ध्यान देना शुरू किया गया। मसलन, दिल्ली के बाजार में सबसे ज्यादा चाट बेचने वाले व्यवसायी के बारे में क्यों न लिखा जए। इसके बाद सनसनीखेज खबरों और समाज के अभिजात्य वर्गीय लोगों के बारे में कवरेज पर जोर दिया जाने लगा। उसी दौर से पेज-थ्री की नई परिकल्पना शुरू हो गई जो आज और समृद्ध हो चुकी है। पहले अंग्रेजी मीडिया ने इसे ज्यादा तबज्जो दी पर धीरे-धीरे हिन्दी में भी इसने पैर जमा लिए।
इस बीच हिन्दी और भाषाई मीडिया ने प्रसार के मामले में अंग्रेजी अखबारों को पीछे ढकेल दिया। जनकारी के मुताबिक-हिन्दी मीडिया में दैनिक जगरण, भास्कर, अमर उजला और हिन्दुस्तान अंग्रेजी अखबारों से काफी आगे निकल गए। दैनिक जगरण ५३६ लाख, भास्कर ३०६ लाख, अमर उजला २८२ लाख पाठकों के साथ अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया के १३५ लाख पाठकों के मुकाबले काफी आगे जा चुके हैं। जबकि क्षेत्रीय अखबार भी अंग्रेजी अखबारों को पीछे छोड़ चुके हैं। तमिल अखबार डेली थांती २०९ लाख पाठकों के साथ सबसे ऊपर आ चुका है। उसके बाद मराठी अखबार लोकमत २०७ लाख पाठकों के साथ दूसरे नंबर पर जा पहुंचा जबकि बंगाल का आनंद बाजर पत्रिका १५८ लाख, तेलगू का इनाडु १४२ लाख पाठकों के साथ अंग्रेजी अखबारों से आगे हैं। एकल संस्करण के मामले में बंगाल का आनंद बाजार पत्रिका १२,३४,१२२ प्रसार संख्या के साथ पहले नंबर पर है जबकि दूसरे नंबर पर द हिन्दू ११,६८,०४२ पाठकों के साथ है।
बढ़ती प्रसार संख्या के बावजूद इन अखबारों में सामाजिक सरोकार घटता जा रहा है। अंग्रेजी अखबार अभिजात्य वर्गीय समाज पर ज्यादा फोकस कर रहे हैं। हिन्दी मीडिया भी इसी रास्ते पर है। सामाजिक सरोकार के मामले में भी अंग्रेजी मीडिया ने जो रास्ता अपनाया, हिन्दी उसी राह पर चलती दिख रही है। विदर्भ की बात छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड की दशा कहीं ज्यादा खराब है। बुंदेलखंड में पिछले छह साल से सूखा है और कर्ज में डूबे किसानों की खुदकुशी का सिलसिला रूक नहीं रहा है। पर ज्यादातर हिन्दी या अंग्रेजी अखबारों ने अपने संवाददाताओं को बुंदेलखंड का दौरा करने नहीं भेज। राहुल गांधी जब बुंदेलखंड गए तो जरूर कुछ वरिष्ठ पत्रकार वहां पहुंचे। इन अखबारों में देश में सबसे ज्यादा बिकने का ढिढोरा पीटने वाले अखबार हैं तो आजादी के आंदोलन से निकले अखबार समूह भी हैं। संपादक को छोड़ भी दें तो अखबारों के ब्यूरो चीफ, विशेष संवाददाता और राजनैतिक संपादकों ने भी ऐसे इलाकों में जाने की जहमत नहीं उठाई। यह अखबारों की बदलती प्राथमिकता का नया पहलू है।
बुंदेलखंड में पानी के लिए जंग शुरू हो चुकी है। कई जिलों में आए दिन मारपीट और हंगामे हो रहे हैं। बरसाती नदियां तो पहले ही सूख गईं। तेज प्रवाह वाली बेतवा से लेकर केन नदी तक की धार कमजोर हो गई है। सूखे और पानी के संकट के चलते ३५ लाख से ज्यादा लोगों का पलायन हो चुका है लेकिन लखनऊ के अखबारों में पहले पेज पर आईपीएल मैच की रंगीन फोटो व खबरें छपती हैं। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर में मालिक से लेकर संपादक तक सभी की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। यही वजह है कि पत्रकारिता में आने वाले नए लोगों के लिए भी समाज खासकर गांव का समाज कोई मायने नहीं रखता है। वे सरकार के विभिन्न विभागों की कवरेज करते हैं, नेताओं की प्रेस कांफ्रेंस कवर करते हैं या फिर पांच सितारा होटलों में चमचमाते सितारों की खबर लाते हैं। आज अखबार के लिए खबर से ज्यादा महत्वपूर्ण पैसा है, जो खबर पैसा लाने में मददगार हो, वही खबर बन रही है।
सामाजिक सरोकार के संदर्भ में ऐसी ही स्थिति जल, जंगल और जमीन की है। कृषि का रकबा कम हो रहा है और जंगल कट रहे हैं। वन्य जीवों का सफाया हो रहा है। सरिस्का की राह पर उत्तर प्रदेश का दुधवा राष्ट्रीय उद्यान भी जा रहा है। अचानक किसी दिन खबर आएगी कि अब दुधवा में बाघ नहीं रहे लेकिन इस बारे में समय रहते खबर नहीं बनती। जिला के स्तर पर माफिया, पुलिस और अफसर के गठजोड़ में जाने अंजाने पत्रकार भी होता जा रहा है। यही वजह है कि न तो सामाजिक सरोकार की खबरें आती हैं और न ही जन आंदोलनों की। हम राष्ट्रीय अखबारों की बात कर रहे हैं। ढाई कोस पर बोली बदलती थी पर अब तो ढाई कोस पर अखबारों के संस्करण भी बदल जाते हैं। राष्ट्रीय अखबारों के अब जिले के संस्करण निकलने लगे हैं जो जिलों के लोगों का दायरा जिले से बाहर जाने नहीं देते। उदाहरण के लिए गोरखपुर के पाठक को फैजबाद जिले तक की जनकारी अखबारों में नहीं मिलती। दूसरे छोटे-छोटे राजनैतिक दलों खासकर वामपंथी दलों के बारे में मीडिया की भूमिका और रोचक है। एक अंग्रेजी अखबार के संपादक ने मेरे सामने ही सीपीआई एमएल के आंदोलन की खबर लेकर आए एक संवाददाता से पूछा-इनकी फालोइंग कितनी है, संवाददाता का जबाब था-ज्यादा नहीं है, सर। इस पर संपादक महोदय ने खबर फेंकते हुए कहा-फिर क्यों जगह खराब कर रहे हो?
मीडिया में पहले दो वर्ग थे. आज तीन हो गए हैं.रेल सेवा के तीसरे, दूसरे और पहली श्रेणी की तरह. इनमें पहला भाषाई प्रिंट मीडिया है, दूसरा अंग्रेजी का प्रिंट मीडिया है और तीसरा अभिजात्य वर्ग है इलेक्ट्रानिक मीडिया.वेतन-भत्तो और सुख-सुविधाओं के लिहाज से यह तीसरा वर्ग सब पर भारी है। दूसरे इसका नजरिया भी अन्य वर्गो के प्रति हिकारत वाला है। हालांकि इलेक्ट्रानिक मीडिया में गए सभी लोग प्रिंट के कभी दूसरे या तीसरे दर्जे के पत्रकार होते थे। पर आज वेतन और चैनल की चमक-दमक के चलते ये अपने आप को सबसे अलग मानते हैं। यह बात अलग है कि आज भी खबरों के नाम पर नब्बे फीसदी प्रिंट मीडिया का फालोअप ही उनके पास होता है। अपवाद एक दो चैनल हैं पर सामाजिक सरोकार की बात करें तो इलेक्ट्रानिक मीडिया का हाल प्रिंट से ज्यादा बदहाल है। यह तो पूरी तरह बाजार की ताकतों से संचालित होता है।
(काफी पहले लिखा गया मीडिया पर यह लेख दोबारा दिया जा रहा है ,प्रसार के आंकड़े पुराने है )

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