Monday, December 22, 2008

जड़हन का भात और मकई की रोटी

हरिकृष्ण यादव

ड़हन और जोनहरी (मकई) पैदा होने वाले गांव में जन्मे त्रिलोचन शास्त्री परिवार के लिए कोलकाता में रिक्शा चलाया ताकि घरवालों को बेस्वाद जड़हन का भात और मकई की रोटी खाकर ही गुजरा न करना पड़े। इन्हीं लोगों के लिए ही बनारस, इलाहाबाद, मुरादाबाद, आगरा, रांची, भोपाल, दिल्ली और सागर जसे शहरों में दिनरात भटकते रहे। साथ ही अपना शौक (कविता, कहानी, नाटक लिखना और हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू भाषाओं में विद्वता हासिल करना) पूरा किया। 
पिछले साल कुछ दिनों के लिए गांव जना हुआ। वहां दुनियादारीमें एेसे उलङा हुआ था कि महीना बीत गया पता नहीं चला। दिल्ली से नौ दिसंबर की देर रात बेटे अंकुर ने फोन किया। बताया ‘पापा, त्रिलोचनजी का निधन हो गया। सुनो, टीवी पर उन्हीं के बारे में ही बता रहे हैं।’ बेटे ने मोबाइल टीवी के पास रख दिया। संयोग से उस वक्त त्रिलोचन शास्त्री की आवाज सुनाई दे रही थी। पहले रिकार्डिग की बातचीत और महीने भर पहले उनसे हुई बातचीत की आवाज में कोई फर्क नहीं था। बोलने का वही लहज सुन कर मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा गीत ‘एक दिन बिक जएगा माटी के मोल, जग में रह जएंगे प्यारे तेरे बोल’ गूंजने लगा। 
महीने भर पहले जब उनसे मिला था तो मुङासे डेढ़-दो घंटे खूब बतियाए। गांव से लेकर दिल्ली तक के संगी-साथियों की चर्चा की। अपने बचपन की कुछ यादें ताज की। यह सब उस समय जब उनके छोटे बेटे सहित उनके संगी-साथी और शुभचिंतक उन्हें देखने के बाद टिप्पणी कर रहे थे- ‘त्रिलोचन की याददाश्त खत्म हो गई है, वे किसी को पहचानते तक नहीं, न ही किसी से बात करते हैं। बस गुमसुम बैठे रहते हैं।’ यह सब सुन कर मैं भी बेमन, मात्र दर्शन की भावना से उन्हें देखने गया। वहां पहुंचने पर लोगों के कहे पर विश्वास करके दस मिनट तक चुपचाप उन्हें निहारता रहा। उसके बाद मैंने कहा, ‘हमार घर मोतिगरपुर आहै।’ तब उन्होंने कहा, ‘दियरा के पास।’ उसके बाद बतकही का जो सिलसिला शुरू हुआ खत्म होने की उम्मीद नहीं थी। लेकिन मुङो नियत समय पर कहीं पहुंचना था। इसलिए उनका चरणस्पर्श करके न चाहते हुए भी वहां से चल दिया। यह उम्मीद लेकर कि  फिर मिलने आऊंगा तो ढेर सारी बातें करूंगा।  
घर से निकल तो आया पर ध्यान उन्हीं पर लगा रहा। सोचा, ‘सब कुछ होते हुए कुछ भी नहीं है’ को एक शब्द में कहना हो तो ‘त्रिलोचन’ शायद ही अतिशयोक्ति हों! उनका  कुनबा संपन्न है और सुधीजनों की लंबी कतार। दो पुत्रों के पिता त्रिलोचन ‘अपनों’ को देखने के लिए तरस रहे थे। उनके दिवंगत छोटे भाई का परिवार गांव में रहता है। व्यावहारिक रूप से पैतृक संपत्ति के वे ही मालिक हैं। त्रिलोचन नाम से इंटर कालेज और लाइब्रेरी की देखभाल भी वे ही करते हैं। एक बेटा वकील है तो दूसरा ठेकेदार। यानी भाई का भी खाता-पीता परिवार है। 
शास्त्रीजी के बड़े बेटे कें्रीय विश्वविद्यालयों में बरसों पढ़ाने के दौरान प्राच्य म्रुा विशेषज्ञ के रूप में जने गए। फिलहाल वे बनारस में निजी अनुसंधान कें्र में कार्यरत हैं। दूसरा दिल्ली में अखबारनवीस हैं। लेकिन परिवार ताश के पत्तों की तरह बिखरा है। बड़ा बेटा और बहू बनारस में रहते हैं। पौत्र अमेरिका में, पौत्रियों में एक गाजियाबाद में डाक्टर है, दूसरी दिल्ली में फैशन डिजइनर है। छोटे बेटे की बहू हरिद्वार में वकील हैं, जिनके पास शास्त्रीजी काफी समय से रह रहे थे। पौत्र कोलकाता में प्रबंधन में है और पौत्री दिल्ली में पिता के साथ रह कर पढ़ रही है। 
शुभचिंतकों में अशोक वाजपेयी, विष्णु चं्र शर्मा, विष्णु प्रभाकर, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह जसे कई दिग्गज साहित्यकार और कवि शास्त्रीजी के सुख-दुख में साथ रहे। समय-समय पर इन लोगों ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। 
शास्त्रीजी ने परिवार की जिम्मेदारियां भरसक ईमानदारी से निभाईं। परिवार में बड़ा होने के नाते कम आयु में ही कुनबे की जिम्मेदारी संभाल ली। इसलिए कच्ची उम्र में ही साल में चार महीने खेत-खलिहान में काम करते। बाकी आठ महीने बाहर जकर मेहनत मजदूरी। जड़हन और जोनहरी (मकई) पैदा होने वाले गांव में जन्मे त्रिलोचन ने परिवार के लिए कोलकाता में रिक्शा चलाया ताकि घरवालों को बेस्वाद जड़हन का भात और मकई की रोटी खाकर ही गुजरा न करना पड़े। इन्हीं लोगों के लिए ही बनारस, इलाहाबाद, मुरादाबाद, आगरा, रांची, भोपाल, दिल्ली और सागर जसे शहरों में दिनरात भटकते रहे। साथ ही अपना शौक (कविता, कहानी, नाटक लिखना और हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू भाषाओं में विद्वता हासिल करना) पूरा किया। 
बचपन से सरस्वती के पीछे भागने वाले त्रिलोचन जीवन के अंतिम क्षण तक उनसे विमुख न हो सके। जब कभी-कभार लक्ष्मी उनके पास आईं तो परिजनों को सौंप दिया। पिछले साल जब परिवार वालों को कुछ करने की बारी आई तो सबने मुंह फेर लिया। अपनों की बाट जोह रहे त्रिलोचन शायद इसीलिए अपने आख्रिरी दिनों में सुधीजनों से बोलना और उन्हें पहचानना जरूरी नहीं समङाते रहे हों। 
परिवार वालों ने गजब का फर्ज निभाया। जीवन के अंतिम दौर में भतीजों ने गांव से ही एक-दो दफा फोन पर हालचाल पूछ कर फर्ज अदा किया गया। बड़ा बेटा जिस पर उन्हें बड़ा नाज था देखने तक नहीं आया। छोटा बेटा अपनी नौकरी और पौत्री पढ़ाई के साथ उनकी कितनी सेवा कर पाए होंगे इसका अंदाज लगाया ज सकता है। बावजूद उन्हें कभी किसी से कोई गिलवा शिकायत नहीं रही। यदि होती तो उस दिन जरूर मुङासे बताते। उनके जीते जी उनके लिए जिन्होंने जो कुछ किया वे सुधीजन ही थे। उनकी सेवा करके वे धन्य हुए!

2 comments:

vijay kumar sappatti said...

aapne itna satik lekh likha hai ..
kuch poochiye mat ..

samaj ki sachai hai ..

aapko bahut badhai ..

vijay
poemsofvijay.blogspot.com

Mr Bisht said...

The right word for such a beautiful article is thought provoking. Keep on the good work.

Thanks