Wednesday, December 3, 2008

मीडिया का मोतियाबिंद

शंभूनाथ शुक्ल
मुंबई में ताज और ओबराय होटल में हुए बम विस्फोट  के बाद
पहली बार अचानक मध्य वर्ग राजनेताओं के प्रति बेहद आक्रामक हो
उठा है। इसकी एक जह तो यह है कि इस बार की आतंकी घटना
ने उन लोगों को भी परेशान कर दिया है जो कभी मुंबई की
लोकल ट्रेनों या दिल्ली की डीटीसी अथा कनॉट प्लेस के
फुटपाथों पर नहीं चले। जिन्हें कभी कचहरियों के  चक्कर नहीं
लगाने पड़ते और कभी भी भीड़ भरे रेले स्टेशनों या बस
अड्डों पर खड़ा नहीं होना पड़ा। उन्हें इस बार टीवी 
की अनरत और धाराहिक की तरह चलने वली आतंकी रिपोर्टिग
ने दहला दिया है। घरों में औरतें और बच्चे रात-रात भर टीवी
के स्टार पत्रकारों की फूली-फूली आंखें और उनके भर्राए
गलों को देखते रहे। सुरक्षा बलों की कार्रा ई की सीधी करेज
ने सुरक्षा दस्तों  पुलिस के शहीद अफसरों के  प्रति लोगों में
कृतज्ञता का भाव  भी भरा। ओज और व ीरता का बखान सबसे ज्यादा
भानाओं को उद्यत करता हैं। नेताओं की बयानबाजी ने भी
उन्हें चिढ़ाया। और फिर ऐसे-ऐसे एसएमएस का बाजार गर्म हो
गया जिन्हें पढ़कर लगता है कि हमें सिर्फ पुलिस और प्रशासन के
अफसर ही आतंकाव द से बचा सकते हैं।
लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभ हैं- व्यस्थापिका, कार्यपालिका,
न्यायपालिका। तीनों की साङाी व्यवस्था ही लोकतंत्र को चलाती है।
मीडिया को लोकतंत्र में सबसे ज्यादा छूट होती है। चूंकि उसकी
भूमिका जनता को लोकतंत्र के  इन तीनों पहरुओं के कामकाज से
अगत कराने की होती है इसीलिए उसे भी चौथे स्तंभ का
अनौपचारिक दर्जा मिला है। लेकिन २६ नंबर की घटना के बाद विजुअल
 मीडिया ने अचानक जो भूमिका ओढ़ने की कोशिश की है उसने
समूचे लोकतंत्र के लिए ही साल खड़ा कर दिया है। कोई भी
राजनेता लोकतंत्र से बड़ा नहीं होता क्षसलिए यह कहना कि हमें
खतरा बोट के जरिए आए आतंकियों से नहीं वोट  के  जरिए
सत्तारूढ़ हुए नेताओं से ज्यादा है, एक तरह से लोकतंत्र का ही
मजाक उड़ाना है। अगर हमें नेता ठीक नहीं लगते तो हम
उन्हें चुना में मजा चखा सकते हैं। लेकिन समूचे लोकतंत्र को
इस तरह नाकारा साबित करने का क्या मतलब? क्या सुरक्षा बल अथा
प्रशासन के लोग इतने ही चुस्त-दुरुस्त होते हैं जैसे कि टीवी  में
दिखाए गए? और अगर हां तो फिर बाटला हाउस कांड में दिल्ली
पुलिस और साध्ी प्रकरण में  मुंबई की एटीएस सालों के घेरे
में क्यों है? क्यों अलग-अलग समुदायों को इनकी भूमिकाएं राजनीति
से प्रेरित नजर आ रही हैं? क्या इन पुलिस टीमों को राजनेताओं
ने ऐसा करने को कहा और अगर यह सच है तो इन टीमों के
लीडरों ने अपने ेिक से काम क्यों नहीं लिया?
ऊपर के  दबा की बात बनाना सच्चई से मुंह छिपाना है। जब हम
कमजोर होते हैं तो सिस्टम में गड़बड़ी या ऊपर की दखलंदाजी
की बात करने लगते हैं। जो लोग आज हमें राजनीतिकों को
जोकर एं पुलिस-प्रशासन को बहादुर बता रहे हैं व भूल जाते
हैं कि क्यों आखिर इतने बहादुर और जांबाज लोगों के रहते
हुए भी हमारी पुलिस ने आज तक कोई ऐसा नामी गिरामी माफिया या
डान क्यों नहीं मारा जो पहले से चर्चित रहा हो। क्यों सारे
एनकाउंटर के बाद पुलिस बताती है कि मारा गया व्यक्ति अमुक
संगठन का स्यंभू कमांडर या बड़ा अपराधी था। इन एनकाउंटर
शेिषज्ञ पुलिस अफसरों में से ज्यादातर अपनी नामी और बेनामी जायदाद
के कारण ािदों में क्यों हैं? नौकरशाही और सुरक्षा बलों
के अफसरों का ग्राफ कोई बहुत शानदार नहीं है। जम्मू काश्मीर
में उनकी भारी दखल के बाजूद हालात हां काबू में पिछले तीन
दशकों से क्यों नहीं आ रहे हैं? बांग्लादेशियों की घुसपैठ से
नाक भौं सिकोड़ने वला मध्य वर्ग भूल जाता है कि इस पूरी सीमा पर
सीमा सुरक्षा बल के जान तैनात हैं फिर े घुसपैठ पर अंकुश
क्यों नहीं लगा पाते?
राजनीतिक समस्याओं का हल राजनीति से ही निकलता है। वट के
जरिए हम भ्रष्ट एंव  निक मे राजनेताओं को धूल चटा सकते हैं।
लोकतंत्र को अंटशंट बताने से हम न तो देश का भला कर रहे
होते हैं न ही किसी समस्या का हल निकाल रहे होते हैं। एनएसजी
के कमांडोज निश्चय ही बड़े बहादुर और अत्याधुनिक हथियारों
से लैस होते हैं पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि हर समस्या का हल
एनएसजी  एटीएस को ही मान लिया जाए। जनता के वटों से चुने गए
हमारे लोकतंत्र को नाकारा बताने में ही लोग ज्यादा रुचि ले
रहे हैं जिनकी नजरों में हमारा लोकतंत्र भदेस, अनगढ़ तथा
गांरू है। उन्हें अंग्रेजी बोलने व ला, एसएमएस के जरिए वोट
करने व ाला और शेयर बाजार पर टिका लोकतंत्र चाहिए। अपना सपना
मनी मनी टाइप मध्य व र्ग शेयर बाजार के धड़ाम होने से बेचैन है।
पर क्या कभी उसने उन लाखों किसानों के बारे में सोचा जो
पिछले कई र्षो से सेज और खेती की जमीनों के शहरीकरण के
चलते बेघरबार हो गए हैं। हताशा और बेव सी में हर साल
हजारों किसान  मजदूर खुदकुशी कर लेते हैं। इन्हें कोई
सुरक्षा बल नहीं बचा सकता इन्हें राजनीति ही बचाएगी। जरूरी नहीं कि
उस राजनीति में व वे लोग हों जो आज समुदायों की भानाओं से
खिलाड़ कर रहे हैं। टी के जो पत्रकार लाखों रुपए माहाव र
पाकर बताएं कि देखिए हम आपको ताजा दिखाने के लिए खुद कितने बासी
होते जा रहे हैं और इसलिए आपसे गुजारिश करते हैं कि देश
ये अनगढ़ और अनपढ़ राजनेता नहीं चला सकते, व  े क्या सच बात कर
रहे हैं? तब क्यों नहीं इन्होंने ीपी सिंह की मृत्यु की खबर भी
उसी तत्परता से दिखाई। पूना के फग्र्युसन कालेज से ज्ञिान स्नातक
ीपी सिंह यूपी के  एक बड़े जागीरदार परिार से ताल्लुक रखते थे।
एक जमाने में े मध्यर्ग और अंग्रेजी पढ़ी लिखी जमात के हीरो थे।
सेना, पुलिस और प्रशासन के अफसरों के बीच व े अत्यंत लोकप्रिय थे
क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री राजी गांधी के बोफर्स तोप सौदे
में दलाली लिए जाने का भंडाफोड़ किया था। यह अलग बात है कि ह
आरोप कभी साबित नहीं हुआ। पर प्रधानमंत्री बनने के बाद जब
उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं तो वे मध्य
र्ग की नजरों से अचानक खारिज कर दिए गए।
आज जो लोग राजनीति और राजनेताओं से मुक्ति की बात कर रहे
हैं व े भूल जाते हैं कि एक राजनेता में व ैध्यि होता है इसीलिए
व ह बड़ा होता है। चाहे जितना कुलीन समाज का नेता हो जनता के
बीच उसे रमना-रचना होता ही है। राहुल गांधी भले दिखो के
लिए कर रहे हों लेकिन जेठ-बैशाख की लू के बीच वे बुंदेलखंड
गए और गांव -गांव घूमे। मायाती, लालू या मुलायम सिंह भले जातिवादी
राजनेता माने जाते रहे हों लेकिन सत्ता में आने के बाद
उन्होंने कभी भी जातिव दी राजनीति नहीं की है।
(लेखक अमर उजाला में कार्यकारी संपादक हैं)

4 comments:

विजय तिवारी " किसलय " said...

नेता को जनता के बीच रमना-रचना होता है।
shambhu nath shukl ji ka aalekh padh kar aanand aa gaya.

Smart Indian said...

बिल्कुल सही कहा!

Unknown said...

कुछ तो दोबारा आत्मदाह कर लेंगे .ऐसे ही नाटक में एक निपट गया था .तब आप जनसत्ता में थे और अरुण शोरी कैसे मंडल विरोधियो की बैठक एक्सप्रेस बिल्डिंग में करते थे सब को पता है.इसी वजह से राम नाथ गोयनका ने उन्हें एक्सप्रेस से बहार भी कर दिया था

neera said...

सटीक और रोचक लेख...