Thursday, March 19, 2009

वाम राजनीती में हाशिये पर गई महिला

रीता तिवारी  
कोलकाता। पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों में महिला उम्मीदवारों की चुनावी ट्रेन एक बार फिर छूट गई है। महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण देने वाले विधेयक की पुरजोर वकालत करने वाले वामपंथी दलों ने राज्य की 42 लोकसभा सीटों पर महज दो महिलाओं को ही टिकट दिया है, जो पिछली बार के मुकाबले आदे से भी कम है। कहां तो अबकी बीते चुनावों के मुकाबले इसकी तादाद बढ़ने की उम्मीद थी, लेकिन उसमें भी कटौती हो गई है। चौदह सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस ने दो महिलाओं को टिकट दिया है। भाजपा ने एक महिला को मैदान में उतारा है। दूसरी ओर, नंदीग्राम व सिंगुर जैसे मुद्दों और कांग्रेस के साथ तालमेल व फिल्मी सितारों के सहारे मैदान में उतरी तृणमूल कांग्रेस ने 28 में से पांच सीटों पर महिलाओं को मैदान में उतारा है। राज्य में सत्तारूढ़ वाममोर्चा के नेता महिला उम्मीदवारों का टोटा होने का रोना रो रहे हैं।
वाममोर्चा ने वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों में पांच महिलाओं को टिकट दिया था। इनमें से तीन चुनाव जीत गई थी। लेकिन अबकी उनमें से भी एक का पत्ता साफ हो गया है। 42 में 32 सीटों पर लड़ने वाली माकपा ने पिछली बार जीतने वाली तीन में दो महिलाओं को दोबारा टिकट दिया है। इनमें से ज्योतिर्मयी सिकदर कृष्णनगर और सुष्मिचता बारूई विष्णुपुर आरक्षित सीट से लड़ेंगी। पिछली बार जीतने वाली मिनती सेन को अबकी टिकट नहीं दिया गया है। मोर्चा के बाकी तीन घटकों-आरएसपी, फारवर्ड ब्लाक और भाकपा ने तो दस में किसी भी सीट पर किसी महिला को टिकट नहीं दिया है। विडंबना यह है कि राज्य में माकपा के महिला सदस्यों की तादाद 30 हजार से ऊपर है। लेकिन पार्टी के नेताओं की दलील है कि उनको कोई योग्य महिला उम्मीदवार ही नहीं मिली।
माकपा के वरिष्ठ नेता व राज्यसभा सदस्य श्यामल चक्रवर्ती की दलील है कि हर सीट का महत्व है। इसलिए हमने उम्मीदवारों के चयन में काफी सावधानी बरती। वे कहते हैं कि काफी विचार-विमर्श के बाद जीत सकने लायक उम्मीदवारों को ही टिकट दिए गए। पार्टी के एक अन्य नेता कहते हैं कि राज्य में ऐसी योग्य महिलाओं की कमी है जो लोकसभा चुनाव लड़ कर जीत सकें। उनकी दलील है कि विधानसभा, नगर निगम व पंचायत चुनावों में इसकी भरपाई कर दी जाएगी। पिछली बार जीतने वाली माकपा की महिला नेता मिनती सेन, जिनको अबकी टिकट नहीं मिला है, ने कहा है कि उको टिकट नहीं देने का फैसला पार्टी का है। लेकिन वे कहती हैं कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई जानी चाहिए। 
माकपा के नेता भले कुछ भी दलील दें, यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच प्रस्तावित तालमेल से वोट घटने के अंदेशे के चलते ही माकपा ने कम से कम महिला उम्मीदवारों को टिकट देने का फैसला किया। यह सही है कि तालमेल बाद में हुआ और मोर्चा के उम्मीदवारों की सूची पहले जारी हुई। लेकिन उस समय तक तालमेल की संभावना तो बढ़ ही गई थी और पार्टी के तमाम नेता इसके चलते वोट और सीटें घटने का अंदेशा जता रहे थे।
कांग्रेस ने जिन दो महिलाओं को टिकट दिया है उनमें से एक दीपा दासमुंशी को तो अपने पति के कोटे के तहत ही रायगंज से टिकट मिला है। रायगंज प्रिय रंजन दासमुंशी की पारंपरिक सीट रही है। दीपा भी उसी लोकसभा क्षेत्र के तहत पड़ने वाली विधानसभा सीट से पिछली बार चुनाव जीत चुकी हैं। अपनी लंबी बीमारी की वजह से दासमुंशी अबकी चुनाव लड़ने की हालत में नहीं हैं। इसलिए वंशवाद की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस ने उनके बदले उनकी पत्नी को टिकट दियाा है। इसके अलावा बर्दवान-दुर्गापुर सीट से नरगिस बेगम को टिकट दिया गया है। भाजपा ने प्रदेश महिला शाखा की प्रमुख ज्योत्सना बनर्जी को कोलकाता दक्षिण संसदीय सीट पर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के खिलाफ मैदान में उतारा है। बीते चुनावों में भाजपा व तृणमूल साथ थी। लेकिन अब दोनों के रास्ते अलग हो गए हैं। इसलिए भाजपा ने ममता के खिलाफ एक महिला को ही उतार दिया है।
जहां तक तृणमूल कांग्रेस की बात है उसमें ममता के अलावा फिल्मी अभिनेत्री शताब्दी राय मैदान में हैं। डा.काकोली घोष दस्तीदार भी पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ेंगी। कांग्रेस के साथ तालमेल के तहत 28 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी ने पांच महिलाओं को मैदान में उतारा है। ममता कहती हैं कि हमारी कथनी व करनी में फर्क नहीं है। हमारी सूची में लगभग 15 फीसद महिलाओं के नाम हैं। लेकिन वाममोर्चा ने तो आधे फीसद से भी कम महिलाओं को टिकट दिया है। पार्टी की दलील है कि कांग्रेस के साथ तालमेल के बाद दोनों की सूची को जोड़ने पर कुल 42 में से सात सीटों पर महिलाएं चुनाव लड़ रही हैं। जबकि वाममोर्चे ने इतनी ही सीटों पर दो महिलाओं को टिकट दिया है। यानी हमने मोर्चा के मुकाबले साढ़े तीन गुना ज्यादा महिलाओं को टिकट दिया है।

Wednesday, March 18, 2009

बिहार की हालत में पहुंच जाएगी उत्तर प्रदेश कांग्रेस

जनादेश ब्यूरो 
लखनऊ,  मार्च। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बिहार के पर है। कांग्रेस के आधारहीन नेताओ के चलते पार्टी को यहाँ झटका लग सकता है।  उत्तर प्रदेश की ८0 लोकसभा सीटों में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के रवैये से आजिज आकर अंतत: कुछ 5 सीटें ऐसी छोड़ी जिस पर वह उम्मीदवार नहीं खड़ा करेगी। किसी भी राष्ट्रीय दल की ऐसी दुर्गति पहले कभी नहीं हुई। इसका संदेश अब उत्तर प्रदेश में नीचे तक जा  रहा है और माना जा  रहा है कि कांग्रेस को इस बार कहीं और तगड़ा ङाटका न लग जए। 
यह तब हुआ है जब केन्द्र में लगातार पांच साल तक उपलब्धियां गिनाने वाली उसकी सरकार रही है। कांग्रेस ने अगर गठबंधन धर्म का सबक नहीं लिया तो इस बार वह सत्ता से बाहर भी जा सकती है। कमोवेश सभी राज्यों में क्षेत्रीय दल इस राष्ट्रीय दल पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं। गठबंधन न होने की दशा में पार्टी को आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में तगड़ा ङाटका लग सकता है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन की चर्चा से जो माहौल बना, उसका फायदा अब कांग्रेस के बजय समाजवादी पार्टी को ज्यादा हो सकता है। उत्तर प्रदेश से करीब तीन दजर्न सीटें जीतने वाली समाजवादी पार्टी के हौसले बुलंद हैं। राज्य की ज्यादातर सीटों पर बहुजन समाज पार्टी से वह सीधा मुकाबला करने जा रही है। पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने आज सपा मुख्यालय में जुटे उलेमा से कम से कम ५0 सीटें जिताने की अपील की। 
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के संभावित गठबंधन में कांग्रेस को १७ सीटें देने के लिए मुलायम सिंह तैयार हो चुके थे और इसमें भी बढ़ोत्तरी की गुंजइश का संकेत दिया था। पर इसी बीच कांग्रेस ने २४ उम्मीदवारों की सूची जरी कर सपा नेतृत्व को भड़का दिया। इस सूची में आधा दजर्न उम्मीदवार ऐसे हैं जिनकी हार सुनिश्चित है। बाकी बचे १८ जिसके लिए सपा कमोवेश तैयार थी। पर यह गठबंधन दोनों पार्टियों के नेताओं की मूंछ की लड़ाई के चलते लटकता नजर आ रहा है। बिहार में सहयोगी दलों से मिली न्यूनतम सीटों के बावजूद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। बिहार की तीन सीटों के मुकाबले उत्तर प्रदेश की १८ सीटों का हिस्सा सम्मानजनक माना जता। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जीत की संभावनाओं पर कांग्रेस के प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह ने कहा-पार्टी ने जो २४ सीटें घोषित की हैं, उसमें दो-तिहाई पर हमारी जीत तय है। 
दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने कहा-एक तरफ बिहार कांग्रेस को उसके सहयोगी दल तीन सीट दे रहे हैं, वहीं हम उत्तर प्रदेश में १७ सीटें देने का पहले ही एलान कर चुके थे। बिहार में इन दोनों दलों के नेता लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान केन्द्र सरकार में प्रभावशाली मंत्री रहे। तब यह हिस्सा मिला है। दूसरी तरफ मुलायम सिंह यादव जिन्होंने सरकार बचाई, उसकी उदारता की तरफ किसी कांग्रेसी का ध्यान नहीं जता। सपा धर्म निरपेक्ष वोटों का बंटवारा रोकने के लिए गठबंधन पर जोर दे रही है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन न होने की दशा में इन दोनों पार्टियों का नुकसान भी तय है। आमतौर पर कांग्रेस की दो सीटें यहां पर पूरी तरह सुरक्षित मानी जती हैं। ये सीटें हैं सोनिया गांधी की रायबरेली और राहुल गांधी की अमेठी। इसके बाद खुद कांग्रेसी जीतने वाली सीटों के रूप में दस से ज्यादा संसदीय सीट का नाम नहीं बता पाते। कांग्रेस नेता फिलहाल जिन सीटों पर जीत का दावा कर रहे हैं, उनमें शामिल प्रतापगढ़ की सीट पिछली बार सपा के अक्षय प्रताप सिंह ने जीती थी। सुल्तानपुर की सीट भी सपा के ताहिर खान के खाते में गई थी। पडरौना की सीट नेलोपा के बालेश्वर यादव के खाते में गई थी। रामपुर की सीट से सपा की जयाप्रदा जीती थी। कांग्रेसी इन्हें अपनी मजबूत सीटों में गिन रहे हैं। इनके अलावा कांग्रेसी बाराबंकी, बरेली, फतेहपुर सीकरी, गोंडा, कानपुर और बांसगांव आदि की सीट पर पहले या दूसरे नंबर पर आने की बात कह रहे हैं। दूसरी तरफ वाराणसी, मथुरा और हापुड़ की जीती हुई सीटें कांग्रेस इस बार अलग-अलग वजहों से गंवा सकती है। कांग्रेस के आंकलन को मान लें तो करीब दजर्न भर सीटें वह जीत सकती है। ऐसे में यदि गठबंधन गया तो कांग्रेस की सीटों में तीन-चार सीट का और इजफा हो सकता है। यदि गठबंधन नहीं हुआ तो पार्टी को तीन-चार सीट का नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। ऐसे में यदि उत्तर प्रदेश में नौ-दस और बिहार में तीन सीटें मिल भी जएं तो आने वाले समय में इन दोनों प्रदेशों में पार्टी का जनाधार और गिर जएगा। पार्टी को जहां धीरे-धीरे अपनी सीटों की संख्या बढ़ानी चाहिए, वहीं वह उत्तर प्रदेश में ज्यादा संख्या के चक्कर में मात खा सकती है तो बिहार में मात खा चुकी है। अगली बार उत्तर प्रदेश में भी उसके सहयोगी दल बिहार वाली संख्या पर पहुंचा दें तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।

ममता बनर्जी भी फ़िल्मी सितारों के सहारे

रीता तिवारी
कोलकाता। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी को सिर्फ कांग्रेस के साथ तालमेल से ही संतोष नहीं है। इस लोकसभा चुनाव में अपने सितारे चमकाने के लिए वे फिल्मी सितारों के सहारे मैदान में उतरी हैं। वैसे, सितारों की सहारा लेना उनकी फितरत रही है। बीते विधानसभा चुनावों में उन्होंने जाने-माने बांग्ला अभिनेता तापस पाल को चुनाव लड़ाया और जिताया था। पाल के अलावा ममता ने माधवी मुखर्जी और नयना दास जैसी अभिनेत्रियों को भी टिकट दिया था। इस बार उन्होंने तापस पाल को तो मैदान में उतारा ही है, जानी-मानी बांग्ला अभिनेत्री शताब्दी राय और गायक कबीर सुमन को भी चुनाव मैदान में खड़ा कर दिया है। ममता ने अपर्णा सेन और पेंटर शुभप्रसन्न को भी टिकट देने की पेशकश की थी। लेकिन बात नहीं बनी।
दरअसल, दो साल पहले नंदीग्राम में पुलिस फायरिंग के खिलाफ ममता के साथ सड़क पर उतरने वालों में बुद्धिजीवियों, कलाकारों और गायकों का एक बड़ा तबका शामिल था। उसके बाद ममता से इन सबकी नजदीकियां बढ़ीं। उन्होंने शताब्दी राय को बीरभूम संसदीय सीट से मैदान में उतारा है। राय ने तारापीठ में दर्शन-पूजन के बाद अपना चुनाव अभियान शुरू कर दिया है। शताब्दी का कहना है कि वे एक व्यक्ति व नेता के तौर पर ममता की इज्जत करती हैं। ममता राज्य के लोगों के जीवन में बदलाव का प्रयास कर रही हैं। इसलिए उन्होंने जब लोकसभा चुनाव लड़ने का अनुरोध किया तो वेइंकार नहीं कर सकीं। शताब्दी कहती हैं कि वे लोकप्रियता हासिल करने के लिए चुनाव नहीं लड़ रही हैं। एक अभिनेत्री के तौर पर यह तो मुझे पहले से ही हासिल है। अब अपनी इस लोकप्रियता को मैं आम लोगों के हित में इस्तेमाल करना चाहती हूं।
गायक कबीर सुमन ने भी ममता के अनुरोध पर चुनाव लड़ने का फैसला किया। वे कहते हैं कि चुनाव जीत कर अब राज्य में बदलाव का प्रयास करेंगे। विधायक तापस पाल भी कृष्णनगर सीट से किस्मत आजमा रहे हैं। फिल्म निर्माता अपर्णा सेन को भी तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाली इस निर्देशिका ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। अपर्णा ने साफ कह दिया कि सक्रिय राजनीति में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।
सिंगुर में किसानों की जमीन लौटाने की मांग में दिसंबर 2006 में ममता ने जब 26 दिनों तक अनशन किया था तब शतब्दी, कबीर समुन और तापस पाल वहां लगातार मौजूद रहे थे। अभिनेता तापस पाल तो तृणमूल के टिकट पर अलीपुर से विधानसभा चुनाव भी जीत चुके हैं। पुराने जमाने की मशहूर अभिनेत्री माधवी मुखर्जी ने वर्ष 2001 में कोलकाता की यादवपुर विधानसभा सीट से मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के खिलाफ चुनाव लड़ा था। लेकिन हार गई थीं। एक और अभिनेत्री नयना 2001 में चुनाव जीती थी। लेकिन लोकसभा चुनावों में कलाकारों और फिल्मी हस्तियों को पहली बार मैदान में उतारा है ममता ने।
शताब्दी ने तपन सिन्हा की फिल्म आतंक के जरिए 1986 में अपना फिल्मी सफर शुरू किया था। उनकी फिल्में खासकर बंगाल के ग्रामीण इलाकों में काफी हिट रही हैं।
ममता को पिछले लोकसभा चुनावों में महज एक सीटें मिली थीं। लेकिन अबकी वे इसकी तादाद बढ़ाने का प्रयास कर रही है। इसलिए कांग्रेस के साथ तालमेल हो या फिर सितारों को मैदान में उतारना, वे कोई भी मौका नहीं चूक रही हैं। 
ममता की इस रणीनिति की सत्तारूढ़ वाममोर्चा ने कड़ी आलोचना की है। माकपा के वरिष्ठ नेता श्यामल चक्रवर्ती ने कहा है कि इस फैसले से साफ हो गया है कि तृणमूल कांग्रेस राजनीतिक दिवालिएपन की शिकार हो गई है। उसके पास ढंग के उम्मीदवारों का टोटा है। इसलिए अपनी किस्मत चमकाने के लिए वे फिल्मी सितारों का सहारा ले रही हैं। 
वैसे, यह सितारें जीते या नहीं, लेकिन उनके चुनाव प्रचार के दौरान भारी भीड़ जुट रही है। अपने चहेते कलाकारों को देखने के लिए। ममता के विरोधी चाहे कुछ भी कहें, कई सितारों को मैदान में उतार कर ममता ने अबकी लोकसभा चुनावों में ग्लैमर के रंग तो घोल ही दिए हैं।




इंदिरा,संजय और वरुण

आलोक तोमर 
नई दिल्ली, मार्च- वरुण गांधी को राजनीति तो खैर नहीं ही आती, भाषा और संस्कार भी उनके पर्याप्त उलझे हुए हैं। जब तक बेडरूम में थे तब तक छिपे हुए थे वरना जैसे ही सड़क पर आए, उनका नंगापन नजर आ गया। 
उन्होंने पीलीभीत में अपनी पहली चुनाव सभा में जो भाषण किया उसमें तो वे प्रवीण तोगड़िया और साध्वी रितंभरा के भी उस्ताद नजर आए। मुसलमानों का गला काटने की अपनी पुण्य अभिलाषा का ऐलान उन्होंने मंच से किया। हिंदुओं की एकता का ऐलान किया। भारत के सारे मुसलमानों को ओसामा बिन लादेन बताया। ये भी कहा कि अगर हिंदू एक हो जाए तो सारे मुसलमान पाकिस्तान भाग जाएंगे। 
वरुण गांधी इतने पर ही रूक जाते तो भारतीय जनता पार्टी का होने के कारण उन पर सिर्फ सांप्रदायिक होने का ठप्पा लगता। लेकिन अपनी अम्मा की जीती जिताई सीट पीलीभीत पर जीत की उम्मीद पक्की माने बैठे वरुणगांधी ने मंच से महात्मा गांधी को बेवकूफ कह दिया। अपने देश में गांधीवाद भले ही कायम नहीं हुआ हो, नोटों पर गांधी जी की तस्वीर छपती हैं और देश के हर शहर में महात्मा गांधी मार्ग है। कुल मिला कर गांधी जी देश के समाज में पूज्य हैं। 
यहां आ कर वरुणगांधी फंस गए। देश ने सवाल पूछना शुरू कर दिया। भाजपा को वरुणने करुण हालत में ला कर खड़ा कर दिया। भाजपा ज्यादा परेशान वरुणके मुस्लिम विरोधी बयान से थी इसलिए अपनी दो मुस्लिम उत्सव मूर्तियों- मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज हुसैन को बयान देने के लिए खड़ा किया कि वरुण गांधी ने जो कहा वह उनका निजी मामला है और पार्टी की आम राय ये नहीं हैं। इस बयान पर कौन भरोसा करता? इसके बाद वरुण गांधी का बयान आया। इस बयान के मुताबिक सारे टीवी चैनलों ने उनके भाषण की सीडी में किसी और की आवाज डाल दी है। इस बयान पर तो खुद उनकी अम्मा मेनका गांधी भरोसा नहीं करेंगी। दर्जनों टीवी चैनल एक साथ मिल कर एक जैसी गलती नहीं कर सकते। वरुण गांधी अभी इतने बड़े नेता नहीं हुए है कि उनको निपटाने के लिए स्टार न्यूज और एनडीटीवी से ले कर मेरा नवजात सीएनईबी भी पीछे पड़ जाए। 
वरुण गांधी के लिए सबसे आसान था कि वे माफी मांग लेते और उन्हें बच्चा मान कर लोग माफ भी कर देते। मगर जो सुधर जाए वो आदमी वरुण गांधी नहीं हैं। उन्हें इतना भी याद नहीं रहा कि वे फिरोज गांधी के पोते हैं जो महात्मा गांधी के भक्त थे। उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि जवाहर लाल नेहरू उनके परनाना थे और उन्हे गांधी जी ने ही देश का पहला प्रधानमंत्री बनवाया था। यह एक ऐसा तथ्य है जिसके लिए भाजपा और संघ परिवार जिसके दुर्भाग्य से वरुण नेता कहे जा सकते हैं, गांधी को कभी क्षमा नहीं किया। वरुण जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं उसका मानना हैं कि नेहरू जी की जगह सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए था। भाजपा के जनसंघ अवतार पर उस समय गांधी जी की हत्या की साजिश करने का आरोप भी लगा था। ऐसे में भाजपा का कोई लोकसभा उम्मीदवार अगर गांधी जी को मंच से बेवकूफ कहेगा तो वह कम से कम यह प्रमाणित तो जरूर कर देगा कि वह संजय और मेनका गांधी का बेटा है। 
संजय गांधी कभी अपनी विनम्रता के लिए नहीं जाने गए। वे तो अपने शानदार दिनों में बड़ों बड़ों की छुट्टी कर दिया करते थे और मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री तक को अपने सामने बैठने तक नहीं देते थे। उनके द्वारा दी गई गालियों का इतिहास अब भी चल रहा है। लेकिन बहुत सारे ऐसे हमारे नेता हैं जो आम तौर पर सिर्फ इसलिए राजनीति में हैं क्योंकि उन्हें संजय गांधी से गालियां खाने में आपत्ति नहीं हुई थी। ये लोग बड़े बड़े पदों पर पहुंचे और राजनीति में स्थापित बने रहे। आज भी उनमें से कई स्थापित हैं। 
वरुण गांधी अपने नाम में जुड़े गांधी शब्द को भी भूल गए। उनकी अम्मा मेनका गांधी जो कुत्तों से ले कर गिध्दों तक का पर्याप्त ध्यान रखती हैं उन्हें अपने बेटे के मुंह से मुसलमानों की गर्दन काटने वाला बयान सुन कर कैसा लगा होगा? वैसे भी उन्होंने वरुण के बयान पर कुछ भी कहने से मना कर दिया है और कहा कि अगर कोई कुत्ता कहीं मारा जाए या किसी चूहे पर अत्याचार हो रहा हो तो मैं उस पर बोलूंगी। उन्हें शायद अपनी जवानी याद आई होगी जब वे बीसीएम की तौलियां पहन कर मॉडलिंग किया करती थी और सूर्या नामक पत्रिका निकाला करती थी जिसमें जनता सरकार के दौरान जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए जगजीवन राम के बेटे सुरेश राम और उनकी प्रेमिका सुषमा की अश्लील तस्वीरें उस पत्रिका की आमुख कथा के तौर पर उन्होंने प्रकाशित की थी। जगजीवन राम का प्रधानमंत्री बनना हमेशा के लिए स्थगित हो गया था। 
वरुण गांधी और राहुल गांधी के बीच अगर तुलना की जाए तो वह एक अक्षम्य अपराध होगा। सच तो यह है कि राहुल गांधी राजनीति के बाबा लोगों में गिने जाते हैं और यह भी सही है कि उन्होंने भी कई बार कुछ बचकाने बयान दिए हैं मगर सही यह भी है कि बचकाने होने के बावजूद राहुल गांधी ने कभी आपराधिक बयान नहीं दिए जो उनके चचेरे भाई वरुण ने दे डाला। वरुण और राहुल के बीच उतना ही अंतर है जितना राजीव गांधी और संजय गांधी में था। राहुल गांधी बड़े भाईयों की तरह विनम्र थे और संजय गांधी बिगड़े हुए छोटे भाईयों की तरह उदंड और हमलावर थे। 
यही सही है कि इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे संजय को ही अपना राजनैतिक उत्तराधिकार सौपना चाहती थी और अगर संजय गांधी की असमय एक दुर्घटना में मृत्यु नहीं हुई होती तो इतिहास कुछ और ही होता। राजीव गांधी बहुत बेमन से और श्रीमती सोनिया गांधी को लगभग नाराज कर के राजनीति में आने के लिए तैयार हुए थे और इंदिरा गांधी की निर्लज्ज हत्या नहीं होती तो राजीव गांधी इतनी जल्दी प्रधानमंत्री नहीं बनते। 
वरुण गांधी पिछला चुनाव इसलिए नहीं लड़ पाए थे क्योंकि वे 25 साल के नहीं थे। अब वे 29 साल के हैं। लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में पढ़ चुके हैं जहां एक जमाने में मनमोहन सिंह भी पढ़े थे। इसके अलावा लंदन के एक विश्वविद्यालय से वरुण ने अफ्रीका संबंधी विषयों पर विशेषज्ञता हासिल की है। वे कविताएं भी लिखते हैं और उनका एक कविता संकलन अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुका हैं जिसके नाम का मोटा मोटा अनुवाद करें तो यही होगा कि अपने होने का बेगानापन। वरुण ने जो किया है उसके बाद भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी जिसके वे सदस्य हैं, को तय करना पड़ेगा कि उन्हें इस बूढ़े होते जा रहे बच्चे के साथ क्या करना है?