Sunday, March 20, 2011

आलोक तोमर चले गए



एक और साथी अपना और सबका साथ छोड़ गए .आलोक तोमर अब नही रहे .यकीन नही हुआ .कल रात ही सुप्रिया से सारे परिवार ने बात की थी .वे आत्मविश्वाश से लबरेज थी और हम सब आशंकित .रात ही विजय शुक्ल से कहा कि होली के दिन बत्रा अस्पताल में दोपहर तक उन्हें रुकना चाहिए क्योकि अन्य लोग दोपहर बाद पहुंचेगे . पता चला अनिल गुप्ता दस बजे तक पहुँच जाएंगे और फिर कोई न कोई परिवार के साथ रहेगा .सुबह करीब साढ़े दस बजे विजय शुक्ल का फोन आया कि दोबारा अटैक आया है और वे निकल रहे है .मैंने फोन रख दिया और कुछ देर में कई फोन जिन्हें उठाने की हिम्मत नहीं पड़ी .मयंक सक्सेना ,नीरज मेहरे और वीरेंदर नाथ भट्ट से बात की .मन खराब हो गया है .
आलोक तोमर से करीब २३ साल पुराना संबंध रहा है .आलोक और सुप्रिया के विवाह में भी शामिल हुआ था जिसमे दिल्ली का समूचा मीडिया उमड़ पड़ा था.वह दौर आलोक तोमर के क्षितिज पर चमकने का दौर था .समूची हिंदी पट्टी में उनका नाम एक ब्रांड बन चुका था . वर्ष १९८४ के सिख दंगों की जो मानवीय कवरेज आलोक तोमर ने की उसने उन्हें शीर्ष पर पहुंचा दिया .अपराध और राजनैतिक रिपोर्टिंग में आलोक ने भाषा का जो प्रयोग किया उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता .पर उनके जीने का अराजक अंदाज सभी को खलता था और उसका नुकसान भी उठाना पड़ा .जिस जनसत्ता ने उन्हें बुलंदियों पर पहुँचाया उसका साथ बहुत दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से छूटा.अपने संपादक प्रभाष जोशी का समूचे अखबार में कोई सबसे प्रिय पात्र था तो वे आलोक तोमर थे .पर प्रभाष जी को ही आलोक तोमर से एक लेख में एक शब्द के बदलाव के आरोप में इस्तीफा लेना पड़ा .यह ऐसा अपराध नहीं था कि उन जैसे पत्रकार से इस्तीफा लिया जाए पर अखबार में आलोक तोमर के खिलाफ जो खेमा था उसका दबाव भारी पड़ा .फिर आलोक तोमर ने कभी बहादुर शाह जफ़र मार्ग स्थित इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग की सीढियों पर कदम नहीं रखा .
जनसत्ता छोड़ने के बाद कई अखबार और कई चैनल वे छोड़ते गए . शब्दार्थ शुरू किया तो बाद में डेटलाइन इंडिया डट काम वेबसाइट भी .राजनीतिकों से लेकर सांस्कृतिक क्षेत्रों के आलावा मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में उनके निजी मित्रों की संख्या कम नही थी .महेश भट्ट से लेकर ओमपुरी से पारिवारिक रिश्ते रहे . लिखना भी लगातार जारी रहा .उनके लिखे से असहमत हुआ जा सकता है पर आलोक तोमर को खरिज करना आसान नहीं था .लिखना भी अंत तक जारी रहा चार दिन पहले जब वे बत्रा अस्पताल गए थे तो उससे पहले भी एक लेख तैयार करवा रहे थे .बीते चार मार्च को आलोक ने वादा किया था की मेरी पुस्तक के लिए वे कालाहांडी पर एक अध्याय लिखेंगे .आखिरी शब्द आज भी कान में गूंज रहा है - काम हो जाएगा यार चिंता मत करों .
इसके बाद मैंने उनका कोई शब्द नही सुना और न ही अब सुन सकूँगा .फरवरी के दूसरे हफ्ते में जब वे बोल रहे थे और मै लिख रहा था तो सुप्रिया रो रही थी .वे उस सिगरेट के बारें में ,धुवें के बारे में जो कह रहे थे जो उन्हें हम सब से छीन ले गया .अगर वे साल भर पहले मान जाते तो संभवतः यह दिन नहीं आता .खैर एक इच्छा थी हिमालय के बर्फ से घिरे रामगढ़ में सेव के बगीचे में बैठकर लिखने की .उन्होंने जमीन भी खरीद ली और घर बनाने की योजना भी बन गई .जब भी आते अपने रायटर्स काटेज में रुकते और कही जाने की बजाय कमरे से हिमालय को निहारते रहते . उन्ही के कहने पर अर्जुन सिंह भी रामगढ़ आए और अपनी आत्मकथा का पहला अध्याय भी वही लिख गए .पर आलोक तोमर की यह इच्छा नही पूरी हो पाई .लिखने को बहुत कुछ है पर न मन है और ना दिमाग काम कर रहा है .
अंबरीश कुमार

फोटो -रामगढ़ के राइटर्स काटेज में खड़े आलोक तोमर

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