Tuesday, February 15, 2011

बारूद के ढेर पर सिक्किम


गंगटोक से कुमार प्रतीक
देश का सबसे खूबसूरत और छोटा पर्वतीय राज्य सिक्किम अपनी हरी भरी वनस्‍पति, सुंदर प्राकृतिक घाटियों और विशाल पर्वतों के लिए प्रसिद्ध है। यह राज्य तिब्बत की सीमा से सटा होने की वजह रणनीतिक तौर पर भी बेहद महत्वपूर्ण है। बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियों, फूलों के गुच्‍छों से लदे मैदान, चमकदार बहुबिरंगी संस्‍कृति और मनोरंजक त्‍यौहार के साथ यहां की वनस्‍पति और जीव-जंतु की विवधता इस राज्य की खासियत है।
पूर्वी हिमालय में तीसरी बड़ी पर्वतमाला कंचनजंगा (8534 मीटर) के नीचे बसा सिक्किम उत्तरमें तिब्बत, पूर्व में भूटान, पश्चिम में नेपाल और दक्षिण में पश्चिम बंगाल से घिरा है.। यहाँ के निवासी कंचनजंगा को अपना रक्षाकवच और प्रमुख देवता मानते हैं। उन्नत शिखरों, हरी-भरी वादियों, तेज बहती नदियों और पहाड़ी मैदानों से भरे सिक्किम को पर्यटकों के लिए स्वर्ग कहा जा सकता है। लेकिन यह राज्य भी पड़ोसी पश्चिम बंगाल के पर्वतीय पर्यटन केंद्र दार्जिलिंग कीतरह ही खतरे में है। हर साल बरसात के सीजन में पहाड़ धंसने की वजह से सिक्किम को दुनियाको बाकी हिस्से से जोड़ने वाला नेशनल हाइवे बंद हो जाता है और इस राज्य का संपर्क कट जाता है.।विशेषज्ञों का कहना है कि मिट्टी का कटाव और इसका संरक्षण ही जमीन धंसने की प्रमुख वजह है। लेकिन इसके अलावा एक और वजह यह है कि हिमालय की इस पूर्वी रेंज के पहाड़ अपेक्षाकृतजवान है। इनकी बनावट में होने वाले बदलावों की वजह से भूगर्भीय ढांचा लगातार बदलता रहता है और अब तक स्थिर नहीं हो सका है। इसके अलावा देश के दूसरे पर्वतीय इलाकों की तरह यहां होने वाली पेड़ों की अंधाधुंध कटाई भी मिट्टी खिसकने की एक प्रमुख वजह है। पेड़ों की कटाई केचलते मिट्टी नरम हो जाती है. बरसात के सीजन में पहली बारिश होते ही यह मिट्टी अपने साथआसपास के इलाके को समेटते हुए नीचे गिरने लगती है और नीचे बनी सड़क ही इसका पहला शिकार बनती है।
प्रोफेसर रोजर बिलहाम, विनोद के. गौड़ और पीटर मोलनाम नामक भूविज्ञानियों ने हिमालय सेसमिल हाजार्ड शीर्षक अपने शोध पत्र में कहा था कि इस बात के एकाधिक संकेत मिले हैं कि हिमालय के इस इलाके में एक बड़ा भूकंप कभी भी आ सकता है।उससे लाखों लोगों की जावन खतरे में पड़ सकता है। उन्होंने कहा था कि हिमालय के छह क्षेत्रों में रिक्टर स्केल पर आठ या उससे ज्यादा के भूकंप आने का अंदेशा है। दार्जिलिंग-सिक्किम रेंज भी इनमें शामिल है. इस बात का प्रबल अंदेशा है कि हिमालय के जिन इलाकों में बीते पांच-सात सौ वर्षों में कोई बड़ा भूकंप नहीं आया है वहां अब ऐसा हो सकता है।
पश्चिम बंगाल में सिलीगुड़ी स्थित हिमालयन नेचर एंड एडवेंचर फाउंडेशन नामक एक गैर-सरकारी संगठन, जो पहाड़ों को बचाने की दिशा में काम कर रहा है, के संयोजक अनिमेष बसु कहते हैं कि हिमालय का पूर्वी हिस्सा अभी अपनी किशोरावस्था में है। इसलिए इसकी चट्टानें अबी दूसरे हिस्सों की तरह ठोस नहीं है। यह बात इसे भूकंप के प्रति बेहद संवेदनशील बनाती है. वे कहते हैं कि पर्वतीय इलाके की तमाम सड़कें ब्रिटिश शासनकाल के दौरान बनी थी. तब उन पर चलने वाले वाहनों की तादाद बहुत कम थी. अब यह तादाद सौ गुने से ज्यादा बढ़ गई है. नतीजतन पहाड़ों पर बोझ भी बढ़ा है. इस बोझ को नहीं सह पाने की वजह से भी पहाड़ियों के पैर उखड़ रहेहैं।.
अतीत में बड़े भूकंप का कोई इतिहास नहीं होने की वजह से पहाड़ियों की यह दार्जिलिंग-सिक्किम रेंज भूकंप के प्रति बेहद संवेदनशील हो गई है। कौंसिल फार साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) के सेंटर फार मैथेमेटिकल एंड कंप्यूटर सिमलेशन की एक टीम ने बीते कुछ वर्षों के अपने अध्ययन के बाद रिपोर्ट में कहा है कि इन पहाड़ियों के नीचे धीरे-धीरे दबाव बन रहा है। टीम के नेता प्रोफेसर गौड़ के मुताबिक, इलाके में कभी भी कोई बड़ा भूकंप आ सकता है। जमीन के नीचे दबी ऊर्जा जब बाहर निकलेगी तब भूकंप से जिस पैमाने पर विनाश होगा, उसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, जमीन के नीचे भारतीय व यूरेशियाई प्लेटों के बीच टकराव की वजह से विशालकाय चट्टानें दक्षिण की ओर बढ़ती हैं. इन चट्टानों को एक-दूसरे से अलग करने वाली प्लेटों के जगह बदलने से ही उनके नीचे दबी ऊर्जा के बाहर निकलने की वजह से भूकंप आते हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि सिक्कम में तिस्ता नदी पर बनने वाली पनबिजली परियोजनाओं के तहत बनाए जा रहे बांध भी विनाश को न्योता दे रहे हैं. पहाड़ों का सीना चीर कर बनने वाले यह बांध ऊर्जा के विभिन्न रूपों में किसी छोटे से इलाके में केंद्रित कर रहे हैं। तिस्ता को दुनिया में सबसे ज्यादा तलछट वाली नदी माना जाता है. बांधों के लिए बने जलाशयों में भारी मात्रा में तलछट जमा होगी. यह ऊर्जा बाहर निकली तो इलाके का मटियामेट होना तय है।. ग्लोबल वार्मिंग की वजह से नदी के उद्गमस्थल पर बने ग्लोशियरों के लगातार पिघलने की वजह से आगामी कुछ वर्षों के दौरान तिस्ता का जलस्तर बढ़ने का अंदेशा है. ऐसे में यह खतरा और बढ़ जाता है। भूविज्ञानी हिमालय की अरुणाचल और मध्य नेपाल रेंज को अपेक्षाकृत सुरक्षित मानते हैं। इसकी वजह यह है कि उन दोनों इलाकों में तो क्रमशः 1950 और 1934 में बड़े पैमाने पर भूकंप आ चुके हैं. लेकिन दार्जिलिंग-सिक्कम व भूटान रेंज में कोई बड़ा भूकंप नहीं आया है. हिमालय के भूकंप के प्रति संवेदनशील होने को ध्यान में रखते हुए सवाल यह नहीं है कि भूकंप आएगा या नहीं. असली सवाल यह है कि भूकंप कब आएगा. तिस्सा पर बनने वाले बांधों ने इस इलाके में भूकंप की आहट तेज कर दी है।
लेकिन इसकी गति का अनुमान लगाने का कोई जरिया फिलहाल नहीं है। तिस्ता पर पनबिजली परियोजनाओँ का काम शुरू होने के बावजूद लोगों को जागरूक बनाने के लिए कहीं कोई अभियान शुरू नहीं हो सका है। कुछ संगठन इन बांधों के खिलाफ आवाज जरूर उठा रहे हैं. लेकिन उनकी वह आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह गई है। अनिमेष बसु कहते हैं कि इलाके में तेजी से होने वाले अवैध निर्माण और बड़े-बड़े बांध हिमालय पर बेहद प्रतिकूल असर डाल रहे हैं. इलाके की भूगर्भीय परिस्थितियों का ख्याल किए बिना हम अपनी जरूरतों के मुताबिक मनमाने तरीके से पेड़ व पहाड़ काट रहे हैं. अब हमसे बदला लेने की बारी प्रकृति की है। बसु कहते हैं कि सिक्किम तक रेल की पटरियां बिछाने के रेल मंत्रालय का फैसला और जलढाका,झालंग और नेवड़ावैली जंगलों से होकर राजधानी गंगटोक तक वैकल्पिक सड़क बनाने का सेना का प्रस्ताव सिर पर मंडरा रहे विनाश को न्योता देने के लिहाज से ताबूत की आखिरी कील साबित हो सकते हैं. पूरा पर्वतीय इलाका विनाश की कगार पर खड़ा है।लेकिन किसी को इस ओर ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं है।
बसु कहते हैं कि अगर अब भी इस खतरे को भांप कर बहुमंजिली इमारतों, बड़े बांधों के निर्माण और पहाड़ों की कटाई पर अंकुश नहीं लगाने के लिए कोई ठोस कानून नहीं बनाया गया तो खतरा कई गुना बढ़ जाएगा. भूकंप के प्रति संवेदनशील इलाकों में पहले से हुए निर्माण को मजबूत करने की दिशा में भी पहल करनी चाहिए। उनका कहना है कि इस इलाके में रिक्टक स्केल पर छह की तीव्रता वाला कोई भूकंप भी भारी तबाही ला सकता है। तब तमाम बांध व बहुमंजिली इमारतें ताश के पत्तों की ढह जाएगी। ऐसी परिस्थिति में होने वाले जान-माल के नुकसान का पूर्वानुमान संभव ही नहीं है।सरकार, नगरपालिकाओं व तमाम संगठनों को मिल कर इस खतरे से बचने के उपायों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. बसु सवाल करते हैं क्या कोई इस जिम्मेवार पहल के लिए सामने आएगा ? आखिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ?
डिसास्टर मैनेजमेंट पत्रिका से साभार .अन्य महत्वपूर्ण रिपोर्ट के लिए क्लिक करें http://www.disastermgmt.in/

Thursday, February 3, 2011

बुंदेलखंड में बने विदर्भ जैसे हालात

अंबरीश कुमार
लखनऊ , । सूखे और भूखे बुंदेलखंड में विदर्भ जैसे हालत पैदा हो रहे है । पिछले तीस दिन तीन किसान खुदकुशी कर चुके है। वर्ष २००९ २०१० का का आंकड़ा भी कोई कम नही था और इस साल की शुरुआत तीन किसानो की खुदकुशी से हो चुकी है । कड़ाके की ठंढ के बाद दिन में बढती गरमी ने किसानो की चिंता बढ़ा दी है । गेंहूँ , अरहर , मसूर और मटर की फसल सूख रही है । दूसरी तरफ अर्जुन सहायक परियोजना के चलते किसानो में आक्रोश बढ़ रहा है । इस परियोजना के दायरें में 6700 किसानों की 30-56 हजार हैक्टेयर जमीन और कुल व 112 गांव आ रहें है। जिन किसानो की जमीन इस परियोजनाक दायरें में आ गई है वे काफी निराश है । जमीन तो जा ही रही मुआवजा भी नेताओं ,अफसरों और दलालों की मेहरबानी पर है । किसान राम विशाल ने अफसरों के सामने आत्मदाह किया तो जिले में सियासी हलचल हो गई है। कबरई बांध व झिर सहेबा गांव में पीएसी तैनात कर दी गई थी ।
बुंदलखंड के एनी जिलों के भी हालात खराब हो रहे है । उरई में पानी का संकट बढ़ रहा है जिसके चलते किसान फसल खराब होने की आशंका से परेशान है । पिछले साल पानी का इतना संकट नही था पर इस बार गेंहू , मटर, अरहर और मसूर बोने वाले किसान पानी की कमी से जूझ रहे है ।जिसके चलते फिर खुदकुशी का सिलसिला तेज हो सकता है । साल की शुरुआत में ही उरई के शांति नगर निवासी मंटोले अहिरवार (उम्र ६५) वर्ष की मौत आर्थिक तंगी के चलते हुई। जिस दिन इनकी मौत हुई उस दिन घर में खाने के लिए एक किलो आटा भी नही था। परिवार में दो पुत्र व उनकी पत्नियों के साथ कुल 11 लोगों का परिवार था। कमाई का कोई ठोस जरिया नही था। इसके बाद एक फरवरी 2011 को ग्राम हुसेपुरा जागीर निवासी किसान करन सिंह (उम्र ३५ वर्ष) की कम खेती होने के साथ-साथ पिछले कुछ वर्षो से भी पैदावार भी ठीक नही हो रही थी। जिसके चलते वह मजदूरी के लिए आगरा चला गया था। वहां भी स्थाई मजदूरी नही मिली। लौटकर वह अपने गांव आ गया। उसके परिवार में पिता, पत्नी के साथ तीन बेटियां भी उसकी कमाई पर निर्भर थी। आमदनी कम खर्च ज्यादा होने की वजह से उसने यमुना नदी में डूबकर खुदकुशी कर ली।
ललितपुर जिले में सरकारी रिकार्ड के मुताबिक वर्ष 2010 में 163 लोगों ने आत्महत्या की। जिसमें फांसी, जहरीला पदार्थ व ट्रेन से कूद कटकर खुदकुशी की। इसमें 100 लोग तो ऐसे हैं जिन्होनें परेशान होकर मौत को गले लगा लिया। 41 व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी मौत जहरीला पदार्थ खाकर हुई, 13 व्यक्तियों ने ट्रेन से कटकर अपनी जान दी, 4 व्यक्तियों ने आग लगाकर आत्महत्या कर ली। बुंदेलखंड में सर्वाधिक मौतें ऐसी ही हैं। यह जनपद में आता है इसके शहरी क्षेत्र को हम छोड़ दें तो बाकी क्षेत्र में बेहद गरीबी हैं खेती की सिचाई के लिए कुएं व तालाबों के सहारे खेती होती है।
उरई से सुनील शर्मा के मुताबिक जिले में नहरों के दायरें में जनपद की दस फीसदी भूमि है। जिसकी सिंचाई हो पाती है । जनपद के अधिकांश तालाब अप्रैल में सूखने लगते हैं। बारिश के पानी से यह जल स्रोत भरे जाते हैं। बुंदेलखंड के डार्क जोन में यह जिला आता है आज भी वहां का आलम ज्यों का त्यों है। इस बार फरवरी में ही पानी का संकट शुरू हो गया है जिससे हालात बिगड़ने लगे है । पानी को लेकर किसान धरना प्रदर्शन भी कर चुके है और तंग आकर जान देने लगे है । बुंदेलखंड में अभी यह हाल है तो आगे का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है ।
भाकपा नेता अशोक मिश्र ने कहा - बुंदेलखंड के हालत खराब हो रहे है । एक महीने में तीन किसान खुदकुशी कर चुके है और गर्मी के चलते फसल चौपट होने की आशंका है जिससे किसान बर्बाद हो जाएगा । इस मुद्दे को लेकर पार्टी बुंदेलखंड में किसानो को लामबंद करने जा रही है ।
जबकि भाजपा प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा - केंद्र और प्रदेश सरकार की नीतियों के चलते ही बुंदेलखंड का किसान खुदकुशी पर आमादा है । कही गरीबी के चलते तो कही खेती की जमीन छीने जाने की वजह से किसान जान दे रहा है । जब अधिग्रहण की एक नीति बन गई तो पूरे प्रदेश में उस लागू किया जाना चाहिए । राजनैतिक दलों के इन आरोपों में दम है । सरकार अगसर भेदभाव नही करती तो करछना में किसान की जान नही जाती जो आंदोलन कर रहे थे । यही आरोप महोबा में भी लगाया जा रहा है जहाँ किसानो की खुदकुशी का सिलसिला शुरू हो चूका है ।
महोबा से जनसत्ता संवादाता हरिश्चंद्र के मुताबिक धसान और कें नदी को जोड़ने वाली अर्जुन सहायक परियोजना को लेकर किसान डरे हुए है । जिन किसानो की जमीन इस परियोजना में गई है उन्हें खेती की जमीन का मुआवजा भी ढंग से नही मिल रहा है । जिसका जैसा जुगाड़ वैसा मुआवजा मिल रहा है । किसी को लाख रुपए बीघा तो किसी को चार लाख रुपए । किसान अकाल और सूखे से पहले सी ही बेहाल है अब जमीन जा रही है तो जान दे दे रहा है । इस परियोजना से महोबा, हमीरपुर, बांदा जिलों के 112 गांव प्रभावित हो रहें है। कबरई बांध की उंचाई बढ़ा कर उसे परियोजना से जोड़ा जा रहा है। केन नदी का पानी रोक कर लहचूरा बांध महोबा से हरपालपुर , शिवबहार और चंद्रावल होकर बांदा पहुंचेगा । इस परियोजना को लेकर किसान नाराज है । झिर सहेबा गांव के राम विशाल उर्फ बब्बू के आत्मदाह के बाद ग्राम निवासी पुष्पेंद्र कुमार, मुकेश, गोपाल, राजाराम, प्रभू, रतनलाल ने यहां कहा कि किसानों की मागों को स्वीकार किए बिना राज्य सराकर के नुमाइंदे आगे कोई कार्य न करें। हमारी मागें न माने जाने पर हजारों किसान आत्मदाह कर लेगें।
jansatta