Thursday, February 21, 2008

कतरनिया घाट पर डाल्फिन का नृत्य

सविता कुमार
कतरनिया घाट (भारत-नेपाल सीमा)। घने जंगलों के बीच करीब पंन्द्रह किलोमीटर चलने के बाद हम जंगलात विभाग के निशानागाहा गेस्टहाउस पहुंचे। यहां बिजली नहीं है और पानी भी हैंडपंप का। दो मंजिला गेस्टहाउस के बगल में रसोई घर है जिसका रसोइया शाम होते ही सहमा-सहमा नजर आता है। घर बगल में ही है जहां एक-दो कर्मचारी और रहते हैं। पर उसके डर की जह
है बाघ के शैतान बच्चे। पता नहीं उसका भ्रम है या हकीकत। पर बाघ के इन बच्चों के आधी रात को दरवाजा थपथपाने से भयभीत रहता है। कतरनिया घाट वन्य जीव अभ्यारण के रेंजर ने

बताया कि बाघ शाम से ही इस क्षेत्र में विचरण करने लगते हैं। अंग्रेजों के बनाए निशानगाढ़ा गेस्टहाउस का नज़ारा उस जमाने के नबाबों राजओं के शिकारगाह से मिलता-जुलता है। जिसके चारों

ओर घने जंगल हैं और जानवरों और पक्षियों की अजीबो-गरीब आवाज सन्नाटें को तोड़ती रहती है। नीचे का बरामदा लोहे की ग्रिल से पूरी तरह बंद नजर आता है। पूछने पर पता चला कि यह

बड़े जानवरों से हिफ़ाजत का इंतजम है। शाम के बाद गेस्टहाउस के आसपास निकलना भी जोखिम भरा माना जता है। जंगलात विभाग के रेंजर हमें रात में जंगल का एक दौरा वन्य जीव से कराने के लिए कह रहे थे। पर दिन भर नेपाल की गेरुआ नदी और कतरनिया घाट के जंगलों में घूम-घूम कर हम थके हुए थे इसलिए उनका अनुरोध निम्रता से ठुकरा दिया। दरअसल हमें रुकना

कतरनिया घाट के गेस्टहाउस में था हीं भोजन आदि की व्यस्था थी। पर कतरनिया घाट के गेस्टहाउस को देख बेटे अंबर ने कहा, यहां की टूटी खिड़कियों से तो कोई भी जानवर भीतर आ

सकता है। और आसपास बाघों से लेकर अजगरों तक का इलाका है। बात सही थी। जिसके बाद हमने डीएफओ रमेश पांडेय को सूचित किया। जिसके बाद हमें दूसरे अति विशिष्ट गेस्टहाउस

निशानगाढ़ा में ठहराने की कायद शुरू हुई। खास बात यह है कि कतरनिया घाट तक पहुंचते-पहुंचते सभी तरह के मोबाइल बंद हो जते हैं। घने जंगलों में अत्याधुनिक संचार कंपनियों के कोई भी

टार तक नहीं हैं। आसपास कई किलोमीटर तक टेलीफोन विभाग की लाइनें भी नहीं हैं। जंगल का प्रशासन यहां वायरलेस से चलता है और किसी अतिथि के आने पर उसके आने-जने रुकने के

साथ भोजन नाश्ते की मीनू की व्यस्था भी अग्रिम होती है। जह मीलों दूर तक कोई बाजर नहीं है। सभी बंदोबस्त पहले से करना पड़ता है। बहरहाल गेस्टहाउस बदलने में हमें दिक्कत नहीं आई

और हमें बताया गया कि निशानगाढ़ा गेस्टहाउस में कमरा बुक कर दिया गया है। चूंकि पहले से ही हमने नेपाल से निकलने वाली गेरुआ नदी के किनारे रुकने का मन बनाया था। इसलिए

कतरनिया घाट का गेस्टहाउस बुक था। साथ ही दिनरात के भोजन और नाश्ते की व्यस्था भी जंगलात विभाग में कतरनिया घाट में ही की थी। पर जब हमने सुरक्षा की दृष्टि से निशानगाढ़ा जने

की जिद्द की थी तो उन्होंने रास्ता बता दिया। अंधेरा घिर रहा था और हम जल्द से जल्द निशानगाढ़ा पहुंचना चाहते थे। कुछ भटकने के बाद हम अंतत: जंगल के बीच प्राचीन शिकारगाह की

तर्ज पर बने इस गेस्टहाउस तक पहुंच गए। हालांकि पहुंचने पर पता चला कि निशानगाढ़ा गेस्टहाउस के स्टाफ को वायरलेस से हमारे कार्यक्रम की अग्रिम सूचना नहीं मिली थी। तभी गेस्टहाउस

के एक कोने में बीएसएनएल के मोबाइल में सिग्नल नजर आया तो हमने एसडीओ को यहां पहुंचने की क्षला दी। पर आते-जते सिग्नल के व्यधान से बातचीत पूरी नहीं हो पाई। खैर, कुछ देर

आराम करने के लिए बैठे तभी रेंजर अन्य कर्मचारी आ पहुंचे। बताया कि आज ही जपान से आकर एक प्रतिनिधि मंडल जो यहां रुका था लौट गया है। जिसके बाद रसोइया भी जंगल से

बाहर चला गया है। इसलिए भोजन यहां नहीं बन सकता है और हमें फिर कतरनिया घाट वापस जना होगा। साथ ही रात में कुछ ऐसे ट्रैक भी हैं जिन पर बाघ दिख सकता है। पर थके होने की

जह से हम तैयार नहीं हुए तो उन्होंने जीप भेजकर कतरनिया घाट के गेस्टहाउस से ही खाना पैक करा कर मंगाने का इंतजम किया। जंगल के इस शिकारगाहनुमा इस गेस्टहाउस में जंगलात

विभाग का ठेठ ब्रिटिश शैली का डिनर अलग अनुभव वाला था। इससे पहले कतरनिया घाट पहुंचते ही हम जंगल के भीतर चले गए। थोड़ी ही दूर जने पर हिरनों के झुन्ड नजर आने लगे तो पास

ही अजगरों के रिहाइश के इलाके कतरनिया घाट के घने जंगलों में जंगली जनरों की बहुतायत है। तो छिटपुट अवैध शिकार के प्रयास भी जरी रहते हैं। कतरनिया घाट से गेरुआ नदीं पर बने पीपे

के पुल से दिन में नेपाल की तरफ जाने वाले मिल जते हैं। तो देश के अंतिम छोर पर बसे गांव के लोग भी इसी पुल का सहारा लेते हैं। चारों तरफ हरियाली है तो गेरुआ नदी के साफ और नीले

पानी में कई टापू नजर आते हैं। इन टापुओं पर मगरमच्छों का राज है। दूर से ही टापुओं की सफेद रेत पर आराम फरमा रहे मगरमच्छों की कतार नजर आती है। दूसरी तरफ प्रासी पक्षियों की

भिन्न किस्में। इनमें सुनहरे सुरखाब को देखकर कोई भी अभिभूत हो सकता है। ये ही सुरखाब हैं जिनके चलते श्सुरखाब के परश् ाली कहात मशहूर हुई है। एक तरफ मगरमच्छ, घड़ियाल, सुर

खाब प्रासियों की पक्षियों की दुर्लभ प्रजतियां यहां नजर आती हैं तो दूसरी तरफ नदी में डाल्फिन मछली का नृत्य भी देखा ज सकता है। सूर्यास्त होते ही पीपे के पुल के किनारे डाल्फिन

मछलियों के खेल का समय भी शुरू हो जता है। यहां डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के सौजन्य से चु्निदा पर्यटकों के लिए कुछ विशेष सुविधाए भी दी गई हैं। इनमें वे मोटरोट भी शामिल हैं जिन पर सार

होकर हम मगरमच्छ और घड़ियालों के टापुओं तक पहुंचे और सुरखाब के दर्शन किए। अचानक मोटर वोट चला रहे कर्मचारी ने कहा, हम आपको जंगल के भीतर ले चलते हैं जहां गेरुआ नदी

बैक ाटर की तरह काफी दूर तक चली गई है। इसके साथ ही हम बेत के जंगलों में जते गेरुआ नदी के पानी के साथ आगे बढ़ने लगे। यहां का दृश्य अंडमान निकोबार की याद दिलाता है।

पानी के किनारे बेत की घनी ङाड़ियां हैं। इन बेतों को पकड़ने पर उनके तीखे कांटे के चुभने का डर जरूर होता है। पर इन्हीं ङाड़ियों के बीच अक्सर शाम को बाघ पानी पीता नजर आता है। तो

हाथियों के ङाुंड भी खेलते हुए नजर आ सकते हैं। अजगरों के लिए तो यह पूरा इलाका ही उनका प्रातिक बसेरा माना जता है। गेरुआ नदी में जगह-जगह पर उसका पानी बड़ी नहर के रूप

में जंगल के भीतर तक चला जता है। केरल के बैक ाटर की तरह यहां न तो कोई हाउसोट है न ही पर्यटकों के लिए आास की कोई सु्विधा। यहां तो जंगलात विभाग के कर्मचारी आपको

जंगल की सैर कराकर ापस गेस्टहाउस पहुंचा देते हैं। कतरनिया घाट न्य जी अभ्यारण की जधिता और घने जंगल देखने वाले हैं। इसे अगर सीमित ढंग से ही चुनिन्दा पर्यटकों के लिए विकसित

किया जए तो यह किसी भी वन्य जी्व अभ्यारण से ज्यादा राजस्व दे सकता है। लखनऊ से करीब दो सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस अभ्यारण में पर्यटकों की आवाजही बहुत कम है

और सुधिाएं नहीं के बराबर। न विभाग का एक ही बेहतर गेस्टहाउस है जो अंतरराष्ट्रीय विशेिषज्ञों से खाली होता है तो अफसरों और नेताओं से घिर जता है। महत्पूर्ण तथ्य यह है कि

कतरनिया घाट वन्य जी्व अभ्यारण प्रातिक खूबसूरती और जंगली जानवरों की लिहाज से सरिस्का वन्य जी्व अभ्यारण जसे मशहूर अभ्यारण पर भारी बैठता है। पर एक तरफ सरिस्का जहां

पर्यटन के राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय नक्शे पर अपनी पहचान बना चुका है हीं उतार प्रदेश के इस अभ्यारण के बारे में लोगों को बहुत कम जनकारी है।


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