Thursday, December 18, 2008

न्याय को निरस्त्र करता वैकल्पिक कानून

आलोक तोमर

एक और कानून और एक और जांच एजेंसी। आतंकवाद के खिलाफ जितने ज्यादा कड़े और बेरहम कानून बने, मानवाधिकार के सापेक्ष मुहावरे को छोड़ कर उनका स्वागत भी किया जाना चाहिए और एक नई राष्ट्रीय बल्कि संघीय जांच एजेंसी की मांग काफी समय से चल रही थी और अब अगर एक सर्वशक्तिमान जांच एजेंसी बन रही है तो उसका बनना भी देशहित में माना जाने के अलावा अगर किसी और विकल्प की तलाश की जाती है तो ऐसा होना बहुत खतरनाक होगा। 

मगर कुछ सवाल अब भी बाकी है। आखिर भारत में सीबीआई भी हैं और राज्य सरकारों की आम और विशेष अधिकारों वाली पुलिस भी। इसके बावजूद आतंकवाद से निपटा नहीं जा सका और आंतरिक सुरक्षा के सवाल भारत को और ज्यादा खतरनाक रूप से सता रहे हैं तो यह समझना स्वाभाविक हो जाता है कि अब तक भारत के कानून में क्या कमिया थी और इन कमियों को तमाम कोशिशों के बावजूद सुलझाया क्यों नहीं जा सका। 

नए कानून और नई एजेंसी का क्या अर्थ यह है कि भारत का पुराना कानून जो अब भी लागू है, आतंकवाद के मुद्दे पर विफल हो गया है? यह सवाल पूछना इसलिए और भी जरूरी है क्योंकि जो कश्मीर आतंकवाद का पर्यायवाची बन चुका है और जहां हर दूसरी तीसरी खबर मुठभेड़ या कत्लेआम की आती है वहां अभी से यह माहौल बनाया जा रहा है कि इस नई राष्ट्रीय जांच एजेंसी को कश्मीर में काम नहीं करने दिया जाए और नए कानून में शामिल धाराओं का भी कोई पालन राज्य की पुलिस नहीं करे। धारा 370 नाम का जो खतरनाक झुनझुना कश्मीर को एक निरर्थक विशेषाधिकार के तौर पर थमाया गया है, उसके तहत कश्मीर सरकार यह कर भी सकती है। आखिर देश भर में तीन साल से लागू और प्रशासन की पारदर्शिता बढ़ा रहे सूचना के अधिकार कानून को भी कश्मीर में अभी तक लागू नहीं किया गया है। 

सबसे पहले चलिए यह समझिए कि नए कानून में मुख्य बात क्या है? एक सबसे महत्वपूर्ण और विवाद में पड़ सकने वाला प्रावधान इस कानून में यह है कि आतंकवाद के मामले में गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को अपना निर्दोष होना खुद सिध्द करना पड़ेगा। इतना ही नहीं नए कानून के तहत पकड़े गए लोगों को जमानत आसानी से नहीं मिलेगी और इसके अलावा उनकी न्यायिक हिरासत यानी जेल में रहने की अवधि को भी तीन महीने से बढ़ा कर छह महीने कर दिया गया है। इस तरह की धाराओं के दुरूपयोग की आशंका भी जाहिर की जा रही है लेकिन भारत में कानूनों का दुरूपयोग होना कोई नई बात नहीं हैं और यह कोई ऐसा तर्क भी नहीं हैं जिसकी वजह से कानूनों में जरूरी सुधार नहीं किए जाए। 

यहीं पर एक आसान सा लेकिन मुश्किल जवाब वाला मुद्दा यह है कि हम डेढ़ सौ साल पुराने कानून से जिसकी बहुत सारी धाराए अप्रासंगिक हो चुकी है जिसमें पतंग उड़ाना भी कानूनी अपराध है, छिप के क्यों हुए हैं? भारत की संविधान सभा जो अब संसद हैं, संविधान बनाते वक्त शायद इतनी हड़बड़ी में थी कि उसने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून को जैसे के तैसा ग्रहण कर लिया। अंग्रेजों ने जो कानून बनाया था वह अपनी मूल रूप में ही प्रजा विरोधी था क्योंकि अंग्रेज शासक बगावत या विप्लव का कोई विकल्प प्रजा के सामने छोड़ना ही नहीं चाहते थे। इसीलिए धारा 144 बनाई गई जिसमें पांच से अधिक लोगों का एक साथ जमा हो कर गपशप करना भी गुनाह है। इसी कानून में धारा 107 और धारा 151 भी है जिसमें आप अगर घर में बैठे हुए हों और आराम से टीवी देख रहे हों तो भी पुलिस का कोई सिपाही या हवलदार आपको उठा कर ले जा सकता है क्योंकि उसकी विद्वान बुद्वि के मुताबिक कानूनी भाषा में आपको निरूध्द नहीं किए जाने से समाज में अशांति फैलने की आशंका है। आपको कोई तर्क नहीं दिया जाएगा, आपके पास जमानत के सिवा और कोई विकल्प नहीं होगा और इसी आदिकालीन कानून में जमानत की अर्जी की जो भाषा है उसके अनुसार आप पहले अकारण अपना अपराध मंजूर करते हैं और फिर अदालत से आवेदन करते हैं कि आप एक सभ्य नागरिक की तरह आचरण करेंगे और पुलिस ने अगर आपके आचरण को सभ्य नहीं पाया तो वह आपको हवलदार के विवेक के आधार पर कभी भी गिरफ्तार कर सकती है। 

एक पुरानी कहावत है कि कानून तो होता ही उन लोगों के लिए है जो कानून तोड़ते हैं। इस कहावत का सार यह है कि जिन लोगों को कानून तोड़ने की आदत ही पड़ गई है उन्हें काबू में रखने के लिए कानून बनाया गया। यह अपने आप में एक विकट विरोधाभास है क्योंकि जो कानून तोड़ना चाहते और तोड़ना जानते हैं, उनके लिए कोई भी कानून हो उससे फर्क नहीं पड़ता। बाकी सब जानते हैं कि हत्या करने पर फांसी और बलात्कार करने पर उम्र कैद की सजा है मगर अपने देश में रोज औसतन 5 हत्याएं और 3 बलात्कार होते हैं। यहां यह आंकड़ा उन मामलों का हैं जो अदालत तक पहुंचे हैं। बहुत सारे मामले तो कभी अदालत तक पहुंच ही नहीं पाते। 

क्या आपको इस बात की जरूरत महसूस नहीं होती कि हमारे देश में और हमारे जैसे समाज में न्याय के अधिकार को लागू करने के लिए ही एक सक्षम कानून होना चाहिए? इस कानून के जरिए कम से कम यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि थाने में कोई भी शिकायत हो तो उसकी एफआईआर लिखी जाए और यह भी कि अगर किसी ने अपनी दुश्मनी निकालने के लिए नाहक एफआईआर लिखवाई है और झूठे तथ्य दिए हैं तो उसके खिलाफ भी इसी कानून की धाराओं में किसी कड़ी सजा का प्रावधान हों। 

हरि शंकर परसाई ने कहीं लिखा था कि जब नई शादी करनी हो तो उसके लिए पुरानी पत्नी में हजारों खोट खोजे जाते हैं। यही बात हमारे कानून पर भी लागू होती हैं। नए कानून बनाने की प्रक्रिया में मौजूदा कानून की इतनी खामिया गिनाई जाती है कि यह सवाल पूछने का मन करने लगता है कि अगर पुराना कानून गड़बड़ था तो उसकी धाराओं के तहत जिन लोगों को सजा दी गई है उन्हें छोड़ क्यों नहीं दिया जाता? जिन्हें मौजूदा कानून के तहत फांसी पर चढ़ाया गया है उनके परिवारों को माफी मांगते हुए मुआवजा क्यों नहीं दिया जाता? 

आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई असल में समाज को लड़नी है और कानून की भूमिका इस लड़ाई में मित्र की होगी या होनी चाहिए जो नागरिक का हमेशा साथ दे। नए और समदर्शी किस्म के जो कानून तात्कालीक परिस्थितियों से निपटने के लिए बनते हैं, उनके साथ यह खतरा हमेशा बना रहता है कि जिन परिस्थितियों से जूझने के लिए यह कानून बनाए गए हैं उनके अलावा भी इनका दुरुपयोग किया जाएगा। दिल्ली पुलिस में आतंकवादी और देशद्रोही घटनाओं और उनके अभियुक्तों से निपटने के लिए जो स्पेशल सैल बनाया गया है, उसने तो मुझे भी एक छोटा सा आर्थिक मामला बना कर बंद कर दिया था जबकि दिल्ली पुलिस के पास आर्थिक अपराधों से निपटने के लिए एक विशेष पुलिस शाखा अलग से है। अपना उदाहरण इसलिए दिया क्योंकि यह एक भोगा हुआ यथार्थ है। इसलिए आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ नए कानून और नई एजेंसी का स्वागत कीजिए मगर साथ में यह उम्मीद भी करिए कि सरकार की नीयत निश्पाप होगी और कानून की धाराओं का इस्तेमाल आम आदमी को अकारण सताने में नहीं किया जाएगा।
(शब्दार्थ)

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