Wednesday, January 28, 2009

बिहार में प्रेस पर अघोषित सेंसर

 फज़ल इमाम मल्लिक
पटना , जनवरी। बिहार में सब कुछ ठीक है। क़ानून व्यस्था पटरी पर लौट आई है। विकास चप्पे-चप्पे पर बिखरा है और ख़ुशहाली से लोग बमबम हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। बिहार के अख़बार और समाचार चैनलों से जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है उससे तो बस यही लग रहा है कि बिहार में इन दिनों विकास की धारा बह रही है और निजाम बदलते ही बिहार की तक़दीर बदल गई है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जाहिर है कि इससे गदगद हैं और विकास को देखने अपने लाव-लशकर और गाजे-बाजे के साथ सलतनत को देखने निकले हैं। इस विकास यात्रा का ¨ढढोरा भी कम पीटा नहीं ज रहा है। नीतीश को टेंट में अकेले बैठा दिखाया ज रहा है, ग्रामीणों के साथ खाना खाते उनकी तस्वीरें हर अख़बार छाप रहा है और चैनल उसे सम्मोहित हो कर दिखा रहा है। कुछ चैनलों ने तो कई-कई घंटे तक किसी प्रायोजित कार्यक्रम की तरह नीतीश की शान में क़सीदे पढ़ते हुए उनके राजशाही ठाठ को दिखाया। उन चैनलों को देखते हुए यह लग रहा था कि हम किसी समाचार चैनल पर समाचार नहीं देख रहे हैं बल्कि राज्य सरकार का अपना कोई चैनल देख रहे हैं जो नीतीश कुमार के गुणगान में किसी तरह की कोई कंजूसी नहीं दिखाना चाहता है। उन चैनलों में या अख़बारों में यह कहीं नहीं दिखाया गया कि बिहार के उन गांवों में जहां-जहां नीतीश ने पांव धरे थे वहां इन तीन सालों में कितना और कैसा बदलाव आया। लोकशाही के इस दौर में राजशाही का नमूना इससे पहले दूसरी सरकारों के दौर में तो नहीं ही मिला था। लालू यादव के जंगल राज के दौरान भी नहीं। विकास यात्रा पर निकले नीतीश के ठाठ किसी राज की तरह थे। नर्तकों और कलाकारों का लावलशकर भी उनके साथ पटना से गया था जो रात भर उनका दिल बहलाता। किनकी फ़सलें उजड़ी गईं और किनके घरों को तोड़ा गया, इसकी ख़बर कहीं नहीं थी लेकिन विकास यात्रा की तस्वीरें थीं और नीतीश की घोषणाओं का जिक्र था। ठीक वैसी ही घोषणाएं जो इन तीन सालों में नीतीश करते रहे हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि नीतीश अपनी विकास यात्र के दौरान योजनाओं की ही घोषणा ही करते रहे, बिहार के उन गांवों में तीन सालों में क्या कुछ विकास हुआ इसकी जनकारी उन्होंने देने की जजाहमत तक नहीं उठाई। दरअसल नीतीश की फ़ितरत में यह है भी नहीं। सत्ता में रहते हुए उनमें ख़ुदाई इतनी आ जती है कि उन्हें अपने सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता है। बिहार में जाहिर है कि इन दिनों नीतीश की ख़ुदाई चल रही है और इसके लिए उन्होंने सबसे बड़े हथियार यानी मीडिया को हर तरह से ‘मैनज’ किया है। इस ‘हर तरह’ को अघोषित सेंसर के तौर पर पाठक पढ़ें तो बात ज्य़ादा साफ़ और समङा में आएगी।
सुशासन और विकास को ढोल पीटने वाले नीतीश कुमार के राज में क्या सचमुच सब कुछ ठीक है और विकास की बयार पह रही है। बिहार और खा़स कर दूर-दराा के गांवों में जने के बाद तो यह सब बातें महा छलावा और काग़ाी ही नार आती है। बिहार, शेखपुरा, सिकंदरा, जमुई, लखीसराय, खगड़िया जिलों का दौरा करें सड़कें बद से बदतर। बिजली कब आती है पता नहीं, पीने का साफ़ पानी भी मुयस्सर नहीं। पर पटना में अख़बारों में इन सब पर न तो लिखा गया और न छपा। सड़कों का टेंडर सत्ताधारी पार्टी के किन-किन सांसदों व विधायकों ने लिए और सड़कें नहीं बनीं तो इसकी वजह क्या थी। भ्रष्टाचार एेसा कि पार्टी के बड़े से लेकर छोटे नेता तक टेंडर पास कराने के लिए पैसे की मांग करते हैं। सड़कें अदालतों में ज्यादा बन रही हैं। ठेकेदारों के ङागड़े अदालतें ही निपटा रही हैं। नहीं मैं एेसा नहीं कह रहा कि पहले की सरकारों में एेसा नहीं होता था। ख़ूब होता था। लेकिन अख़बारों या चैनलों में स्याह-सफ़ेद के इस खेल को लेकर हंगामा किया जता रहा था। पर आज एेसा नहीं है। भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी नीतीश सरकार और उनकी नौकरशाही की ख़बरें अब अख़बारों में कहीं दिखाई नहीं देतीं। 
नीतीश के सखा और पार्टी के महžवपूर्ण नेता शंभू श्रीवास्तव ने बिहार सरकार के कामकाज को लेकर हाल में ही जो टिप्पणी की उससे नीतीश की लफ्फ़ाजी की पोल पट्टी खुल जती है। उन्होंने पत्रकारों से बातचीत करते हुए साफ़-साफ़ कहा- नीतीश के तीन साल के शासनकाल में प्रदेश में नौकरशाही हावी है। नौकरशाही में भ्रष्टाचार के कारण ही बिहार में निेश कम हो रहे हैं जिससे प्रेश का औद्यौगीकरण नहीं होने से रोजगार की तलाश में यहां से लोगों का दूसरे प्रेशों में पलायन जारी है और बिहार में उद्योग की स्थापना नहीं होने से रोजगार की तलाश में प्रेश से पिछले बीस सालों के ौरान करीब एक चौथाई आबाी का पलायन हुआ है और इसके लिए उन्होने र्तमान नीतीश सरकार सहित बिहार की सभी पिछली सरकारों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि राज के पिछले १५ सालों के शासन के ौरान प्रेश में किसी भी क्षेत्र में निेश हुआ ही नहीं लेकिन प्रेश की र्तमान नीतीश सरकार के तीन सालों के शासनकाल में ९२ हजार करोड़ रु पए के निेश किए जाने को लेकर समङाौते किए जा चुके हैं पर हकीकत यह है कि उसमें से मात्र ६00 करोड़ रु पए का ही अबतक निेश हुआ है जो बिहार जसे बड़े प्रदेश के लिए कुछ भी नहीं है। यहां तक कि कें्र सरकार ने र्तमान त्तिीय र्ष में बिहार में सात हजार कृषि पिणन कें्र खोले जाने के लिए १६७ करोड़ रु पए आबंटित किए थे लेकिन प्रेश के कृषि भिाग के सही समय पर अंकेक्षण और परियोजना रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं किए जाने से राज्य सरकार इसमें से अबतक मात्र ११ करोड़ रु पए ही उठा पाई है। यह नीतीश सरकार के शासन का सच है। यह बातें किसी विपक्ष के नेता ने नहीं कहीं हैं। जनता दल (एकी) के एक क़द्दावर नेता ने यह बातें कहीं हैं। लेकिन मीडिया ने सत्ताधारी दल के इस बड़े नेता का यह बयान भी पटना के अख़बारों में उस तरह नहीं छपा, जिस तरह कभी सुशील कुमार मोदी के बयान को ामक-मिर्च लगा कर पटना के अख़बार छापा करते थे। सवाल पूछा ज सकता है कि सत्ता के बदलाव के साथ ही बिहार में अख़बारों में यह बदलाव आया है। तो जवाब है नहीं। अख़बारों में यह बदलाव आया नहीं है, लाया गया है। सत्ता संभालने के बाद बिहार में सरकार ने सबसे पहला काम मीडिया को ‘मैनेज’ किया और इसके लिए हर वह हथकंडे इस्तेमाल किए गए जो एक तानाशाह या बर्बर शासक करता है। लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में बिहार में ‘जंगलराज’ पर लगभग हर रोज कुछ न कुछ विशेष ख़बरें छपती ही रहती थीं। लालू प्रसाद यादव के पिछड़े प्रेम और अगड़े विरोध ने बिहार में पत्रकारों को उनके ख़िलाफ़ कर दिया। यह मुख़ालफ़त घोषित नहीं अघोषित थी। लालू विरोध और नीतीश प्रेम के बीच सवाल यह है कि बिहार में इस पत्रकारिता ने किस का हित साधा है और इसका किसन ने उपयोग किया है। लालू प्रसाद यादव के पं्रह साल व नीतीश कुमार के तीन साल के शासनकाल के दौरान मीडिया के रवैये से इन सवालों के जवाब मिलते हैं। पिछले तीन साल के दौरान बिहार में मीडिया में विकास की धारा बह रही है और सुशासन का जदू सर चढ़ कर बोल रहा है। ख़बरों को बनाने वाले और उसका संपादन करने वाले छोटी सी छोटी ख़बरों में भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि कहीं इससे नीतीश की उजली छवि पर कोई दाग़ तो नहीं लग जएगा। लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में एेसी बात नहीं थी। तब सुशील कुमार मोदी के बयान को भी आधार बना कर विशेष ख़बरें बना डाली जती थीं। लगभग एेसी ख़बरें रोज़ छापी और छपवाई जतीं थीं, जिससे राजनीतिक रूप से लालू यादव का नुक़सान हो। पर हैरत की बात यह है कि नीतीश कुमार के तीन साल के शासनकाल के दौरान बिहार के अख़बारों ने एक भी एेसी ‘विश्ेष ख़बर’ प्रकाशित नहीं की जिससे नीतीश का राजनीतिक क़द कम होता हो। हद तो यह है कि विपक्षी नेताओं तक के बयान सेसंर किए ज रहे हैं। कभी जनता दल (एकी) के प्रवक्ता रहे संजय वर्मा के अख़बारी मित्र उनसे कहते हैं नीतीश के ख़िलाफ़ कोई बयान मत छपने के लिए भेजिए, छाप देंगे तो नौकरी चली जएगी। नीतीश की मानसिकता और नीतियों की वजह से संजय वर्मा ने पार्टी छोड़ दी और पिछले क़रीब एक साल से वे शंकर आाद और विज्ञान स्वरूप के साथ मिल कर शोषित सर्वण संघर्ष समिति (एस फोर) बना कर नीतीश की कारगुारियों और बदनीयति की जनकारी बिहार के लोगों को दे रहे हैं। एस फोर लोगों के सामने नीतीश के उस चेहरे को सामने रखने में जुटा है जो दिखता नहीं है और जो चेहरा किसी क्रूर तानाशाह का है। पर दिक्क़त यह है कि सारे सबूत देने के बावजूद पटना के अख़बार उनके बयानों को उस तरह नहीं छापते, जिस तरह छापनी चाहिए। सच तो यह है कि राजद के शासनकाल के जिस तरह ख़बरें बनाई ज रहीं थीं, नीतीश के इन तीन सालों में बिहार में ख़बरें दबाई ज रही हैं। 
नीतीश कुमार के शासनकाल में अगस्त में कोसी में आई बाढ़ ने गांव के गांव तबाह कर डाले। लोगों का मानना है कि पिछले एक सदी में आई यह सबसे बड़ी आपदा है। ख़ुद नीतीश ने इसे प्रलय कहा। यह बात अलग है कि नीतीश सरकार के आपदा प्रबंधन के आंकड़े इस बाढ़ को बहुत कम कर आंकता है। आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक़ कुछ सौ लोग इस बाढ़ में मारे गए हैं। पर कोसी अंचल ज कर बाढ़ की विनाशलील का पता लगता है। शंकर आाद के साथ अभी-अभी सुपौल, मधेपुरा और अररिया के उन इलाकों में जने का मौक़ा मिला तो तबाही को देख कर दिल परेशान हो गया। लोगों का कहना है कि बाढ़ में कम से कम पचास हार लोग मारे गए हैं। नीतीश कुमार इन आंकड़ों को दबा रही है ताकि सहायता को मिले १५0 हार करोड़ की रक़म का घपला किया ज सके। कोसी क्षेत्र में सुपौल से लेकर निर्मली और फिर ललितग्राम, प्रतापपुर, पिपरा, नरपतगंज उधर अररिया के बतनाहा से लेकर फारबिसगंज, बनमखी व पूर्णिया, मधेपुरा के कुमारखंड प्रखंड का रामनगर, मुरलीगंज, बभनगांवा, सुखासन व बिहारीगंज इलाक़े में बाढ़ की विभिषिका पूरी सच्चई के साथ दिखाई देती है। खेत बालू से पटे हैं, घर तालाब बन गए हैं और इन इलाकों का संपर्क राज्य के दूसरे हिस्सों से लगभग ख़त्म है। सड़क व रेल मार्ग दोनों ही संपर्क टूट चुका है। पटरियां उखड़ी पड़ी हैं और हालत एेसी है कि फ़िलहाल उसे बनाया भी नहीं ज सकता। बाढ़ को लेकर नीतीश लाख सफ़ाई दें पर इतना तो साफ़ है कि राज्य सरकार की लापरवाही की वजह से कोसी का तटबंध टूटा था। पर मीडिया संवेदनहीन बना रहा। नीतीश की विकास यात्रा को प्रमुखता से प्रकाशित करने वाले अख़बार या इसका सीधा प्रसारण करने वाले समाचार चैनलों के लिए कोसी की बाढ़ कोई ख़बर नहीं है। वहां क्या हालात हैं और बाढ़ से तबाह हुए लोगों को क्या कुछ राहत मिला है या मिल रहा है उस पर एक भी खोजपरक रिपोर्ट बिहार के अख़बारों में देखने को नहीं मिली। जबकि उन गांवों को फिर से बसने में सालों लग जएंगे। सरकारी स्तर पर कोसी के बाढ़ प्रभावित इलाकों में एेसा कुछ नहीं किया गया है जिसे लेकर उसकी पीठ ठोंकी जए। पर बिहार के अख़बार एेसा कर रहे हैं। सरकारी दावों व आंकड़ों को पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापा ज रहा है और बाढ़ की त्रासदी को कम से कम दिखाने की कोशिश की जती रही है। महीनों बीत जने के बाद भी किसी पत्रकार ने यह हिम्मत नहीं जुटाई कि कोसी के सच को सामने लाया ज सके। 
बिहार में सामाजिक न्याय और समाजवाद पर कभी बड़ी-बड़ी बातें कहने वाले और लालू यादव के ‘कुंबा प्रेम’ पर पन्ने के पन्ने स्याह करने वाले किसी पत्रकार ने नीतीश कुमार के जतीय और नालंदा प्रेम को उजगर करने की ाहमत नहीं उठाई। नालंदा जिला के नीतीश कुमार जति से कुर्मी हैं और उन्होंने पार्टी के महिला व युवा अध्यक्ष पद पर अपने ही जिला के कुर्मी नेताओं को बैठाया है। किसी ने कभी कहा था कि ‘नशेमन लुट ही जने का ग़म होता तो क्या ग़म था, यहां तो बेचने वालों ने गुलशन बेच डाला है’। नीतीश पर यह बात पूरी तरह लागू होती है। सिर्फ़ इन दो पदों पर ही वे अपनी बिरादरी और जिले के लोगों को बिठाते तो कोई बात नहीं थी। उन्होंने तो मानव संसाधन विकास मंत्री, मुख्य सचेतक विधानसभा व विधानपरिषद, लोकायुक्त, वरिष्ठ उपाध्यक्ष नागरिक परिषद, मुख्यमंत्री के प्रधान व निजी सचिव, अध्यक्ष संस्कृति परिषद व राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के जिलाधिकारी, पटना के ग्रामीण एसपी व पटना मेडिकल कॉलेज के सुपरिटेंडेंट के पदों पर अपनी बिरादरी व गृह जिला के लोगों का ला बिठाया है। थोड़ी पड़ताल की जए तो यह सूची और भी लंबी हो सकती है पर नीतीश के इस जतीय प्रेम पर पटना के मीडिया में कोई सुगबुगाहट तक नहीं है। बिहार में पत्रकारिता का यह नया चेहरा है जो नीतीश ने गढ़ा है और उनकी सरकार इसे आकार देने में लगी है। वर्ना क्या कारण है कि कर्मचारियों की हड़ताल की वजह से उत्पन्न स्थिति पर अख़बारों में ख़बरें अंदर के पन्नों पर जगह पाती हैं जबकि इस हड़ताल से बिहार में पूरा तंत्र चरमरा गया है और कामकाज ठप है। लेकिन मीडिया चुप होकर सारा तमाशा देख रही है। हड़ताल पर सरकार अपना पक्ष रखते हुए अख़बारों में विज्ञापन देती है, अगले दिन उसी विज्ञापन के आधार पर अख़बार इसे लीड ख़बर बना कर कर्मचारियों को विलेन बताने की कोशिश में जुट जती है। कभी भारतीय जनता पार्टी चाल, चरित्र और चेहरा की बात करती थी। बिहार के मीडिया के संदर्भ में अब यह कहा ज सकता है कि उसका चाल, चरित्र और चेहरा इन तीन सालों में पूरी तरह बदल गया है।
बिहार में मीडिया इन दिनों भीतर व बाहरी दबावों से जूङा रहा है। बाहरी दबाव पत्रकारों का वह पुराना ‘लालू प्रेम’ है, जिसने सुशील कुमार मोदी के बयानों को आधार बना कर ‘स्पेशल स्टोरी’ बनाई। पर यह बाहरी दबाव बहुत ज़्यादा ख़तरनाक नहीं है। भीतरी दबाव नीतीश कुमार की तानाशाही है और यह यादा ख़तरनाक है। नीतीश और उनके सलाहकारों ने बहुत ही सलीक़े से पत्रकारों को अपना मुसाहिब बनाने के लिए हर वह हथकंडा अपनाया, जो सत्ता में बने रहने के लिए ारूरी है। नीतीश के कुछ नादीकी लोगों की बात मानें तो बिहार में पत्रकारों को पालतू व भ्रष्ट बनाने के लिए बाक़ायदा मुहिम छेड़ी गई और पत्रकार इसका शिकार बन कर सरकार के क़सीदे पढ़ने लगे। सरकारी विज्ञापनों का इस्तेमाल कर प्रबंधकों को भी स्याहको सफ़ेद करने के लिए ललचाया गया। ाहिर है कि एेसे में खोजपरक ख़बरें तो छपने से रहीं। बिहार के कुछ पत्रकारों ने ही यह भी बताया है कि अख़बारों को भेजे गे विपक्षी दलों के बयान तक छपने से पहले मुख्यमंत्री की टेबल पर पहुंचाए जते हैं। समाचार एजंसियों तक में ख़ुफ़िया विभाग के अधिाकीर घूमते रहते हैं कि कहीं कोई ख़बर सरकार के खि़लाफ़ तो चलाई नहीं ज रही है। यहां तक कि दिल्ली से चलाई गई ख़बरों को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय से निर्देश आते हैं कि सरकार की नकारात्मक छवि वाली ख़बरें नहीं चलाईं जएं। एेसा ही निर्देश अख़बारों के दफ़्तरों तक भी पहुंचाए जते हैं। ाहिर है कि इसके बाद दिल्ली से जरी कोई ख़बर बिहार के अख़बारों में नहीं छपतीं और छपती भी हैं तो सरकार की नकारात्मक छवि को गौण करने के बाद। बिहार में यह अघोषित सेंसरशिप बहुत ही सुनयिोजित ढंग से लागू किया गया है और अख़बारों को अपने हित में इस्तेमाल कर उसे राज्य सरकार का भोंपू बना डाला गया है। फै़ा अहमद फैज ने कभी कहा था कि ‘मताए लौह-ओ-क़लम छिन गया तो क्या ग़म है, कि ख़ून-ए-दिल में डुबो दी हैं उंगलियां मैंने’, पर बिहार में मीडिया पर पहले बिटा दिए गए हैं और ख़ून-ए-दिल में उंगिलियां डुबोने वाला कोई नजार नहीं आ रहा है। बिहार में जगन्नाथ मिश्र के अख़बारों पर लगाए गए प्रतिबंध को काला क़ानून बताते हुए कभी देश भर के पत्रकारों ने इसका विरोध किया था, आज नीतीश कुमार के अघोषित काला क़ानून पर कहीं कोई सुनगुन तक नहीं। यह बड़ी चिंता की बात है।

Tuesday, January 13, 2009

जनादेश अब नए तेवर के साथ

जनादेश अब नए कलेवर और नए तेवर के साथ दूसरे वर्ष में प्रवेश कर चुका है। राजनीति की विशेष खबरों के साथ पर्यटन, साहित्य, संस्कृति और मीडिया पर हमारा फोकस बना हुआ है। इन न्यूज वेबसाइट की सफलता का प्रमाण हमारी मौजूदा रैंकिंग है जिसने हमें देश की चुनिंदा हिन्दी न्यूज वेबसाइटों में शामिल कर दिया है। इसके साथ ही करीब दो दजर्न से ज्यादा देशों में जनादेश को देखा ज रहा है। 
इस पोर्टल का शुभारंभ एक जनवरी, 2007 को चेन्नई में लोकनायक जयप्रकाश नारायण और मीडिया जगत के भीष्म पितामह रामनाथ गोयनका के सहयोगी स्वतंत्रता सेनानी शोभाकांत दास के हाथों हुआ था। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनादेश में पहला लेख लिखकर इसका शुभारंभ किया था। पिछले एक वर्ष में इस वेबसाइट में जिन लोगों की रिपोर्ट और लेख छपे हैं, उनमें प्रभाष जोशी, सुरेन्द्र किशोर, कुलदीप नैयर आलोक तोमर, सुशील कुमार सिंह, शंभु नाथ शुक्ल, अभय कुमार दुबे, अरूण शौरी, सुप्रिया राय, प्रभात रंजन दीन, राज कुमार सोनी, राज नारायण मिश्र, मयंक भार्गव, रीता तिवारी, संदीप पौराणिक, नंदनी मिश्र, संजीत त्रिपाठी और प्रोफेसर प्रमोद कुमार शामिल हैं। दूसरी तरफ कार्टूनिस्ट  इरफान का योगदान भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहा।
अब यह वेबसाइट डाइनमिक हो चुकी है। इसकी गुणवत्ता में लगातार सुधार का प्रयास जरी रहेगा। इस वर्ष हमारा लक्ष्य देश के अलग-अलग हिस्सों से राष्ट्रीय स्तर के पचास संवाददाताओं की टीम बनाना है। इसके लिए पहल हो चुकी है। छत्तीसगढ़ के बस्तर से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों की विशेष खबरें हमने दी हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम विधानसभा चुनाव की कवरेज भी जनादेश ने की। आप सभी ने जनादेश को जो सहयोग दिया है, उसे जारी रखकर हमारा हौसला बढ़ाएं।

सविता वर्मा
www.janadesh.in

Monday, January 12, 2009

मीडिया पर नया हमला, फ़िर आ रहा है काला कानून

मीडिया पर नया खतरा मंडराने लगा है .इस खतरे को लेकर देश के 15 संपादको ने प्रधामंत्री को पत्र लिखकर विरोध जताया है .इन संपादको में राजदीप सरदेसाई,बरखा दत्त,अजित अंजुम ,दीपक चौरसिया ,कमर वाहिद नकवी ,सुप्रिय प्रसाद ,आशुतोष,अर्नब गोस्वामी,विनय तिवारी आदि शामिल है.खतरा टीवी चैनल से सुरु होकर समूचे मीडिया की तरफ़ बढ़ने वाला है .खतरे की तरफ़ इशारा करती एक रपट. इस बारे में हर घटनाक्रम की जानकारी जनादेश पर दोनों भाषाओ में .
चौथे स्तंभ को दफनाने की तैयारी
शाज़ी जमां
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को दफनाने की तैयारी शुरू हो चुकी है। आवाम के आंखों पर काली पट्टी बांधने की साजिश रची जा चुकी है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग मीडिया की धार भोथरी करने का फैसला कर चुके हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए कंटेट कोड को अंतिम रूप दिया जा चुका है। माना जा रहा है कि ये कोड इस जनवरी के अंत तक जारी कर दिया जाएगा। वैसे तो इस कोड के ज़रिये उन परिस्थियों में मीडिया कवरेज को रेगुलेट करने की बात कही गई है, जब राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई ख़तरा हो। लेकिन गौर से देखे तो ये साफ है कि इस काले कानून की आड़ बहुत आसानी से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सेंसरशिप लागू किया जा सकता है।
सरकार की ओर से तैयार कंटेट कोड में ये साफ है कि आतंकवादी हमला, सांप्रादायिक दंगा, हाईजैकिंग या बंधक बनाये जाने जैसी किसी भी वारदात के दौरान मीडिया अपनी ओर से कोई कवरेज नहीं कर पाएगी। न्यूज़ चैनलों को सिर्फ वही फुटेज दिखाना पड़ेगा जो सरकारी अधिकारी उपलब्ध कराएंगे। यानी घटना को लेकर सरकारी अमला अपनी कहानी पकाएगा और मीडिया कनपटी पर बंदूक रखकर उसे बाध्य किया जाएगा कि वो उस कहानी जनता के सामने उसी तरह पेश करे। मामला यहीं खत्म नहीं होता। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा और आपत्तकालीन स्थिति को सरकारी अधिकारी अपने हिसाब से परिभाषित करेंगे और इस तरह वो ख़बर दबा दी जाएगी, जिससे सरकारी तंत्र कटघरे में खड़ा होता हो। क्या ये मीडिया का गला घोंटने की साजिश नहीं है? 
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सेंसरशिप से शुरु हुआ ये सिलसिला प्रिंट और दूसरे प्रसार माध्यमों तक जाएगा। मीडिया के हाथ से लोकतंत्र के पहरेदार की भूमिका छिन जाएगी और मुमकिन है, हमें उसी दौर में लौटना पड़े जो इमरजेंसी के वक्त था। लोकतंत्र की हत्या के इस काले कानून के विरोध के लिए हमने अभियान चलाने का फैसला किया है। आप भी जुड़िये इस अभियान से।
अपनी ज़रूरत और सुविधा के मुताबिक फतवा खरीदा जा सकता है! संसद में सवाल पूछने और काम करवाने के लिए सांसद दोनों हाथों नोट बटोर सकते हैं! किसी बेगुनाह को मारने के लिए पुलिस वाले सुपारी ले सकते हैं और उस बेरहम कत्ल को बड़ी सहजता से एनकाउंटर का नाम दे सकते हैं! मेटरनिटी होम के डॉक्टर बच्चों की खरीद-फरोख्त कर सकते हैं! अनाथालयों में पल रहे मासूमों को खरीदकर गुनाह के रास्ते पर धकेला जा सकता है! इतना ही नहीं एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष कैमरे पर दिन-दहाड़े रिश्वत लेते हुए नज़र भी आ सकते हैं। 
आपको इन तस्वीरों की याद दिलाने की ज़रूरत नहीं। पिछले कई बरसों में टीवी चैनलों पर ये तस्वीरें आपने अनगिनत बार देखी होंगी। इन ख़बरों ने देश को हिलाया था और सच परदा हटाया था। टीवी पत्रकार होने के नाते हमें इन ख़बरों पर नाज हैं। लेकिन ये ख़बरे हमारे जेहन में अचानक इसलिए बार-बार कौंध रही हैं क्योंकि न्यूज़ चैनलों के ख़िलाफ सत्ता के गलियारे में एक ख़तरनाक खेल चल रहा है। मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद टीवी चैनलों को बदनाम करने की सुनियोजित साजिश के तहत बकायदा एक अभियान चलाया रहा है। सरकारी हलकों से कंटेंट कोड की खुसफुसाहट लगातार सुनाई दे रही है। वही कोड जिसका मकसद पत्रकारिता की धार को पूरी तरह कुंद करना है और न्यूज़ चैनलों पर नकेल डालकर उन्हे पालतू बनाना है। कंटेंट कोड एक बेहद ख़तरनाक साजिश है और आंख मूंदकर इसका समर्थन करने से पहले ये समझ लेना चाहिए कि मीडिया और पूरे देश पर इसका असर क्या होगा।
निरंकुश सत्ता हमेशा ख़तरनाक होती है। निरंकुशता चाहे सरकार की हो, न्यायपालिका या फिर मीडिया की, वो अच्छी नहीं है। इतना हम भी समझते हैं कि किसी भी सभ्य समाज में मीडिया के लिए भी कोई ना कोई लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए। लेकिन बड़ा सवाल है-- ये लक्ष्मण रेखा कौन खीचेगा। हम बचपन से पढ़ते आये हैं कि लोकहित में सरकार के हर कदम पर नज़र रखना मीडिया की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र की ये एक बुनियादी शर्त है। लेकिन कंटेट कोड के ज़रिये उल्टी गंगा बहाने की तैयारी है। यानी मीडिया सरकार पर नहीं बल्कि सरकार मीडिया पर नज़र रखेगी। जब सरकार ये तय करने लगेगी कि पब्लिक इंट्रेस्ट क्या है, तो फिर तमाम चैनल दूरदर्शन जैसे बन जाएंगे। क्या पब्लिक कभी ये चाहेगी कि इस देश के सारे चैनल दूरदर्शन मार्का हो जायें।मैं दूरदर्शन जैसे सरकारी प्रसारण तंत्र के ख़िलाफ इसलिए नहीं हूं कि वो नीरस और उबाउ है, बल्कि असल में दूरदर्शन जनता के प्रति बिल्कुल भी उत्तरदायी नहीं है, जैसा कि इसे बताया जाता है।
मैं टीवी पत्रकारिता से जुड़े कुछ लोगों की सरकारी अधिकारियों से मुलाकात का एक दिलचस्प वाकया पेश करना चाहूंगा। इस मुलाकात में कुछ अधिकारियों ने ये शंका जाहिर की कि अपने काम करने के अंदाज़ से न्यूज़ चैनल दंगा करवा सकते हैं। इस पर मेरे एक पत्रकार मित्र ने जवाब दिया है-- ये क्षमता सिर्फ एक ही चैनल में है और वो है- दूरदर्शन। अपनी इस क्षमता का नमूना दूरदर्शन ने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के कवरेज़ में पेश कर दी थी, जब भयंकर सिख विरोधी दंगे भड़के थे। ज़ाहिर है, जब सत्ता से जुड़े ऐसी समझ वाले लोग हमारी निगरानी करेंगे तो फिर उनपर नज़र कौन रखेगा। 
हमें अपनी कमजोरियों का पता है। इसलिए न्यूज़ चैनलों ने सेल्फ रेगुलेशन की व्यवस्था बनाई है। कंधार विमान अपहरण कांड जैसे ही खत्म हुआ सरकार ने मीडिया को संयम बरतने के लिए धन्यवाद दिया। लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ उससे हमारे प्रति सरकार का नज़रिया बदल गया। क्या इसकी वजह ये थी कि न्यूज़ चैनल जनता के आक्रोश को सामने लाने का मंच बन गये? मुझे इसमें शक है। सच तो ये है कि पब्लिक के गुस्से की कहानी जब मीडिया के ज़रिये सामने आई और ये साफ हो गया कि पूरा तंत्र अपने नागरिकों की हिफाजत में नाकाम है, तो सरकार बुरी तरह हिल गई। जब हुक्मरान और सियासतदां हिले तो ऐसे-ऐसे बचकाने बयान सामने आये जो पहले कभी नहीं सुने गये। बतौर बानगी.. `ये लिपिस्टिक लाली लगाकर हमारी बहने प्रदर्शन करती हैं'-- 
इस तरह के बयान सत्ता और राजनीतिक तंत्र की नाकामी के अभूतपूर्व नमूने थे। 24 घंटे चलने वाले हमारे न्यूज़ चैनलों ने इन बयानों पर नेताओं की बखिया उधेड़कर रख दी। 
26 नवंबर के आतंकवादी हमले के बाद सरकार ने चैनलों को सुझाव दिया कि वो इसके असर को दबा दें। क्या ये जनता के सच जानने, देखने और समझने के अधिकार का हनन था? हमने भी ये महसूस किया कि मुंबई वारदात की कवरेज़ से जुड़ी तस्वीरे दिखाने से पहले उन्हे आम आदमी की संवेदनशीलता की कसौटी पर कसा जाना चाहिए था। लेकिन क्या ये सरकार तय करेगी कि आम आदमी की संवेदनशीलता कैसी और कितनी होनी चाहिए? क्या हम सुरक्षा में हुई ऐतिहासिक चूक की वो तस्वीर हमेशा के लिए मिटा दें जो एक अरब लोगों के दिलो-दिमाग़ में कैद हो चुकी हैं। या फिर हम ये तय करे कि 26-11 को हम कभी नहीं भूलेंगे और ऐसी घटनाओं की पुनरावृति नहीं होने देंगे।
अगर सरकार ने न्यूज़ चैनलों पर कंटेट कोड लागू कर दिया तो आप वो तस्वीरे और ख़बरें नहीं देख पाएंगे जिनका जिक्र मैंने अपने लेख की शुरुआत में किया था। समझा जा सकता है कि कंटेट कोड के क्या नतीजे होंगे और इससे क्या हासिल होगा। 
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प्रधामंत्री को पत्र 
letter to the prime minister from tv editors


12th January 2009


Mr. Manmohan Singh,
The Prime Minister of India.

Dear Manmohan Singhji,

We are sure you are aware that the proposed measures to gag the electronic media have caused immense disquiet in the journalistic fraternity and amongst all those who believe in the freedom of expression.

As editors, we believe that the media is the watchdog to keep democracy and democratic principles alive. If instruments of the state begin to regulate us, the damage to democracy and all stakeholders in democracy would be irreparable. It is all the more surprising that this is happening when you are directly holding charge of the ministry of Information and Broadcasting.

We are aware that our right to keep a vigil also brings with it a responsibility to function according to the highest standards of ethics and national interest. We firmly believe that in a democracy media needs self-regulation and not regulation. The electronic media fraternity has already made significant movement in this direction. In view of this, we urge you to immediately suspend the proposed measures.

We would like to personally meet and impress upon you the historical blunder that these measures would be. They would for all times taint this government as one that tried to impose draconian measures on media and forever remind us that the emergency is not yet a closed chapter in this country.

Hoping for an appointment at the earliest.


Best regards
1. Ajit Anjum, News 24
2. Arnab Goswani, Times Now
3. Ashutosh, IBN 7
4. Barkha Dutt, NDTV 24X7
5. Deepak Chaurasia, Star News
6. Milind Khandekar, Star News
7. N K Singh, ETV
8. Pankaj Pachauri, NDTV India
9. QW Naqwi, Aaj Tak
10. Rajdeep Sardesai, CNN IBN
11. Satish K Singh, Zee News
12. Shazi Zaman, Star News
13. Supriya Prasad, News 24
14. Vinay Tiwari, CNN IBN
15. Vinod Kapri, India TV

चौथे खंभे को धराशायी करने की साजिशः सुप्रिय प्रसाद
लोकतंत्र के सबसे चौथे खंभे को उखाड़ने की कोशिशें सिर उठा रही हैं। इस खंभे को कमजोर करने की कोशिश कोई दुश्मन नहीं कर रहा है। मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप थोपकर केंद्र सरकार उसे नख दंतविहीन बना देना चाहती है। अपने हक की लड़ाई लड़ रही जनता पर अगर सरकारी दमन हुआ और उसके फुटेज आपके पास हैं तो उसे आप दिखा नहीं पाएंगे। मुंबई पर हुए हमलों की कवरेज का बहाना बनाकर सरकार अपना छिपा एजेंडा लागू करना चाहती है। वो न्यूज चैनलों को अपना गुलाम बनाना चाहती है। अगर सरकार अपनी मंशा में कामयाब हो गई तो कोई दावा नहीं कर पाएगा कि सच दिखाते हैं हम। क्योंकि सच वही होगा, जो सरकार कहेगी। आपके फुटेज धरे के धरे रह जाएंगे। दंगा हो या आतंकवादी हमला। इमरजेंसी की हालत में सरकारी मशीनरी ज्यादातर मूक दर्शक बनी रहती है। सरकार चाहती है कि मीडिया भी उसी तरह मूक दर्शक बनी रहे। हाथ पर हाथ धरे तमाशा देखती रहे। ये वक्त हाथ पर हाथ धरकर बैठने का नहीं है। मीडिया पर सेंसरशिप लगाने की इस साजिश को नाकाम करने का वक्त है। (सुप्रिय प्रसाद न्यूज 24 चैनल के न्यूज डायरेक्टर हैं। )


पाक मीडिया हमसे ज्यादा आजादः विनोद कापड़ी
-सबसे ब़ड़ा सवाल ये है कि सरकार पर नजर रखने के लिए मीडिया बनी है या मीडिया पर नजर रखने के लिए सरकार बनी है। मीडिया का काम ही यही है कि वो सरकार पर नजर रखे, जनता की बात जनता तक पहुंचाए, सरकार को बताए कि वो ये गलत कर रही है। लेकिन यहां तो स्थिति बिल्कुल उलटी हो चुकी है। सरकार मीडिया को बता रही है कि ये गलत है और ये सही है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसे सही नहीं ठहराया जा सकता। आप पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की हालत देखिए। कितनी अराजकता है, लोकतंत्र नाम की चीज नहीं है, लेकिन वहां का मीडिया हमसे ज्यादा आजाद है। हमारी सरकार को क्या ये नहीं दिखाई देता। मीडिया पर सेंसरशिप का सरकारी ख्याल कतई लोकतांत्रिक नहीं है। ये प्रेस की आजादी पर हमला है।
(विनोद कापड़ी इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडिटर हैं)

सरकार को इतनी जल्दी क्यों हैं -आशुतोष
इस रेगुलेशन से सरकारी मंशा पर सवाल खड़े होते हैं..। क्योंकि टीवी चैनल पर कुछ दिनों पहले ही पूर्व चीफ जस्टिस जेएस वर्मा के नेतृत्व में एक इमरजेंसी गाइड लाइन बनाई गई थी। सारे चैनलों ने इसे लागू करने की बात भी कही थी, लेकिन सरकार ने इस इमरजेंसी गाइडलाइन को ही सिरे से नकार दिया, जबकि सरकार को इस गाइडलाइन के तहत चैनलों को काम करने देना चाहिए, जो उसने नहीं किया। सवाल ये है कि सरकार इतनी जल्दी में क्यों है? वो सेल्फ रेग्यूलेशन के खिलाफ क्यों है? ये एक बड़ा सवाल है। (आशुतोष आईबीएन 7 के मैनेजिंग एडिटर हैं)

प्रेस की आजादी पर हमला-सतीश के सिंह
आजाद भारत के इतिहास में प्रेस की आजादी पर इससे बड़ा अंकुश लगाने की, इससे बड़ी कोशिश कभी नहीं हुई। सरकार न सिर्फ टीवी बल्कि प्रिंट और वेब मीडिया पर भी अपना अंकुश लगाना चाहती है। सरकार की ये कोशिश किसी मीडिया सेंसरशिप से कम नहीं है। प्रेस के लिए बाकायदा कानून हैं। अगर कोई विवाद की स्थिति होती है तो संस्था और पत्रकारों पर मुकदमे चलते ही हैं, लेकिन सरकार अब जो करने की कोशिश कर रही है वो प्रेस की आजादी पर हमला है, फंडामेंटल राइट्स के खिलाफ है। (सतीश के सिंह जी न्यूज के एडिटर हैं)






Wednesday, January 7, 2009

भाजपा में ठाकुरवाद हावी-साहू

संजीत त्रिपाठी
रायपुर, जनवरी । भारतीय जनता पार्टी से 6 साल के लिए निष्कासित किए गए दुर्ग के सांसद ताराचंद साहू ने पार्टी को दिमागी रूप से दिवालिया करार देते हुए कहा है कि योजनापूर्वक षड़यंत्र कर उन्हें शिकार बनाया गया है क्योंकि पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पांडे को विधानसभा चुनाव में हरवाने के लिए तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, मुख्यमंत्री रमन सिंह समेत संगठन महामंत्री सौदान सिंह की मौन सहमति थी। उन्होंने अपने भावी कदमों का खुलासा न करते हुए कहा कि वे छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के तहत आंदोलन को गांव-गांव तक पहुंचाएंगे। दुर्ग सांसद ने कहा कि वे जगदलपुर सरगुजा को छोड़कर अन्य स्थानों पर भाजपा को नुकसान पहुंचाने में सक्षम हैं।
स्थानीय प्रेस क्लब में खचा-खच भरी संवाददाताओं की भीड़ में उन्होंने मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को 'निरीह प्राणी' बताते हुए कहा कि मुख्यमंत्री, पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ रविशंकर प्रसाद व सौदान सिंह ने षड़यंत्र कर उन्हें पार्टी से निकाला है। यह पहली ऐसी राजनैतिक पार्टी होगी जिसने चार साल पहले की घटनाओं पर कारण बताओ नोटिस जारी किया है। हालांकि एक घटना हाल में हुए विधानसभा चुनाव की है। 
उन्होंने कहा कि उन्होंने गैर छत्तीसगढ़ियों को डराने-भगाने या मारने की बात कभी नहीं कही बल्कि सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि वे शासन व शोषण की बातें सोचें भी नहीं दुर्ग सांसद ने आरोप लगाया कि छत्तीसगढ़ भाजपा में बाहरी लोग हाबी हैं जो इसे उपनिवेश मानकर शोषण कर रहे हैं। जो इनकी जी-हजूरी नहीं करते स्वाभिमान की बात करते हैं उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। जो छत्तीसगढ़ की माटी, स्वाभिमान व तरक्की की बातें करते हैं। उनके लिए कोई स्थान भाजपा में नहीं है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि पार्टी छोड़ने वाले समर्थकों की कतार लग जाएगी। वहीं जान का खतरा होने के सवाल पर उनका कहना था कि वे जान हथेली पर लेकर निकले हैं। उन्होंने कहा कि 6 महीने बाद यह एहसास होगा कि रमन कर गद्दी खतरे में है या नहीं। उन्होंने कहा कि जो रविशंकर प्रसाद खुद एक सरपंच नहीं बन सकते वे अगर हमें अनुशासन का पाठ पढाएंगे तो कतई बर्दाश्त नहीं होगा। 
  भाजपा में 'सिंह' लॉबी हावी
निष्कासित सांसद ने आरोप लगाया कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में 'सिंह' लॉबी हावी है। उन्होंने कहा कि पार्टी के दुर्दिन आ रहे हैं। एक तरफ भावी प्रधानमंत्री के रूप में अडवाणी को प्रोजेक्ट किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ पूर्व उप राष्ट्रपति शेखावत कह रहे हैं कि वे अडवाणी को प्रधानमंत्री पद पर उम्मीदवार नहीं बनने देंगे व खुद चुनाव लडेग़े। इसी से साबित होता है कि पार्टी का अंदरूनी हाल क्या है। 
रमन छत्तीसगढ़िया नहीं बल्कि प्रतापगढ़िया
पार्टी से निष्कासित किए गए ताराचंद साहू ने कहा कि मुख्यमंत्री रमन सिंह खुद छत्तीसगढ़िया नहीं बल्कि प्रतापगढ़िया हैं। उनका मूल स्थान यूपी का प्रतापगढ़ है। इसी तरह उनकी सूची में किसी अन्य नेता का भी नाम शामिल होने के सवाल पर उन्होंने भाजपा नेत्री सरोज पांडेय का नाम लिए बगैर स्वीकार किया कि हां एक महिला नेत्री के खिलाफ भी वे मुहिम चलाएंगे।

Thursday, January 1, 2009

टूटता नजर आ रहा है नेहरू का सपना

अंबरीश कुमार
रिहंद बांध (रेनुकूट), । देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का सपना अब यहां टूटता नजर आ रहा है। रिहंद बांध का उद्घाटन करते हुए जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘यह क्षेत्र भारत का स्विटजरलैंड बनेगा।’ विन्ध्य क्षेत्र में ऊज्रचल के नाम से मशहूर यह इलाका स्विटजरलैंड तो बना नहीं, बदहाली का शिकार अलग हो गया। इस क्षेत्र से लाखों लोग प्रदूषित हो रहे हवा और पानी का शिकार हो गए। करीब ७0 वर्ग मील में फैले गोविन्द बल्लभ पंत सागर का पानी इस कदर जहरीला हो रहा है कि अब यहां पर आंध्र प्रदेश से मंगा कर मछली खाई ज रही है। हवा में खतरनाक रसायनिक तत्वों की मात्रा बढ़ती ज रही है। नतीजतन जंगल से लाख के जरिए अपनी जीविका चलाने वाले आदिवासी बदहाल हो चुके हैं तो दूसरी तरफ फ्लोराइड की वजह से कुछ गांव में बच्चों से लेकर बूढ़े तक के हाथ-पांव टेढ़े हो चुके हैं। बिजली बनाने वाले बड़े कारखानों की फ्लाई ऐश आने वाले समय में परिस्थितिकी संतुलन बिगाड़ सकती हैं। पर यहां के कलेक्टर हीरामणि सिंह यादव इस सबसे अनजान हैं। यादव ने कहा-प्रदूषण के बारे में हमारे यहां एक विभाग है जो जनकारी रखता है। फिलहाल मेरी जनकारी में कुछ खास नहीं है।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने करीब पांच दशक पहले इस क्षेत्र में आकर ऊज्र क्षेत्र के लिए बड़ा सपना देखा था। इसी के चलते रिहंद बांध का निर्माण हुआ और इस बांध के लिए सीमेंट की फैक्ट्री भी पास में स्थापित की गई। बांध से जो बिजली बनेगी, उसकी खपत के लिए नेहरू जी ने बिड़ला घराने को यहां आमंत्रित किया। बिड़ला समूह ने यहां हिन्डाल्को की स्थापना की जिसको बहुत ही कम दरों पर बिजली दी गई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पौने दो पैसे प्रति यूनिट बिजली इस घराने को देने और सरकारी सीमेंट फैक्ट्री को बाजर दर पर बिजली मुहैया कराने के विरोध में आंदोलन भी किया था। पर अब डाला, चुर्क, चुनार जसी सरकारी सीमेन्ट फैक्ट्रियां निजी हाथों में ज चुकी हैं तो दूसरी तरफ निजी क्षेत्र मुनाफे की अंधी दौड़ में क्षेत्र के पर्यावरण के साथ बुरी तरह खिलवाड़ कर रहा है।
इस क्षेत्र में १९५४ में स्थापित वनवासी सेवा आश्रम शिक्षा, स्वास्थ्य, कुटीर उद्योग, पशुपालन के साथ पर्यावरण को लेकर भी काम कर रहा है। आश्रम की सर्वेसर्वा रागिनी बहन ने जनसत्ता से कहा, ‘कुछ वर्ष पहले ही हमने प्रदूषण की जंच पड़ताल के लिए एक प्रयोगशाला बनाई। इस प्रयोगशाला में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सौजन्य से एक अध्ययन भी हुआ जिससे पता भी चला कि गोविन्द बल्लभ पंत सागर का पानी बिजली कारखानों की फ्लाई ऐश के चलते बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है। बड़ी-बड़ी कंपनियां फ्लाई ऐश को सीधे पानी में बहा रही हैं। इनके जो फ्लाई ऐश पौंड(गड्ढे) बनाए, वे बांध के जलाशय काफी करीब हैं। इससे पर्यावरण के प्रति लोगों की नियत भी साफ हो जती है। काफी समय से तो आसपास के जंगलों में फ्लाई ऐश फेंका जने लगा है।’
इस क्षेत्र में जो बड़े कारखाने हैं, उनमें रेनु सागर पावर कंपनी, हिंडाल्को अल्यूमीनियम, एनटीपीसी की तीन इकाईयां, शक्तिनगर, रिहंद नगर और विंध्य नगर शामिल हैं। इसके अलावा कनौड़िया कैमिकल्स अपने उत्पादों के अलावा निजी उपयोग के लिए तापीय विद्युत का उत्पादन करता है। यह सब बड़े कारखाने इस क्षेत्र का पर्यावरण बिगाड़ने में पूरा योगदान दे रहे हैं। इनके अलावा तीन बड़ी कंपनियां एस्सार, रिलांयस और लैंको अपना योगदान देने का इंतजर कर रही हैं। एनटीपीसी के डिप्टी मैनेजर जनसंपर्क राहुल घोष ने कहा-हम लोग पर्यावरण का जितना ख्याल रखते हैं, वह निजी क्षेत्र नहीं रख सकता। हमने १३ लाख पेड़ इस क्षेत्र में लगाए हैं। अनपरा में पत्रकार शहरयार खान ने कहा-पूरे क्षेत्र के पर्यावरण को बिगाड़ने में कोई पीछे नहीं है। लैंको पावर प्रोजेक्ट के वाईस प्रेसिडेन्ट कन्स्ट्रक्शन वीके रस्तोगी तो साफ कहते हैं कि हमें बहनजी का आशीर्वाद प्राप्त है। सरकारी संरक्षण हो तो फिर किस चीज का डर। 
इस क्षेत्र में रिहंद बांध बनने के बाद से ही विस्थापन से लेकर स्वास्थ्य व प्रदूषण का मुद्दा उठता रहा है। पर खनन क्षेत्र से उगाही करने में हर वर्ग जुटा हुआ है। राजनीतिक पर्यावरण की कीमत पर वसूली कर रहे हैं तो पुलिस प्रशासन खनन से लेकर कोयले तक में अपना हाथ काला किए हुए हैं। मीडिया की भूमिका भी सवालों में है। जिले के पत्रकारों को छोड़ दीजिए, लखनऊ और दिल्ली के नामचीन खबरनवीसों के भी खनन के पट्टे हैं। इन पट्टों से हर महीने दो लाख से लेकर तीन लाख की आमदनी होती है। यही वजह है कि सोनभद्र में खनन विभाग के सामने खबरनवीसों की ज्यादा भीड़ होती है। 
सोनभद्र से जनसत्ता संवाददाता विजय शंकर चतुर्वेदी के मुताबिक बढ़ते प्रदूषण के चलते म्योरपुर और चोपन ब्लाक के दो दजर्न गांवों में महामारी की स्थिति है। रोहनिया डामर और पढ़नरवा गांव में बच्चे से लेकर बूढ़े तक फ्लोराइड के चलते विकलांग हो चुके हैं। किसी के हाथ-पैर टेढ़े हैं तो किसी की गर्दन। डाला, बिल्ली, चोपन और ओबरा के दो सौ क्रशर प्लांट के चलते लोग सांस की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। डाक्टर अरविन्द सिंह ने कहा-पिछले दस सालों में इस क्षेत्र में वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण की वजह से लोग सांस से लेकर पेट तक की बीमारियों के शिकार होते ज रहे हैं। गोविन्द बल्लभ पंत सागर का पानी पीने लायक नहीं है लेकिन लोगों के सामने उसके अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं है। जरूरत है कि इस बड़े जलाशय में बिजली कारखानों की फ्लाई ऐश और कैमिकल कारखाने के घातक रसायनों का उत्सजर्न फौरन रोका जए। जनसत्ता