Thursday, November 27, 2008

ताज होटल में १७ घंटे

आलोक तोमर
बुधवार की शाम सात बजे मुंबई हवाई अड्डे पर पंद्रह दिन में दूसरी बार उतरने के बाद पहला इरादा तो सीधे फिल्म सिटी जाने का था जहां से एक फिल्म निर्माता मित्र ने टिकट भेजा था। मगर इसे संयोग कहा जाए, दुर्भाग्य कहा जाए, विडंबना कहा जाए या नियति कहा जाए कि उनका मोबाइल फोन बंद आ रहा था और गाड़ी लेने के लिए नहीं आई थी।

यह भी एक संयोग था कि एक मित्र टाउन यानी कोलाबा इलाके मेंं जा रहे थे और वक्त काटने और बहुत दिनों बाद मिले मित्र से गपशप करने के इरादे से उनके साथ ही चल दिया। फिल्म निर्माता मित्र का फोन संयोग से तब आया जब मैं अपने अचानक मिले मित्र के साथ ही उनके एक परिचित के बेटे के जन्मदिन समारोह में शामिल होने ताज होटल के रूफ टॉप पर चला गया।

जॉर्ज पंचम के स्वागत के लिए बनाए गए गेटवे ऑफ इंडिया और उन्हीं के सत्कार के लिए लगभग एक सदी पहले बने इस स्मारक नुमा होटल को देख कर हमेशा एक अलौकिक आतंक मन में आता रहा हैं। इमारत ऐसी कि बस जाने को जी चाहे और दाम ऐसे कि दिल टूट जाए। उस समय पौने नौ बजे थे और पार्टी अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी। लोग आते रहे और अचानक एक बदहवास सज्जन ने करीब दस बजे अपना मोबाइल लहराते हुए लड़खड़ाती आवाज में ऐलान किया कि सासून डॉक के गेट पर धमाका हुआ है और गोली चल रही है। उन्हें किसी का एसएमएस मिला था और उनकी कल्पना थी कि शायद अबू सालेम जेल से फरार हो गया है जबकि यह तो सबको पता था कि आर्थर रोड कोलाबा से काफी दूर है।

अचानक कई लोगों के मोबाइल बजने लगे। फिर कोई कुछ कहता इसके पहले नीचे सड़क से आतिशबाजी जैसी आवाज आई और जो झांक सकते थे उन्होंने झांक कर देखने की कोशिश की और पार्टी में लग गए। मगर पांच मिनट में पुलिस का साइरन सुनाई दिया और इसके बाद होटल के फ्लोर मैनेजर अपनी टाई वाली फाइव स्टार पोशाक में लगभग हांफते हुए आए और उनके चेहरे पर आतंक बगैर किसी इबारत के लिखा हुआ था। उन्होंने पार्टी के आयोजक से बात की और फिर मौजूद मिनी आर्केस्ट्रा के माइक से लगभग फुसफुसाते हुए कहा कि नीचे हॉल खाली है और आपकी पार्टी का इंतजाम वहां किया जा रहा है। आसमान साफ था इसलिए यह न सिर्फ अटपटा बल्कि अप्रत्याशित भी लगा। मगर यह साफ था कि सब कुछ ठीक ठाक नहीं हैं।

अगर कोई संदेह की कसर बाकी थी तो भाग कर आए सुरक्षार्मियों ने दूर कर दी। वे बगैर किसी से पूछे बताए सामान उठवाने लगे और उनके चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी। फिर मोबाइलों पर फोन आने लगे कि पुलिस ने ताज होटल का रास्ता जाम कर दिया है। अब समझ में आने के लिए कुछ बाकी नहीं था और पार्टी के आयोजक ने नन्हे बच्चों के विरोध के बावजूद पार्टी को बर्खास्त कर दिया। सभी लोग सर्विस लिफ्ट और कई लोग सीढ़ियों से नीचे हॉल में थे और वहां प्लाजमा टीवी चल रहा था जिस पर साफ साफ बताया जा रहा था कि मुंबई में अभूतपूर्व आतंकवादी हमला हो चुका है।

मौत से डर नहीं लगता, यह तो मैं नहीं कहूंगा लेकिन हमेशा से तमन्ना थी कि कभी अपना जहाज अपहरण हो जाए या ऐसी ही किसी हालत में फंस जाऊं तो लिखने का मौका मिलेगा। मौका अब मिल गया था। पत्रकार का कार्ड दिखा कर बाहर निकलने की कोशिश की तो एक लंबे तगड़े सिख गार्ड ने रास्ता रोक दिया और कहा कि किसी को बाहर जाने की परमिशन नहीं हैं। फिर कमरे में मौजूद स्पीकर पर अपने आपको मैनेजर कहने वाली आवाज गूंजी और कहा कि कुछ अवांछित लोग होटल में घुस आए हैं जिनसे आपको खतरा हो सकता है इसलिए कृपया कमरे में ही रहिए और अगर कोई जरूरत हो तो रिसेप्शन को फोन करिए। लगभग सभी मॉडलों को चार्ज करने वाला चार्जर भी भेज दिया गया था। अचानक टीवी भी बंद हो गया। रिसेप्शन पर फोन किया तो गोलमोल सा जवाब मिला कि कोई तकनीकी गड़बड़ी है और उसे ठीक करवा रहे हैं। उस समय रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे और टीवी सबको बता चुका था कि न सिर्फ ताज होटल और कोलाबा बल्कि ओबेरॉय होटल और ताज के पीछे की सड़क के एक रेस्टोरेंट में भी गोलियां चली है।

फिर मैनेजर कमरे में आए और उनके पीछे खाने के पैकेट ले कर बहुत सारे लोग आए थे और मैनेजर ने खटकेदार अंग्रेजी में बहुत उदास माफी मांगते हुए कहा कि आपकी पार्टी बर्बाद हो जाने का हमे अफसोस है लेकिन आप चिंता न करे। आपकी सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी हमारी है। मेरे सहित कई लोगों का सिगरेट पीने का मन था और मैनेजर ने न सिर्फ डन हिल के पैकेट भिजवाए बल्कि सिगरेट पीने वालों के लिए बगल का कमरा भी खुलवा दिया। व्हिस्की और दूसरे पेय भिजवाए और साथ में संदेश भी कि इन सबका कोई भुगतान नहीं लिया जाएगा।

सब लोग धीरे धीरे परिस्थिति से समझौता करने लगे थे लेकिन एक अव्यक्त आतंक सबके भीतर मौजूद था। रिसेप्शन को कई फोन किए गए लेकिन टीवी नहीं चला तो नहीं चला। अब पता चला है कि आतंकवादियों को बाहर क्या हो रहा है इसकी जानकारी न हो जाए, इसलिए टीवी बंद किया गया था। मुंबई में दहशत कितनी है इसकी जानकारी तो क्या मिलती लेकिन लगभग ऊंघते हुए लोगों को एक वेटर भाई ने लगभग जगा दिया और ऐलान किया कि होटल में आग लग गई है। दरअसल हम लोग जिस कमरे में थे उसके पड़ोस में ही गुंंबद में आग लगाई गई थी और धुएं की गंध खिड़की खोलने पर अंदर तक आ रही थी। मौत से तो कोई नहीं बच सकता लेकिन झुलस कर मरना कोई बेहतर मौत नहीं हैं। मगर कोई विकल्प भी तो नहीं था।

तब तक रात को शायद एक बजे होटल के भीतर से फायरिंग और धमाकों की आवाजे आने लगी और जन्मदिन मनाने आए ज्यादातर लोगों को भरोसा हो गया कि उनका मरण दिन आ गया है। मुझे तो सिर्फ इतना लगा कि अगर बच निकले तो एक हिट फिल्म की पटकथा अपने पास आ गई है। लोगों ने एक दूसरे से परिचय करना शुरू किया और आखिरी इच्छा बताने की तर्ज पर यह भी कहना शुरू कर दिया कि उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां क्या रह गई है। तब तक बाहर फायर ब्रिगेड की क्रेन नजर आने लगी थी और बहुत सारे आतुर मित्र मांग कर रहे थे कि उन्हे इसी के जरिए उतार लिया जाए। कुछ इसके लिए पैसा देने को भी राजी थे। मगर पैसा देने से मौत तो मिल जाती है मगर जिंदगी नहीं मिलती ।

आफत में वक्त कैसे बीतता है यह पहली बार पता चला। धमाकों, गोलियों की आवाजों और तरह तरह की कल्पनाओं के बीच बगैर कुछ खाए पिए सुबह की रोशनी कैसे प्रकट हो गई यह सामने समुद्र की लहरों में लाल रंग देख कर ही पता लगा। बीच बीच में होटल के वेटर हाल चाल पूछ जाते थे और खबर भी दे जाते थे कि गड़बड़ असल में किस मंजिल पर हो रही है। अपनी मंजिल हर बार सुरक्षित निकलती थी। यह जरूर था कि होटल के किचन और तहखाने में आतंकवादियों का कब्जा था इसलिए खाने पीने की गुंजाइश खत्म हो गई थी।

इसके बाद एक अंतहीन प्रतीक्षा के अलावा कुछ नहीं था। जीवन में पहली बार बैठे बैठे सोफे पर झपकी ली और नींद खुली तो पहली तमन्ना अखबार देखने को हुई क्योंकि आदत कभी नहीं जाती। मगर जहां सिर्फ मौत कीे आहटे आ रही हो, वहां अखबार कहां से आता। हम खुद खबर बन चुके थे और इस खबर का आखिरी पैरा लिखा जाना अभी शेष था। दिन में दो बजे के बाद सुरक्षाकर्मी आए और लोगों को एक एक कर के गैलरी और फिर सर्विस लिफ्ट के जरिए पहली मंजिल तक और फिर काफी शॉप के रास्ते पीछे से होते हुए एक तंग गलियारे से निकाल कर बाहर सड़क पर ले आए जहां मुंबई की सरकारी बेस्ट बसें इंतजार कर रही थी। गनिमत है कि मीडिया के दोस्त वहां नहीं थे वरना सबसे ज्यादा आश्चर्य उन्हें यह होता कि खबर लिखने वाला खबर कैसे बन रहा है।

1 comment:

Unknown said...

तोमर साहब, यार झूट लिखने की भी कोई हद होती है