Thursday, November 27, 2008

जाना एक फकीर का

 अंबरीश कुमार
 भारतीय राजनीति में पिछड़े तबके को राजनैतिक ताकत दिलाने और समाज में उनकी नई पहचान बनाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह नहीं रहे। अंतिम समय तक वे सामाजिक बदलाव के संघर्ष से जुड़े रहे। गुरूवार दोपहर करीब ढाई बजे उनका निधन हुआ जबकि बुधवार की रात जन मोर्चा के नेताओं से उनकी राजनैतिक चर्चा भी हुई। जन मोर्चा वीपी के नेतृत्व में जल्द ही उत्तरांचल में सम्मेलन करने ज रहा था तो १५ दिसम्बर को संसद घेरने का कार्यक्रम तय था। वीपी सिंह अंतिम समय तक सेज के नाम पर किसानों की जमीन औने-पौने दाम में लिए जने के खिलाफ आंदोलनरत थे। ७७ वर्ष की उम्र में १६ साल वे डायलिसिस पर रहकर लगातार आंदोलन और संघर्ष से जुड़े रहे। अगस्त,१९९0 में प्रधानमंत्री के रूप में जब उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की तो पूरे उत्तर भारत में राजनैतिक भूचाल आ गया था। मंडल के बाद ही हिन्दी भाषी प्रदेशों की जो राजनीति बदली, उसने पिछड़े तबके के नेताओं को नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया। बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान तक अगड़ी जतियों की जगह पिछड़ी जतियों ने लेना शुरू किया। बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति तो ऐसी बदली कि डेढ़ दशक बाद भी कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। उत्तर भारत की राजनीति बदलने वाले वीपी सिंह अगड़ी जतियों और उच्च-मध्यम वर्ग के खलनायक भी बन गए।
 यह भी रोचक है कि लालू यादव से लेकर मुलायम सिंह यादव तक को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाने का राजनैतिक एजंडा तय करने वाले वीपी सिंह एक बार जो केन्द्र की सत्ता से हटे तो फिर दोबारा सत्ता में नहीं आए। मंडल के बाद ही मंदिर का मुद्दा उठा जिसने भगवा ब्रिगेड को केन्द्र की सत्ता तक पहुंचा दिया। लोगों को शायद याद नहीं है कि लाल कृष्ण आडवाणी का रथ बिहार में जब लालू यादव ने रोक कर गिरफ्तार किया था तो देश के प्रधानमंत्री वीपी सिंह थे। इसी के चलते लालू यादव आज भी अल्पसंख्यकों के बीच अच्छा खासा जनाधार रखते हैं। २५ जून, १९३१ को जन्म लेने वाले वीपी सिंह इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी मंत्रिमंडल तक में शामिल रहे। कांग्रेस से उनका टकराव बोफोर्स को लेकर हुआ था जिसने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। आज भी बोफोर्स का दाग कांग्रेस के माथे पर से हट नहीं पाया है।
 कुछ दिन पहले ही वीपी सिंह की कविता की एक लाइन प्रकाशित हुई थी-रोज आइने से पूछता हूं, आज जाना तो नहीं है। पता नहीं आज उन्होंने यह सवाल किया था या नहीं पर वे आज चले गए। राजनीति के बाद उनका ज्यादातर समय कविता और पेंटिंग में गुजरता था। अगड़ी जतियों के वे भले ही खलनायक हों लेकिन पिछड़ी जतियों, दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों के वे हमेशा नायक ही रहे। मुलायम सिंह के शासन में उन्होंने दादरी के किसानों का सवाल उठाया तो वह प्रदेश व्यापी आंदोलन में तब्दील हो गया। इससे पहले बोफोर्स का सवाल उठाकर जब वे उत्तर प्रदेश के गांव-गांव में घूमें तो नारा लगता था-राज नहीं फकीर है, देश की तकदीर है। वीपी सिंह लगातार आंदोलनरत रहे और समाज पर उनकी छाप अमिट रहेगी। चाहे मंडल का आंदोलन हो या फिर मंदिर आंदोलन के नाम पर सांप्रदायिक ताकतों का विरोध करना या फिर किसानों के सवाल पर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलख जगाना, इन सब में वीपी सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा। लोकनायक जय प्रकाश नारायण के बाद वीपी सिंह दूसरे नेता रहे जिन्होंने कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा। यही वजह है कि बाद में उनके समर्थकों ने उन्हें जन नायक का खिताब दिया। पर उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का था। जिसके बाद उन्हें मंडल मसीहा कहा जने लगा। यह बात अलग है कि मंडल के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं ने उन्हें हाशिए पर ही रखा। यही वजह है कि उत्तर भारत की राजनीति को बदलने वाले वीपी सिंह कई वर्षो से किसी भी सदन के सदस्य नहीं रहे। आज भी उनके परिवार का कोई सदस्य विधानसभा या संसद में नहीं है। उनके पुत्र अजेय सिंह पिछले कुछ समय से किसानों के सवाल को लेकर सामने आ चुके हैं पर किसी राजनैतिक दल से उनका कोई संबंध नहीं रहा है।
 वीपी सिंह से करीब १५ दिन पहले फोन पर बात हुई तो उन्होंने किसानों के सवाल को लेकर आंदोलन की योजना की बारे में बताया था। यह भी कहा था कि वे जल्द ही विदर्भ के किसानों के सवाल को लेकर न सिर्फ वहां जएंगे बल्कि वहां धरना भी देंगे। इससे पहले दादरी के मुद्दे को लेकर उन्होंने उत्तर प्रदेश में व्यापक आंदोलन छेड़ा। डेरा डालो-घेरा डालो आंदोलन के जरिए उन्होंने देवरिया से दादरी तक किसानों को लामबंद किया था। इसके अलावा बुंदेलखंड में जब किसानों की खुदकुशी का सिलसिला शुरू हुआ तो वीपी सिंह कई क्षेत्रों में गए। बाद में जन मोर्चा और किसान मंच ने वामदलों के साथ बुंदेलखंड में आंदोलन भी छेड़ा। एक दौर में उनके आंदोलन के साथ राष्ट्रीय लोकदल, भाकपा, माकपा, भाकपा माले, इंडियन जस्टिस पार्टी और कई छोटे-छोटे दल जुड़ गए थे। मुलायम सिंह के खिलाफ राजनैतिक माहौल बनाने में वीपी सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह बात अलग है कि छोटे-छोटे दलों के नेताओं की बड़ी महत्वाकांक्षाओं को वे संभाल नहीं पाए। और इसका फायदा विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को मिला।
 कुछ महीने से उनकी तबियत काफी खराब चल रही थी पर पिछले २0-२५ दिन से वे स्वस्थ थे। सारी तैयारी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, पंजब और महाराष्ट्र में किसान आंदोलन को लेकर चल रही थी। महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के ११ जिलों में वीपी सिंह का किसान मंच पिछले एक साल से सक्रिय है। अब दिसम्बर से महाराष्ट्र के किसानों को लेकर नए सिरे से आंदोलन की तैयारी थी। हालांकि आंदोलन का नेतृत्व अजेय सिंह ने संभाल लिया था पर वीपी सिंह की उपस्थिति से ही राजनैतिक माहौल बनता। वीपी सिंह के अचानक गुजर जने से देश के किसानों के आंदोलन को गहरा ङाटका लगा है।
 वीपी सिंह १९६९ से ७१ तक विधायक रहे। १९७१ में वे पांचवी लोकसभा के लिए चुने गए। १९८0 में वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और १९८२ तक इस पद पर रहे। १९८३ से १९८८ तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे। १९८४ से १९८७ तक राजीव गांधी मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री रहे। बाद में वे १९८७ में रक्षा मंत्री बने।जनसत्ता से

 
  

ताज होटल में १७ घंटे

आलोक तोमर
बुधवार की शाम सात बजे मुंबई हवाई अड्डे पर पंद्रह दिन में दूसरी बार उतरने के बाद पहला इरादा तो सीधे फिल्म सिटी जाने का था जहां से एक फिल्म निर्माता मित्र ने टिकट भेजा था। मगर इसे संयोग कहा जाए, दुर्भाग्य कहा जाए, विडंबना कहा जाए या नियति कहा जाए कि उनका मोबाइल फोन बंद आ रहा था और गाड़ी लेने के लिए नहीं आई थी।

यह भी एक संयोग था कि एक मित्र टाउन यानी कोलाबा इलाके मेंं जा रहे थे और वक्त काटने और बहुत दिनों बाद मिले मित्र से गपशप करने के इरादे से उनके साथ ही चल दिया। फिल्म निर्माता मित्र का फोन संयोग से तब आया जब मैं अपने अचानक मिले मित्र के साथ ही उनके एक परिचित के बेटे के जन्मदिन समारोह में शामिल होने ताज होटल के रूफ टॉप पर चला गया।

जॉर्ज पंचम के स्वागत के लिए बनाए गए गेटवे ऑफ इंडिया और उन्हीं के सत्कार के लिए लगभग एक सदी पहले बने इस स्मारक नुमा होटल को देख कर हमेशा एक अलौकिक आतंक मन में आता रहा हैं। इमारत ऐसी कि बस जाने को जी चाहे और दाम ऐसे कि दिल टूट जाए। उस समय पौने नौ बजे थे और पार्टी अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी। लोग आते रहे और अचानक एक बदहवास सज्जन ने करीब दस बजे अपना मोबाइल लहराते हुए लड़खड़ाती आवाज में ऐलान किया कि सासून डॉक के गेट पर धमाका हुआ है और गोली चल रही है। उन्हें किसी का एसएमएस मिला था और उनकी कल्पना थी कि शायद अबू सालेम जेल से फरार हो गया है जबकि यह तो सबको पता था कि आर्थर रोड कोलाबा से काफी दूर है।

अचानक कई लोगों के मोबाइल बजने लगे। फिर कोई कुछ कहता इसके पहले नीचे सड़क से आतिशबाजी जैसी आवाज आई और जो झांक सकते थे उन्होंने झांक कर देखने की कोशिश की और पार्टी में लग गए। मगर पांच मिनट में पुलिस का साइरन सुनाई दिया और इसके बाद होटल के फ्लोर मैनेजर अपनी टाई वाली फाइव स्टार पोशाक में लगभग हांफते हुए आए और उनके चेहरे पर आतंक बगैर किसी इबारत के लिखा हुआ था। उन्होंने पार्टी के आयोजक से बात की और फिर मौजूद मिनी आर्केस्ट्रा के माइक से लगभग फुसफुसाते हुए कहा कि नीचे हॉल खाली है और आपकी पार्टी का इंतजाम वहां किया जा रहा है। आसमान साफ था इसलिए यह न सिर्फ अटपटा बल्कि अप्रत्याशित भी लगा। मगर यह साफ था कि सब कुछ ठीक ठाक नहीं हैं।

अगर कोई संदेह की कसर बाकी थी तो भाग कर आए सुरक्षार्मियों ने दूर कर दी। वे बगैर किसी से पूछे बताए सामान उठवाने लगे और उनके चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी। फिर मोबाइलों पर फोन आने लगे कि पुलिस ने ताज होटल का रास्ता जाम कर दिया है। अब समझ में आने के लिए कुछ बाकी नहीं था और पार्टी के आयोजक ने नन्हे बच्चों के विरोध के बावजूद पार्टी को बर्खास्त कर दिया। सभी लोग सर्विस लिफ्ट और कई लोग सीढ़ियों से नीचे हॉल में थे और वहां प्लाजमा टीवी चल रहा था जिस पर साफ साफ बताया जा रहा था कि मुंबई में अभूतपूर्व आतंकवादी हमला हो चुका है।

मौत से डर नहीं लगता, यह तो मैं नहीं कहूंगा लेकिन हमेशा से तमन्ना थी कि कभी अपना जहाज अपहरण हो जाए या ऐसी ही किसी हालत में फंस जाऊं तो लिखने का मौका मिलेगा। मौका अब मिल गया था। पत्रकार का कार्ड दिखा कर बाहर निकलने की कोशिश की तो एक लंबे तगड़े सिख गार्ड ने रास्ता रोक दिया और कहा कि किसी को बाहर जाने की परमिशन नहीं हैं। फिर कमरे में मौजूद स्पीकर पर अपने आपको मैनेजर कहने वाली आवाज गूंजी और कहा कि कुछ अवांछित लोग होटल में घुस आए हैं जिनसे आपको खतरा हो सकता है इसलिए कृपया कमरे में ही रहिए और अगर कोई जरूरत हो तो रिसेप्शन को फोन करिए। लगभग सभी मॉडलों को चार्ज करने वाला चार्जर भी भेज दिया गया था। अचानक टीवी भी बंद हो गया। रिसेप्शन पर फोन किया तो गोलमोल सा जवाब मिला कि कोई तकनीकी गड़बड़ी है और उसे ठीक करवा रहे हैं। उस समय रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे और टीवी सबको बता चुका था कि न सिर्फ ताज होटल और कोलाबा बल्कि ओबेरॉय होटल और ताज के पीछे की सड़क के एक रेस्टोरेंट में भी गोलियां चली है।

फिर मैनेजर कमरे में आए और उनके पीछे खाने के पैकेट ले कर बहुत सारे लोग आए थे और मैनेजर ने खटकेदार अंग्रेजी में बहुत उदास माफी मांगते हुए कहा कि आपकी पार्टी बर्बाद हो जाने का हमे अफसोस है लेकिन आप चिंता न करे। आपकी सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी हमारी है। मेरे सहित कई लोगों का सिगरेट पीने का मन था और मैनेजर ने न सिर्फ डन हिल के पैकेट भिजवाए बल्कि सिगरेट पीने वालों के लिए बगल का कमरा भी खुलवा दिया। व्हिस्की और दूसरे पेय भिजवाए और साथ में संदेश भी कि इन सबका कोई भुगतान नहीं लिया जाएगा।

सब लोग धीरे धीरे परिस्थिति से समझौता करने लगे थे लेकिन एक अव्यक्त आतंक सबके भीतर मौजूद था। रिसेप्शन को कई फोन किए गए लेकिन टीवी नहीं चला तो नहीं चला। अब पता चला है कि आतंकवादियों को बाहर क्या हो रहा है इसकी जानकारी न हो जाए, इसलिए टीवी बंद किया गया था। मुंबई में दहशत कितनी है इसकी जानकारी तो क्या मिलती लेकिन लगभग ऊंघते हुए लोगों को एक वेटर भाई ने लगभग जगा दिया और ऐलान किया कि होटल में आग लग गई है। दरअसल हम लोग जिस कमरे में थे उसके पड़ोस में ही गुंंबद में आग लगाई गई थी और धुएं की गंध खिड़की खोलने पर अंदर तक आ रही थी। मौत से तो कोई नहीं बच सकता लेकिन झुलस कर मरना कोई बेहतर मौत नहीं हैं। मगर कोई विकल्प भी तो नहीं था।

तब तक रात को शायद एक बजे होटल के भीतर से फायरिंग और धमाकों की आवाजे आने लगी और जन्मदिन मनाने आए ज्यादातर लोगों को भरोसा हो गया कि उनका मरण दिन आ गया है। मुझे तो सिर्फ इतना लगा कि अगर बच निकले तो एक हिट फिल्म की पटकथा अपने पास आ गई है। लोगों ने एक दूसरे से परिचय करना शुरू किया और आखिरी इच्छा बताने की तर्ज पर यह भी कहना शुरू कर दिया कि उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां क्या रह गई है। तब तक बाहर फायर ब्रिगेड की क्रेन नजर आने लगी थी और बहुत सारे आतुर मित्र मांग कर रहे थे कि उन्हे इसी के जरिए उतार लिया जाए। कुछ इसके लिए पैसा देने को भी राजी थे। मगर पैसा देने से मौत तो मिल जाती है मगर जिंदगी नहीं मिलती ।

आफत में वक्त कैसे बीतता है यह पहली बार पता चला। धमाकों, गोलियों की आवाजों और तरह तरह की कल्पनाओं के बीच बगैर कुछ खाए पिए सुबह की रोशनी कैसे प्रकट हो गई यह सामने समुद्र की लहरों में लाल रंग देख कर ही पता लगा। बीच बीच में होटल के वेटर हाल चाल पूछ जाते थे और खबर भी दे जाते थे कि गड़बड़ असल में किस मंजिल पर हो रही है। अपनी मंजिल हर बार सुरक्षित निकलती थी। यह जरूर था कि होटल के किचन और तहखाने में आतंकवादियों का कब्जा था इसलिए खाने पीने की गुंजाइश खत्म हो गई थी।

इसके बाद एक अंतहीन प्रतीक्षा के अलावा कुछ नहीं था। जीवन में पहली बार बैठे बैठे सोफे पर झपकी ली और नींद खुली तो पहली तमन्ना अखबार देखने को हुई क्योंकि आदत कभी नहीं जाती। मगर जहां सिर्फ मौत कीे आहटे आ रही हो, वहां अखबार कहां से आता। हम खुद खबर बन चुके थे और इस खबर का आखिरी पैरा लिखा जाना अभी शेष था। दिन में दो बजे के बाद सुरक्षाकर्मी आए और लोगों को एक एक कर के गैलरी और फिर सर्विस लिफ्ट के जरिए पहली मंजिल तक और फिर काफी शॉप के रास्ते पीछे से होते हुए एक तंग गलियारे से निकाल कर बाहर सड़क पर ले आए जहां मुंबई की सरकारी बेस्ट बसें इंतजार कर रही थी। गनिमत है कि मीडिया के दोस्त वहां नहीं थे वरना सबसे ज्यादा आश्चर्य उन्हें यह होता कि खबर लिखने वाला खबर कैसे बन रहा है।

Thursday, November 20, 2008

एक और नंदीग्राम बनता लालगढ़


रीता तिवारी
कोलकाता। पश्चिम बंगाल के माओवादी सक्रियता वाले पश्चिम मेदिनीपुर जिले के लालगढ़ और झारग्राम समेत कई आदिवासी बहुल इलाके नंदीग्राम में बदलते जा रहे हैं। बीते दो नवंबर को केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के काफिले पर बारूदी सुरंग के विस्फोट के जरिए हमले के बाद मामले की जांच के लिए पुलिस की कथित ज्यादातियों के खिलाफ इलाके के आदिवासी संगठनों ने राज्य सरकार और प्रशासन के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। दो हफ्ते बाद भी यह आंदोलन जस का तस है। सरकार को इससे निपटने का कोई रास्ता नहीं नजर आ रहा है। आदिवासियों ने तमाम सड़कें या काट दी हैं या फिर उन पर पेड़ रख कर आवाजाही ठप कर दी है। नतीजतन इलाके का संपर्क देश के बाकी हिस्सों से कट गया है। सरकार की दलील है कि इस आंदोलन के पीछे माओवादियों का हाथ है। लेकिन वह इससे आगे कुछ कर नहीं पा रही है। स्थानीय संगठनों ने पुलिस ज्यादातियों के लिए मुख्यमंत्री से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने को कहा है।
झारग्राम अनुमंडल के बेलपहाड़ी, जामबनी, ग्वालतोड़, गड़वेत्ता और सालबनी स्थानों पर अनेक जगह सड़कें काट दी गई हैं और 600 पेड़ों को काट कर गिरा दिया गया है। जिला प्रशासन की दलील है कि झारखंड से लगभग सौ संदिग्ध माओवादी लालगढ़ के कठपहाड़ी इलाके में घुस आए हैं। पूरे क्षेत्र में प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। 
लालगढ़ मुद्दे पर अब राजनीति भी गरमाने लगी है। पक्ष व विपक्ष दोनों खेमे के नेता परस्पर विरोधी बयान दे रहे हैं। वाममोर्चा का नेतृत्व करनेवाली माकपा ने जहां आदिवासी आंदोलन के पीछे माओवादियों का हाथ बताया है वहीं तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने आंदोलन का समर्थन किया है। बनर्जी ने लालगढ़ मुद्दे पर भी केंद्र से राज्य की वाममोर्चा सरकार को बर्खास्त करने की मांग की है। उन्होंने सरकार के खिलाफ कड़ा कदम नहीं उठाने के लिए केंद्र के प्रति नाराजगी जतायी है। ममता बनर्जी ने कहा है कि पुलिस अधीक्षक राजेश कुमार सिंह व माकपा की मिलीभगत के कारण स्थानीय ग्रामीण आतंकित है। बाध्य होकर निर्दोष ग्रामीणों को आंदोलन का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। तृणमूल कांग्रेस ग्रामीणों के आंदोलन का समर्थन करती है। उन्होंने लालगढ़ समस्या के लिए मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को भी जिम्मेदार ठहराया और उनसे सार्वजनिक रूप से माफी मांगने की मांग की। 
माकपा राज्य सचिव विमान बोस ने भी दूसरे अंदाज में लालगढ़ मुद्दे पर केंद्र पर निशाना साधा है। बोस ने कहा कि आदिवासियों के आंदोलन को केंद्र से भी समर्थन मिल रहा है। राज्य को बांटने की साजिश चल रही है। बोस ने कहा कि वामपंथी दलों ने जब केंद्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो झारखंड मुक्ति मोर्चा ने सशर्त समर्थन दिया। शर्त के मुताबिक अब पुरुलिया, बांकुड़ा, और पश्चिम मेदिनीपुर को झारखंड में शामिल करने की कोशिश की जा रही है। इसमें केंद्र की भी मदद है। 
लालगढ़ में राजनीतिक दबदबा रखनेवाले वाममोर्चा के महत्वपूर्ण घटक दल भाकपा को अपने पैरों तले की जमीन खिसकने का भय है। भाकपा राज्य परिषद के एक नेता का कहना है कि माओवादियों को पकड़ने के नाम पर पुलिस ने आदिवासियों के साथ ज्यादती की जिससे मसला गंभीर हो गया। आदिवासियों के साथ पुलिस की ज्यादती होती है तो इसकी भी जांच होनी चाहिए। भाकपा राज्य परिषद की दो दिवसीय बैठक के बाद प्रदेश सचिव मंजू कुमार मजूमदार ने कहा कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भंट्टाचार्य के काफिले को लक्ष्य कर सालबनी में बारूदी सुरंग विस्फोट की पार्टी निंदा करती है लेकिन दोषियों की धर-पकड़ के नाम पर आदिवासियों पर किसी तरह का जुल्म नहीं होना चाहिए। लालगढ़ में आदिवासी महिलाओं के साथ दु‌र्व्यवहार की भी खबर है। यदि इस तरह की घटना हुई है तो उसकी गंभीरता से जांच होनी चाहिए।
सीआईडी ने इस मामले में गिरफ्तार कुछ लोगों में से सात के खिलाफ दर्ज मुकदमे को वापस लेने व जेल से रिहा करने की बात कही है। इसके लिए उसने कोर्ट में याचिका दायर की है और कहा है कि गिरफ्तार सात लोगों के खिलाफ विस्फोट में शामिल होने के पर्याप्त सबूत व तथ्य नहीं मिले हैं जिसकी वजह से यह फैसला किया गया है। सीआईडी सूत्रों ने बताया कि मंत्रियों के काफिले पर हमले के मामले में दस लोगों को गिरफ्तार किया गया था जबकि एक फरार है। इनमें से तीन लोगों को हथियार के साथ गिरफ्तार किया गया था। इसी बीच लालगढ़ समेत जिले के विभिन्न इलाकों में इन लोगों को गिरफ्तारी को लेकर आंदोलन शुरू हो गया जो फिलहाल जारी है। सीआईडी के स्पेशल आपरेशन ग्रुप के एक अधिकारी ने बताया कि गिरफ्तार आरोपियों में से सात के खिलाफ गहन पड़ताल की गयी लेकिन ऐसा एक भी सबूत हाथ नहीं लगा जिससे यह प्रमाणित होता हो कि वे विस्फोट में शामिल थे। उन लोगों के खिलाफ पहले से भी पुलिस के रजिस्टर में ऐसी कोई आपराधिक व उग्रवादी गतिविधियों से जुड़े मामले नहीं दर्ज हैं। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुये सात लोगों को इस मामले से मुक्त करने का फैसला किया गया है।
सामाजिक कार्यकर्ता एवं ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका महाश्वेता देवी ने कहा है कि सरकार लालगढ़ में आदिवासियों को माओवादी बताकर अत्याचार नहीं करे। अगर प्रशासन अत्याचार करेगा तो आदिवासी अपने अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे। उन्होंने कहा कि सरकार बिना किसी साक्ष्य के किस आधार पर लालगढ़ वआसपास के क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों को माओवादी करार दे रही है जबकि जिंदल के स्टील प्लांट के लिए लगभग चार सौ एकड़ भूमि आदिवासियों की बिना अनुमति के ले ली गई है। अगर आदिवासी अपनी जिंदगी जंगल के सहारे और प्राकृति के करीब रहकर गुजारना चाहते हैं तो सरकार उन्हें भूमि से बेदखल क्यों कर रही है। उन्होंने कहा कि नंदीग्राम व सिंगुर की घटनाओं के बावजूद सरकार सचेत नहीं हुई है। लालगढ़ को भी रणक्षेत्र बनाने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने कहा कि बड़ी कंपनियों में आदिवासियों को नौकरी नहीं मिलती और अधिकांश नौकरियां सत्तारूढ़ दलों के समर्थकों के पास चली जाती उन्होंने कहा कि अपने आपको वामपंथी कहने वाली सरकार को आमलोगों से अधिक चिंता पूंजीपतियों की है।
इसबीच, कोलकाता के दौरे पर आए केन्‍द्रीय इस्पात और रसायन मंत्री रामविलास पासवान ने सालबनी में दो अक्‍टूबर को अपने काफिल पर हुए माओवादी हमले का पूर्वानुमान नहीं लगा पाने के लिए पूरी तरह पश्चिमी मिदनापुर के स्थानीय प्रशासन को जिम्‍मेदार ठहराया है। राष्ट्रीय खनिज विकास निगम और पश्चिम बंगाल खनिज विकास और वाणिज्य निगम के बीच सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये जाने के बाद पत्रकारों से बातचीत में पासवान ने कहा कि इसकी वजह से स्थानीय प्रशासन द्वारा कानून व्यवस्था की स्थिति का सही आकलन नहीं किया जाना और जरुरी कदम नहीं उठाया जाना हैं।
उन्होंने कहा कि इस घटना के बाद अतिविशिष्ट व्यक्तियों के बीच संवादहीनता रही, जिससे पूरे घटनाक्रम में भ्रम की स्थिति बनी। उन्होंने कहा कि मुठभेड़ के बाद मुख्‍यमंत्री ने मुझे उच्चशक्ति के तार के बारे में बताया, जबकि बाद में बारुदी सुरंग की पुष्टि हुई।
दो नवम्‍बर को सालबनी में इस्पात संयंत्र का उद्घाटन करने के बाद लौट रहे पासवान, राज्यमंत्री जितिन प्रसाद, उद्योगपति सज्जन जिंदल और मुख्‍यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य उस समय बाल-बाल बचे थे, जब माओवादियों ने उनके काफिल पर बारुदी सुंरग में विस्फोट करके हमला कर दिया था।
www.janadesh.in

Wednesday, November 19, 2008

सरायमीर के दजर्न भर नौजवान गायब

अंबरीश कुमार
लखनऊ, नवम्बर। बाटला हाउस मुठभेड़ के दो महीने पूरे होने पर आज सरायमीर क्षेत्र में मुसलिम समुदाय के लोगों ने काली पट्टी बांधकर विरोध दिवस मनाया। संजरपुर गांव में मुसलिम समुदाय के लोगों ने आरोप लगाया कि आसपास के गांव के करीब दजर्न भर नौजवान इस घटना के बाद से गायब हैं जिनका कोई अता-पता नहीं चल रहा। बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद पुलिस की कार्रवाई से जो दहशत फैली, उसका असर करीब दजर्न भर गांव पर पड़ा। संजरपुर से जो नौजवान गायब हुए हैं, उनमें डाक्टर शाहनवाज भी शामिल है जो बाटला हाउस मुठभेड़ में गिरफ्तार सैफ का भाई है। इसके अलावा सलमान, साजिद, खालिद, असदुल्ला, राशिद और मोहम्मद आरिज का बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद से पता नहीं चल रहा है। असदुल्ला कोटा में पढ़ रहा था तो मोहम्मद आरिज मुजफ्फरनगर में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था। इसके अलावा एक नौजवान उस्मान जिसकी फोटो का स्कैच आतंकवादियों के स्कैच से मिलता-जुलता था, वह दहशत के मारे अर्ध विक्षिप्त हो गया और उसकी मां को ब्रेन हेमरेज हो गया। उसे लोगों ने कहा था कि जल्द ही पुलिस आतंकवादी होने के शक में पकड़ने वाली है।
बाटला हाउस मुठभेड़ की छाया से अभी भी संजरपुर गांव मुक्त नहीं हो पाया है। इस गांव की पहचान आतंकवादियों की नर्सरी के रूप में बना दी गई है। पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइट्स यहां पर अल्पसंख्यकों के बीच कुछ समय से काम कर रहा है। पीयूएचआर के कार्यकारिणी सदस्य शाहनवाज आलम, और राजीव यादव ने कहा-आज संजरपुर के गांव के लोगों ने विरोध दिवस मनाकर बाटला हाउस मुठभेड़ की न्यायिक जंच की मांग दोहराई। इसके अलावा संजरपुर व आसपास के गांव से गायब हुए करीब दजर्न भर नौजवानों को तलाश करने की गुहार लगाई। गांव वालों का आरोप है कि एसटीएफ ने दहशत फैलाने वाले हथकंडे अभी छोड़े नहीं हैं। गांव के आसपास बिना नंबर प्लेट के टाटा सूमो गाड़ी अक्सर घूमती रहती हैं। इन गाड़ियों में हाकी, डंडे, रस्से व बड़े-बड़े बैग रखे रहते हैं। 
बाटला हाउस घटना के बाद से सरायमीर क्षेत्र के समूचे मुसलिम समुदाय की पहचान ही संदिग्ध हो गई है। पुलिस का सांप्रदायिक तौर तरीका अभी बदला नहीं है। आज ही सरायमीर के रहने वाले एजज अहमद जब अपने घर पर हुई डकैती की रपट लिखाने सरायमीर थाने गए तो वहां के एसओ कमलेश्वर सिंह ने सांप्रदायिक गालियां दी और आतंकवादी कहकर भगा दिया। पुलिस का यह रवैया नया नहीं है। इसे लेकर अल्पसंख्यक समुदाय में नाराजगी भी बढ़ती ज रही है। पीयूएचआर के प्रवक्ता सत्येन्द्र सिंह ने कहा-बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद से ही पुलिस का रवैया और कट्टर हो गया है। इस पूरे मामले में केन्द्र की यूपीए सरकार भी कम दोषी नहीं है। सरकार के मंत्री तक इस मामले की न्यायिक जंच की मांग कर चुके हैं पर कोई पहल नहीं हुई। इसका खामियाज कांग्रेस को चुनाव में भी भुगतना पड़ सकता है। संजरपुर का ही एक छात्र वसीउद्दीन लखनऊ विश्वविद्यालय में बीए करने के बाद सिविल सर्विस में जने का सपना संजोए था पर बाटला हाउस की घटना के बाद से वह लगातार दहशत में है और पढ़ाई बुरी तरह प्रभावित हो चुकी है। दूसरी तरफ लखनऊ में ही ११वीं का छात्र मुराद इस घटना से काफी डरा हुआ है। उसका कहना है कि पुलिस ने उससे कम उम्र के साजिद को जब आतंकवादी बताकर मार डाला तो कहीं वह भी पुलिस का निशाना न बन जए।
   jansatta se