Wednesday, February 27, 2008

हम यहीं, तुम यहीं, शराब यहीं

आलोक तोमर
तुम नहीं, गम नहीं, शराब नहीं, जसे खूबसूरत शेर की पैरोडी शीर्षक में करने के लिए माफ करें, लेकिन जिस दिन दिल्ली के अखबारों में खबर छपी थी कि स्कूल और कॉलेज जने वाले पांच दोस्त एक दस लाख रुपए की कार में एक पांच सितारा होटल से शराब पी कर लौट रहे थे और इंडिया गेट के पास भोर होने से कुछ ही पहले उनकी कार पहले एक पेड़ से टकराई और फिर उलट गई। नतीज था बीस साल की एक प्रतिभाशाली और सुंदर बेटी की लाश, उसके दोस्त की चिता और जीन के बड़े हिस्से के लिए अपाहिज हो गए बाकी नौजवान।

अगले ही दिन अखबार में जोर शोर से छपा था कि दिल्ली के पड़ोस में हॉंगकॉंग बनते ज रहे गुड़गां में अब बार २४ घंटे खुले रहेंगे। इसके बाद इस घोषणा के सगत में बड़े-बड़े अभिजत और सितारा किस्म के बुद्घिजीयिवों के बयान आए और कहा गया कि इससे जीन शैली सुधरेगी। दिल्ली में शराब एक तरह से जीनचर्या का स्वीकृत हिस्सा बन गई है और हर वीकेंड पर शराब की पार्टियां फॉर्म हाउसों से ले कर होटलों और घरों में होना एक सामाजिक रस्म बनती ज रही है।

जब से दिल्ली की यातायात पुलिस ने शराब पी कर कार चलाने वालों को चालान करने के साथ भारी जुर्माना भरने और सीधे जेल भेज देने की मुहिम शुरू की है, तब से अपना कारोबार बचाने के लिए बार मालिकों ने बाकायदा ड्राइर भर्ती कर लिए है या टैक्सी से्वाओं से अनुबंध कर लिया है, जो पी कर लड़खड़ाते हुए लोगों को सुरक्षित और निरापद उनके घर छोड़ कर आते हैं। दिल्ली और हरियाणा में अलग-अलग समय नशाबंदी के प्रयोग बड़े जोर-शोर से हुए हैं लेकिन होता यही रहा है कि गुड़गां और फरीदाबाद से पहले लोग दिल्ली में शराब खरीदने आते थे और बाद में जब दिल्ली में नशाबंदी लागू हुई तो यहां के लोग हरियाणा से जुगाड़ करके लौटने लगे। यह कहानी सिर्फ दिल्ली की नहीं है।

गुजरात में जहां महात्मा गांधी के प्रति आदर जताने के लिए सनातन नशाबंदी की गई है, उसकी सीमा पर भी महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश के इलाकों में शराब की शानदार हाटें लगती हैं और लोग लहराहते हुए गांधी की धरती में घुसते हैं। वैसे, गुजरात में नशाबंदी के बाजूद बाहर से आने ालों के लिए परमिट की प्रथा है और शराब की जो दुकानें हैं, वे देश के दूसरे हिस्सों की तुलना में लगभग पांच सितारा किस्म की हैं। दुकानों के बाहर एक दरोगा जी मेज-कुर्सी लगा कर बैठे रहते हैं और अपनी फीस ले कर परमिट काटते रहते हैं। बार में भी ड्रिंक्स का ऑर्डर लेने जो वेटर आता है, वह अपने साथ परमिट का फॉर्म ले कर आता है।

वैसे तो दिल्ली गालिब का शहर है, जिन्होंने बहुत पहले लिख दिया था कि मुफ़त की पीते थे मय और ये समङाते थे कि हम, रंग लाएगी हमारी फाका मस्ती एक दिन। गालिब के ये रंग उनकी जिंद्गी को पता नहीं कितना रंगीन कर पाए, लेकिन उनकी दिल्ली को आम तौर पर बदरंग करने की खबरें आती रहती हैं। कभी चार शराबी मिल कर एक पुलिसाले को पीट देते हैं, तो कभी नशे में लाल बत्ती लांघने की जल्दी में ट्रैफिक कॉंस्टेबल को उड़ा कर चले जते हैं। हाल मुंबई का भी अलग नहीं है। शराब मुंबई की सामाजिक अनिवार्यता बन चुकी है और अभी दो साल पहले तक यहां के बार शराब और बार बालाओं दोनों के लिए जने जते थे। बार बालाएं अब आधिकारिक रूप से नहीं हैं। लेकिन मुंबई शायद उन दुर्लभ शहरों में से एक है, जहां शराब की होम डिलीरी भी होती है।

ैसे शराब के शौकीनों की राजधानी भारत में अगर कहीं है तो गो है। काजू से बनी हुई हां की फैनी तो मशहूर है ही। इसके अला यह अकेला इलाका है, जहां मेडिकल स्टोर से ले कर दाल-चाल की दुकानों पर भी आधिकारिक रूप से शराब बिकती है। ह भी इतनी सस्ती कि लोग आते क्त हाई अड्डे के या रेल कर्मचारियों के जेब गर्म करके दो-दो दजर्न बोतलें ले आते हैं। अब तो स्कॉच भारत में ही बनने लगी है और भारत सरकार ने इसके आयात पर टैक्स भी बहुत कम कर दिया है। अभिजत पार्टियों में स्कॉच पानी की तरह बहती है और नतीजे में कभी हम जेसिका लाल की लाश देखते हैं, तो कभी रातों में बीच सड़क पर ठुकी हुई गाड़ियां। सरकारी राजस् के लिए शराब शायद इतनी भारी मजबूरी बन चुकी है कि सिर्फ नकली सतर्कता के अला अधिक-से-अधिक शराब खपाने पर सरकारें जोर देती हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि शराब पीना सस्थ्य के लिए हानिकारक है, जसे पत्रि संदेशों का जो प्रचार होर्डिंग और बोर्ड के जरिए किया जता है, उसका भुगतान भी शराब की कमाई से होता है।

शुरुआत के दिनों में भारत सरकार शराब की बिक्री को प्रोत्साहित नहीं करती थी और कई राज्यों में तो पूरी नशाबंदी कर दी गई थी। मगर इसके बाद सड़कें बनाने और बाकी किास के कामों के लिए पैसा कम पड़ने लगा तो नशाबंदी का बुखार उतर गया और ज्यादा से ज्यादा शराब की बिक्री पर जोर दिया जने लगा। इसी नर्ष की परू संध्या पर मुंबई में लगभग दो अरब रुपए की और दिल्ली में ७६ करोड़ रुपए की शराब बिकी थी। सरकार भी खुश और शराबी भी खुश। अब तो देश का कानून बनाने ालों ने दुनिया के सबसे बड़े शराब कारोबारियों में से एक जिय माल्या भी हैं, जो जहाज भी उड़ाते हैं और शराब भी बेचते हैं। उन्होंने अब दिेशी स्कॉच के कई ब्रांड भी खरीद लिए हैं और उनकी एयरलाइन का नाम तो है ही, उनकी प्रसिद्घ किंगफिशर बीयर के नाम पर।

घरेलू उड़ानों में पहले शराब नहीं परोसी जती थी। जब प्राइेट एयरलाइन का जमाना आया, तो प्रतियोगिता के दौर में यात्रियों को बीयर दी जने लगी। उस दौर में हालत यह होती थी कि इंसान जहाज में चढ़ता तो आराम से था, लेकिन उतरता लड़खड़ाते हुए था और उतरते ही हाई अड्डे के बाथरूम के बाहर कतार लग जती थी। बाद में सरकार ने ही यह प्रयोग बंद करा दिया।

अगर शास्त्रार्थ जसी कोई चीज शराब के मामले में हो तो एक पुराने शराबी के नाते अपने पास बहुत सारे तर्क हैं। पहला यह कि शराब शाकाहारी है, ेदों और शास्त्रों में सोमरस के नाम से उसका उल्लेख है, देता भी इसका सेन करते हैं और यह कि दो-चार पैग लगा लेने से कोई मर नहीं जता। इसके अला कहने ाले यह भी कहेंगे कि हम अपने पैसे की पीते हैं और किसी से मांगते नहीं हैं और जो लोग हर चीज में परोपकार खोजते हैं, उनका कहना होगा कि अगर सबने बंद कर दी तो शराब व्यापार में लगे लोगों का क्या होगा और जिन किसानों के गन्ने, जौ, अंगूर और काजू से शराब बनती है और े और उनके परिार भूखे मर जएंगे। उनको भूख से बचाने के लिए हमारा पीना जरूरी है। तर्क और कुतर्क के बीच सिर्फ दो पैग का फासला होता है।

फिर बहुत सारे लोग गिनाने लगेंगे कि नासा से ले कर दुनिया की बहुत सारी प्रयोगशालाओं की रपट बताती हैं कि जो लोग एक निश्चित मात्रा में नियमित शराब पीते हैं, उन्हें दिल का दौरा नहीं पड़ता या कैंसर नहीं होता या े लंबे समय तक जीते हैं। इन तर्कशास्त्रियों का एक ही जब उन्हीं के पक्ष में दिया जना चाहिए कि शराब लगातार पीने का एक सबसे बड़ा लाभ यह है कि शराब पीने ाला कभी बूढ़ा नहीं होता। ह जनी में ही मर जता है। बहुत सारी दाइयां हैं, जिनमें अल्कोहल होता है और डॉक्टर साफ-साफ कहते हैं कि यह दाई लेने के बाद आप कम-से-कम कार मत चलाना। लेकिन हाल ही में आपने ह किस्सा सुना होगा कि एक नौजन बैंक अधिकारी घर में लड़खड़ाते हुए घुसता था और उसके मुंह से शराब की गंध भी नहीं आ रही होती थी। चिंतित पिता ने उसके पीछे जसूस लगाए तो पता चला कि यह युक दाई की दुकानों से कफ सीरप की दो शीशियां चालीस रुपए में खरीदता है और छह पैग का नशा करके घर पहुंचता है। जिन्हें पीना है, वे पीएंगे, जिन्हें जीना है, वे जिएगे। लेकिन जो चीज बहानों के पर्दे के पीछे छिपानी पड़ती है, उसमें अपने आप के नंगा हो जने का भय तो कहीं न कहीं होगा ही।

शराब की खपत में लगातार बढ़ोतरी

अपने देश में भले ही दो-तिहाई आबादी गरीबी की रेखा के आसपास रहती हो, लेकिन शराब की खपत में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। भारत के उद्योग और वाणिज्य संगठन ऐसोचैम के अनुसार शराब की खपत हर साल बाईस फीसदी की दर से बढ़ रही है और आराम से कहा ज सकता है कि २0१0 तक यह खपत नब्बे लाख लीटर हो जएगी। एसोचैम के अध्यक्ष वेणुगोपाल धूत हैं, जो वीडियोकॉन टी्वी बनाते हैं, उनके एक अध्ययन के अनुसार हमारे देश में हर साल बीयर के पच्चीस करोड़ केस बिकते हैं और हर केस में एक दजर्न बोतलें होती हैं। इसके अला व्हिस्की के सात करोड़ बीस लाख केस भी लोगों का गला तर करते हैं। इसमें बोतलों की संख्या के लिए १२ का गुणा आप अपने आप कर लीजिए।

हमारे देश में हर एक हजर व्यक्तियों में से सिर्फ १८0 को दोनों क्त भरपेट खाना मिलता है। लेकिन शराब की खपत हर 200 लोगों में एक बोतल रोज की है। चूंकि खेल आंकड़ों का है इसीलिए इसमें भूखे-नंगे लोग शामिल नहीं हैं। रना यह औसत हर बोतल पर आठ का रह जएगा। आशादियों के अनुसार निराशा की खबर यह है कि २0१0 तक देश में तीस साल से कम उम्र के लोग पैंसठ करोड़ तक होंगे और ये ही शराब के सबसे बड़े उपभोक्ता होंगे। सरकार भी कमाएगी और शराब बनाने और बेचने वाले भी। आखिर दस लाख लीटर उत्पादन क्षमता की फैक्टरी स्थापित करने पर ज्यादा से ज्यादा डेढ़ करोड़ रुपए खर्चा आता है। इससे ज्यादा कीमत की तो कारें बड़े उद्योगपति खरीद लेते हैं।

चाय और इस्पात के बाद शराब के कारोबार में दुनिया पर कब्ज करने ाले जिय माल्या ने ब्रिटेन की एक शराब कंपनी व्हाइट एंड मैके को सा अरब डॉलर में खरीदा। तर्क यह था कि उनके पास व्हिस्की का कोई ब्रांड नहीं था, जो कमी अब पूरी हो गई है। ैसे भी माल्या की यू बी बीरीज कंपनी दुनिया में शराब बनाने ाली तीसरी सबसे बड़ी कंपनी है और भारत व्हिस्की का दुनिया में सबसे बड़ा बाजर है। रही बात गरीबों की तो उनके लिए देसी शराब के ठेके हैं, जहां अंगूर, नारंगी, संतरा जसे रसीले नामों से सस्ती शराब बिकती है और जो यह भी नहीं खरीद सकते, वे अपने घरों में शराब बनाने की कोशिश करते हैं और साल में कम-से-कम दो-तीन बार तो ये खबरें आ ही जती हैं कि जहरीली शराब पीने से कितने लोग मारे गए। हमारे सस्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदौस को इन दिनों नैतिकता का दौरा पड़ा हुआ है और े सिगरेट और शराब दोनों पर फिल्मों से पाबंदी हटा देना चाहते हैं। उनसे एक ही साल किया ज सकता है कि सिगरेट पर तो वैधानिक चेतानी लिखी होती है कि इसे पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। लेकिन बीड़ी के बंडलों पर ऐसी कोई चेतानी नहीं होती। क्या भारत सरकार मानती है कि गरीबी कम करने का एक उपाय यह भी है कि बीड़ी पीने वाले गरीबों को कैंसर हो जाए?

Monday, February 25, 2008

ये उत्तर प्रदेश है हुजूर, यहां फोड़ी जाती हैं आंखें

बाराबंकी। करीब डेढ़ माह के भीतर ही लगभग तीन दजर्न लोगों की आंखें फोड़ डालने के कारनामें के बाद कभी अफीम और मादक पदार्थो की तस्करी के लिए कुख्यात राजधानी लखनऊ से केवल पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर स्थिति बाराबंकी भविष्य में अगर मरीजों की आंखें फोड़ने के लिए जना जये तो कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी।
आंखें फोड़ने का काम कोई ङाोला छाप डाक्टर नहीं करते बल्कि वे चिकित्सक ऐसा कारनामा करते है जिन्हें आंखों के आपरेशन का विशेषज्ञ बताया जता हैं। फिलहाल १२ लोगों की आंखों की रोशनी इस शिविर में गुल हो गयी हैं। डाक्टर की लापरवाही से अब ये पूरी तरह अपने परिजनों पर बोङा बन गये हैं। अंधता निवारण के तहत नि:शुल्क आपरेशन शिविर लगने पर यहां ज्यादातर ऐसे मरीज आते है जो उम्र के आखिरी पड़ाव पर है या फिर जिनकी आर्थिक स्थिति डांवाडोल हैं।
ये सारा खेला अंधता निवारण के नाम पर किये जने वाले आपरेशन शिविरों के जरिये किया ज रहा हैं। अंधता तो खर इन शिविरों में मरीजों की दूर नहीं हुआ अलबत्ता इतना जरूर हुआ कि जो मरीज इन होशियार डाक्टर के शिकार बनें वे सूरदास हो गये। अब दिन-रात उनके लिए एक जसा हो गया हैं।
२३ और २४ तारीख को दो दिवसीय शिविर जिला मुख्यालय से करीब ५५ किलोमीटर दूर मवई में गोसाईगंज,फैजबाद के ब्लाक आई रिलीफ सोसाइटी के सौजन्य से लगाया गया। यहां लेंस प्रत्यारोपण विशेषज्ञ डा तारिक रियाज ने अलग-अलग गांवों के जिन ४१ मरीजों का आपरेशन किया उनमें करीब एक दजर्न की आंखों की रोशनी गुल हो गयी हैं।
इससे पहले अंधता निवारण कार्यक्रम के अन्तर्गत त्रिवेदीगंज में लगाये गये नेत्र आपरेशन शिविर में बेरहम डाक्टरों की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी रवैये के कारण मरीजों की आंखों को फोड़ डाला गया था। गुलाम हसन पुरवा से आये इस शिविर में एक साठ वर्षीय मरीज प्यारा की इच्छा तो नहीं पूरी हुई अलबत्ता जो थोड़ा-बहुत ये देख पा रहे थे वह भी डाक्टरों की हठधर्मिता से छिन गया। इनका ‘गुनाह’ सिर्फ और सिर्फ इतना था कि इन्होंने शिविर में मौजूद चिकित्सक को बता दिया था कि उसकी दांयी आंख में परेशानी हैं। इस पर डाक्टर इतना ङाल्ला गया कि इन्हें एक तरीके से दबोच कर इनकी बांयी आंख का तियापांचा कर डाला। यही वह आंख था जिससे बुजुर्ग को धुंधला ही सही लेकिन दिखायी देता था। उम्र के इस पड़ाव पर जब अपने ही बेगाने से हो जते है, ऐसे में बुजुर्ग की रोशनी बलात छीनकर ‘‘होनहार डाक्टरों’’ ने बड़ी नेकी का काम कर डाला।
मवई के शिविरि में आपरेशन कराने आये बसेगापुर, ढेमा, कछौली, रसूलपुर और नेवरा के मरीजों ने बताया कि आंख के आपरेशन के बदले उनसे बाकायदा तीन अंको से चार अंको के बीच धनराशि वसूली गयी। बावजूद इसके उनकी तीमारदारी के नाम पर अंगूठा दिखा दिया गया। जब मरीजों ने आपरेशन के बाद आंखों में होने वाली दिक्कतों के बारे में डाक्टर को बताया तो उसने कहा कि जओं अपना काम करो। मैंने अपना काम कर दिया हैं। जिन मरीजों की आंखों की रोशनी अब पूरी तरह छिन गयी हैं। उनमें समिरता देवी, फली, संगम देई, रामप्रसाद, नफीस आदि शामिल हैं।
संवाददाता से बातचीत के दौरान एक मरीज ने हिचकियां लेते हुए बताया कि ‘कमबख्त डाक्टरों ने पता नहीं कौन सा बदला लिया हैं। अभी तो वह लाठी के सहारे चल-फिर भी लेता था लेकिन अब उन्हें हर वक्त दूसरे के कंधों का सहारा लेना पड़ेगा।’ घटना की जनकारी पाकर आज स्वास्थ्य महानिदेशक एलवी प्रसाद, एडीएम श्रीष दुबे और प्रभारी मुख्य चिकित्सा अधिकारी बी एल सोनकर ने घटनास्थल का दौरा किया और यह माना कि वहां बहुत सारी कमियां थी। निर्धारित मानकों को पूरा नहीं किया गया था। मजे की बात तो यह है कि मवई के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में लगाये शिविर में प्रचार के पोस्टरों में डीएम और सीएमओ का नाम बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। जिलाधिकारी रवीन्द्र ने कहा कि पूरे मामले की निष्पक्षता से जंच करायी ज रही है और दोषी व्यक्ति को किसी भी कीमत पर बख्शा नहीं जयेगा।
रिजवान मुस्तफा

Sunday, February 24, 2008

तीसरा फिल्म उत्सव -फिल्म गर्म हवा आकर्षण का केन्द्र


एसके सिंह
गोरखपुर, फरवरी। तीसरा फिल्म उत्सव शनिवार को गोरखपुर में शुरू हो गया। इस उत्सव से गोरखपुर विश्वविद्यालय का वातावरण बालीवुड जसा नजर तो आ ही रहा है दूसरे इस उत्सव से गोरखपुर ही नहीं पूर्वाचल के रंगकर्मियों, नाट्यकर्मियों और सिने कलाकारों की हौसलाआफजई भी हो रही है। इस उत्सव ने मनोरंजन को एक कैरियर के रूप में भी चुनने पर बल दिया है। फिल्म उत्सव को लेकर बच्चों में ही नहीं बड़े और बूढ़ों में भी खासी उत्सुकता दिख रही है। फिल्म उत्सव के उद्घाटन सत्र का पहला दिन पहला आकर्षण सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और फिल्मकार एम एस सथ्यू की चर्चित और यादगार फिल्म गर्म हवा का प्रदर्शन रहा। तो दूसरा आकर्षण युग मंच नैनीताल द्वारा मंचित नाटक, नाटक जरी है था।

गोरखपुर विश्वविद्यालय के संवाद भवन में तीसरे फिल्म उत्सव का उद्घाटन करने के बाद स्मारिका का लोकार्पण करते रंगकर्मी और फिल्मकार एमएस सथ्यू फोटो-प्रमोद कुमार सिंह





त्रिलोचन और कउर्रतुल एन हैदर की याद में दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के संवाद भवन में जन संस्कृति मंच और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयुक्त तत्वावधान में चार दिनों तक चलने वाला फिल्मोत्सव 2008 विभाजन और विस्थापन के 60 साल के केन्द्रीय विषय वस्तु पर आधारित है। इस फिल्मउत्सव में कुल १७ फिल्में दिखाई जयेंगी जिनमें ६ फीचर, ६ डाक्यूमेंट्री चार एनीमेशन फिल्में तथा एक लघु फिल्म श्रृंखला है। उत्सव में इसके अलावा नैनीताल की सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक दल युग मंच की नाट्य प्रस्तुति लोक गीत एवं लोक नृत्य, मध्य प्रदेश के देवास की बैराग लोक गीत, युवा मंडल का कबीर के भजनों की प्रस्तुति तथा परनब मुखर्जी की नाट्य प्रस्तुति भी होगी। इस फिल्म उत्सव में सुप्रसिद्ध फिल्मकार एम एस सथ्यू सहित पांच फिल्मकार भाग ले रहे हैं।
शनिवार को उत्सव के उद्घाटन सत्र में सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और फिल्मकार एम एस सथ्यू की चर्चित और यादगार फिल्म गर्म हवा का प्रदर्शन आकर्षण का केन्द्र रहा। सन १९७३ में बनी इस फिल्म में भारत पाक बंटवारे की सांप्रदायिक राजनीति और इससे उत्पन्न सामाजिक त्रासदी को जिस विश्वसीनय ढंग से उभारा गया था वह अन्यतया था। आपसी घृणा, हिंसा, नफरत, विस्थापन के दु:ख और बंटवारे की राजनीति के बीच मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिये जूङा रहे कुछ मुस्लिम पात्रों के माध्यम से इस फिल्म में ऐसा संघर्ष उभरता है जो आज के दौर में व्यापक तौर पर जटिल हो गया है तथा साम्प्रदायिक फासीवाद राजनीति खतरनाक रूप में मौजूद है, कुल मिलाकर फिल्म इस ओर इशारा करती है कि विगत को न दोहरा कर साङा सामाजिक तानेबाने के भविष्य का निर्माण किया जय। इस अर्थ में गर्म हवा का प्रदर्शन अधिक प्रासंगिकता के साथ हस्तक्षेपकारी है।
उद्घाटन का दूसरा मुख्य आकर्षण मंचित नाटक नौटंकी जरी है था, मशहूर रंगकर्मी जहूर आलम द्वारा निर्देशित यह नाटक धार्मिक राजनैतिक, सामाजिक सभी व्रिदूपों को उघाड़ते हुए भारतीय समाज के अतीत और वर्तमान को प्रतीकात्मक आस्थान के साथ खलने का सफतापूर्वक प्रयास करता है। इस नाटक की विशेष बात यह है कि निर्देशक ने अपने कौशल से कतिपय प्रसिद्ध नाटकों का कोलाज तैयार किया गया है जिसमें अतीत और वर्तमान दोनों को गूंथा गया है।
आयोजन की विधिवत शुरूआत तीसरा गोरखपुर फिल्म उत्सव के अध्यक्ष प्रोफेसर राम कृष्ण मणि त्रिपाठी के स्वागत भाषण से हुई, तत्पश्चात जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव प्रणयकृष्ण ने आयोजन की प्रासंगिकता पर अपना वक्तव्य पेश किया। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता राम जी राय ने की, अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा कि गोरखपुर फिल्म उत्सव प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित करने का आधार बन चुका है और इसे व्यापक रूप से आंदोलन में बदलना हमारे समय की जरूरत है।
आयोजन के उद्घाटन सत्र का संचालन जन संस्कृति मंच के उ.प्र. सचिव आशुतोष कुमार द्वारा किया गया, आयोजन के बीच सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि मंगलेश डबराल द्वारा प्रदर्शन से पूर्व गर्म हवा फिल्म का परिचय प्रस्तुत किया गया, साथ ही गोरखपुर शहर के प्रसिद्ध समाजसेवी डा. अजीज अहमद द्वारा फिल्मकार एम एस सथ्यू का सम्मान किया गया। इसके अलावा रूपांतर नाट्य ग्रुप की निदेशक एवं रंगी कर्मी गिरीश रस्तोगी द्वारा युगमंच के जहूर आलम का सम्मान भी किया गया। युग मंच का परिचय संजय जोशी द्वारा प्रस्तुत किया गया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि फिल्मकार एम एस सथ्यू द्वारा विस्थापन और विभाजन के ६0 साल पर केन्द्रित एक स्मारिका का लोकार्पण भी किया गया।
इस अवसर परं भाषा सिंह ने बताया - दूसरे दिन रविवार को पूरे दिन बच्चों से जुड़ी फिल्में दिखाई गयीं। उनमें चार्ली चैपलिन की द किड, संतोष शिवम की हैलो, इरानी फिल्म छूरी के अलावा चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी की एनीमेशन फिल्में तथा १७ देशों के फिल्मकारों द्वारा बनायी गयी छोटी छोटी फिल्मों की श्रृंखला ओपेन ए डोर प्रमुख हैं। इन्होंने बताया फिल्म उत्सव के तीसरे दिन त्वीक घटक की फीचर फिल्म सुवर्ण रेखा, विनोद राज की डाक्यूमेंट्री फिल्म महुआ, मेमो आयर, सुरभि शर्मा की जहाजी म्युजिक, लाडली मुखोपाध्याय की द लैंड इज मायन का प्रदर्शन होगा। इसी दिन सायं ६ बजे बेस्ट आफ कोलकाता कैंपस के प्रनव मुखर्जी और उनके साथी की नाट्य प्रस्तुति नंदीग्राम प्रोजेक्ट का मंचन होगा।

Saturday, February 23, 2008

मंजरनामा-यात्रा में बाजार

एक बूढ़ी बीमार औरत। जो ठीक तरह से चल फिर भी नहीं सकती। घर के लोग उस बूढ़ी औरत को लेकर सशंकित रहते हैं और उसे अकेला नहीं छोड़ते। पर बाज़ार उस बूढ़ी औरत को बिस्तर से

उठा कर शहर के शापिंग अड्डा में पहुंचा देता है। आदमी के जीवन में बाजर की घुसपैठ इस तेजी से हुई है कि उपभोक्ता हैरान भी है और परेशान भी कि आखिर वह इन दो आंखों से क्या-क्या

देखे और सीमित साधनों में क्या-क्या ख़रीदे। शहर के उस बड़े से शापिंग माल (शापिंग अड्डा) सामानों की ख़रीदारी पर बुज़ुगों को एक ख़ास दिन रियाअत देने का एलान करता है। नतीज यह

निकलता है कि बिस्तरों पर बीमार पड़े बुजुर्गों का महतव अचानक उनके घर वालों के लिए बढ़ जता है।बुजुर्गों को ङाड़पोंछ कर तैयार किया जता है और फिर बाजार में उन्हें चलाने की होड़ लग

जती है। बाज़ार उन बुजुर्गों को उस शापिंग माल में ला खड़ा करता है, जहां हर माल पर छूट मिल रही है। जो बुजुर्ग कल तक घर वालों के लिए बोङा थे और अपने ही घर के किसी कोने में

बेकार वस्तु की तरह पड़े रहते थे। शापिंग माल का एक एलान उन्हें रातोंरात काम की वस्तु में बदल देता है और उन्हें घरवाले उन्हें बाजार में बिकने के लिए छोड़ आते हैं। दरअसल बाजार

आज तरह-तरह के चमत्कार कर रहा है और उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के तमाशे दिखा रहा है। किसी जदूगर की तरह अपनी ङालियों से लुभावनी स्कीमें निकालता है और

लोगों को अपनी तरफ़ खींचता है। हम जिसे घर-परिवार समङाते हैं, उपभोक्तावादी संस्कृति ने उसे भी बाज़ार में बदल डाला है। कभी बाजर में हर माल बारह आने और सवा रुपया के हिसाब से

बेच कर लोगों को आकषिर्त किया जता था। शा¨पग मालों में गिफ्ट स्कीमों और एक के साथ एक फ्री के बढ़ते चलन और बाजर पर कब्जे के गलाकाटू होड़ ने इसे और व्यापक बना कर हमारे

सामने रखा है। शा¨पग मालों की संस्कृति ने बाजर को जिस तरीक़े से परिभाषित किया है वह अब डराने लगा है। क्योंकि धीरे-धीरे बाजर के इस खेल में रिटेल के बहाने वे लोग भी शमिल हो

रहे हैं जिनका लक्ष्य लोगों की जेबों पर डाका डाल कर दुनिया को मुट्ठी में करना है। गौतम घोष की फिल्म ‘यात्रा’ में इस बाजार को देखा जा सकता है।
यों भी सामाजिक सरोकार गौतम घोष की फिल्मों का मूल स्वर रहा है। वे उन गिने-चुने निर्देशकों में से हैं जिनके लिए फिल्म बनाना सिर्फ मनोरंजन नहीं है। बाजर और व्यवयासायिक

नजरिए से परे उन्होंने फ्लिमें एक मकसद के तहत बनाईं और ज़ाहिर है कि उनके मकसद में बाजार और व्यवसाय शामिल नहीं रहा है। कला और समानांतर फिल्मों के दौर में ‘पार’ बना कर

गौतम ने अपनी निर्देशकीय क्षमता से कायल किया था। दरअसल उस फिल्म में एक दलित की जिस पीड़ा को बड़े परदे पर गौतम ने उतारा था उसने रातोंरात उन्हें गंभीर निर्देशकों की कतार में

ला खड़ा किया था। गौतम घोष ने ‘अंतरजलि यात्रा’ और ‘पतंग’ से उन्होंने अपने निर्देशन कला को और विस्तार दिया। गौतम ने अपनी फिल्मों में उस आम आदमी के ही सच को सामने रखने

की कोशिश की जो समाज में क़तार में सबसे पीछे खड़ा होता है। अपनी तीनों ही फिल्मों में उस आम आदमी के सपनों, उसकी जीजिविषा, उसकी मजबूरी, उसकी बेबसी, उसकी लाचारी और

सपनों की टूटने की पीड़ा को ही गौतम घोष ने परदे पर उकेरा है।
‘पार’ में वह आदमी एक दलित था तो ‘अंतरजलि यात्रा’ में वह आदमी चांडाल के रूप में हमारे सामने आता है। ‘पतंग’ में उसका किरदार बदल जता है और वह ङाीलकट बन कर परदे पर

आता है। पर इन तीनों ही फिल्मों के किरदार हमारी उस सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था का किसी न किसी रूप में शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं। गौतम घोष ‘यात्रा’ में भी उस आम

आदमी और उसके सपनों को लेकर ही हमारे सामने हैं। पर पिछली फिल्मों से थोड़ी अलग राह उन्होंने अपनाई है। उन्होंने अपनी इस ताज़ा फिल्म में रोमानियत के नाजुक एहसासों को भी

दर्शकों के सामने रखा है। हालांकि इसमें कई जगह वे थोड़ा भ्रमित भी दिखे हैं लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म को फिर वे एक क्लासिक मोड़ पर ले जकर ख़त्म करते हैं। यात्रा में बाज़ारवाद को

बहुत ही शिद्दत से गौतम घोष ने उठाया है। कहानी यों तो लाजवंती के सुख-दुख, ख़ुशी-ग़म को केंद्र में रख कर ही गौतम ने लिखी है लेकिन बाज़ार में बदलती दुनिया का ज़्िाक्र, उसकी

खू़बी-ख़ामियों का िाक्र शिद्दत के साथ उन्होंने की हैं। चूंकि कहानी, संवाद, फोटोग्राफी और पटकथा भी गौतम घोष की ही है इसलिए उन्होंने कई जगह कैमरे से अपनी बात कही है तो कहीं

संवादों के जरिए जीवन में फैले स्याह-सफ़ेद रंगों को दर्शकों के सामने रखा है। बाज़ार ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है और रिटेल स्टोरों का मायाजल व डिस्काउंटों की चकाचौंध ने

हर वर्ग को प्रभावित किया है। चैनलों और अशलील एसएमएस के बाज़ार को भी गौतम घोष ने छुआ है और बाज़ार के फैलते इस जल को वे बहुत ही सलीक़े से हमारे सामने रखते हैं। चैनलों की

मारामारी और समाचारों में अधकचरे तरीक़े से सच को परोसने की होड ने जिस तरह ख़बरों को भी बाज़ार का एक हिस्सा बना डाला है, गौतम उस पर बहुत ही ख़ूबसूरती के साथ अपनी बात

रखी है। हालांकि अजीज मिर्जा ने शाहरुख खान की होम प्रोडक्शन की पहली फ़िल्म ‘फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ में चैनलों की मारामारी को बहुत ही विस्तार से सामने रखा था। पर उसमें

भव्यता के साथ चैनलों के जिस बाजार को दिखाया गया है, ‘यात्रा’ में बिना चीख़े-चिल्लाए इस सच को सामने रखा गया है।
दशर्थ जोगलेकर (नाना पाटेकर) साहित्यकार हैं और उन्हें उनके ताज उपन्यास ‘जनाज़ा’ पर बड़ा सम्मान मिलता है। लाजवंती से लाजो बाई (रेखा) की इस यात्रा में कई किरदार पड़ाव की तरह

आते हैं और यात्रा को आगे बढ़ाते हैं। लाजवंती को केंद्र में रख कर लिखे उपन्यास ‘जनाज़ा’ की चर्चा दशर्थ अपनी दिल्ली की यात्रा के दौरान युवा फिल्मकार मोहन1 9 से करता है। पेशे से

तवायफ लाजवंती को किन्हीं कारणों से बनारस छोड़ कर आदिलाबाद में ठिकाना बनाना पड़ता है। अपने वजूद व नृत्य-संगीत को बचाने के लिए ज़मींदार (जीवा) की वह रखेल बन जती है।

लेकिन उसका मोह तब भंग होता है जब एक दिन अपने व्यवासायिक हितों के लिए ज़मींदार लाजवंती को कुछ अफसरों के आगे परोसना चाहता है। लाजवंती न सिर्फ़ इसका विरोध करती है

बल्कि उसका घर छोड़ कर भी निकल जती है। पर ज़मींदार लाजवंती को रास्ते में ही पकड़ लेता है और अपने उन अफ़सरों दोस्तों को उसके साथ बलात्कार के लिए प्रेरित करता है। लुटी-पिटी

लाजवंती को अगले दिन सुबह स्कूल मास्टर सतीश यानी दशर्थ सहारा देता है और उसे घर ले जता है। सतीश की पत्नी (दीप्ति नवल) और बेटे व बेटी का साथ पाकर लाजवंती धीरे-धीरे अपने

ग़म को भूल जती है। लेकिन एक रात जमींदार के लोग वहां पहुंच जते हैं और तब लाजवंती को सतीश हैदराबाद लेकर चला जता है। संगीत से लगाव होने की वजह से सतीश लाजवंती के यहां

अक्सर जने लगता है। पत्नी के साथ उसका मनमुटाव तो होता है लेकिन बाद में वह पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ लेखन से जुड़ जता है और एक अच्छा कहानीकार बन जता है। पर इन

सबके बीच उसके भीतर लाजवंती कहीं न कहीं जिंदा रहती है और उसे लिखने के लिए प्रेरित भी करती है। घर-परिवार की जिम्मेदारियों के बीच लाजो मास्टर सतीश की जिंदगी को नए अर्थ

देती है। दशर्थ जोगलेकर संबंधों की इस डोर को तोड़ने की कोशिश भी नहीं करते। ‘जनाजा’ में इस सच को वे बार-बार रेखांकित करते हैं। दरअसल गौतम इन किरदारों के जारिए हमें रोमान

और फंतासी की एक एसी दुनिया में ले जतें हैं जहां सपने हैं, ख़ुशिया हैं, दुख हैं, समाज है और इन सबके बीच विकराल रूप धारण किए बाजर है जो हमसे हमारे सपने, हमारी मुस्कुराहटें,

हमारी हंसी, हमारे सुख-दुख छीन कर ले ज रहा है और दे ज रहा है एक एसी काली-अंधेरी दुनिया जहां सेंसेक्स गिरता-उतरता रहता है। दशर्थ जोगेलकर भी दुनिया को बा्जार में बदलते देख

कर ¨चतित है और इस बदलती दुनिया को केंद्र में रख कर वह अगला उपन्यास ‘बाज़ार ही लिखना चाहता था, पर मौत ने उसे मोहलत नहीं दी।
दशर्थ सम्मान पाने के बाद वह उस लाजवंती यानी लाजो के पास फिर पहुंचता है जो समय के साथ मिस लीला बन चुकीं थीं और कथक की यह बेहतरीन नृत्यांगना भी उसी बाज़ार के रंग-ढंग

में ढल जती हैं और ‘कहीं आर, कहीं पार’ जसे खूबसूरत गीत की रिमिक्स पर कमर हिलाती हैं। पेट भरने के लिए आख़िरकार बाज़ार की तरह ही तो चलना पड़ता है, लाजवंती ने भी एेसा ही

किया। हालांकि दशर्थ को अपने घर देख कर जजबाती हो जती है और उस रात वह फिर से महफिल सजती है, दर्शथ के लिए।
रेखा की अदाकारी और नृत्य में उनका आंगिक अभिनय, नफासत और नज़ाकत ‘उमराव जन’ की याद ताज़ा कर देता है। उम्र के इस पड़ाव पर भी रेखा ख़ू़बसूरत तो दिखती ही हैं, अभिनय भी

कमाल का किया है। नाना पाटकर को लंबे समय बाद एक यादगार भूमिका मिली है और वे मायूस नहीं करते। दीप्ति नवल के हिस्से में जितने भी दृश्य आए, उन्होंने अपना होना साबित किया।

ख़य्याम के संगीत की ताजगी बरकरार है (हालांकि गौतम ने भी संगीत दिया है पर ख़य्यमाम के संगीत के सरगम ज्यादा सुरीले और मधुर हैं)। मजरूह, नक्श लायलपुरी, अहमद वसी और

क़ादिर पिया के गीतों को सुनना अच्छा लगता है।भारतीय सिनेमा में सत्यजीत राय, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, कुमार शाहनी की परंपरा को ही गौतम घोष ने आगे बढ़ाया।

फ़जल इमाम मल्लिक

Friday, February 22, 2008

यह क्रिकेट का खेल नहीं धंधा

प्रभाष जोशी
यह क्रिकेट का खेल नहीं। क्रिकेट का धंधा है। इसमें खेल को उत्पाद बना दिया गया है। खिलाड़ी इस उत्पाद के कारखाने हैं। इन कारखानों की मुंबई में बोली लगाई गई। ट्वेंटी-20 की इंडियन प्रीमियर लीग के लिए ७८ अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों की बोली लगी और १६८़३२ करोड़ रुपयों में नीलाम हुए। बोली की असली म्रुद्रा तो डॉलर हैं, इसलिए डॉलर में ही बोली लगी। बोली लगाने लिए भी विलायत से आदमी बुलाया गया था, जिसका काम ही बोली लगाना और चीजों को बिकाना है। इस नीलामी को देखकर क्रिकेट बोर्ड के पुर्व अध्यक्ष इंद्र्रजीत सिंह बिंद्रा ने कहा कि उनने अपने जीवन में इससे ज्यादा उतेजक कुछ नहीं देखा।

भगान उनका भला करे। अपने यहां भगवन से बड़ा उनका नाम माना जता है। हमने क्रिकेट से बड़ी उसकी बोली को बना दिया है। दा किया ज रहा है कि इसकेबाद क्रिकेट वैसा नहीं रह जएगा, जसा कि ह डेढ़-दो सौ साल से चला और खेला जा रहा है। बाजर में बिकने के बाद पहले और अपने जसे बने रहने का हक किसी को नहीं रहता। खेल हो, आदमी हो या देश! बंगलुरू की टीम के मालिक जिय माल्या ने कहा, यह भारतीय क्रिकेट केलिए सबसे महान दिन है। आप समङाते रहे होंगे कि भारतीय क्रिकेट केलिए सबसे बड़ा दिन ह रहा होगा, जब कपिल की टीम ने विश्व कप जीता था।

अब अपनी समङा को सुधार लीजिए। खेला गया क्रिकेट कभी उतना महान नहीं होता, जितना खरीदा या बेचा गया क्रिकेट होता है। जिस खेले गए क्रिकेट का बाजर में कोई मोल नहीं होता, ह महान या बड़ा नहीं हो सकता। इसलिए देखिए कि ऑस्ट्रेलिया के जो कप्तान रिकी पोंटिंग इस समय दुनिया के नंबर एक बल्लेबाज हैं, महान बल्लेबाजों में से एक हैं, उन्हें कोलकाता ने महज १़६ करोड़ में खरीद लिया और बंगाल के युवा मनोज तिारी, जो भारत की तरफ से वन डे और टेस्ट मैच खेले तक नहीं हैं, उन्हें दिल्ली ने २़७ करोड़ में लिया है।

लेकिन क्रिकेट का मानदंड लगाना हो, तो सबसे मजेदार मामला ऑस्ट्रेलिया के महान तेज गोलंदाज ग्लेन मैक्ग्रा का है। पिछले दशक भर तेज गोलंदाजी में मैक्ग्रा का बोलबाला रहा है। अभी कुछ समय पहले तक ह वॉर्न और मुरली केबाद सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले गोलंदाज थे। मुरली ने वॉर्न को पीछे छोड़ा और कुंबले ने मैक्ग्रा को। मैक्ग्रा गए साल रिटायर हुए, तो क्रिकेट इतिहास के महानतम गेंदबाजों में गिने गए। उनकी मूल कीमत ८0 लाख थी। उन्हें बोली पर चढ़ाया गया, तो कोई भी लेने को तैयार नहीं। अपने राउंड में ह अनबिके रह गए। आखिरकार दिल्ली ने उन्हें१़४ करोड़ में खरीदा।

अब मज देखिए कि भारतीय तेज गेंदबाज १९ बरस के इशांत शर्मा को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में साल भी पूरा नहीं हुआ है। गए साल पाकिस्तान के खिलाफ बंगलुरू टेस्ट में उनने एक पारी में पांच किेट लिए और उन्हें ऑस्ट्रेलिया दौरे पर लिया गया। जहीर खान के चोट खाकर लौटने के कारण ह सिडनी टेस्ट में खिलाए गए। अच्छी गेंदबाजी की। अभी एडिलेड के वन डे में उनने १५0 किलोमीटर से भी तेज एक गेंद देंकी और भारत के क्रिकेट इतिहास के सबसे तेज गोलंदाज हो गए। बेशक ह बड़े तेज और सक्षम गोलंदाज हैं, लेकिन कहां ग्लेन मैक्ग्रा और कहां इशांत शर्मा। मैक्ग्रा का कोई खरीदार नहीं था, पर इशांत शर्मा को कोलकाता ने ३़८ करोड़ में लिया।
ऑस्ट्रेलिया के माइकल हसी को मिस्टर क्रिकेट कहा जता है। टेस्ट में उनकी औसत ८0 और न डे में ५0 से ऊपर है। उनका कोई खरीदार नहीं था। लेकिन उनके छोटे भाई डेडि हसी ढाई करोड़ से ज्यादा में गए। ट्वेंटी-20 का विश्व कप जीतने वाली भारतीय टीम के लगभग सब सदस्य औने-पौने दामों में गए। कप्तान धोनी तो सभी से ऊंची कीमत छह करोड़ में गए। लेकिन हसी, रामनरेश सरन, शिनारायण चंद्र्रपॉल, जस्टिन लेंगर, साइमन कटिच, ततिंदा तायबू आदि को कोई पूछने वाला नहीं था। लेकिन इतने विवादो में रहे एंड्रयू सायमंड्स को हैदराबाद ने ५़४ करोड़ में खरीद लिया। धोनी के बाद सबसे बड़ी कीमत पर।

इससे इतना तो आपके सामने साफ हो गया होगा कि इस नीलामी में खेल का कोई महत् नहीं था। क्रिकेटीय क्षमता की बोली नहीं लगाई गई। सबसे बड़ा भा ग्लैमर का था। उसके बाद ािद का। तभी तो एंड्रयू सायमंड्स को कोई साढ़े पांच करोड़ मिले। सयामंड्स अच्छे ऑल राउंडर हैं। लेकिन ट्वेंटी-20 के विश्व कुप में उनसे कोई खास बना नहीं था। वन डे के भी ह कोई बहुत नामी खिलाड़ी नहीं हैं। लेकिन कुछ भारतीय खिलाड़ियों से उनकी खटकती है। पिछले साल भारत आए थे, तो दर्शकों ने उन्हें मंकी कहके चिढ़ाया था और ह बहुत नाराज हुए थे। फिर ऑस्ट्रेलिया में उनसे हरभजन की गाली-गलौज हो गई। इन विवादो से उनका भा बढ़ गया और उन्हें ऊंचा दाम मिला। तीसरी चीज जो बिकी, ह खिलाड़ियों का देसी होना थी। और फिर ट्वेंटी-20 के श् िकप की विजेता टीम में जो भी अच्छे थे, उन्हें अच्छे दाम मिले। सिर्फ एक मैच खेलने वाले यूसुफ पठान को जयपुर ने १़९ करोड़ में ले लिया। जोगिंदर शर्मा को ट्वेंटी-20 के बाद पूछा नहीं गया था, पर उन्हें भी चेन्नई ने करीब एक करोड़ में लिया।
इसका मतलब है कि टीम के मालिकों की नजर टी और मैदान के दर्शकों पर थी। ऐसे ही खिलाड़ी अपनी टीम में चाहते थे, जो दर्शकों को खींच सके। आखिर इन खिलाड़ियों के लिए ही नहीं, इन टीमों की मिल्कियत पाने के लिए भी उनने करोड़ों रुपये बोर्ड को दिए हैं। अब टीम बन जएगी और मैच होंगे, तो उन्हें ज्यादा से ज्यादा कमाई की लग जएगी। कमाई नहीं होगी, तो इंडियन प्रीमियर लीग बैठ जएगी। ैसे भी इतना पैसा धर्मादा में कोई नहीं देता। लीग में यह जो अरबों रुपये आए हैं, यह पैसे वालों का क्रिकेट में नि्वेश है। वे इससे एक-एक रुपया सूल ही नहीं करेंगे, अच्छा-खासा मुनाफा भी कमाएंगे। अब कहने की जरूरत नहीं कि इसमें मुख्य तो लाभ कमाना है, क्रिकेट खेलना नहीं। ही खेलना है, जो कमाकर दे सके। चौके-छक्के उड़ने से खेल उतेजक और दर्शनीय हो जता है। लेकिन लगातार ही होता रहे, तो भी उबाऊ हो जता है।

यह जरूर हुआ है कि इससे कल जन्मे कुछ खिलाड़ी करोड़पति हो गए हैं और लगभग सभी प्रथम श्रेणी के खिलाड़ी लखपति हो जएंगे। खिलाड़ियों की कमाई अच्छी हो जए और क्रिकेट खेलना कमाऊ हो जए, तो ज्यादा से ज्यादा लड़के खेलने को आएंगे। खूब होड़ होगी, तो इससे मानना चाहिए कि खेल भी सुधरेगा। लेकिन दो बातें और समङा लेना चाहिए कि खूब पैसा मिले, तो हर कोई सचिन तेंदुलकर नहीं हो जता। अब तक एक भी उदाहरण नहीं है कि पैसे ने महान प्रतिभा पैदा की हो। दूसरी बात कि होड़ किसके लिए? अगर ह पैसे, सुख-सुविधा और ग्लैमर के लिए है, तो क्रिकेट नहीं सुधरेगा। अरबों रुपये आ जने से बेहतर होता, तो अब तक सारे चैंपियन अमेरिकी होते। धंधा और पैसा बुरी चीज नहीं है। लेकिन सिर्फ धन धन्य नहीं करता।(शब्दार्थ)

Thursday, February 21, 2008

कतरनिया घाट पर डाल्फिन का नृत्य

सविता कुमार
कतरनिया घाट (भारत-नेपाल सीमा)। घने जंगलों के बीच करीब पंन्द्रह किलोमीटर चलने के बाद हम जंगलात विभाग के निशानागाहा गेस्टहाउस पहुंचे। यहां बिजली नहीं है और पानी भी हैंडपंप का। दो मंजिला गेस्टहाउस के बगल में रसोई घर है जिसका रसोइया शाम होते ही सहमा-सहमा नजर आता है। घर बगल में ही है जहां एक-दो कर्मचारी और रहते हैं। पर उसके डर की जह
है बाघ के शैतान बच्चे। पता नहीं उसका भ्रम है या हकीकत। पर बाघ के इन बच्चों के आधी रात को दरवाजा थपथपाने से भयभीत रहता है। कतरनिया घाट वन्य जीव अभ्यारण के रेंजर ने

बताया कि बाघ शाम से ही इस क्षेत्र में विचरण करने लगते हैं। अंग्रेजों के बनाए निशानगाढ़ा गेस्टहाउस का नज़ारा उस जमाने के नबाबों राजओं के शिकारगाह से मिलता-जुलता है। जिसके चारों

ओर घने जंगल हैं और जानवरों और पक्षियों की अजीबो-गरीब आवाज सन्नाटें को तोड़ती रहती है। नीचे का बरामदा लोहे की ग्रिल से पूरी तरह बंद नजर आता है। पूछने पर पता चला कि यह

बड़े जानवरों से हिफ़ाजत का इंतजम है। शाम के बाद गेस्टहाउस के आसपास निकलना भी जोखिम भरा माना जता है। जंगलात विभाग के रेंजर हमें रात में जंगल का एक दौरा वन्य जीव से कराने के लिए कह रहे थे। पर दिन भर नेपाल की गेरुआ नदी और कतरनिया घाट के जंगलों में घूम-घूम कर हम थके हुए थे इसलिए उनका अनुरोध निम्रता से ठुकरा दिया। दरअसल हमें रुकना

कतरनिया घाट के गेस्टहाउस में था हीं भोजन आदि की व्यस्था थी। पर कतरनिया घाट के गेस्टहाउस को देख बेटे अंबर ने कहा, यहां की टूटी खिड़कियों से तो कोई भी जानवर भीतर आ

सकता है। और आसपास बाघों से लेकर अजगरों तक का इलाका है। बात सही थी। जिसके बाद हमने डीएफओ रमेश पांडेय को सूचित किया। जिसके बाद हमें दूसरे अति विशिष्ट गेस्टहाउस

निशानगाढ़ा में ठहराने की कायद शुरू हुई। खास बात यह है कि कतरनिया घाट तक पहुंचते-पहुंचते सभी तरह के मोबाइल बंद हो जते हैं। घने जंगलों में अत्याधुनिक संचार कंपनियों के कोई भी

टार तक नहीं हैं। आसपास कई किलोमीटर तक टेलीफोन विभाग की लाइनें भी नहीं हैं। जंगल का प्रशासन यहां वायरलेस से चलता है और किसी अतिथि के आने पर उसके आने-जने रुकने के

साथ भोजन नाश्ते की मीनू की व्यस्था भी अग्रिम होती है। जह मीलों दूर तक कोई बाजर नहीं है। सभी बंदोबस्त पहले से करना पड़ता है। बहरहाल गेस्टहाउस बदलने में हमें दिक्कत नहीं आई

और हमें बताया गया कि निशानगाढ़ा गेस्टहाउस में कमरा बुक कर दिया गया है। चूंकि पहले से ही हमने नेपाल से निकलने वाली गेरुआ नदी के किनारे रुकने का मन बनाया था। इसलिए

कतरनिया घाट का गेस्टहाउस बुक था। साथ ही दिनरात के भोजन और नाश्ते की व्यस्था भी जंगलात विभाग में कतरनिया घाट में ही की थी। पर जब हमने सुरक्षा की दृष्टि से निशानगाढ़ा जने

की जिद्द की थी तो उन्होंने रास्ता बता दिया। अंधेरा घिर रहा था और हम जल्द से जल्द निशानगाढ़ा पहुंचना चाहते थे। कुछ भटकने के बाद हम अंतत: जंगल के बीच प्राचीन शिकारगाह की

तर्ज पर बने इस गेस्टहाउस तक पहुंच गए। हालांकि पहुंचने पर पता चला कि निशानगाढ़ा गेस्टहाउस के स्टाफ को वायरलेस से हमारे कार्यक्रम की अग्रिम सूचना नहीं मिली थी। तभी गेस्टहाउस

के एक कोने में बीएसएनएल के मोबाइल में सिग्नल नजर आया तो हमने एसडीओ को यहां पहुंचने की क्षला दी। पर आते-जते सिग्नल के व्यधान से बातचीत पूरी नहीं हो पाई। खैर, कुछ देर

आराम करने के लिए बैठे तभी रेंजर अन्य कर्मचारी आ पहुंचे। बताया कि आज ही जपान से आकर एक प्रतिनिधि मंडल जो यहां रुका था लौट गया है। जिसके बाद रसोइया भी जंगल से

बाहर चला गया है। इसलिए भोजन यहां नहीं बन सकता है और हमें फिर कतरनिया घाट वापस जना होगा। साथ ही रात में कुछ ऐसे ट्रैक भी हैं जिन पर बाघ दिख सकता है। पर थके होने की

जह से हम तैयार नहीं हुए तो उन्होंने जीप भेजकर कतरनिया घाट के गेस्टहाउस से ही खाना पैक करा कर मंगाने का इंतजम किया। जंगल के इस शिकारगाहनुमा इस गेस्टहाउस में जंगलात

विभाग का ठेठ ब्रिटिश शैली का डिनर अलग अनुभव वाला था। इससे पहले कतरनिया घाट पहुंचते ही हम जंगल के भीतर चले गए। थोड़ी ही दूर जने पर हिरनों के झुन्ड नजर आने लगे तो पास

ही अजगरों के रिहाइश के इलाके कतरनिया घाट के घने जंगलों में जंगली जनरों की बहुतायत है। तो छिटपुट अवैध शिकार के प्रयास भी जरी रहते हैं। कतरनिया घाट से गेरुआ नदीं पर बने पीपे

के पुल से दिन में नेपाल की तरफ जाने वाले मिल जते हैं। तो देश के अंतिम छोर पर बसे गांव के लोग भी इसी पुल का सहारा लेते हैं। चारों तरफ हरियाली है तो गेरुआ नदी के साफ और नीले

पानी में कई टापू नजर आते हैं। इन टापुओं पर मगरमच्छों का राज है। दूर से ही टापुओं की सफेद रेत पर आराम फरमा रहे मगरमच्छों की कतार नजर आती है। दूसरी तरफ प्रासी पक्षियों की

भिन्न किस्में। इनमें सुनहरे सुरखाब को देखकर कोई भी अभिभूत हो सकता है। ये ही सुरखाब हैं जिनके चलते श्सुरखाब के परश् ाली कहात मशहूर हुई है। एक तरफ मगरमच्छ, घड़ियाल, सुर

खाब प्रासियों की पक्षियों की दुर्लभ प्रजतियां यहां नजर आती हैं तो दूसरी तरफ नदी में डाल्फिन मछली का नृत्य भी देखा ज सकता है। सूर्यास्त होते ही पीपे के पुल के किनारे डाल्फिन

मछलियों के खेल का समय भी शुरू हो जता है। यहां डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के सौजन्य से चु्निदा पर्यटकों के लिए कुछ विशेष सुविधाए भी दी गई हैं। इनमें वे मोटरोट भी शामिल हैं जिन पर सार

होकर हम मगरमच्छ और घड़ियालों के टापुओं तक पहुंचे और सुरखाब के दर्शन किए। अचानक मोटर वोट चला रहे कर्मचारी ने कहा, हम आपको जंगल के भीतर ले चलते हैं जहां गेरुआ नदी

बैक ाटर की तरह काफी दूर तक चली गई है। इसके साथ ही हम बेत के जंगलों में जते गेरुआ नदी के पानी के साथ आगे बढ़ने लगे। यहां का दृश्य अंडमान निकोबार की याद दिलाता है।

पानी के किनारे बेत की घनी ङाड़ियां हैं। इन बेतों को पकड़ने पर उनके तीखे कांटे के चुभने का डर जरूर होता है। पर इन्हीं ङाड़ियों के बीच अक्सर शाम को बाघ पानी पीता नजर आता है। तो

हाथियों के ङाुंड भी खेलते हुए नजर आ सकते हैं। अजगरों के लिए तो यह पूरा इलाका ही उनका प्रातिक बसेरा माना जता है। गेरुआ नदी में जगह-जगह पर उसका पानी बड़ी नहर के रूप

में जंगल के भीतर तक चला जता है। केरल के बैक ाटर की तरह यहां न तो कोई हाउसोट है न ही पर्यटकों के लिए आास की कोई सु्विधा। यहां तो जंगलात विभाग के कर्मचारी आपको

जंगल की सैर कराकर ापस गेस्टहाउस पहुंचा देते हैं। कतरनिया घाट न्य जी अभ्यारण की जधिता और घने जंगल देखने वाले हैं। इसे अगर सीमित ढंग से ही चुनिन्दा पर्यटकों के लिए विकसित

किया जए तो यह किसी भी वन्य जी्व अभ्यारण से ज्यादा राजस्व दे सकता है। लखनऊ से करीब दो सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस अभ्यारण में पर्यटकों की आवाजही बहुत कम है

और सुधिाएं नहीं के बराबर। न विभाग का एक ही बेहतर गेस्टहाउस है जो अंतरराष्ट्रीय विशेिषज्ञों से खाली होता है तो अफसरों और नेताओं से घिर जता है। महत्पूर्ण तथ्य यह है कि

कतरनिया घाट वन्य जी्व अभ्यारण प्रातिक खूबसूरती और जंगली जानवरों की लिहाज से सरिस्का वन्य जी्व अभ्यारण जसे मशहूर अभ्यारण पर भारी बैठता है। पर एक तरफ सरिस्का जहां

पर्यटन के राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय नक्शे पर अपनी पहचान बना चुका है हीं उतार प्रदेश के इस अभ्यारण के बारे में लोगों को बहुत कम जनकारी है।


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Wednesday, February 20, 2008

कैसे बचेगा नेहरू का अखबार नेशनल हेराल्ड


नई दिल्ली, कांग्रेस के खजने में बहुत पैसा है मगर इतना नहीं कि जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित अखबार नेशनल हेराल्ड को बचा सके। यह अखबार आर्थिक अभाव में किसी भी दिन बंद घोषित किया ज सकता है और इसके चालीस पत्रकारों सहित कुल 270 कर्मचारियों को उनका हिसाब चुकाने के लिए भी फिलहाल पैसे का इंतजम किया ज रहा है।

यूपीए और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के ससुर फिरोज गांधी इस अखबार के संपादक और महा प्रबंधक रह चुके हैं। इसके अला कांग्रेस के कई बड़े नेता इसके न्यास में रहे हैं और आज भी हैं। ९ सितंबर, १९३८ को यानी दूसरे विशव युद्घ के भी पहले स्थापित इस अखबार के बंद होने के कारण अपार घाटा बताया ज रहा है। संयोग से अखबार को बंद करने में जो खर्चा होगा, उसे अदा करने के लिए कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोती लाल वोरा को काम सौंपा गया है।

यह सिर्फ संयोग ही है कि श्री ोरा खुद एक जमाने में जिला स्तरीय पत्रकार थे और नेशनल हेराल्ड के हिंदी संस्करण नजीन का सांददाता बनने के लिए उनकी अर्जी खारिज कर दी गई थी। असली ङागड़ा अब शुरू होगा क्योंकि दिल्ली और लखनऊ दोनों जगह अखबार की बहुत महंगी संपत्तियां हैं, जिनमें दिल्ली का हेराल्ड हाउस ही लगभग सौ करोड़ रुपए कीमत का है और इसका ज्यादातर हिस्सा किराए पर चढ़ा हुआ है। इस किराए से भी अखबार नहीं चल पा रहा। नेशनल हेराल्ड ने १९८८ में अपना स्र्ण जयंती उत्सव मनाया था और उस समय बोर्ड के अध्यक्ष और अब कर्नाटक के राज्यपाल रामेश्र ठाकुर ने नेशनल हेराल्ड को आने ाली पीढ़ियों की रिासत करार दिया था और कहा था कि जब तक कांग्रेस पार्टी रहेगी, तब तक यह अखबार चलता रहेगा।

नेशनल हेराल्ड समूह के कर्मचारी प्रबंधकों के इस फैसले से आहत तो हैं ही, उनका कहना यह भी है कि इमारत के किराए और छपाई की जो आधुनिक मशीनें लगी हैं, उनका व्यासायिक इस्तेमाल करके अखबार को आसानी से चलाया ज सकता था। संयोग यह है कि नेहरू ने अंग्रेजों के समित् वाले पायनियर के जब में इस अखबार का प्रकाशन आरंभ किया था और बाद में पायनियर को ही लखनऊ में नेशनल हेराल्ड की ज्यादातर संपत्तियां बेच दी गईं। पायनियर इन दिनों भूतपरू वामपंथी पत्रकार और अब भाजपा के सांसद चंदन मित्रा के नेतृत् में एक तरह से भाजपा का मुखपत्र बना हुआ है। दो साल पहले इसकी वेबसाइट शुरू की गई थी लेकिन पैसे के अभा में इसे भी बंद करना पड़ा।

Monday, February 11, 2008

अमिताभ बच्चन को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश

नई दिल्ली, फरवरी-अमिताभ बच्चन उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में ऐश्वर्य डिग्री कॉलेज के शिलान्यास में चार ताकतर भूतपरू मुख्यमंत्रियों को जुटा कर साबित करा चुके हैं कि बॉलीवुड में राजनीति के असल में ही किंगमेकर है। अब खबर यह है कि अमर सिंह ने यूएनपीए के नेताओं चंद्रबाबू नायडू, ओम प्रकाश चौटाला और फारूक अब्दुल्ला को सलाह दी है कि वे यूएनपीए की तरफ से अमिताभ बच्चन को अगले लोकसभा चुना में भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करके चुनावी गणित अपने पक्ष में कर सकते हैं।

अमिताभ अपने समय की राजनीति के धुरंधर माने जने ाले हेमती नंदन बहुगुणा को हरा कर साबित कर चुक हैं कि उनकी लोकप्रियता राजनीति में उनके लिए कितनी बड़ी ताकत हैं। लेकिन गांधी परिार से रिश्ते बिगड़ जने के बाद उन्होंने राजनीति से जो सन्यास लिया, ह अब तक जरी है। राजनीति में जहिर तौर पर अमर सिंह अमिताभ के सबसे नजदीक हैं और े खुद को गि बी का छोटा भाई भी घोषित कर चुके हैं, जिस पर खुद अमिताभ ने भी कभी आपत्ति नहीं जताई।

यहां यह बताया ज सकता है कि हरियाणा के सांपला में एक रैली के दौरान बातचीत में अमर सिंह ने यह सनसनीखेज प्रस्ता पेश किया। अमर सिंह अब तक कई बार अमिताभ को समाजदी पार्टी के टिकट पर चुना लड़ाने की कोशिश कर चुके हैं। लेकिन अमिताभ को चुना लड़ने के लिए े एक बार भी नहीं मना पाए हैं। राष्ट्रपति पद के चुना के दौरान अमिताभ को भाी राष्ट्रपति के रूप में पेश करके अमर सिंह ने तुरुप का इक्का चलने की कोशिश जरूर की थी, लेकिन तब भी े बिग को नहीं पटा पाए थे। लेकिन अमर सिंह के नजदीकी सूत्रों के अनुसार अमर सिंह को पक्का भरोसा है कि अगर अमिताभ बच्चन के प्रधानमंत्री बनने के हालात उन्होंने पैदा कर दिए तो अमिताभ को उनकी बात मानने के लिए मजबूर होना ही पड़ेगा।

सूत्रों के अनुसार अमर सिंह ने यूएनपीए के नेताओं को कहा है कि अमिताभ अपनी लोकप्रियता के मामले में देश के सभी नेताओं पर भी भारी पड़ते हैं। ऐसे में अगर हम उन्हें प्रधानमंत्री पद के दोदार के रूप में पेश करते हैं तो हमारी रणनीति कामयाब भी हो सकती है और देश की राजनीति में हम नया मोड़ ला सकते हैं। अमर सिंह ने अमिताभ को मनाने की जिम्मेदारी भी पूरी तरह अपने कंधों पर ली है। अब यह अमिताभ पर है कि वे खुद को देश के भाी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करते हैं या नहीं क्योंकि अभी तक उनकी सहमति मिलना बाकी है। डेटलाइन इंडिया

Sunday, February 10, 2008

नाराज हैं नक्सल आंदोलन के जनक

नई दिल्ली, फरवरी-माओवादी भले ही खुद को वैचारिक क्रांतिकारी मानते हैं और अपनी तुलना शहीद भगत सिंह जसी महान हस्तियों से भी करते हैं। लेकिन नक्सलाद को जन्म देने ाले कानू सन्याल को तो ‘नक्सलाद’ शब्द पर ही आपत्ति है।

अब ७६ साल के हो चुके कानू सन्याल नक्सलाद की जन्मभूति नक्सलबाड़ी में ही रहते हैं। चारू मजूमदार के साथ इस तथाकथित क्रांति को शुरू करने ाले कानू सन्याल को अपने इस आंदोलन का हश्र बहुत दुखी करता है और चिलित भी। सान्याल अपेक्षाकृत थोड़े उग्र होते हुए कहते हैं कि मुङो तो नक्सलाद शब्द पर ही गहरी आपत्ति है क्योंकि नक्सलबाड़ी से हमने भले ही आंदोलन शुरू किया हो, लेकिन उसका कोई वाद है तो ह है-मार्क्‍साद, लेनिनाद, माओत्सेतुंगाद। े साल करते हैं कि रूसी क्रांति को तो कोई रूसीवाद नहीं कहता?

कई नक्सलादी तो कानू सन्याल को अब अपनी राह से भटक जने ाला नक्सली प्रणोता भी घोषित करने पर तुले हुए हैं। लेकिन कानू सन्याल साफ कहते हैं कि मैं गांधी जी की अहिंसा को आज भी फरेब माना हूं और मेरी आस्था आज भी हथियारबंद आंदोलन में उतनी ही है। लेकिन मेरी शर्त सिर्फ इतनी सी है कि हथियार सिर्फ कुछ समूहों के पास होने की बजय आम जनता के हाथ में होने चाहिए।

२५ मई, १९६७ को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से यह आंदोलन शुरू करने ाले कानू कहते हैं कि अपने समय में चाहे यह कितना भी रोमांचकारी क्यों न हो, वामपक्ष का यह भटका सैद्घांतिक और राजनैतिक रूप से हमें खत्म कर देता हैं। हथियारबंद क्रांति करने का दा करने वाले और मुङो संशोधनादी बताने वाले अपने असल में अपने अनुभों से कुछ सीखना ही नहीं चाहते। इन लोगों ने भम्र पाल लिया है कि े इतिहास लिख रहे हैं। लेकिन असलियत तो यह है कि े जनता से दूर हो कर क्रांति करने की असफल कोशिश कर रहे हैं।

कानू सान्याल नक्सलादियों से साल करते हैं कि अगर वे लोग जनता के अपने साथ होने का दा करते हैं तो उसी जनता को बंदूक के दम क्यों डराते-धमकाते हैं? वे भू-सुधार जसे आंदोलन क्यों नहीं करते? कानू सन्याल ने नक्सलादियों को चेतानी देते हुए कहा कि भय और आतंक पर टिका हुआ संगठन ज्यादा दिन तक नहीं चलता। डेटलाइन इंडिया

Saturday, February 9, 2008

तिब्बत को भूल गए दलाई लामा?

विजेन्द्र शर्मा

धर्मशाला, फररी-तिब्बत की आजदी का धुधंलाता सपना तिब्बत पर १९५९ में चीन के हमले के ल्हासा के पाटाला महल से भारत आते क्त २५ र्षीय आध्यात्मिक गुरू दलाईलामा ने एक सपना देखा था कि एक दिन वे तिब्बत को चीन के चंगुल से मुक्त कराकर स्देश लौटेंगे। आज आज ४८ र्ष के बाद तिब्बतियों के र्साेच्च धर्मगुरू की बूढ़ी होती आंखो में यह सपना अब धुंधला पड़ने लगा है।

चीन सरकार के अड़ियल रैए के चलते दलाईलामा की स्देश लौटने की आस भी अब दम तोड़त़ी प्रतीत हो रही है। यह सही है कि १९५९ से पहले तिब्बत के आीस्तत् अैर इतिहास के बारे में श्वि समुदाय लगभग अनजन था तब तिब्बत को अंतराष्ट्रीय मान्यता भी प्राप्त नहीं थी, लेकिन यह भी सच्चाई है कि सदियों से तिब्बत एक सधीन शांतिप्रिय देश था। जहां भारत के साथ तिब्बत के सांस्तिक , धार्मिक और ैचारिक संबंध थे हीं आर्थिक और व्यसायिक जरूरतें पूरी करने के लिए तिब्बत चीन पर निर्भर था।

इतिहास साक्षी है कि तिब्बत का आस्तित् कई बार खतरे में पड़ा और चीनी शासकों ने कई बार इस देश पर कब्ज किया , लेकिन २0ीं शताब्दी के मध्य में यह एक सधीन राष्ट्र था। चीन ने १९५९ में एक जबरन संधि के तहत तिब्बत पर कब्ज करके दलाईलामा को देश छोड़ने के लिए मंजबूर कर दिया। सन् १९५९ में भारत पहूंचने के बाद कई जगहों पर चिार करने के बाद भारत सरकार ने दलाई लामा के लिए धर्मशाला के मैक्लोड़गंज को चुना और उनके नए आास का निर्माण पूरा होने तक उन्हें मौजूदा क्षेत्रीय पर्तारोपण संस्थान के भन में ठहराया गया।

आासीय परिसर बनने पर दलाईलामा हां चले गये, लेकिन युवा धर्मगुरू दलाईलामा के मन में आस कायम थी कि वे जल्द ही स्देश लौटेंगे। इस दलाईलामा के साद्गी भरे सच्चे प्रयासों का प्रतिफल ही कहा ज सकता है कि श्वि समुदाय और प्रभाशाली राष्ट, जिनके लिये १९५९ में तिब्बत के कोई मायने नहीं थे , आज उसके चीन के साथ चल रहे ािद को पूरी तरह जनते हैं। तिब्बत मसले की शांतिपरूक तरीके से सुलङाने के दलाईलामा के प्रयासों को श्विभर से भरपूर समर्थन भी मिल रहा है। जहां दलाईलामा के धार्मिक प्रचनों से प्रभाति होकर इस भौतिकादी युग में दिेशियों ने बड़ी संख्या में बौद्घ धर्म अपनाया है, हीं उनके प्रयासों से भारत और दूसरे देशों में रह रहे र्निासित तिब्बती सम्मान के साथ जीन यापन कर रहे हैं। यह दलाईलामा की सोच थी कि तिब्बत की समृद्घ संस्तिऔर धार्मिक रिासत को संजोये रखने के प्रयास हुए। इसकी ङालक र्निवासित तिब्बत सरकार और संगठनों के बनाए भनों , धार्मिक अनुष्ठानों और उनकी दस्तकारी में देखने को मिलती है। अपने अहिंसात्मक अंदोलन के कारण दलाईलामा को शांति के लिए नोबल पुरस्कार से से भी नाज गया है।