Wednesday, January 28, 2009

बिहार में प्रेस पर अघोषित सेंसर

 फज़ल इमाम मल्लिक
पटना , जनवरी। बिहार में सब कुछ ठीक है। क़ानून व्यस्था पटरी पर लौट आई है। विकास चप्पे-चप्पे पर बिखरा है और ख़ुशहाली से लोग बमबम हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। बिहार के अख़बार और समाचार चैनलों से जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है उससे तो बस यही लग रहा है कि बिहार में इन दिनों विकास की धारा बह रही है और निजाम बदलते ही बिहार की तक़दीर बदल गई है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जाहिर है कि इससे गदगद हैं और विकास को देखने अपने लाव-लशकर और गाजे-बाजे के साथ सलतनत को देखने निकले हैं। इस विकास यात्रा का ¨ढढोरा भी कम पीटा नहीं ज रहा है। नीतीश को टेंट में अकेले बैठा दिखाया ज रहा है, ग्रामीणों के साथ खाना खाते उनकी तस्वीरें हर अख़बार छाप रहा है और चैनल उसे सम्मोहित हो कर दिखा रहा है। कुछ चैनलों ने तो कई-कई घंटे तक किसी प्रायोजित कार्यक्रम की तरह नीतीश की शान में क़सीदे पढ़ते हुए उनके राजशाही ठाठ को दिखाया। उन चैनलों को देखते हुए यह लग रहा था कि हम किसी समाचार चैनल पर समाचार नहीं देख रहे हैं बल्कि राज्य सरकार का अपना कोई चैनल देख रहे हैं जो नीतीश कुमार के गुणगान में किसी तरह की कोई कंजूसी नहीं दिखाना चाहता है। उन चैनलों में या अख़बारों में यह कहीं नहीं दिखाया गया कि बिहार के उन गांवों में जहां-जहां नीतीश ने पांव धरे थे वहां इन तीन सालों में कितना और कैसा बदलाव आया। लोकशाही के इस दौर में राजशाही का नमूना इससे पहले दूसरी सरकारों के दौर में तो नहीं ही मिला था। लालू यादव के जंगल राज के दौरान भी नहीं। विकास यात्रा पर निकले नीतीश के ठाठ किसी राज की तरह थे। नर्तकों और कलाकारों का लावलशकर भी उनके साथ पटना से गया था जो रात भर उनका दिल बहलाता। किनकी फ़सलें उजड़ी गईं और किनके घरों को तोड़ा गया, इसकी ख़बर कहीं नहीं थी लेकिन विकास यात्रा की तस्वीरें थीं और नीतीश की घोषणाओं का जिक्र था। ठीक वैसी ही घोषणाएं जो इन तीन सालों में नीतीश करते रहे हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि नीतीश अपनी विकास यात्र के दौरान योजनाओं की ही घोषणा ही करते रहे, बिहार के उन गांवों में तीन सालों में क्या कुछ विकास हुआ इसकी जनकारी उन्होंने देने की जजाहमत तक नहीं उठाई। दरअसल नीतीश की फ़ितरत में यह है भी नहीं। सत्ता में रहते हुए उनमें ख़ुदाई इतनी आ जती है कि उन्हें अपने सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता है। बिहार में जाहिर है कि इन दिनों नीतीश की ख़ुदाई चल रही है और इसके लिए उन्होंने सबसे बड़े हथियार यानी मीडिया को हर तरह से ‘मैनज’ किया है। इस ‘हर तरह’ को अघोषित सेंसर के तौर पर पाठक पढ़ें तो बात ज्य़ादा साफ़ और समङा में आएगी।
सुशासन और विकास को ढोल पीटने वाले नीतीश कुमार के राज में क्या सचमुच सब कुछ ठीक है और विकास की बयार पह रही है। बिहार और खा़स कर दूर-दराा के गांवों में जने के बाद तो यह सब बातें महा छलावा और काग़ाी ही नार आती है। बिहार, शेखपुरा, सिकंदरा, जमुई, लखीसराय, खगड़िया जिलों का दौरा करें सड़कें बद से बदतर। बिजली कब आती है पता नहीं, पीने का साफ़ पानी भी मुयस्सर नहीं। पर पटना में अख़बारों में इन सब पर न तो लिखा गया और न छपा। सड़कों का टेंडर सत्ताधारी पार्टी के किन-किन सांसदों व विधायकों ने लिए और सड़कें नहीं बनीं तो इसकी वजह क्या थी। भ्रष्टाचार एेसा कि पार्टी के बड़े से लेकर छोटे नेता तक टेंडर पास कराने के लिए पैसे की मांग करते हैं। सड़कें अदालतों में ज्यादा बन रही हैं। ठेकेदारों के ङागड़े अदालतें ही निपटा रही हैं। नहीं मैं एेसा नहीं कह रहा कि पहले की सरकारों में एेसा नहीं होता था। ख़ूब होता था। लेकिन अख़बारों या चैनलों में स्याह-सफ़ेद के इस खेल को लेकर हंगामा किया जता रहा था। पर आज एेसा नहीं है। भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी नीतीश सरकार और उनकी नौकरशाही की ख़बरें अब अख़बारों में कहीं दिखाई नहीं देतीं। 
नीतीश के सखा और पार्टी के महžवपूर्ण नेता शंभू श्रीवास्तव ने बिहार सरकार के कामकाज को लेकर हाल में ही जो टिप्पणी की उससे नीतीश की लफ्फ़ाजी की पोल पट्टी खुल जती है। उन्होंने पत्रकारों से बातचीत करते हुए साफ़-साफ़ कहा- नीतीश के तीन साल के शासनकाल में प्रदेश में नौकरशाही हावी है। नौकरशाही में भ्रष्टाचार के कारण ही बिहार में निेश कम हो रहे हैं जिससे प्रेश का औद्यौगीकरण नहीं होने से रोजगार की तलाश में यहां से लोगों का दूसरे प्रेशों में पलायन जारी है और बिहार में उद्योग की स्थापना नहीं होने से रोजगार की तलाश में प्रेश से पिछले बीस सालों के ौरान करीब एक चौथाई आबाी का पलायन हुआ है और इसके लिए उन्होने र्तमान नीतीश सरकार सहित बिहार की सभी पिछली सरकारों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि राज के पिछले १५ सालों के शासन के ौरान प्रेश में किसी भी क्षेत्र में निेश हुआ ही नहीं लेकिन प्रेश की र्तमान नीतीश सरकार के तीन सालों के शासनकाल में ९२ हजार करोड़ रु पए के निेश किए जाने को लेकर समङाौते किए जा चुके हैं पर हकीकत यह है कि उसमें से मात्र ६00 करोड़ रु पए का ही अबतक निेश हुआ है जो बिहार जसे बड़े प्रदेश के लिए कुछ भी नहीं है। यहां तक कि कें्र सरकार ने र्तमान त्तिीय र्ष में बिहार में सात हजार कृषि पिणन कें्र खोले जाने के लिए १६७ करोड़ रु पए आबंटित किए थे लेकिन प्रेश के कृषि भिाग के सही समय पर अंकेक्षण और परियोजना रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं किए जाने से राज्य सरकार इसमें से अबतक मात्र ११ करोड़ रु पए ही उठा पाई है। यह नीतीश सरकार के शासन का सच है। यह बातें किसी विपक्ष के नेता ने नहीं कहीं हैं। जनता दल (एकी) के एक क़द्दावर नेता ने यह बातें कहीं हैं। लेकिन मीडिया ने सत्ताधारी दल के इस बड़े नेता का यह बयान भी पटना के अख़बारों में उस तरह नहीं छपा, जिस तरह कभी सुशील कुमार मोदी के बयान को ामक-मिर्च लगा कर पटना के अख़बार छापा करते थे। सवाल पूछा ज सकता है कि सत्ता के बदलाव के साथ ही बिहार में अख़बारों में यह बदलाव आया है। तो जवाब है नहीं। अख़बारों में यह बदलाव आया नहीं है, लाया गया है। सत्ता संभालने के बाद बिहार में सरकार ने सबसे पहला काम मीडिया को ‘मैनेज’ किया और इसके लिए हर वह हथकंडे इस्तेमाल किए गए जो एक तानाशाह या बर्बर शासक करता है। लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में बिहार में ‘जंगलराज’ पर लगभग हर रोज कुछ न कुछ विशेष ख़बरें छपती ही रहती थीं। लालू प्रसाद यादव के पिछड़े प्रेम और अगड़े विरोध ने बिहार में पत्रकारों को उनके ख़िलाफ़ कर दिया। यह मुख़ालफ़त घोषित नहीं अघोषित थी। लालू विरोध और नीतीश प्रेम के बीच सवाल यह है कि बिहार में इस पत्रकारिता ने किस का हित साधा है और इसका किसन ने उपयोग किया है। लालू प्रसाद यादव के पं्रह साल व नीतीश कुमार के तीन साल के शासनकाल के दौरान मीडिया के रवैये से इन सवालों के जवाब मिलते हैं। पिछले तीन साल के दौरान बिहार में मीडिया में विकास की धारा बह रही है और सुशासन का जदू सर चढ़ कर बोल रहा है। ख़बरों को बनाने वाले और उसका संपादन करने वाले छोटी सी छोटी ख़बरों में भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि कहीं इससे नीतीश की उजली छवि पर कोई दाग़ तो नहीं लग जएगा। लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में एेसी बात नहीं थी। तब सुशील कुमार मोदी के बयान को भी आधार बना कर विशेष ख़बरें बना डाली जती थीं। लगभग एेसी ख़बरें रोज़ छापी और छपवाई जतीं थीं, जिससे राजनीतिक रूप से लालू यादव का नुक़सान हो। पर हैरत की बात यह है कि नीतीश कुमार के तीन साल के शासनकाल के दौरान बिहार के अख़बारों ने एक भी एेसी ‘विश्ेष ख़बर’ प्रकाशित नहीं की जिससे नीतीश का राजनीतिक क़द कम होता हो। हद तो यह है कि विपक्षी नेताओं तक के बयान सेसंर किए ज रहे हैं। कभी जनता दल (एकी) के प्रवक्ता रहे संजय वर्मा के अख़बारी मित्र उनसे कहते हैं नीतीश के ख़िलाफ़ कोई बयान मत छपने के लिए भेजिए, छाप देंगे तो नौकरी चली जएगी। नीतीश की मानसिकता और नीतियों की वजह से संजय वर्मा ने पार्टी छोड़ दी और पिछले क़रीब एक साल से वे शंकर आाद और विज्ञान स्वरूप के साथ मिल कर शोषित सर्वण संघर्ष समिति (एस फोर) बना कर नीतीश की कारगुारियों और बदनीयति की जनकारी बिहार के लोगों को दे रहे हैं। एस फोर लोगों के सामने नीतीश के उस चेहरे को सामने रखने में जुटा है जो दिखता नहीं है और जो चेहरा किसी क्रूर तानाशाह का है। पर दिक्क़त यह है कि सारे सबूत देने के बावजूद पटना के अख़बार उनके बयानों को उस तरह नहीं छापते, जिस तरह छापनी चाहिए। सच तो यह है कि राजद के शासनकाल के जिस तरह ख़बरें बनाई ज रहीं थीं, नीतीश के इन तीन सालों में बिहार में ख़बरें दबाई ज रही हैं। 
नीतीश कुमार के शासनकाल में अगस्त में कोसी में आई बाढ़ ने गांव के गांव तबाह कर डाले। लोगों का मानना है कि पिछले एक सदी में आई यह सबसे बड़ी आपदा है। ख़ुद नीतीश ने इसे प्रलय कहा। यह बात अलग है कि नीतीश सरकार के आपदा प्रबंधन के आंकड़े इस बाढ़ को बहुत कम कर आंकता है। आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक़ कुछ सौ लोग इस बाढ़ में मारे गए हैं। पर कोसी अंचल ज कर बाढ़ की विनाशलील का पता लगता है। शंकर आाद के साथ अभी-अभी सुपौल, मधेपुरा और अररिया के उन इलाकों में जने का मौक़ा मिला तो तबाही को देख कर दिल परेशान हो गया। लोगों का कहना है कि बाढ़ में कम से कम पचास हार लोग मारे गए हैं। नीतीश कुमार इन आंकड़ों को दबा रही है ताकि सहायता को मिले १५0 हार करोड़ की रक़म का घपला किया ज सके। कोसी क्षेत्र में सुपौल से लेकर निर्मली और फिर ललितग्राम, प्रतापपुर, पिपरा, नरपतगंज उधर अररिया के बतनाहा से लेकर फारबिसगंज, बनमखी व पूर्णिया, मधेपुरा के कुमारखंड प्रखंड का रामनगर, मुरलीगंज, बभनगांवा, सुखासन व बिहारीगंज इलाक़े में बाढ़ की विभिषिका पूरी सच्चई के साथ दिखाई देती है। खेत बालू से पटे हैं, घर तालाब बन गए हैं और इन इलाकों का संपर्क राज्य के दूसरे हिस्सों से लगभग ख़त्म है। सड़क व रेल मार्ग दोनों ही संपर्क टूट चुका है। पटरियां उखड़ी पड़ी हैं और हालत एेसी है कि फ़िलहाल उसे बनाया भी नहीं ज सकता। बाढ़ को लेकर नीतीश लाख सफ़ाई दें पर इतना तो साफ़ है कि राज्य सरकार की लापरवाही की वजह से कोसी का तटबंध टूटा था। पर मीडिया संवेदनहीन बना रहा। नीतीश की विकास यात्रा को प्रमुखता से प्रकाशित करने वाले अख़बार या इसका सीधा प्रसारण करने वाले समाचार चैनलों के लिए कोसी की बाढ़ कोई ख़बर नहीं है। वहां क्या हालात हैं और बाढ़ से तबाह हुए लोगों को क्या कुछ राहत मिला है या मिल रहा है उस पर एक भी खोजपरक रिपोर्ट बिहार के अख़बारों में देखने को नहीं मिली। जबकि उन गांवों को फिर से बसने में सालों लग जएंगे। सरकारी स्तर पर कोसी के बाढ़ प्रभावित इलाकों में एेसा कुछ नहीं किया गया है जिसे लेकर उसकी पीठ ठोंकी जए। पर बिहार के अख़बार एेसा कर रहे हैं। सरकारी दावों व आंकड़ों को पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापा ज रहा है और बाढ़ की त्रासदी को कम से कम दिखाने की कोशिश की जती रही है। महीनों बीत जने के बाद भी किसी पत्रकार ने यह हिम्मत नहीं जुटाई कि कोसी के सच को सामने लाया ज सके। 
बिहार में सामाजिक न्याय और समाजवाद पर कभी बड़ी-बड़ी बातें कहने वाले और लालू यादव के ‘कुंबा प्रेम’ पर पन्ने के पन्ने स्याह करने वाले किसी पत्रकार ने नीतीश कुमार के जतीय और नालंदा प्रेम को उजगर करने की ाहमत नहीं उठाई। नालंदा जिला के नीतीश कुमार जति से कुर्मी हैं और उन्होंने पार्टी के महिला व युवा अध्यक्ष पद पर अपने ही जिला के कुर्मी नेताओं को बैठाया है। किसी ने कभी कहा था कि ‘नशेमन लुट ही जने का ग़म होता तो क्या ग़म था, यहां तो बेचने वालों ने गुलशन बेच डाला है’। नीतीश पर यह बात पूरी तरह लागू होती है। सिर्फ़ इन दो पदों पर ही वे अपनी बिरादरी और जिले के लोगों को बिठाते तो कोई बात नहीं थी। उन्होंने तो मानव संसाधन विकास मंत्री, मुख्य सचेतक विधानसभा व विधानपरिषद, लोकायुक्त, वरिष्ठ उपाध्यक्ष नागरिक परिषद, मुख्यमंत्री के प्रधान व निजी सचिव, अध्यक्ष संस्कृति परिषद व राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के जिलाधिकारी, पटना के ग्रामीण एसपी व पटना मेडिकल कॉलेज के सुपरिटेंडेंट के पदों पर अपनी बिरादरी व गृह जिला के लोगों का ला बिठाया है। थोड़ी पड़ताल की जए तो यह सूची और भी लंबी हो सकती है पर नीतीश के इस जतीय प्रेम पर पटना के मीडिया में कोई सुगबुगाहट तक नहीं है। बिहार में पत्रकारिता का यह नया चेहरा है जो नीतीश ने गढ़ा है और उनकी सरकार इसे आकार देने में लगी है। वर्ना क्या कारण है कि कर्मचारियों की हड़ताल की वजह से उत्पन्न स्थिति पर अख़बारों में ख़बरें अंदर के पन्नों पर जगह पाती हैं जबकि इस हड़ताल से बिहार में पूरा तंत्र चरमरा गया है और कामकाज ठप है। लेकिन मीडिया चुप होकर सारा तमाशा देख रही है। हड़ताल पर सरकार अपना पक्ष रखते हुए अख़बारों में विज्ञापन देती है, अगले दिन उसी विज्ञापन के आधार पर अख़बार इसे लीड ख़बर बना कर कर्मचारियों को विलेन बताने की कोशिश में जुट जती है। कभी भारतीय जनता पार्टी चाल, चरित्र और चेहरा की बात करती थी। बिहार के मीडिया के संदर्भ में अब यह कहा ज सकता है कि उसका चाल, चरित्र और चेहरा इन तीन सालों में पूरी तरह बदल गया है।
बिहार में मीडिया इन दिनों भीतर व बाहरी दबावों से जूङा रहा है। बाहरी दबाव पत्रकारों का वह पुराना ‘लालू प्रेम’ है, जिसने सुशील कुमार मोदी के बयानों को आधार बना कर ‘स्पेशल स्टोरी’ बनाई। पर यह बाहरी दबाव बहुत ज़्यादा ख़तरनाक नहीं है। भीतरी दबाव नीतीश कुमार की तानाशाही है और यह यादा ख़तरनाक है। नीतीश और उनके सलाहकारों ने बहुत ही सलीक़े से पत्रकारों को अपना मुसाहिब बनाने के लिए हर वह हथकंडा अपनाया, जो सत्ता में बने रहने के लिए ारूरी है। नीतीश के कुछ नादीकी लोगों की बात मानें तो बिहार में पत्रकारों को पालतू व भ्रष्ट बनाने के लिए बाक़ायदा मुहिम छेड़ी गई और पत्रकार इसका शिकार बन कर सरकार के क़सीदे पढ़ने लगे। सरकारी विज्ञापनों का इस्तेमाल कर प्रबंधकों को भी स्याहको सफ़ेद करने के लिए ललचाया गया। ाहिर है कि एेसे में खोजपरक ख़बरें तो छपने से रहीं। बिहार के कुछ पत्रकारों ने ही यह भी बताया है कि अख़बारों को भेजे गे विपक्षी दलों के बयान तक छपने से पहले मुख्यमंत्री की टेबल पर पहुंचाए जते हैं। समाचार एजंसियों तक में ख़ुफ़िया विभाग के अधिाकीर घूमते रहते हैं कि कहीं कोई ख़बर सरकार के खि़लाफ़ तो चलाई नहीं ज रही है। यहां तक कि दिल्ली से चलाई गई ख़बरों को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय से निर्देश आते हैं कि सरकार की नकारात्मक छवि वाली ख़बरें नहीं चलाईं जएं। एेसा ही निर्देश अख़बारों के दफ़्तरों तक भी पहुंचाए जते हैं। ाहिर है कि इसके बाद दिल्ली से जरी कोई ख़बर बिहार के अख़बारों में नहीं छपतीं और छपती भी हैं तो सरकार की नकारात्मक छवि को गौण करने के बाद। बिहार में यह अघोषित सेंसरशिप बहुत ही सुनयिोजित ढंग से लागू किया गया है और अख़बारों को अपने हित में इस्तेमाल कर उसे राज्य सरकार का भोंपू बना डाला गया है। फै़ा अहमद फैज ने कभी कहा था कि ‘मताए लौह-ओ-क़लम छिन गया तो क्या ग़म है, कि ख़ून-ए-दिल में डुबो दी हैं उंगलियां मैंने’, पर बिहार में मीडिया पर पहले बिटा दिए गए हैं और ख़ून-ए-दिल में उंगिलियां डुबोने वाला कोई नजार नहीं आ रहा है। बिहार में जगन्नाथ मिश्र के अख़बारों पर लगाए गए प्रतिबंध को काला क़ानून बताते हुए कभी देश भर के पत्रकारों ने इसका विरोध किया था, आज नीतीश कुमार के अघोषित काला क़ानून पर कहीं कोई सुनगुन तक नहीं। यह बड़ी चिंता की बात है।

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