Thursday, November 5, 2009

पत्रकारिता के एक युग का अंत


अम्बरीश कुमार
जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी नहीं रहे .जनसत्ता जिसने हिंदी पत्रकारिता की भाषा बदली तेवर बदला और अंग्रेजी पत्रकारिता के बराबर खडा कर दिया .उसी जनसत्ता को बनाने वाले प्रभाष जोशी का कल देर रात निधन हो गया । दिल्ली से सटे वसुंधरा इलाके की जनसत्ता सोसाईटी में रहने वाले प्रभाष जोशी कल भारत और अस्ट्रेलिया मैच देख रहे थे । मैच के दौरान ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा । परिवार वाले उन्हें रात करीब 11.30 बजे गाजियावाद के नरेन्द्र मोहन अस्पताल ले गए , जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया । प्रभाष जोशी की मौत की खबर पत्रकारिता जगत के लिए इतनी बड़ी घटना थी कि रात भर पत्रकारों के फोन घनघनाते रहे । उनकी मौत के बाद पहले उनका पार्थिव शरीर उनके घर ले जाया गया फिर एम्स । इंदौर में उनका अंतिम संस्कार किया जाना तय हुआ है , इसलिए आज देर शाम उनका शरीर इंदौर ले जाया जाएगा ।
प्रभाष जोशी जनसत्ता के संस्थापक संपादक थे। मूल रूप से इंदौर निवासी प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थी। मूर्धन्य पत्रकार राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी उनके समकालीन थे। नई दुनिया के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और उन्होंने अमदाबाद और चंडीगढ़ में स्थानीय संपादक का पद संभाला। 1983 में दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसने हिन्दी पत्रकारिता की भाषा और तेवर बदल दिया ।

इसे कैसा संयोग कहेंगे की ठीक एक दिन पहले लखनऊ में उन्होंने हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा -मेरा तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार ही घर बनेगा .इंडियन एक्सप्रेस से उनका सम्बन्ध कैसा था इसी से पता चल जाता है . प्रभाष जोशी करीब 3० घंटे पहले चार नवम्बर की शाम लखनऊ में इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर में जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों के बीच थे .आज यानी छह नवम्बर को तडके ढाई बजे दिल्ली से अरुण त्रिपाठी का फोन आया -प्रभाष जी नहीं रहे .मुझे लगा चक्कर आ जायेगा और गिर पडूंगा .चार नवम्बर को वे लखनऊ में एक कर्यक्रम में हिस्सा लेने आये थे .मुझे कार्यक्रम में न देख उन्होंने मेरे सहयोगी तारा पाटकर से कहा -अम्बरीश कुमार कहा है .यह पता चलने पर की तबियत ठीक नहीं है उन्होंने पाटकर से कहा दफ्तर जाकर मेरी बात कराओ .मेरे दफ्तर पहुचने पर उनका फोन आया .प्रभाष जी ने पूछा -क्या बात है ,मेरा जवाब था -तबियत ठीक नहीं है .एलर्जी की वजह से साँस फूल रही है .प्रभाष जी का जवाब था -पंडित मे खुद वहां आ रहा हूँ और वही से एअरपोर्ट चला जाऊंगा .कुछ देर में प्रभाष जी दफ्तर आ गये .दफ्तर पहली मंजिल पर है फिर भी वे आये .करीब डेढ़ घंटा वे साथ रहे और रामनाथ गोयनका ,आपातकाल और इंदिरा गाँधी आदि के बारे में बात कर पुराणी याद ताजा कर रहे थे. तभी इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संसकरण के संपादक वीरेंदर कुमार भी आ गए जो उनके करीब ३५ साल पराने सहयोगी रहे है .प्रभाष जी तब चंडीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे .एक्सप्रेस के वीरेंदर नाथ भट्ट ,संजय सिंह ,दीपा आदि भी मौजूद थी .
तभी प्रभाष जी ने कहा .वाराणसी से यहाँ आ रहा हूँ कल मणिपुर जाना है पर यार दिल्ली में पहले डाक्टर से पूरा चेकउप कराना है.दरअसल वाराणसी में कार्यक्रम से पहले मुझे चक्कर आ गया था .प्रभाष जोशी की यह बात हम लोगो ने सामान्य ढंग से ली .पुरानी याद तजा करते हुए मुझे यह भी याद आया की १९८८ में चेन्नई से रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी से मिलने को भेजा था तब मे बंगलोर के एक अखबार में था ..पर जब प्रभाष जोशी से मिलने इंडियन एक्सप्रेस के बहादुर शाह जफ़र रोड वाले दफ्तर गया तो वहां काफी देर बाद उनके पीए से मिल पाया .उनके पीए यानि राम बाबु को मैंने बतया की रामनाथ गोयनका ने भेजा है तो उन्होंने प्रभाष जी से बात की .बाद बे जवाब मिला -प्रभाष जी के पास तीन महीने तक मिलने का समय नहीं है ..ख़ैर कहानी लम्बी है पर वही प्रभाष जोशी बुधवार को मुझे देखने दफ्तर आये और गुरूवार को हम सभी को छोड़ गए .
लखनऊ के इंडियन एक्सप्रेस की सहयोगियों से मैंने उनका परिचय कराया तभी मौलश्री की तरफ मुखातिब हो प्रभाष जोशी ने कहा था -मेरा घर तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार में ही है .हम सब कुछ समझ नहीं पाए .उसी समय भोपाल से भास्कर के पत्रकार हिमांशु वाजपई का फोन आया तो हमने कहा-प्रभाष जी बात कर रहा हु कुछ देर बात फोन करना . काफी देर तक बात होती रही पर आज उनके जाने की खबर सुनकर कुछ समझ नहीं आ रहा .भारतीय पत्रकारिता के इस भीष्म पितामह को हम कभी भूल नहीं सकते .मेरे वे संपादक ही नहीं अभिभावक भी थे..यहाँ से जाते बोले -अपनी सेहत का ख्याल रखो .बहुत कुछ करना है.प्रभाष जी से जो अंतिम बातचीत हुईं उसे हम जल्द देंगे .प्रभाष जोशी का जाना पत्रकारिता के एक युग का अंत है .
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Thursday, October 29, 2009

क्या न्यायाधीश महोदय की संवेदनाएं शून्य हो गई हैं?

वीना करीब डेढ़ दशक तक दिल्ली और लखनऊ से निकलने वाले अखबार से जुडी रही है और अब स्वतंत्र पत्रकार के रूप में लिख रही है .हाल ही में जब दिल्ली के एक अखबार में इन्होने अपना लेख भेजा तो छापना तो दूर जवाब भी बहुत अपमानजनक तरीके से दिया गया .यह वही अखबार है जो आजकल बाबा रामदेव के बाद जोर शोर से समाज बदलने में जुटा है . बीना के जीवनसाथी और राजेंद्र तिवारी अमर उजाला ,भास्कर के विभिन्न संस्करण के संपादक रहे है और अब हिन्दुस्तान के झारखण्ड के संस्करणों के संपादक बनाये गए है.
क्या न्यायाधीश महोदय की संवेदनाएं शून्य हो गई हैं?
वीना
महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों में कमी तो आ नहीं रही है अलबत्ता कठोर
सजा मिलने की अपेक्षा सजा कम जरूर हो रही है। आज ही यह खबर छपी है कि
दिल्ली हाईकोर्ट ने हत्या, बलात्कार, हत्या के प्रयास, और लूटपाट करने
वाले एक नौकर को निचली अदालत से मिली मौत की सजा को जघन्यतम अपराध न होने
के कारण 25 साल के सश्रम कारावास में तब्दील कर दिया गया है।

क्या माननीय हाई कोर्ट इस पर प्रकाश डाल सकता है कि जघन्यतम अपराध कौन से
हैं? एक नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म, 4 साल के छोटे से बच्चे की हत्या
क्या जघन्य अपराध नहीं है। हां इससे ज्यादा जघन्य ये होता कि जब दुष्कर्म
के बाद उस लड़की की हत्या कर दी जाती और फिर छोटी बेटी के साथ भी यही
होता। क्या न्यायाधीश महोदय की संवेदनाएं शून्य हो गई हैं? या अपराधी के
वकील के अपनी कोई बेटी या बेटा नहीं है। क्या वकील को उन मां-पिता की
आंखों का दर्द या आंसू नहीं दिखे। जिसने अपना इकलौता बेटा खोया है, अपनी
बेटी के जीबन के साथ खिलवाड़ देखा है उनके या अन्य किसी के लिए भी इससे
ज्यादा जघन्य और क्या हो सकता है? वकील साहब ने तो मोटी रकम ली होगी। मगर
ऊपर की अदालत में ये रकम काम नहीं आएगी और न वो घर, न बीवी-बच्चे जिनके
लिए ये सब किया और खुद के लिए भी किया है तो भी इसकी सजा स्वयं भुगतनी
होगी। एक लड़के ने जघन्य अपराध किया उलकी सजा दिलवाकर कम से कम उन
माता-पिता को थोड़ी शांति तो दे दी होती कि उनके परिवार को बिखेरने वाले
को मौत की सजा मिली। वो केवल यहां की अदालत में बचा है ईश्वर की अदालत
में उसे कौन बचाएगा? अगर उसे मौत की सजा मिलती तो शायद कोई तो इस तरह का
अपराध करने से पहले सोचता। दुष्कर्म जैसे अपराध के लिए तो केवल एक ही सजा
होनी चाहिए मौत की सजा. ताकि नारी कि इज्जत को खिलौना समझने वाले ये जाने
कि वो भी बचेंगे नहीं। मैं इस फैसले को जरूर पढ़ूंगी।

यही नहीं मणिपुरी युवती की हत्या का केस भी इसी दिशा की तरफ जा रहा है,
उसे भी थोड़ी सी सजा मिल जाएगी क्योंकि अभी से अखबार में ये आने लगा कि
अपराधी आई. आई. टी. छात्र पुष्पम का व्यवहार ठीक नहीं था और इसी का लाभ
उठाकर वकील उसे बचाएगा, कोर्ट थोड़ी सजा देकर मुक्त हो जाएगा लेकिन उसके
घरवालों के बारे में कोई नहीं सोचेगा और जेल से बाहर आकर वो अपराधी फिर
किसी की इज्जत के साथ खिलवाड़ करेगा और हत्या करेगा।

राजा-महाराजाओं के समय ठीक होता था जो कठोर दंड होते थे। अमानवीय थे
लेकिन फिर किसी और की वो अपराध दोबारा करने की हिम्मत नहीं होती थी। अब
जरूरत ऐसे ही फैसलों की है जिससे समाज में महिलाओं के प्रति बढ़ रहे
अपराधों पर अंकुश लग सके। आज 6 माह की, ढाई साल, 8 साल की बच्ची, किशोरी,
युवा, प्रौढ़ा यहां तक वृद्धा तक सुरक्षित नहीं है। जिस घर में बेटी होती
है उस घर की मां की, महिलाओं की नींद उड़ी रहती है। बेटी की वजह से नहीं
बल्कि उसकी सुरक्षा को लेकर और समाज में पल रहे दरिंदों को लेकर।


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Tuesday, October 27, 2009

मै अखबार का नाम नहीं लेना चाहती

वीना
मैं अपने नए ब्लाग शिकंजी के साथ अपने ब्लाग मित्रों के बीच हूं । इसमें आपको कुछ मीठी-कुछ खट्टी टिप्पणियों के साथ समाज की वास्तविकता भी देखने को मिलेगी। हौसलाफजाही के रूप में आप की राय व टिप्पणियां भी मिलती रहीं तो मनोबल तो बढ़ेगा साथ ही मैं और भी बेहतर कर सकूंगी।
`सच का सामना', आपने ठीक समझा यह उसी कार्यक्रम के बारे में है जो स्टार प्लस पर प्रसारित हुआ था। उसकी आखिरी कड़ी के दो-तीन दिन बाद आपकी अदालत में रजत शर्मा ने सच का सामना के प्रस्तुतकर्ता राजीव खंडेलवाल, प्रश्न तैयार करने वाले सिद्धार्थ बसु और कुछ प्रतिभागियों को बुलाया था। उसके बाद मैने यह लेख लिखा था और 29 सितम्बर को दिल्ली के एक प्रतिष्ठित हिंदी अखबार को ई.मेल द्वारा भेजा था, 24 अक्टूबर को जब मैने उनसे फोन पर बात की तो उनका जवाब था कि मेरे पास रोज इतने लेख आते हैं सबको देखना बहुत मुश्किल है। इसके लिए तो एक आदमी रखना पड़ेगा।
अखबार से पाठक नहीं होते बल्कि पाठकों से अखबार होता है। ना तो मै अखबार का नाम लेना चाहती नहीं व्यक्ति विशेष का। मैं हिंदी अखबारों में चल रही अव्यवस्था के खिलाफ बताना चाह रही हूं। मैंने भी 11-12 साल अखबार में काम किया है। तब शायद इतनी खराब व्यवस्था नहीं थी, पाठकों से इस तरह बात नहीं की जाती थी। आज क्या वजह है जो पाठकों से इस तरह से बात की जाती है कि इसके लिए हमें एक आदमी रखना पड़ेगा। यह समस्या पाठकों की नहीं है अखबार की है, वो कितने व्यक्ति रखे। लेखों की भी श्रेणी होती है जिनमें कुछ सम-सामयिक होते हैं और कुछ समय बाद उनकी उपयोगिता ही खत्म हो जाती है। ऐसे लेखों को पहले छापना होता है या उपयोगी न होने पर वापस कर दिया जाता है। अब तो ई.मेल का युग है कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। लिखने वाले हजारों होते हैं अखबार को अनेक लेख मिलते हैं लेकिन लिखने वाले के लिए उसका अपना ही लेख होता है जिसमें उसकी भावनाएं होती हैं जो वह बांटना चाहता है। उम्मूद है अखबार में काम करने वाले पत्रकार भाई पाठकों की भावनाओं का ध्यान रखेंगे। वह लेख ब्लाग के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।
सच का सामना
जिंदगी जीने का सबका अपना अंदाज होता है। अंदाज के साथ उसका अधिकार भी है ऐसे में किसी के भी अधिकार या अंदाज पर दखल देना कहां तक उचित है या उचित है भी या नहीं। जहां तक मैं समझती हूं और शायद ठीक ही समझती हूं किसी भी व्यक्ति के पास अपने जीवन के अलावा कुछ भी निजी नहीं है। उस पर भी मीडिया सेंध मार चुका है। बची-खुची कसर हम लोग आपस में ही टांग खीचकर पूरी कर लेते हैं। मुद्दे पैदा करना और उलटी दिशा में चलना हमारी फितरत बन चुकी है। किसी का सही या गलत होना या हमारी सोच में सही-गलत का फैसला दोनों बातें अलग हैं। गलत को तो गलत ठहराया ही जाना चाहिए लेकिन दुख वहां होता है जहां केवल अड़ंगे लगाने के लिए,टांग खीचने के लिए सही को भी गलत ठहराया जाता है। अभी टी.वी.के स्टार प्लस चैनल पर एक कार्यक्रम प्रसारित हुआ `सच का सामना’। इसके साथ ही शुरू हुई मुद्दों की श्रंखला। पहला मुद्दा सामाजिक मान्यता बना। हम किन सामाजिक मान्यताओं की बात करते हैं जो हमने अपनी सोच और फायदे के अनुसार निर्धारित की है। इधर आने वाले सभी सीरियलों में किन सामाजिक मान्यताओं का ध्यान रखा जाता है। विवाह पूर्व व विवाह के बाद संबंधों को दिखाना आम बात है। शादी के कुछ वर्षों कहीं से एक लड़का या लड़की का आना और घर की शालीन व प्रिय बहू का बेटा या बेटी होने का दावा करना, जो बाद में सही निकलता है। शादी के बाद प्रेम संबंधों का होना कुछ नया नहीं। रजत शर्मा ने भी सच का सामना को लेकर`आपकी अदालत’ में यही मुद्दे बार-बार उठाए। बच्चा गिराना, गर्भवती होना जैसे शब्दों को और उनके बारे में आज छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं। छठी-सातवीं में पढ़ने वाले बच्चे सेक्स करते हैं। टीवी पर दिखाई एक रिपोर्ट में जब लड़कों से पूछा गया कि आप लोग सैक्स करतें हैं तो उनका जवाब था`हां, जब ये पूछा गया कि क्या लड़कियों के साथ आप जबरदस्ती करते हैं या बहलाते-फुसलाते हैं। तो उन्होने कहा वो अपनी मर्जी से करती हैं हम जबरदस्ती नहीं करते और लड़कियों से पूछने पर उन्होंने धड़ल्ले से कहा जब लड़के कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं, गोया ये कोई प्रतियोगिता है या कंधे से कंधा मिलाकर चलने की प्रतिबद्धता। ये हैं हमारे आज के समाज के बच्चे। कहां गईं सामाजिक मान्यताएं। जब टी.वी. चैनल पर दिल्ली के ही कुछ स्कूलों के बारे में ये रिपोर्ट दिखाई गई तब रजत शर्मा ने उन स्कूलों के प्रधानाचार्य या प्रबंधन को आपकी अदालत में क्यों नहीं घसीटा ? जिन स्कूलों में शिक्षक छात्र-छात्राओं का यौन शोषण करते हैं उन स्कूलों के प्रबंधन को क्यों कटघरे में खड़ा नहीं किया जाता। जहां तक `सवाल सच‘ का सामना का है उसका समय भी रात दस बजे का था जब बच्चों के सोने का समय होता है उस दौरान स्क्रीन पर लगातार चलता है कि अविभावकों की निगरानी आवश्यक है और यदि बच्चे कहना नहीं मानते तो आप उन्हें क्या सीख देंगे और बाद में उसका समय 11 बजे कर दिया गया।
अब जरा उस कार्यक्रम पर भी चर्चा करें। उस कार्यक्रम में हमें क्या परोसा जा रहा था। सच का सामना करने वाले हर व्यक्ति से शारीरिक संबंधों के बारे में जरूर पूछा गया। महिला से उसके पति के सामने पूछा गया कि कहीं और शादी होती तो आप ज्यादा खुश होतीं? क्या तलाक हो चुका है? ये कैसा जीवन है जहां शादी के डेढ़ साल बाद गुपचुप ढंग से तलाक ले लिया जाता है और घर वालों को पता भी नहीं चलता। इसके बावजूद साथ रहें और गर्ल फ्रैंड छूटने का इंतजार रहे। जहां हुसैन साहब जैसे कलाकार अपनी बेटी से छोटी उम्र की लड़की से शारीरिक संबंधों को स्वीकार करें। जहां व्यक्ति विशेष ये बताए कि जरूरत के लिए उसने समलैंगिक संबंध बनाए, पैसों के लिए शादीशुदा महिलाओं से संबंध बनाए। योगा सिखाने के बहाने उसने अपने क्लाइंट्स को सेक्स वर्कर् उपलब्ध करवाए और ये सब अपने माता-पिता, भाई की मौजूदगी में स्वीकार करे। क्या यही सामाजिक मान्यता है, लिहाज है। इतना सब जानने के बाद माता-पिता कैसे गले से लगा सकते हैं और वो कैसे उनकी नजरों का सामना कर सकता है। क्या यही शिक्षा हमें दी जाती है कि एक दिन इस तरह हम घरवालों का नाम रोशन करें, सबके सामने शर्मसार करें? बाबी डार्लिंग ये खुलासा करे कि उसके पुरुष मित्रों ने उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने चाहे। जहां धड़ल्ले से स्वीकार किया जाए कि शादी के बाद उनके शारीरिक संबंध कहीं और हैं। इस कार्यक्रम के जरिए लोगों को क्या संदेश दिया गया कि समाज में सैक्स ही सबकुछ है। किसी भी स्तिथि में, किसी भी उम्र में, इस भूख की न कोई सीमा है न अंत, न रिश्ते हैं न शर्म। ये आम चलन है आप भी सारी सामाजिक मान्यताओं को ताख पर रखकर बिंदास होकर सैक्स करिए और फिर रुपयों की खातिर रिश्तों को तार-तार करिए। उस मंच पर ऐसे प्रत्येक व्यक्ति का स्वागत हुआ जो किसी न किसी रूप से अनेक के साथ शारीरिक संबंधों से जुड़ा रहा। ये तो खुला आमंत्रण है जिसने जितने ज्यादा पाप किए हों (क्योंकि ये पुण्य तो हो नहीं सकता, हां, करने वालों की नजर में सही जरूर है क्योंकि ये उनका नजरिया है) आफिस में घपले किए हों, नकली व घटिया सामान सप्लाई किया हो और जो बेशर्मी से रुपयों के लिए सबके सामने स्वीकार कर सकता हो हां, मैने सारे गलत काम किए हैं और ये कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ये सारे काम भी रुपयों के लिए ही किए गए। यानि जीवन का एकमात्र उद्देश्य येन-केन-प्रकारेण रुपया कमाना है। ये तो गलत काम को पुरुस्कृत करना जैसा हुआ। हो सकता है सीजन टू में वो महिलाएं आएं जो देह व्यापार करती हों और जिनको लोग पहचानते हैं उन्हें सबके सामने आकर स्वीकार करने से क्या गुरेज होगी?
आज से बीस साल पहले मैं एक ऐसी लड़की को जानती थी जिन्होने कई बार अपने शरीर का सौदा किया था। मैने उन्हें हमेशा दीदी कहा। आज भी मैं उनकी इज्जत करती हूं। हम लोग उस समय लखनऊ शिफ्ट हुए थे। मुझे मना किया गया था कि उनसे दूर रहूं। हालांकि मेरी मां भी उन्हें दोषी नहीं मानती थीं लेकिन बदनामी की हवा से सभी दूर रहना चाहते हैं। मैं छोटी जरूर थी मगर इतनी भी नहीं कि चीजें नहीं समझती थी। अगर मेरे जाने के बाद ये घटता तो मैं जरूर उनका साथ देती। उन्होने जो किया रुपए कमाने के लिए नहीं बल्कि अपनी बहन की जान बचाने के लिए। पहली बार वो पचास रुपए के लिए बिकी थीं, वो भी अपने चचेरे चाचा के हाथ। पिता ने लाखों की जायदाद बर्बाद कर दी थी। उनकी दो छोटी बहनें और एक पागल भाई था। बड़ी मुश्किल से वो इंटर कर पाई थीं। घर चलाने के लिए दीदी मोहल्ले के छोटे से स्कूल में पढ़ाती थीं। एक बार उनकी सबसे छोटी बहन को बुखार चढ़ा। वो बुखार से तप रही थी दवा के लिए रुपए नहीं थे। वो स्कूल के प्रिंसिपल के पास रुपए मांगने गई तो उन्होंने उनसे कीमत मांगी और दीदी खरी-खोटी सुनाकर वापस आ गईं लेकिन रात में उसकी तबियत बिगड़ गई और वो मदद मांगने अपने चचेरे चाचा के पास गईं और वहां उनके जीवन की पहली रात घटी जिसने फिर ऐसी कई रातें दीं। जिस लड़के को चाहती थीं उसने सब जानते हुए अपनाना चाहा लेकिन होने वाली सास के कारण उन्होने शादी नहीं की। फिर जब उन्हें पता चला कि उसी चाचा की गंदी नजरें उनकी छोटी बहन पर पड़ रही हैं तो अपनी बहन को बचाने के लिए लड़का ढूंढा और कम उम्र में ही उन्होने उसकी शादी कर दी ताकि उसकी इज्जत बच सके। लड़के का एक पैर जरूर खराब था लेकिन परिवार बहुत सम्पन्न था उन्होने अपनी बहन को इज्जत के साथ विदा किया। उनके बेशर्म पिता उनकी कमाई खाते रहे। पागलपन में भाई की मृत्यु हो गई। बीमारी में सबसे छोटी बहन चल बसी। उसके बाद पता चला कि उस लड़के ने उनसे शादी कर ली और उसके बाद उस मोहल्ले में कभी नहीं आई। अब पता नहीं वो किस गुमनामी के अंधेरे में गुम हो गई। खुद मजबूरी को भोगा मगर बहन को बचाया, जब दोनो भाई-बहन की मृत्यु हो गई तो खुद फाके किए मगर फिर बिकी नहीं। आज वो हैं भी या नहीं। मैं नहीं जानती मगर मैं उनको सलाम करती हूं। उन्होने हार नहीं मानी थी। उस प्रिंसिपल के आगे वो झुकी नहीं लेकिन तबियत बिगड़ने पर वो अपने चाचा के पास ही गईं थी और लूटने वाला अपना ही निकला। फिर भी उन्होने अपनी बहन पर आंच नहीं आने दी। छोटे भाई-बहन की मृत्यु के बाद उन्होने वह जगह ही छोड़ दी। वो कोई अकेली ऐसी लड़की नहीं हैं, बहुत होंगी जिन्होने अपने परिवार के लिए अपनी इज्जत का सौदा किया होगा क्योंकि बच्चे पैदा करने के बाद गरीबी के कारण माता-पिता पढ़ा नहीं पाते और हमारा तथाकथित समाज इन्हीं बातों का फायदा उठाकर लड़कियों को शिकार बनाता है। शायद भगवान ने बड़ी बहन को ये जज्बा देकर भेजा है कि छोटे भाई-बहनों के लिए वो कुरबान हो जाएं। लेकिन इसके बाद वो परिवार को शर्मसार नहीं करतीं लेकिन सेक्स वर्कर उपलब्ध कराना तो दलालों का काम है, धंधा है उनका। इसमें झूठ-सच क्या। क्योंकि वो दस लाख-पच्चीस लाख जीत रहे हैं तो माता-पिता दलाली जैसे गुनाह माफ कर रहे हैं। अगर वाकई में शर्मिंदगी है तो पहले अपने माता-पिता के सामने सच क्यों नहीं कुबूल किया। क्यों अब तक छुपाए रखा। ये भी सच है कि किसी को जबरदस्ती नहीं बुलाया गया था लेकिन ये कौन सा जौहर दिखाने का मंच था जहां पर उसके साहस या गुणों को परखा जा रहा था। जहां तक सामाजिक मान्यताओं और संस्कृति की बात है तो हमें रिश्तों का और महिलाओं का सम्मान करना सिखाया जाता है। मंजिल पाने के लिए गलत रास्ता नहीं चुनने की सलाह दी जाती लेकिन शो का उद्देश्य क्या था कि जो जितने ज्यादा कपड़े उतारेगा, उतने ज्यादा रुपए ले जाएगा। जो नंगा हो जाएगा उसे एक करोड़ मिलेगा। ये तो कपड़े उतारने-उतरवाने का शो था। इससे ज्यादा कुछ नहीं।

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Thursday, March 19, 2009

वाम राजनीती में हाशिये पर गई महिला

रीता तिवारी  
कोलकाता। पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों में महिला उम्मीदवारों की चुनावी ट्रेन एक बार फिर छूट गई है। महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण देने वाले विधेयक की पुरजोर वकालत करने वाले वामपंथी दलों ने राज्य की 42 लोकसभा सीटों पर महज दो महिलाओं को ही टिकट दिया है, जो पिछली बार के मुकाबले आदे से भी कम है। कहां तो अबकी बीते चुनावों के मुकाबले इसकी तादाद बढ़ने की उम्मीद थी, लेकिन उसमें भी कटौती हो गई है। चौदह सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस ने दो महिलाओं को टिकट दिया है। भाजपा ने एक महिला को मैदान में उतारा है। दूसरी ओर, नंदीग्राम व सिंगुर जैसे मुद्दों और कांग्रेस के साथ तालमेल व फिल्मी सितारों के सहारे मैदान में उतरी तृणमूल कांग्रेस ने 28 में से पांच सीटों पर महिलाओं को मैदान में उतारा है। राज्य में सत्तारूढ़ वाममोर्चा के नेता महिला उम्मीदवारों का टोटा होने का रोना रो रहे हैं।
वाममोर्चा ने वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों में पांच महिलाओं को टिकट दिया था। इनमें से तीन चुनाव जीत गई थी। लेकिन अबकी उनमें से भी एक का पत्ता साफ हो गया है। 42 में 32 सीटों पर लड़ने वाली माकपा ने पिछली बार जीतने वाली तीन में दो महिलाओं को दोबारा टिकट दिया है। इनमें से ज्योतिर्मयी सिकदर कृष्णनगर और सुष्मिचता बारूई विष्णुपुर आरक्षित सीट से लड़ेंगी। पिछली बार जीतने वाली मिनती सेन को अबकी टिकट नहीं दिया गया है। मोर्चा के बाकी तीन घटकों-आरएसपी, फारवर्ड ब्लाक और भाकपा ने तो दस में किसी भी सीट पर किसी महिला को टिकट नहीं दिया है। विडंबना यह है कि राज्य में माकपा के महिला सदस्यों की तादाद 30 हजार से ऊपर है। लेकिन पार्टी के नेताओं की दलील है कि उनको कोई योग्य महिला उम्मीदवार ही नहीं मिली।
माकपा के वरिष्ठ नेता व राज्यसभा सदस्य श्यामल चक्रवर्ती की दलील है कि हर सीट का महत्व है। इसलिए हमने उम्मीदवारों के चयन में काफी सावधानी बरती। वे कहते हैं कि काफी विचार-विमर्श के बाद जीत सकने लायक उम्मीदवारों को ही टिकट दिए गए। पार्टी के एक अन्य नेता कहते हैं कि राज्य में ऐसी योग्य महिलाओं की कमी है जो लोकसभा चुनाव लड़ कर जीत सकें। उनकी दलील है कि विधानसभा, नगर निगम व पंचायत चुनावों में इसकी भरपाई कर दी जाएगी। पिछली बार जीतने वाली माकपा की महिला नेता मिनती सेन, जिनको अबकी टिकट नहीं मिला है, ने कहा है कि उको टिकट नहीं देने का फैसला पार्टी का है। लेकिन वे कहती हैं कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई जानी चाहिए। 
माकपा के नेता भले कुछ भी दलील दें, यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच प्रस्तावित तालमेल से वोट घटने के अंदेशे के चलते ही माकपा ने कम से कम महिला उम्मीदवारों को टिकट देने का फैसला किया। यह सही है कि तालमेल बाद में हुआ और मोर्चा के उम्मीदवारों की सूची पहले जारी हुई। लेकिन उस समय तक तालमेल की संभावना तो बढ़ ही गई थी और पार्टी के तमाम नेता इसके चलते वोट और सीटें घटने का अंदेशा जता रहे थे।
कांग्रेस ने जिन दो महिलाओं को टिकट दिया है उनमें से एक दीपा दासमुंशी को तो अपने पति के कोटे के तहत ही रायगंज से टिकट मिला है। रायगंज प्रिय रंजन दासमुंशी की पारंपरिक सीट रही है। दीपा भी उसी लोकसभा क्षेत्र के तहत पड़ने वाली विधानसभा सीट से पिछली बार चुनाव जीत चुकी हैं। अपनी लंबी बीमारी की वजह से दासमुंशी अबकी चुनाव लड़ने की हालत में नहीं हैं। इसलिए वंशवाद की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस ने उनके बदले उनकी पत्नी को टिकट दियाा है। इसके अलावा बर्दवान-दुर्गापुर सीट से नरगिस बेगम को टिकट दिया गया है। भाजपा ने प्रदेश महिला शाखा की प्रमुख ज्योत्सना बनर्जी को कोलकाता दक्षिण संसदीय सीट पर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के खिलाफ मैदान में उतारा है। बीते चुनावों में भाजपा व तृणमूल साथ थी। लेकिन अब दोनों के रास्ते अलग हो गए हैं। इसलिए भाजपा ने ममता के खिलाफ एक महिला को ही उतार दिया है।
जहां तक तृणमूल कांग्रेस की बात है उसमें ममता के अलावा फिल्मी अभिनेत्री शताब्दी राय मैदान में हैं। डा.काकोली घोष दस्तीदार भी पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ेंगी। कांग्रेस के साथ तालमेल के तहत 28 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी ने पांच महिलाओं को मैदान में उतारा है। ममता कहती हैं कि हमारी कथनी व करनी में फर्क नहीं है। हमारी सूची में लगभग 15 फीसद महिलाओं के नाम हैं। लेकिन वाममोर्चा ने तो आधे फीसद से भी कम महिलाओं को टिकट दिया है। पार्टी की दलील है कि कांग्रेस के साथ तालमेल के बाद दोनों की सूची को जोड़ने पर कुल 42 में से सात सीटों पर महिलाएं चुनाव लड़ रही हैं। जबकि वाममोर्चे ने इतनी ही सीटों पर दो महिलाओं को टिकट दिया है। यानी हमने मोर्चा के मुकाबले साढ़े तीन गुना ज्यादा महिलाओं को टिकट दिया है।

Wednesday, March 18, 2009

बिहार की हालत में पहुंच जाएगी उत्तर प्रदेश कांग्रेस

जनादेश ब्यूरो 
लखनऊ,  मार्च। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बिहार के पर है। कांग्रेस के आधारहीन नेताओ के चलते पार्टी को यहाँ झटका लग सकता है।  उत्तर प्रदेश की ८0 लोकसभा सीटों में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के रवैये से आजिज आकर अंतत: कुछ 5 सीटें ऐसी छोड़ी जिस पर वह उम्मीदवार नहीं खड़ा करेगी। किसी भी राष्ट्रीय दल की ऐसी दुर्गति पहले कभी नहीं हुई। इसका संदेश अब उत्तर प्रदेश में नीचे तक जा  रहा है और माना जा  रहा है कि कांग्रेस को इस बार कहीं और तगड़ा ङाटका न लग जए। 
यह तब हुआ है जब केन्द्र में लगातार पांच साल तक उपलब्धियां गिनाने वाली उसकी सरकार रही है। कांग्रेस ने अगर गठबंधन धर्म का सबक नहीं लिया तो इस बार वह सत्ता से बाहर भी जा सकती है। कमोवेश सभी राज्यों में क्षेत्रीय दल इस राष्ट्रीय दल पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं। गठबंधन न होने की दशा में पार्टी को आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में तगड़ा ङाटका लग सकता है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन की चर्चा से जो माहौल बना, उसका फायदा अब कांग्रेस के बजय समाजवादी पार्टी को ज्यादा हो सकता है। उत्तर प्रदेश से करीब तीन दजर्न सीटें जीतने वाली समाजवादी पार्टी के हौसले बुलंद हैं। राज्य की ज्यादातर सीटों पर बहुजन समाज पार्टी से वह सीधा मुकाबला करने जा रही है। पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने आज सपा मुख्यालय में जुटे उलेमा से कम से कम ५0 सीटें जिताने की अपील की। 
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के संभावित गठबंधन में कांग्रेस को १७ सीटें देने के लिए मुलायम सिंह तैयार हो चुके थे और इसमें भी बढ़ोत्तरी की गुंजइश का संकेत दिया था। पर इसी बीच कांग्रेस ने २४ उम्मीदवारों की सूची जरी कर सपा नेतृत्व को भड़का दिया। इस सूची में आधा दजर्न उम्मीदवार ऐसे हैं जिनकी हार सुनिश्चित है। बाकी बचे १८ जिसके लिए सपा कमोवेश तैयार थी। पर यह गठबंधन दोनों पार्टियों के नेताओं की मूंछ की लड़ाई के चलते लटकता नजर आ रहा है। बिहार में सहयोगी दलों से मिली न्यूनतम सीटों के बावजूद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। बिहार की तीन सीटों के मुकाबले उत्तर प्रदेश की १८ सीटों का हिस्सा सम्मानजनक माना जता। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जीत की संभावनाओं पर कांग्रेस के प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह ने कहा-पार्टी ने जो २४ सीटें घोषित की हैं, उसमें दो-तिहाई पर हमारी जीत तय है। 
दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने कहा-एक तरफ बिहार कांग्रेस को उसके सहयोगी दल तीन सीट दे रहे हैं, वहीं हम उत्तर प्रदेश में १७ सीटें देने का पहले ही एलान कर चुके थे। बिहार में इन दोनों दलों के नेता लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान केन्द्र सरकार में प्रभावशाली मंत्री रहे। तब यह हिस्सा मिला है। दूसरी तरफ मुलायम सिंह यादव जिन्होंने सरकार बचाई, उसकी उदारता की तरफ किसी कांग्रेसी का ध्यान नहीं जता। सपा धर्म निरपेक्ष वोटों का बंटवारा रोकने के लिए गठबंधन पर जोर दे रही है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन न होने की दशा में इन दोनों पार्टियों का नुकसान भी तय है। आमतौर पर कांग्रेस की दो सीटें यहां पर पूरी तरह सुरक्षित मानी जती हैं। ये सीटें हैं सोनिया गांधी की रायबरेली और राहुल गांधी की अमेठी। इसके बाद खुद कांग्रेसी जीतने वाली सीटों के रूप में दस से ज्यादा संसदीय सीट का नाम नहीं बता पाते। कांग्रेस नेता फिलहाल जिन सीटों पर जीत का दावा कर रहे हैं, उनमें शामिल प्रतापगढ़ की सीट पिछली बार सपा के अक्षय प्रताप सिंह ने जीती थी। सुल्तानपुर की सीट भी सपा के ताहिर खान के खाते में गई थी। पडरौना की सीट नेलोपा के बालेश्वर यादव के खाते में गई थी। रामपुर की सीट से सपा की जयाप्रदा जीती थी। कांग्रेसी इन्हें अपनी मजबूत सीटों में गिन रहे हैं। इनके अलावा कांग्रेसी बाराबंकी, बरेली, फतेहपुर सीकरी, गोंडा, कानपुर और बांसगांव आदि की सीट पर पहले या दूसरे नंबर पर आने की बात कह रहे हैं। दूसरी तरफ वाराणसी, मथुरा और हापुड़ की जीती हुई सीटें कांग्रेस इस बार अलग-अलग वजहों से गंवा सकती है। कांग्रेस के आंकलन को मान लें तो करीब दजर्न भर सीटें वह जीत सकती है। ऐसे में यदि गठबंधन गया तो कांग्रेस की सीटों में तीन-चार सीट का और इजफा हो सकता है। यदि गठबंधन नहीं हुआ तो पार्टी को तीन-चार सीट का नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। ऐसे में यदि उत्तर प्रदेश में नौ-दस और बिहार में तीन सीटें मिल भी जएं तो आने वाले समय में इन दोनों प्रदेशों में पार्टी का जनाधार और गिर जएगा। पार्टी को जहां धीरे-धीरे अपनी सीटों की संख्या बढ़ानी चाहिए, वहीं वह उत्तर प्रदेश में ज्यादा संख्या के चक्कर में मात खा सकती है तो बिहार में मात खा चुकी है। अगली बार उत्तर प्रदेश में भी उसके सहयोगी दल बिहार वाली संख्या पर पहुंचा दें तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।

ममता बनर्जी भी फ़िल्मी सितारों के सहारे

रीता तिवारी
कोलकाता। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी को सिर्फ कांग्रेस के साथ तालमेल से ही संतोष नहीं है। इस लोकसभा चुनाव में अपने सितारे चमकाने के लिए वे फिल्मी सितारों के सहारे मैदान में उतरी हैं। वैसे, सितारों की सहारा लेना उनकी फितरत रही है। बीते विधानसभा चुनावों में उन्होंने जाने-माने बांग्ला अभिनेता तापस पाल को चुनाव लड़ाया और जिताया था। पाल के अलावा ममता ने माधवी मुखर्जी और नयना दास जैसी अभिनेत्रियों को भी टिकट दिया था। इस बार उन्होंने तापस पाल को तो मैदान में उतारा ही है, जानी-मानी बांग्ला अभिनेत्री शताब्दी राय और गायक कबीर सुमन को भी चुनाव मैदान में खड़ा कर दिया है। ममता ने अपर्णा सेन और पेंटर शुभप्रसन्न को भी टिकट देने की पेशकश की थी। लेकिन बात नहीं बनी।
दरअसल, दो साल पहले नंदीग्राम में पुलिस फायरिंग के खिलाफ ममता के साथ सड़क पर उतरने वालों में बुद्धिजीवियों, कलाकारों और गायकों का एक बड़ा तबका शामिल था। उसके बाद ममता से इन सबकी नजदीकियां बढ़ीं। उन्होंने शताब्दी राय को बीरभूम संसदीय सीट से मैदान में उतारा है। राय ने तारापीठ में दर्शन-पूजन के बाद अपना चुनाव अभियान शुरू कर दिया है। शताब्दी का कहना है कि वे एक व्यक्ति व नेता के तौर पर ममता की इज्जत करती हैं। ममता राज्य के लोगों के जीवन में बदलाव का प्रयास कर रही हैं। इसलिए उन्होंने जब लोकसभा चुनाव लड़ने का अनुरोध किया तो वेइंकार नहीं कर सकीं। शताब्दी कहती हैं कि वे लोकप्रियता हासिल करने के लिए चुनाव नहीं लड़ रही हैं। एक अभिनेत्री के तौर पर यह तो मुझे पहले से ही हासिल है। अब अपनी इस लोकप्रियता को मैं आम लोगों के हित में इस्तेमाल करना चाहती हूं।
गायक कबीर सुमन ने भी ममता के अनुरोध पर चुनाव लड़ने का फैसला किया। वे कहते हैं कि चुनाव जीत कर अब राज्य में बदलाव का प्रयास करेंगे। विधायक तापस पाल भी कृष्णनगर सीट से किस्मत आजमा रहे हैं। फिल्म निर्माता अपर्णा सेन को भी तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाली इस निर्देशिका ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। अपर्णा ने साफ कह दिया कि सक्रिय राजनीति में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।
सिंगुर में किसानों की जमीन लौटाने की मांग में दिसंबर 2006 में ममता ने जब 26 दिनों तक अनशन किया था तब शतब्दी, कबीर समुन और तापस पाल वहां लगातार मौजूद रहे थे। अभिनेता तापस पाल तो तृणमूल के टिकट पर अलीपुर से विधानसभा चुनाव भी जीत चुके हैं। पुराने जमाने की मशहूर अभिनेत्री माधवी मुखर्जी ने वर्ष 2001 में कोलकाता की यादवपुर विधानसभा सीट से मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के खिलाफ चुनाव लड़ा था। लेकिन हार गई थीं। एक और अभिनेत्री नयना 2001 में चुनाव जीती थी। लेकिन लोकसभा चुनावों में कलाकारों और फिल्मी हस्तियों को पहली बार मैदान में उतारा है ममता ने।
शताब्दी ने तपन सिन्हा की फिल्म आतंक के जरिए 1986 में अपना फिल्मी सफर शुरू किया था। उनकी फिल्में खासकर बंगाल के ग्रामीण इलाकों में काफी हिट रही हैं।
ममता को पिछले लोकसभा चुनावों में महज एक सीटें मिली थीं। लेकिन अबकी वे इसकी तादाद बढ़ाने का प्रयास कर रही है। इसलिए कांग्रेस के साथ तालमेल हो या फिर सितारों को मैदान में उतारना, वे कोई भी मौका नहीं चूक रही हैं। 
ममता की इस रणीनिति की सत्तारूढ़ वाममोर्चा ने कड़ी आलोचना की है। माकपा के वरिष्ठ नेता श्यामल चक्रवर्ती ने कहा है कि इस फैसले से साफ हो गया है कि तृणमूल कांग्रेस राजनीतिक दिवालिएपन की शिकार हो गई है। उसके पास ढंग के उम्मीदवारों का टोटा है। इसलिए अपनी किस्मत चमकाने के लिए वे फिल्मी सितारों का सहारा ले रही हैं। 
वैसे, यह सितारें जीते या नहीं, लेकिन उनके चुनाव प्रचार के दौरान भारी भीड़ जुट रही है। अपने चहेते कलाकारों को देखने के लिए। ममता के विरोधी चाहे कुछ भी कहें, कई सितारों को मैदान में उतार कर ममता ने अबकी लोकसभा चुनावों में ग्लैमर के रंग तो घोल ही दिए हैं।




इंदिरा,संजय और वरुण

आलोक तोमर 
नई दिल्ली, मार्च- वरुण गांधी को राजनीति तो खैर नहीं ही आती, भाषा और संस्कार भी उनके पर्याप्त उलझे हुए हैं। जब तक बेडरूम में थे तब तक छिपे हुए थे वरना जैसे ही सड़क पर आए, उनका नंगापन नजर आ गया। 
उन्होंने पीलीभीत में अपनी पहली चुनाव सभा में जो भाषण किया उसमें तो वे प्रवीण तोगड़िया और साध्वी रितंभरा के भी उस्ताद नजर आए। मुसलमानों का गला काटने की अपनी पुण्य अभिलाषा का ऐलान उन्होंने मंच से किया। हिंदुओं की एकता का ऐलान किया। भारत के सारे मुसलमानों को ओसामा बिन लादेन बताया। ये भी कहा कि अगर हिंदू एक हो जाए तो सारे मुसलमान पाकिस्तान भाग जाएंगे। 
वरुण गांधी इतने पर ही रूक जाते तो भारतीय जनता पार्टी का होने के कारण उन पर सिर्फ सांप्रदायिक होने का ठप्पा लगता। लेकिन अपनी अम्मा की जीती जिताई सीट पीलीभीत पर जीत की उम्मीद पक्की माने बैठे वरुणगांधी ने मंच से महात्मा गांधी को बेवकूफ कह दिया। अपने देश में गांधीवाद भले ही कायम नहीं हुआ हो, नोटों पर गांधी जी की तस्वीर छपती हैं और देश के हर शहर में महात्मा गांधी मार्ग है। कुल मिला कर गांधी जी देश के समाज में पूज्य हैं। 
यहां आ कर वरुणगांधी फंस गए। देश ने सवाल पूछना शुरू कर दिया। भाजपा को वरुणने करुण हालत में ला कर खड़ा कर दिया। भाजपा ज्यादा परेशान वरुणके मुस्लिम विरोधी बयान से थी इसलिए अपनी दो मुस्लिम उत्सव मूर्तियों- मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज हुसैन को बयान देने के लिए खड़ा किया कि वरुण गांधी ने जो कहा वह उनका निजी मामला है और पार्टी की आम राय ये नहीं हैं। इस बयान पर कौन भरोसा करता? इसके बाद वरुण गांधी का बयान आया। इस बयान के मुताबिक सारे टीवी चैनलों ने उनके भाषण की सीडी में किसी और की आवाज डाल दी है। इस बयान पर तो खुद उनकी अम्मा मेनका गांधी भरोसा नहीं करेंगी। दर्जनों टीवी चैनल एक साथ मिल कर एक जैसी गलती नहीं कर सकते। वरुण गांधी अभी इतने बड़े नेता नहीं हुए है कि उनको निपटाने के लिए स्टार न्यूज और एनडीटीवी से ले कर मेरा नवजात सीएनईबी भी पीछे पड़ जाए। 
वरुण गांधी के लिए सबसे आसान था कि वे माफी मांग लेते और उन्हें बच्चा मान कर लोग माफ भी कर देते। मगर जो सुधर जाए वो आदमी वरुण गांधी नहीं हैं। उन्हें इतना भी याद नहीं रहा कि वे फिरोज गांधी के पोते हैं जो महात्मा गांधी के भक्त थे। उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि जवाहर लाल नेहरू उनके परनाना थे और उन्हे गांधी जी ने ही देश का पहला प्रधानमंत्री बनवाया था। यह एक ऐसा तथ्य है जिसके लिए भाजपा और संघ परिवार जिसके दुर्भाग्य से वरुण नेता कहे जा सकते हैं, गांधी को कभी क्षमा नहीं किया। वरुण जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं उसका मानना हैं कि नेहरू जी की जगह सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए था। भाजपा के जनसंघ अवतार पर उस समय गांधी जी की हत्या की साजिश करने का आरोप भी लगा था। ऐसे में भाजपा का कोई लोकसभा उम्मीदवार अगर गांधी जी को मंच से बेवकूफ कहेगा तो वह कम से कम यह प्रमाणित तो जरूर कर देगा कि वह संजय और मेनका गांधी का बेटा है। 
संजय गांधी कभी अपनी विनम्रता के लिए नहीं जाने गए। वे तो अपने शानदार दिनों में बड़ों बड़ों की छुट्टी कर दिया करते थे और मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री तक को अपने सामने बैठने तक नहीं देते थे। उनके द्वारा दी गई गालियों का इतिहास अब भी चल रहा है। लेकिन बहुत सारे ऐसे हमारे नेता हैं जो आम तौर पर सिर्फ इसलिए राजनीति में हैं क्योंकि उन्हें संजय गांधी से गालियां खाने में आपत्ति नहीं हुई थी। ये लोग बड़े बड़े पदों पर पहुंचे और राजनीति में स्थापित बने रहे। आज भी उनमें से कई स्थापित हैं। 
वरुण गांधी अपने नाम में जुड़े गांधी शब्द को भी भूल गए। उनकी अम्मा मेनका गांधी जो कुत्तों से ले कर गिध्दों तक का पर्याप्त ध्यान रखती हैं उन्हें अपने बेटे के मुंह से मुसलमानों की गर्दन काटने वाला बयान सुन कर कैसा लगा होगा? वैसे भी उन्होंने वरुण के बयान पर कुछ भी कहने से मना कर दिया है और कहा कि अगर कोई कुत्ता कहीं मारा जाए या किसी चूहे पर अत्याचार हो रहा हो तो मैं उस पर बोलूंगी। उन्हें शायद अपनी जवानी याद आई होगी जब वे बीसीएम की तौलियां पहन कर मॉडलिंग किया करती थी और सूर्या नामक पत्रिका निकाला करती थी जिसमें जनता सरकार के दौरान जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए जगजीवन राम के बेटे सुरेश राम और उनकी प्रेमिका सुषमा की अश्लील तस्वीरें उस पत्रिका की आमुख कथा के तौर पर उन्होंने प्रकाशित की थी। जगजीवन राम का प्रधानमंत्री बनना हमेशा के लिए स्थगित हो गया था। 
वरुण गांधी और राहुल गांधी के बीच अगर तुलना की जाए तो वह एक अक्षम्य अपराध होगा। सच तो यह है कि राहुल गांधी राजनीति के बाबा लोगों में गिने जाते हैं और यह भी सही है कि उन्होंने भी कई बार कुछ बचकाने बयान दिए हैं मगर सही यह भी है कि बचकाने होने के बावजूद राहुल गांधी ने कभी आपराधिक बयान नहीं दिए जो उनके चचेरे भाई वरुण ने दे डाला। वरुण और राहुल के बीच उतना ही अंतर है जितना राजीव गांधी और संजय गांधी में था। राहुल गांधी बड़े भाईयों की तरह विनम्र थे और संजय गांधी बिगड़े हुए छोटे भाईयों की तरह उदंड और हमलावर थे। 
यही सही है कि इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे संजय को ही अपना राजनैतिक उत्तराधिकार सौपना चाहती थी और अगर संजय गांधी की असमय एक दुर्घटना में मृत्यु नहीं हुई होती तो इतिहास कुछ और ही होता। राजीव गांधी बहुत बेमन से और श्रीमती सोनिया गांधी को लगभग नाराज कर के राजनीति में आने के लिए तैयार हुए थे और इंदिरा गांधी की निर्लज्ज हत्या नहीं होती तो राजीव गांधी इतनी जल्दी प्रधानमंत्री नहीं बनते। 
वरुण गांधी पिछला चुनाव इसलिए नहीं लड़ पाए थे क्योंकि वे 25 साल के नहीं थे। अब वे 29 साल के हैं। लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में पढ़ चुके हैं जहां एक जमाने में मनमोहन सिंह भी पढ़े थे। इसके अलावा लंदन के एक विश्वविद्यालय से वरुण ने अफ्रीका संबंधी विषयों पर विशेषज्ञता हासिल की है। वे कविताएं भी लिखते हैं और उनका एक कविता संकलन अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुका हैं जिसके नाम का मोटा मोटा अनुवाद करें तो यही होगा कि अपने होने का बेगानापन। वरुण ने जो किया है उसके बाद भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी जिसके वे सदस्य हैं, को तय करना पड़ेगा कि उन्हें इस बूढ़े होते जा रहे बच्चे के साथ क्या करना है? 

Wednesday, February 25, 2009

परिधि की यात्रा करते थे चंद्रदत्त तिवारी


अरूण कुमार त्रिपाठी
नई दिल्ली,  फरवरी-लखनऊ से अंबरीश कुमार ने तिवारी जी के जाने की खबर दी तो तमाम आदर्शवादी सपनों का पूरा जमाना याद आ गया।आज जब विचार से केन्द्र की यात्रा करने की होड़ लगी हो तब चंद्रदत्त तिवारी जसे राजनीतिक कार्यकर्ता अपने विचार केन्द्र से परिधि की ही यात्रा करते रहे। इस यात्रा में दो ही उपकरण उनके साथ रहे, एक साइकिल और दूसरी वैचारिक ईमानदारी। बाकी सब लोग और सामान आते-जते रहे और दुग्धधवल कुर्ता-पायजमा पहने तिवारी जी अपने जीवन को वैसे ही साफ सुथरा और कलफ की क्रीज लगा छोड़कर चले गए। आज समाजवाद के नाम पर गठित उत्तर प्रदेश की एक पार्टी का चुनाव चिन्ह भले साइकिल है, पर उसके नेताओं के दौरे के लिए हर समय चार्टर प्लेन खड़ा रहता है। वे परिधि से केन्द्र की यात्रा में दिन-रात लगे हैं। तिवारी जी इस प्रवृत्ति के ठीक उलटे थे। सन १९८0 में जब पुनीत टंडन और अतुल सिंघल ने रहस्यपूर्ण तरीके से लखनऊ विश्वविद्यालय के हास्टल के कमरे से उठाकर पेपर मिल कालोनी के उस पहली मंजिल के फ्लट में पहुंचाया तो विचारों की दुनिया ही बदल गई। आचार्य नरेन्द्र देव के चित्र लगे तिवारी जी के ड्राइंग रूप में तरह-तरह के विचारों और विभूतियों के दर्शन हुए और बड़े-बड़े लोगों से तर्क-वितर्क करने की समङा और हिम्मत आई। 
यही पर एसएन मुंशी जसे रेडिकल ह्यूमनिस्ट से मुलाकात हुई। यही दर्शन शास्त्र की प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा, समाजवादी नेता सर्वजीत लाल वर्मा, कम्युनिस्ट नेता जेड ए अहमद, रमेश चंद्र सिन्हा, समाजवादी नेता सुरेन्द्र मोहन, संस्कृति समीक्षक कृष्ण नारायण कक्कड़, चित्रकार रणवीर सिंह विष्ट, केजी मेडिकल कालेज के पूर्व प्रिंसपल व जेपी के सहयोगी डाक्टर एमएल गुजराल, गिरि इंस्टीट्यूट के निदेशक डाक्टर पपोला, अर्थशास्त्री डाक्टर पीडी श्रीमाली, समाजवादी शिक्षक भुवनेश मिश्र, छात्र नेता और समाज शास्त्री आनंद कुमार, निर्मला श्रीनिवासन, समीक्षक वीरेन्द्र यादव और मुद्रा राक्षस जसी चर्चित विभूतियों से मिलने और उनके ज्ञान और विचार की चर्खी पर अपने को शान चढ़ाने का मौका मिला। 
यहीं राजीव, प्रमोद और आशुतोष मिश्र जसे अग्रज मिले और यहीं चंद्रपाल सिंह, हरजिंदर, अंबरीश कुमार, अनूप श्रीवास्तव, शायर अशोक हमराही और जनेन्द्र जन जसे मित्र भी मिले। हर इतवार को होने वाली इस गोष्ठी में इतना जोश भर दिया कि हम लोग पढ़ाई-लिखाई छोड़कर क्रांति के ही बारे में सोचने लगे। इसी केन्द्र के प्रभाव में मैंने अंतद्र्वद्व शीर्षक से एक कविता लिख डाली। उसमें एक युवा छात्र के मन की वही दुविधा थी कि पिता से सपनों पर खड़े होकर कैसे करूंगा क्रांति।
साहित्यिक प्रतिभा  के धनी अतुल सिंघल की सलाह पर उसे दिनमान में भेज तो दो-तिहाई पेज में छप गई। एक तरह मैं कवि के रूप में चर्चित हुआ तो दूसरी तरफ विचार केन्द्र में डाक्टर रूप रेखा वर्मा ने इस दुविधा के चलते मेरी क्रांतिकारिता पर संदेह किया। तिवारी जी की खिचड़ी खाते हुए विचारों के अदहन पर हम लोग इतना खदबदाने लगे कि एक दिन कृष्ण नारायण कक्कड़ ने बाहर चाय की दुकान पर पूछ ही लिया कि क्या यहां तुम लोग विद्वानों को धोबी की तरह पछीटने के लिए बुलाते हो। इसी केन्द्र के लोगों के साथ लखनऊ में पचासों बार धरने और प्रदर्शन में शामिल हुआ और विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति को प्रभावित किया और इसी केन्द्र की ईमानदारी का असर था कि चुनाव लड़ने से पीछे हट गया।
हममें से तमाम लोग लखनऊ के विचार छोड़कर केन्द्र की तरफ आए और तिवारी जी से संपर्क छूट गया। लगभग दस साल बाद तिवारी जी दिल्ली के आईटीओ स्थित नरेन्द्र निकेतन में मिले तो मुङो पहचान नहीं पाए। जब राजीव और प्रमोद कुमार ने याद दिलाया तो प्रेम से गले लगा लिया और फिर खिचड़ी खिलाकर ही विदा किया। तिवारी जी के जने की खबर अंबरीश ने दी तो तमाम आदर्शवादी सपनों का पूरा जमाना याद आ गया। मुंशी जी के निधन पर केजी मेडिकल कालेज में टहलते हुए तिवारी जी ने देह दान को एक आदर्श बताते हुए वैसा ही करने का संकल्प जताया था और किया भी। समाजवाद को हिन्दुत्व की ओर मोड़ने में लगे भुवनेश जी बहुत पहले चले गए थे। कक्कड़ साहब और विष्ट जी जसे लोग भी लखनऊ जने पर नहीं मिलेंगे। पुनीत टंडन के सहारे दिल्ली आया था पर वे पहले ही छोड़ गए। अनूप श्रीवास्तव की संवाद शली हंसाकर प्रसन्न कर देती थी पर उन्हें भी जने की जल्दी थी। इस बड़े खालीपन के बावजूद तिवारी जी के विचार केन्द्र में सादगी और विचारों की ईमानदारी की जो चाभी भरी है, उससे ये मन केन्द्र में रहते हुए भी बार-बार परिधि के लोगों की तरफ भागता रहता है। एक समर्पित समाजवादी का यह क्या कोई कम योगदान है?
लेखक- हिन्दुस्तान, दिल्ली के वरिष्ठ समाचार संपादक हैं।

Saturday, February 14, 2009

ऐसे सड़क पर गिराकर पीटी गई लड़किया



अंबरीश कुमार
लखनऊ,  फरवरी। उत्तर प्रदेश में मायावती की पुलिस का अभियान जरी है। गुरूवार को शिक्षकों की पिटाई हुई तो शुक्रवार को पत्रकार पिटे। आज शनिवार को छात्राओं का नंबर आया। पुलिस ने इस बेरहमी के साथ दो छात्राओं को पीटा कि उन्हें अस्पताल ले जना पड़ा। वेलेन्टाइन दिवस ़के दिन लफंगों और शोहदों के बाद पुलिस ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। शहर के एक हिस्से में बजरंगी संस्कृति की रक्षा करने में जुटे थे तो विधानसभा के सामने महिला पुलिस ने दो छात्राओं के साथ जो सुलूक किया, वह शर्मनाक था। हालांकि लखनऊ के एसपी-कानून व्यवस्था रघुवीर लाल ने कहा, ‘मुख्यमंत्री का पुतला फूंकने पर आमादा छात्राएं महिला कांस्टेबिल से भिड़ गई थीं जिसकी वजह से उन्हें सख्ती से पेश आना पड़ा। बाद में शांति भंग की आशंका में तीन छात्राओं व चार छात्रों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।’
छात्राओं की पिटाई की फोटो से साफ है कि पुलिस ने किस तरह उनके कपड़ों पर हाथ डाल रखा है। दोनों छात्राओं प्रियंका लाल और अर्चना गोस्वामी को पुलिस ने इतनी बेरहमी से पीटा कि उन्हें अस्पताल ले जना पड़ा। समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने कहा-मायावती के राज में पुलिस पूरी तरह बेकाबू हो गई है। ला कालेज की छात्राओं ने आज विधि प्रथम सेमेस्टर परीक्षा की कापियों की पुन: जंच को लेकर जब प्रदर्शन किया तो पुलिस ने उन पर लाठियां चलाई। जिसके चलते समाजवादी महिला सभा की प्रदेश सचिव प्रिंयका लाल और अर्चना गोस्वामी को गंभीर चोंटे आई। अर्चना गोस्वामी को सिविल अस्पताल में भर्ती कराया गया है। प्रदर्शन में अन्य छात्रों के अलावा सौरभ शर्मा, अनामिका, सुपर्ण समदरिया आदि शामिल थे।
गौरतलब है कि डाक्टर भीमराव आंबेडकर ला कालेज के छात्र-छात्राएं विधि प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा को लेकर आंदोलनरत हैं। इस कालेज के ६0 छात्रों में से सिर्फ दो ही छात्र इस बार पास हुए हैं। छात्र इस बात से काफी नाराज थे और आंदोलन के चलते १२ फरवरी से भूख हड़ताल पर बैठे थे। आज इन्हीं छात्र-छात्राओं ने जब मुख्यमंत्री का पुतला फूंकने का प्रयास किया तो महिला पुलिस कांस्टेबिल के साथ उनकी ङाड़प हुई। छात्राएं अपने आंदोलन के चलते जब पुतला फूंकने पर अड़ गई तो उनकी बुरी तरह पिटाई की गई। पिटाई के साथ-साथ पुलिस ने उन्हें सड़क पर गिरा कर मारना शुरू किया। बाकी कहानी इसकी फोटो खुद बता दे रही है। इससे पहले गुरूवार को शिक्षकों के प्रदर्शन के दौरान जो फोटो ली गई थीं, उनमें एडीएम डाक्टर अनिल कुमार पाठक एक शिक्षक के सिर पर जूता मारते नजर आ रहे थे। इसके बाद कल एडीशनल एसपी परेश पांडेय ने पत्रकारों की धुनाई की। इस कड़ी में भय मुक्त समाज की पुलिस ने आज छात्राओं को सड़क पर गिराकर मारा।जनसत्ता 


Friday, February 13, 2009

पत्रकारों पर लाठिया,कई घायल


अंबरीश कुमार
लखनऊ , फरवरी। खबरों की कवरेज पर गए पत्रकारों की आज यहां सीबीआई कोर्ट में पुलिस ने बर्बरता से पिटाई की। कल ही शिक्षकों की पुलिस ने धुनाई की थी। इससे पहले वाराणसी बम धमाकों के आरोपी वलीउल्लाह को जब अदालत में पेश किया गया तो कुछ वकीलों ने उसकी पिटाई की और पत्रकार जब बीच में आए तो उनकी भी ठुकाई की गई। आज की घटना लखनऊ के सीबीआई कोर्ट परिसर में हुई जहां माफिया डान बबलू श्रीवास्तव पेशी पर आया था। पेशी के दौरान ही बबलू श्रीवास्तव के समर्थकों और पुलिस के बीच कुछ कहासुनी हुई जिसके बाद एडीशनल एसपी परेश पांडेय ने बबलू श्रीवास्तव के समर्थकों की पिटाई शुरू करवा दी। बीच में कुछ पत्रकारों को जनबूङाकर निशाना बनाया गया और उन्हें भी लाठियों से पीटा गया। इस घटना में जिन पत्रकारों को चोट आई, उनमें जी न्यूज के आलोक पांडे, आईबीएन ७ के परवेज, लाइव इंडिया के मंजुल, वाइस आफ इंडिया के तारिक और स्टार न्यूज के कैमरामैन प्रेम सिंह शामिल हैं। इस घटना से पत्रकार काफी उत्तेजित हुए और वित्त मंत्री लालजी वर्मा की बजट के बाद हुई प्रेस कांफ्रेंस का बायकाट कर दिया।
स्टार न्यूज के पत्रकार पंकज ङा के मुताबिक इस घटना में वाइस आफ इंडिया के पत्रकार तारिक के टूटे हाथ के प्लास्टर पर भी लाठी चलाई गई जिससे उसका प्लास्टर टूट गया। चश्मदीदों के मुताबिक सीबीआई कोर्ट में जसे ही माफियाडान बबलू श्रीवास्तव पेशी पर पहुंचा, टीवी पत्रकारों की टीम उसकी तरफ लपकी। यह देखते ही एडीशनल एसपी परेश पांडेय ने कहा-यही साले सब हीरो बना देते हैं। आज किसी को भी अंडरट्रायल से बातचीत नहीं करने दी जएगी। इस पर कुछ पत्रकारों से विरोध जताते हुए कहा कि वे हमेशा से बातचीत करते आए हैं। इस पर पांडेय उत्तेजित होकर चिल्लाने लगा और बोला-अभी तक जो करते आए हो, करते आए हो, अब नहीं करने दूंगा। इस पर जसे ही पत्रकार आगे बढ़े, परेश पांडेय लाठी लेकर दौड़े और उनके पीछे दूसरे पुलिस वालों ने भी पत्रकारों की पिटाई शुरू कर दी। इस मामले में परेश पांडेय को देर शाम ट्रांसफर कर दिया गया और बाजर खाला और कैसरबाग सीओ के साथ पांडेय के खिलाफ जंच के आदेश दे दिए गए।
इससे पहले इस घटना को लेकर पत्रकारों के बीच में आए कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह से भी टकराव हुआ। पत्रकार एडीशनल एसपी परेश पांडेय को हटाने की मांग कर रहे थे। बाद में सरकार ने पांडेय को हटाने का एलान किया। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार आने के बाद से पत्रकारों का उत्पीड़न कम नहीं हो रहा है। गोरखपुर प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष और आईबीएन सेवन के वरिष्ठ पत्रकार शलभमणि त्रिपाठी ने कहा-आए दिन पत्रकारों को निशाना बनाया ज रहा है। जहां भी मौका मिलता है, सरकार के अफसर पत्रकारों को फर्जी मामलों में फंसाने से लेकर जलील करने तक में पीछे नहीं रहते। पुलिस का रवैया तो और भी खराब है। आज जिस अधिकारी को लेकर टकराव हुआ, उसका व्यवहार पहले से ही बेकाबू था।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश का सूचना विभाग के कुछ अफसर पत्रकारों को जलील करने में पीछे नहीं हैं। इनमें सबसे ऊपर नाम सूचना विभाग के एक बददिमाग अफसर एके उपाध्याय का है। इस अफसर के व्यवहार से कई पत्रकार बुरी तरह नाराज हैं। आज कबीना मंत्री अनंत कुमार मिश्र को भी इसकी अनौपचारिक जनकारी कुछ पत्रकारों ने दी। जिसके कुछ देर बाद ही सीबीआई कोर्ट में हुई घटना ने पत्रकारों को और उत्तेजित कर दिया।
समाजदी पार्टी ने पत्रकारों पर पुलिसिया कार्याई की घोर निन्दा की है। सपा ने कहा है कि प्रदेश की राजधानी में सीबीआई कोर्ट में पत्रकारों पर हुए लाठीचार्ज ने एक बार फिर यह स्थापित कर दिया है कि मायाती सरकार को न तो प्रेस की स्तंत्रता से मतलब है, न मानाधिकारों से और नहीं उसमें सम्यता का कोई अंश शेष है। यह पूर्णतया निरंकुश, फासिस्ट तथा तानाशाह सरकार है जो पुलिस-प्रशासन तंत्र का उपयोग लोगों को भयांक्रांत करने में करती है। उसका भयमुक्त और कानून का राज स्थापित करने का दाव  ङाूठा और मक्कारी भरा है। पुलिस ऊपरी शह के कारण प्रदेश में जंगलराज कायम किए हुए है। राजधानी में महिलाओं का सड़क पर निकलना निरापद नहीं है। सूदखोरों को खुली छूट है जिससे उत्पीड़ित लोग जन दे रहे है। अपराधी सत्तादल में संरक्षित है। 
सपा प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने कहा चूंकि प्रेस अपनी शक्ति भर सरकार की काली करतूतों को बेनकाब करता है इसलिए उसको अब कुचलने का पूरा इंतजम हो गया है। वैसे भी मुख्यमंत्री पत्रकारों के साथ अच्छा व्यहार नहीं करती है और अप्रिय सालों पर धमकी देने से भी बाज नहीं आती हैं। प्रेस के काम करने की आजदी उन्हें रास नहीं आती है। समाजवादी पार्टी ने अधिकारियों को भी चेतानी दी कि वे मायाती के कारिदों की तरह काम न करें। प्रेस की आजदी पर कोई भी चोट बर्दाश्त नहीं होगी। समाजदी पार्टी की घायल पत्रकारों के साथ सहानुभूति है और सरकार को इसके लिए सदन में तथा सदन के बाहर जबवही देनी होगी।जनसत्ता 




Thursday, February 12, 2009

‘द स्टेट्समैन’ के संपादक गिरफ्तार
जनादेश ब्यूरो
कोलकाता। कोलकाता में पुलिस ने अंग्रेज़ी अख़बार ‘द स्टेट्समैन’ के संपादक और प्रकाशक को गिरफ़्तार कर लिया है। इन दोनों पर मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का आरोप लगाया गया है।मुस्लिम सुमदाय के कुछ लोगों ने अख़बार के संपादक रवींद्र कुमार और प्रकाशक आनंद सिन्हा के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई थी। इससे पहले अखबार में प्रकाशित एक आलेख को लेकर लोगों ने प्रदर्शन किया था। संयुक्त पुलिस आयुक्त प्रशासन प्रदीप चटर्जी ने कहा कि द स्टेट्समैन के संपादक रवीन्द्र कुमार और इसके मुद्रक व प्रकाशक आनंद सिन्हा को  एक शिकायत पर उनके आवास से 
गिरफ्तार किया गया।
मोहम्मद शाहिद ने यहां बऊबाजार थाने में शिकायत दर्ज कराई थी। कुमार और शर्मा को पुलिस ने मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट एस एस आनंद के समक्ष पेश किया और उन्हें पांच हजार रूपए के मुचलके पर अंतरिम जमानत दे दी गई।न्यायाधीश ने अपने आदेश में कहा कि इस मामले की अगली सुनवाई 25 फरवरी को होगी।जोहान हैरी का व्हाई शुड आई रेस्पेक्ट दीज आप्रेसिव रीलिजन्स यानी मुझे इन दमनकारी धर्मों का आदर क्यों करना चाहिए शीर्षक से प्रकाशित आलेख पहले द इंडिपेंडेंट में छपा था और पांच फरवरी को यहां द स्टेट्समैन में उसे दोबारा प्रकाशित गया।
आलेख के खिलाफ मुसलिम संगठन छह फरवरी से ही द स्टेट्समैन दफ्तर के सामने प्रदर्शन कर रहे थे। शिकायत में कहा गया कि पैगम्बर के बारे में उक्त लेख के कथन में कोई सच्चाई नहीं है और जानबूझ कर इसे दोबारा छापा गया है। दूसरी ओर, संपादक और प्रकाशक ने कहा है कि उन पर जानबूझकर बुरे इरादे से आलेख प्रकाशित करने का आरोप लगाया गया है जो सही नहीं है। जमाते-उलेमा-ए-हिंद से जुड़े कुछ लोगों ने शिकायत दर्ज की है कि 'द स्टेट्समैन’ में छपे लेख से उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं जो भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध है। इसबीच, संपादक रवींद्र कुमार ने पत्रकारों को बताया कि अख़बार में लेख को दोबारा छापने के लिए वे पहले ही माफ़ी मांग चुके हैं। उन्होंने कहा कि मैं मानता हूं कि संपादकीय स्तर पर यह एक गलती थी, लेकिन ऐसा जानबूझकर नहीं किया गया।जिस लेख यह बवाल मचा है उसे यहाँ पर पढ़ा जा सकता है।



ब्लॉग पर राजनीती

संजीत त्रिपाठी 
रायपुर। ऐसा माना जाता है कि छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के पुत्र अमित जोगी को चर्चाओं में बना रहना खूब आता है या यूं कहें कि उनकी करीबन हर हरकत चर्चा बन जाती है। इस बार अमित  ने अपने ब्लाग  के जरिए कांग्रेस नेताओं पर जमकर भड़ास निकाली है। वे विधानसभा चुनाव में पार्टी की पराजय के लिए अपने पिता को जिम्मेदार नहीं मानते। वहीं अपने पिता की उन्होंने खूब तारीफ की है पर उनके विरोधियों पर जमकर कटाक्ष किया है। 
अमित ने पार्टी की नीतियों का पोस्टमार्टम करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि अजीत जोगी को छोड़कर चलने की नीति से कांग्रेस को नुकसान हुआ है। पिछले पांच साल से अजीत जोगी और उनके किसी भी समर्थक को कोई पद नहीं मिला। 
अमित जोगी ने लिखा है कि पार्टी ने विधानसभा चुनाव में एनसीपी से गठबंधन कर भाजपा को तीन सीटें तोहफे में दे दी। मनेन्द्रगढ़ में कांग्रेस काबिज थी। सामरी में एनसीपी के प्रत्याशी को कुछ सौ वोट ही मिले और चंद्रपुर में एनसीपी के प्रदेश अध्यक्ष व विधायक नोबेल वर्मा कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने राजी किए जा सकते थे। 
वे कांग्रेस में अपने पिता के विरोधियों पर कटाक्ष करने से भी पीछे नहीं रहे। मोतीलाल वोरा की ओर इशारा करते हुए उन्होंने लिखा है कि उन्हीं ने पांच साल पहले जोगी को छोड़कर चलने की नीति लागू की। इकलौते सांसद अजीत जोगी को केंद्र में स्थान नहीं दिया गया। केंद्रीय चुनाव समिति की बैठकों से दूर रखा गया। गंगा पोटाई के बारे में कहा कि एक महिला 1990 से लगातार चुनाव हार रही है। अमित के मुताबिक अपनी हार के लिए अजीत जोगी को जिम्मेदार ठहराने वाले पीसीसी नेताओं ने अपनी प्रचार सामग्री में श्री जोगी की तस्वीरों का खुलकर उपयोग किया। वे लोग चुनाव में अपने क्षेत्र से बाहर तक नहीं निकले और हार भी गए। 
अमित ने अपने पिता की तारीफ करते हुए लिखा है कि उन्होंने मरवाही का एक बार भी दौरा नहीं किया फिर भी सबसे अधिक वोटों से जीते। अजीत जोगी के संसदीय क्षेत्र में पार्टी को सात सीटें मिली। इनमें राजिम, धमतरी की सीटें भी है जहां भाजपा काबिज थी।
नेता प्रतिपक्ष के बारे में उन्होंने लिखा है कि अजीत जोगी को विधायक दल का नेता बनाने अधिकांश विधायकों ने हस्ताक्षर किए थे, फिर भी उपेक्षा हुई। इतना काफी नहीं था। ऐसे व्यक्ति रविंद्र चौबे को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया जिसे बनाने अजीत जोगी पांच साल से प्रयासरत थे। उनकी नियुक्ति तब की गई जब उन्होंने अपने आप को मेरे पिता से दूर कर लिया। 
सलवा जुडूम वोट बैंक
उन्होंने सलवा जुडूम को वोट बैंक भुनाने का सुनियोजित तरीका करार दिया है। पूर्व नेता प्रतिपक्ष सलवा जुडूम का नेतृत्व कर रहे थे और पार्टी ने इस मसले पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने से परहेज किया। इसका फायदा भाजपा ने उठाया।
गौरतलब है कि  अमित जोगी ने कुछ अरसा पहले राज्य के आदिवासियों और मछुआरों के साथ दिन बिताए था। बताया जाता है कि इसका उद्देश्य अमित जोगी को आम आदमी के जीवन में आने वाली मुश्किलों को समझने के लायक बनाना था। इस दौरान वे  राज्य के ताला गांव में रहे। हालांकि इस बारे में पूरी गोपनीयता बरती गई थी। अमित जोगी के आदिवासियों के बीच रहने के इस अभियान के पीछे उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत के रूप में देखा गया था। ताकि वे अपने पिता पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के नक्शे कदम पर चल सकें। ताला गांव की आबादी करीब 700 है। यहां पर अधिकतर लोग गोंड आदिवासी जाति और केवट मछुआरा जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय की सतनामी जाति के लोग रहते हैं। 
राजधानी रायपुर से करीब 150 किलोमीटर दूर बिलासपुर जिले में मनियारी नदी के किनारे यह गांव बसा है। सूत्रों के मुताबिक अमित पिछले चार वर्षों से विवादों में रहे हैं। इसलिए उन्होंने गरीब जनता के लिए काम करने का निर्णय लिया। इसके लिए उसने ग्रामीण इलाके के गरीब लोगों के साथ रहने की शुरुआत की। सूत्रों ने आगे कहा कि अमित ने गोंड जनजाति और केवट जाति के लोगों के साथ रात और दिन बिताया। इसका उद्देश्य अमित को आम आदमी की जिंदगी में आने वाली दिन प्रतिदिन की दिक्कतों के बारे में प्रशिक्षित करना है। अमित को कभी 'छत्तीसगढ़ का संजय गांधी' कहा जाता था, क्योंकि उनकी अधिकतर गतिविधियों से विवाद पैदा हो जाता था। कहा जाता है कि अजीत जोगी के मुख्यमंत्री रहते अमित की सरकारी कामकाज में भागीदारी बढ़ गयी थी।
 

Monday, February 9, 2009

राजनैतिक मोर्चा बनाने में जुटे मुसलिम

अंबरीश कुमार
लखनऊ, फरवरी। मंदिर-मसजिद मुद्दा गरमाते ही उत्तर प्रदेश में मुसलिम राजनीति भी गरमाने लगी है। उत्तर प्रदेश में असम की तर्ज पर मोर्चा बनाने की पहल कुछ मुसलिम संगठन करने ज रहे हैं। एक तरफ बदरूद्दीन अजमल का आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट १६ फरवरी को बैठक और रैली करने ज रहा है तो दूसरी तरफ आधा दजर्न मुसलिम संगठन ११ फरवरी को लखनऊ में बैठक करने ज रहे हैं। इन संगठनों व दलों में नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी, उलेमा काउंसिल, मोमिन कांफ्रेंस, परचम पार्टी, पीस पार्टी, नेशनल लोकहिन्द पार्टी और नवभारत निर्माण पार्टी शामिल हैं। नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी के अध्यक्ष अरशद खान ने कहा कि सांसद शाहिद अखलाक हमारे मोर्चे में शामिल हो चुके हैं और समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुररहमान बर्क को मोर्चा चुनाव में मदद करेगा। वे निर्दलीय संभल से लड़ने ज रहे हैं। इसके अलावा यदि आजम खान भी मन बनाते हैं तो मोर्चा उनका भी समर्थन करेगा। अरशद खान के बयान से साफ है कि उत्तर प्रदेश में नए तरह का मुसलिम मोर्चा बनाने की कवायद तेज हो चुकी है। 
खास बात यह है कि मुसलिम संगठनों और दलों की सारी कवायद के बाद भी उत्तर प्रदेश के ज्यादातर मुसलिम मतदाता के सामने सिर्फ दो ही विकल्प हैं, या तो वे भाजपा की मदद से तीन बार सत्ता में आई मायावती के साथ जएं या फिर कल्याण सिंह के साथ खड़े मुलायम सिंह के साथ।  पिछले कुछ चुनाव के अनुभव से साफ है कि मुसलिम मतदाताओं का रूङान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बजय नई राजनीति की तरफ हो रहा है। 
उत्तर प्रदेश में मुसलिम राजनीति फिर गरमाने लगी है। असम में नए प्रयोग के साथ करीब दस विधायक जिताने वाले बदरूद्दीन अजमल अब उत्तर प्रदेश में दखल देने ज रहे हैं। अजमल का यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट १६ फरवरी को मेरठ में बैठक करने ज रहा है। उनके साथ उत्तर प्रदेश के कुछ महत्वपूर्ण मुसलिम नेता ज सकते हैं। राजनैतिक हलकों में माना ज रहा है कि समाजवादी पार्टी के कुछ असंतुष्ट मुसलिम नेताओं के साथ मुसलिम क्षेत्रों में काम करने वाले कुछ संगठन व दल भी इनके साथ खड़े हो सकते हैं। खास बात यह है कि उत्तर प्रदेश की वाम राजनीति से जुड़े लोग भी इनका समर्थन हालात देखकर कर सकते हैं। इस लिहाज से यह ध्रुवीकरण भी महत्वपूर्ण माना ज रहा है। 
दूसरी तरफ आल इंडिया मुसलिम मजलिस की पहल पर ११ फरवरी को लखनऊ में एक बैठक बुलाई गई है। मजलिस के कार्यवाहक अध्यक्ष यूसुफ हबीब और उपाध्यक्ष बदर काजमी ने कहा-११ फरवरी को होने वाली बैठक में नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी, पीस पार्टी, परचम पार्टी, मोमिन कांफ्रेंस और उलेमा काउंसिल आदि हिस्सा लेने ज रहे हैं। इस बैठक के बाद नए मोर्चे के गठन की प्रक्रिया शुरू की जएगी। गौरतलब है कि बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद आजमगढ़ के संजरपुर में मुसलिम राजनीति काफी गरमाई और मानवाधिकार संगठन पीयूएचआर ने मुसलिम नौजवानों के हक में सवाल उठाया था। पर अब पीयूएचआर पीछे रह गया और उलेमा ने नया संगठन खड़ा कर दिया। जनकारी के मुताबिक उलेमा काउंसिल आजमगढ़, जौनपुर और लालगंज लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ सकती है। हालांकि मानवाधिकार संगठन का मानना है कि आजमगढ़ के मुसलिम नौजवानों की लड़ाई को उलेमा अब राजनैतिक मोड़ दे चुके हैं। ये लोग हाल ही में ट्रेन लेकर दिल्ली गए थे और अब लखनऊ आने वाले हैं। 
उत्तर प्रदेश की मुसलिम राजनीति की खास बात यह है कि पिछले कई चुनाव से मुसलिम मतदाता आम तौर पर सपा और बसपा में बंट जते हैं। चुनाव से पहले इस तरह के मुसलिम संगठन हर बार नई-नई कवायद करते हैं पर चुनाव में इनका असर ज्यादा नहीं होता। नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी जसे अपवाद को छोड़कर ज्यादातर मुसलिम संगठन हवा-हवाई हैं। 
इस बार भी मुसलिम मतदाता मूल रूप से दो ही खेमों में बंटने वाले हैं। जिसमें बड़ा हिस्सा मुलायम के साथ खड़ा होगा, यह तय है। कल्याण सिंह के साथ खड़े होने के बावजूद मुलायम सिंह मुसलमानों की पहली पसंद हैं। एक मुसलिम नेता ने नाम न देने की शर्त पर कहा-आप मायावती को वोट दो या फिर आडवाणी को। बात तो बराबर है। तीन बार आडवाणी के समर्थन से मायावती सत्ता में आ चुकी हैं और अब दिल्ली की बारी है। आडवाणी अगर खुद न बन पाए तो वे मायावती को ही आगे करेंगे। 

Friday, February 6, 2009

फिर उबल रहा है लालगढ़


रीता तिवारी
कोलकाता। पश्चिम मेदिनीपुर जिले का लालगढ़ वाममोर्चा सरकार और उसकी सबसे बड़ी घटक माकपा के गले की फांस बन गया है। कुछ दिनों तक शांत रहने के बाद आदिवासियों के ताजा आंदोलन के चलते वह एक बार फिर उबलने लगा है। इस बार मुद्दा है एक माकपा नेता की शवयात्रा के दौरान हुई गोलीबारी में तीन आदिवासियों की मौत का। इसके विरोध में आदिवासी एक बार फिर लामबंद हो गए हैं। माकपा की दलील है कि आदिवासियों ने उस शवयात्रा पर हमला किया था। उसी के बाद हिंसा भड़की। वाममोर्चा ने भी इस मामले में सरकार व पार्टी का यह कह कर बचाव किया है कि तृणमूल कांग्रेस सहित कुछ विपक्षी दल सरकार विरोधी आंदोलन को हवा दे रहे हैं। मोर्चा प्रमुख विमान बोस ने कहा है कि लालगढ़ में दिन में जो लोग तृणमूल कांग्रेस और झारखंड पार्टी के बैनर तले आंदोलन कर रहे हैं, वे रात को माओवादी हो जाते हैं। वाममोर्चा ने लालगढ़ और दार्जिलिंग की समस्या सुलझाने पर सरकार के प्रयासों का समर्थन किया है। यहां आयोजित वाममोर्चा की बैठक में इस मुद्दे पर सरकार का समर्थन किया गया और लोकसभा चुनाव के मद्देनजर मोर्चा की एका बहाल रखने पर सहमति हुई। बोस ने कहा कि सरकार धैर्यपूर्वक लालगढ़ मसले का समाधान निकालने का प्रयास कर रही है। लेकिन तृणमूल कांग्रेस समेत कुछ विपक्षी दल सरकार विरोधी आंदोलन को हवा दे रहे हैं। ममता बनर्जी के बिना किसी सुरक्षा व्यवस्था के ही लालगढ़ दौरे पर जाने पर टिप्पणी करते हुए बोस ने कहा कि ममता वहां अशांति फैलाने ही गई थी। लालगढ़ में अत्याचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व चक्रधर महतो कर रहे हैं जो तृणमूल के नेता हैं। 
लेकिन तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी ने तीन आदिवासियों की हत्या के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराया है। उन्होंने कहा कि कई महीनों से लालगढ़ अशांत है और हालात सामान्य करने के लिए जिला प्रशासन की ओर से कोई पहल नहीं की गई। माओवादियों की धर-पकड़ के लिए लालगढ़ में तलाशी के दौरान अगर महिलाओं के साथ बदसलूकी की घटना नहीं घटती तो लालगढ़ में इस कदर विरोध नहीं बढ़ता। विपक्ष का सवाल है कि शवयात्रा में कोई बंदूक और गोली के साथ तो नहीं जाता। फिर गोलियां कैसे चलीं। उसका आरोप है कि यह सब सुनियोजित था और प्रशासन मूक दर्शक बना रहा।  ममता खुद भी दो दिन पहले लालगढ़ का दौरा कर चुकी हैं।
उन्होंने कहा कि तृणमूल किसी की हत्या को उचित नहीं ठहराती लेकिन जिस ढंग से माकपा के जुलूस के दौरान आदिवासियों पर गोली चलाई गईं उससे लगता है कि प्रशासन माकपा काडरों के सामने मूकदर्शक बन गया था। अगर प्रशासन चाहता तो इन हत्याओं को रोका जा सकता था। उन्होंने कहा कि मुख्य विपक्षी दल की हैसियत से तृणमूल कांग्रेस ने कई बार केन्द्र को राज्य की कानून व व्यवस्था की स्थिति के बारे में जानकारी दी है। इसके बावजूद आज तक एक भी केन्द्रीय टीम नंदीग्राम व लालगढ़ नहीं आई। उन्होंने कहा कि वाममोर्चा के 32 वर्षो के शासन के बावजूद आदिवासियों के विकास के लिए कुछ नहीं किया गया। अब जब वे अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं तो उन पर पुलिस कार्रवाई हो रही है।
ताजा हिंसा के बाद लालगढ़ में स्थानीय लोग भी बंद बुला चुके हैं और कांग्रेस भी।  राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि लालगढ़ का जख्म अब धीरे-धीरे एक नासूर बनता जा रहा है जो अगले लोकसभा चुनाव तक रिसता रहेगा। ऐसे में यह समस्या सत्तारुढ़ वाममोर्चा और माकपा के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित हो सकता है।
 
 

Thursday, February 5, 2009

सौम्या विश्वनाथन का नाम सुना है तो पढ़े



अरविन्द उप्रेती 
नई दिल्ली,  फरवरी- टुडे समूह की पत्रकार की सौम्या विश्वनाथन की हत्या के मामले में श्रम विभाग भी सक्रिय हुआ है। श्रम विभाग के मुख्य निरीक्षक केआर वर्मा की शिकायत पर विशेष मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट जवेद असलम ने चैनल के मालिक अरुण पुरी को सम्मन जारी किया है। अपनी शिकायत में वर्मा ने अभियुक्त पुरी और उनके चैनल के खिलाफ दिल्ली दुकान व ठिकाना अधिनियम १९५४ की धारा ४0 के तहत कार्रवाई की सिफारिश की है। 
इस धारा के तहत कार्रवाई धारा १४ का उल्लंघन करने पर की जती है। धारा १४ में प्रावधान है कि किसी महिला से रात में डयुटी नहीं कराई जा सकती। अगर किसी संस्थान को इस प्रावधान से छूट लेनी हो तो उसके लिए श्रम सचिव के समक्ष आवेदन करना जरूरी है। सौम्या विश्वनाथन की आधी रात के बाद डयुटी से घर लौटते समय पिछले साल ३0 सितंबर को रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हुई थी। दिल्ली के मुख्य श्रम निरीक्षक का कहना है कि आज तक चैनल को धारा १४ के तहत कोई छूट प्रदान नहीं की गई थी। लिहाज उन्होंने सौम्या विश्वनाथन को रात की डयुटी पर रख कर इस कानून का उल्लंघन किया है। 
अदालत में दायर अपनी शिकायत में मुख्य निरीक्षक वर्मा ने दुकान व ठिकाना कानून १९५४ की धारा १४ को उदधृत भी किया है। जिसके तहत किसी नवयुवक या नवयुवती से गर्मियों में रात नौ बजे से सुबह सात बजे तक और सर्दियों में रात आठ बजे से सुबह आठ बजे तक काम नहीं लिया ज सकता। वर्मा ने इस बाबत चैनल को कारण बताओ नोटिस भी जरी किया था। पर अदालत में दायर अपनी शिकायत में वर्मा ने कहा है कि चैनल का जवाब धारा १४ के उल्लंघन के आरोप पर मौन रहा है। अलबत्ता श्रम सचिव को चार नवंबर को भेजे पत्र में चैनल की तरफ से तर्क दिया गया है कि सूचना प्रौद्योगिकी आधारित उद्योग को धारा १४ के तहत मुक्ति हासिल है। पर मुख्य निरीक्षक वर्मा इस सफाई से संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने अपनी शिकायत में कहा है कि केवल कंप्यूटर का इस्तेमाल करने से कोई संस्थान सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित उद्योग नहीं बन जता। 
अदालत में दाखिल शिकायत में वर्मा ने निष्कर्ष निकाला है कि सौम्या को प्रबंधन ने धारा १४ का उल्लंघन कर रात की डच्यूटी पर रखा था। वे तड़के तीन बजे तक डयुटी पर थीं। अपनी शिकायत में वर्मा ने आरोपियों के खिलाफ धारा १४ के उल्लंघन के लिए धारा ४0 के तहत दंडात्मक कार्रवाई की फरियाद की है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इंडियन एक्सप्रेस यूनियन के वाइस प्रेजिडेंट भी है .

Wednesday, January 28, 2009

बिहार में प्रेस पर अघोषित सेंसर

 फज़ल इमाम मल्लिक
पटना , जनवरी। बिहार में सब कुछ ठीक है। क़ानून व्यस्था पटरी पर लौट आई है। विकास चप्पे-चप्पे पर बिखरा है और ख़ुशहाली से लोग बमबम हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। बिहार के अख़बार और समाचार चैनलों से जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है उससे तो बस यही लग रहा है कि बिहार में इन दिनों विकास की धारा बह रही है और निजाम बदलते ही बिहार की तक़दीर बदल गई है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जाहिर है कि इससे गदगद हैं और विकास को देखने अपने लाव-लशकर और गाजे-बाजे के साथ सलतनत को देखने निकले हैं। इस विकास यात्रा का ¨ढढोरा भी कम पीटा नहीं ज रहा है। नीतीश को टेंट में अकेले बैठा दिखाया ज रहा है, ग्रामीणों के साथ खाना खाते उनकी तस्वीरें हर अख़बार छाप रहा है और चैनल उसे सम्मोहित हो कर दिखा रहा है। कुछ चैनलों ने तो कई-कई घंटे तक किसी प्रायोजित कार्यक्रम की तरह नीतीश की शान में क़सीदे पढ़ते हुए उनके राजशाही ठाठ को दिखाया। उन चैनलों को देखते हुए यह लग रहा था कि हम किसी समाचार चैनल पर समाचार नहीं देख रहे हैं बल्कि राज्य सरकार का अपना कोई चैनल देख रहे हैं जो नीतीश कुमार के गुणगान में किसी तरह की कोई कंजूसी नहीं दिखाना चाहता है। उन चैनलों में या अख़बारों में यह कहीं नहीं दिखाया गया कि बिहार के उन गांवों में जहां-जहां नीतीश ने पांव धरे थे वहां इन तीन सालों में कितना और कैसा बदलाव आया। लोकशाही के इस दौर में राजशाही का नमूना इससे पहले दूसरी सरकारों के दौर में तो नहीं ही मिला था। लालू यादव के जंगल राज के दौरान भी नहीं। विकास यात्रा पर निकले नीतीश के ठाठ किसी राज की तरह थे। नर्तकों और कलाकारों का लावलशकर भी उनके साथ पटना से गया था जो रात भर उनका दिल बहलाता। किनकी फ़सलें उजड़ी गईं और किनके घरों को तोड़ा गया, इसकी ख़बर कहीं नहीं थी लेकिन विकास यात्रा की तस्वीरें थीं और नीतीश की घोषणाओं का जिक्र था। ठीक वैसी ही घोषणाएं जो इन तीन सालों में नीतीश करते रहे हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि नीतीश अपनी विकास यात्र के दौरान योजनाओं की ही घोषणा ही करते रहे, बिहार के उन गांवों में तीन सालों में क्या कुछ विकास हुआ इसकी जनकारी उन्होंने देने की जजाहमत तक नहीं उठाई। दरअसल नीतीश की फ़ितरत में यह है भी नहीं। सत्ता में रहते हुए उनमें ख़ुदाई इतनी आ जती है कि उन्हें अपने सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता है। बिहार में जाहिर है कि इन दिनों नीतीश की ख़ुदाई चल रही है और इसके लिए उन्होंने सबसे बड़े हथियार यानी मीडिया को हर तरह से ‘मैनज’ किया है। इस ‘हर तरह’ को अघोषित सेंसर के तौर पर पाठक पढ़ें तो बात ज्य़ादा साफ़ और समङा में आएगी।
सुशासन और विकास को ढोल पीटने वाले नीतीश कुमार के राज में क्या सचमुच सब कुछ ठीक है और विकास की बयार पह रही है। बिहार और खा़स कर दूर-दराा के गांवों में जने के बाद तो यह सब बातें महा छलावा और काग़ाी ही नार आती है। बिहार, शेखपुरा, सिकंदरा, जमुई, लखीसराय, खगड़िया जिलों का दौरा करें सड़कें बद से बदतर। बिजली कब आती है पता नहीं, पीने का साफ़ पानी भी मुयस्सर नहीं। पर पटना में अख़बारों में इन सब पर न तो लिखा गया और न छपा। सड़कों का टेंडर सत्ताधारी पार्टी के किन-किन सांसदों व विधायकों ने लिए और सड़कें नहीं बनीं तो इसकी वजह क्या थी। भ्रष्टाचार एेसा कि पार्टी के बड़े से लेकर छोटे नेता तक टेंडर पास कराने के लिए पैसे की मांग करते हैं। सड़कें अदालतों में ज्यादा बन रही हैं। ठेकेदारों के ङागड़े अदालतें ही निपटा रही हैं। नहीं मैं एेसा नहीं कह रहा कि पहले की सरकारों में एेसा नहीं होता था। ख़ूब होता था। लेकिन अख़बारों या चैनलों में स्याह-सफ़ेद के इस खेल को लेकर हंगामा किया जता रहा था। पर आज एेसा नहीं है। भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी नीतीश सरकार और उनकी नौकरशाही की ख़बरें अब अख़बारों में कहीं दिखाई नहीं देतीं। 
नीतीश के सखा और पार्टी के महžवपूर्ण नेता शंभू श्रीवास्तव ने बिहार सरकार के कामकाज को लेकर हाल में ही जो टिप्पणी की उससे नीतीश की लफ्फ़ाजी की पोल पट्टी खुल जती है। उन्होंने पत्रकारों से बातचीत करते हुए साफ़-साफ़ कहा- नीतीश के तीन साल के शासनकाल में प्रदेश में नौकरशाही हावी है। नौकरशाही में भ्रष्टाचार के कारण ही बिहार में निेश कम हो रहे हैं जिससे प्रेश का औद्यौगीकरण नहीं होने से रोजगार की तलाश में यहां से लोगों का दूसरे प्रेशों में पलायन जारी है और बिहार में उद्योग की स्थापना नहीं होने से रोजगार की तलाश में प्रेश से पिछले बीस सालों के ौरान करीब एक चौथाई आबाी का पलायन हुआ है और इसके लिए उन्होने र्तमान नीतीश सरकार सहित बिहार की सभी पिछली सरकारों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि राज के पिछले १५ सालों के शासन के ौरान प्रेश में किसी भी क्षेत्र में निेश हुआ ही नहीं लेकिन प्रेश की र्तमान नीतीश सरकार के तीन सालों के शासनकाल में ९२ हजार करोड़ रु पए के निेश किए जाने को लेकर समङाौते किए जा चुके हैं पर हकीकत यह है कि उसमें से मात्र ६00 करोड़ रु पए का ही अबतक निेश हुआ है जो बिहार जसे बड़े प्रदेश के लिए कुछ भी नहीं है। यहां तक कि कें्र सरकार ने र्तमान त्तिीय र्ष में बिहार में सात हजार कृषि पिणन कें्र खोले जाने के लिए १६७ करोड़ रु पए आबंटित किए थे लेकिन प्रेश के कृषि भिाग के सही समय पर अंकेक्षण और परियोजना रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं किए जाने से राज्य सरकार इसमें से अबतक मात्र ११ करोड़ रु पए ही उठा पाई है। यह नीतीश सरकार के शासन का सच है। यह बातें किसी विपक्ष के नेता ने नहीं कहीं हैं। जनता दल (एकी) के एक क़द्दावर नेता ने यह बातें कहीं हैं। लेकिन मीडिया ने सत्ताधारी दल के इस बड़े नेता का यह बयान भी पटना के अख़बारों में उस तरह नहीं छपा, जिस तरह कभी सुशील कुमार मोदी के बयान को ामक-मिर्च लगा कर पटना के अख़बार छापा करते थे। सवाल पूछा ज सकता है कि सत्ता के बदलाव के साथ ही बिहार में अख़बारों में यह बदलाव आया है। तो जवाब है नहीं। अख़बारों में यह बदलाव आया नहीं है, लाया गया है। सत्ता संभालने के बाद बिहार में सरकार ने सबसे पहला काम मीडिया को ‘मैनेज’ किया और इसके लिए हर वह हथकंडे इस्तेमाल किए गए जो एक तानाशाह या बर्बर शासक करता है। लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में बिहार में ‘जंगलराज’ पर लगभग हर रोज कुछ न कुछ विशेष ख़बरें छपती ही रहती थीं। लालू प्रसाद यादव के पिछड़े प्रेम और अगड़े विरोध ने बिहार में पत्रकारों को उनके ख़िलाफ़ कर दिया। यह मुख़ालफ़त घोषित नहीं अघोषित थी। लालू विरोध और नीतीश प्रेम के बीच सवाल यह है कि बिहार में इस पत्रकारिता ने किस का हित साधा है और इसका किसन ने उपयोग किया है। लालू प्रसाद यादव के पं्रह साल व नीतीश कुमार के तीन साल के शासनकाल के दौरान मीडिया के रवैये से इन सवालों के जवाब मिलते हैं। पिछले तीन साल के दौरान बिहार में मीडिया में विकास की धारा बह रही है और सुशासन का जदू सर चढ़ कर बोल रहा है। ख़बरों को बनाने वाले और उसका संपादन करने वाले छोटी सी छोटी ख़बरों में भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि कहीं इससे नीतीश की उजली छवि पर कोई दाग़ तो नहीं लग जएगा। लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में एेसी बात नहीं थी। तब सुशील कुमार मोदी के बयान को भी आधार बना कर विशेष ख़बरें बना डाली जती थीं। लगभग एेसी ख़बरें रोज़ छापी और छपवाई जतीं थीं, जिससे राजनीतिक रूप से लालू यादव का नुक़सान हो। पर हैरत की बात यह है कि नीतीश कुमार के तीन साल के शासनकाल के दौरान बिहार के अख़बारों ने एक भी एेसी ‘विश्ेष ख़बर’ प्रकाशित नहीं की जिससे नीतीश का राजनीतिक क़द कम होता हो। हद तो यह है कि विपक्षी नेताओं तक के बयान सेसंर किए ज रहे हैं। कभी जनता दल (एकी) के प्रवक्ता रहे संजय वर्मा के अख़बारी मित्र उनसे कहते हैं नीतीश के ख़िलाफ़ कोई बयान मत छपने के लिए भेजिए, छाप देंगे तो नौकरी चली जएगी। नीतीश की मानसिकता और नीतियों की वजह से संजय वर्मा ने पार्टी छोड़ दी और पिछले क़रीब एक साल से वे शंकर आाद और विज्ञान स्वरूप के साथ मिल कर शोषित सर्वण संघर्ष समिति (एस फोर) बना कर नीतीश की कारगुारियों और बदनीयति की जनकारी बिहार के लोगों को दे रहे हैं। एस फोर लोगों के सामने नीतीश के उस चेहरे को सामने रखने में जुटा है जो दिखता नहीं है और जो चेहरा किसी क्रूर तानाशाह का है। पर दिक्क़त यह है कि सारे सबूत देने के बावजूद पटना के अख़बार उनके बयानों को उस तरह नहीं छापते, जिस तरह छापनी चाहिए। सच तो यह है कि राजद के शासनकाल के जिस तरह ख़बरें बनाई ज रहीं थीं, नीतीश के इन तीन सालों में बिहार में ख़बरें दबाई ज रही हैं। 
नीतीश कुमार के शासनकाल में अगस्त में कोसी में आई बाढ़ ने गांव के गांव तबाह कर डाले। लोगों का मानना है कि पिछले एक सदी में आई यह सबसे बड़ी आपदा है। ख़ुद नीतीश ने इसे प्रलय कहा। यह बात अलग है कि नीतीश सरकार के आपदा प्रबंधन के आंकड़े इस बाढ़ को बहुत कम कर आंकता है। आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक़ कुछ सौ लोग इस बाढ़ में मारे गए हैं। पर कोसी अंचल ज कर बाढ़ की विनाशलील का पता लगता है। शंकर आाद के साथ अभी-अभी सुपौल, मधेपुरा और अररिया के उन इलाकों में जने का मौक़ा मिला तो तबाही को देख कर दिल परेशान हो गया। लोगों का कहना है कि बाढ़ में कम से कम पचास हार लोग मारे गए हैं। नीतीश कुमार इन आंकड़ों को दबा रही है ताकि सहायता को मिले १५0 हार करोड़ की रक़म का घपला किया ज सके। कोसी क्षेत्र में सुपौल से लेकर निर्मली और फिर ललितग्राम, प्रतापपुर, पिपरा, नरपतगंज उधर अररिया के बतनाहा से लेकर फारबिसगंज, बनमखी व पूर्णिया, मधेपुरा के कुमारखंड प्रखंड का रामनगर, मुरलीगंज, बभनगांवा, सुखासन व बिहारीगंज इलाक़े में बाढ़ की विभिषिका पूरी सच्चई के साथ दिखाई देती है। खेत बालू से पटे हैं, घर तालाब बन गए हैं और इन इलाकों का संपर्क राज्य के दूसरे हिस्सों से लगभग ख़त्म है। सड़क व रेल मार्ग दोनों ही संपर्क टूट चुका है। पटरियां उखड़ी पड़ी हैं और हालत एेसी है कि फ़िलहाल उसे बनाया भी नहीं ज सकता। बाढ़ को लेकर नीतीश लाख सफ़ाई दें पर इतना तो साफ़ है कि राज्य सरकार की लापरवाही की वजह से कोसी का तटबंध टूटा था। पर मीडिया संवेदनहीन बना रहा। नीतीश की विकास यात्रा को प्रमुखता से प्रकाशित करने वाले अख़बार या इसका सीधा प्रसारण करने वाले समाचार चैनलों के लिए कोसी की बाढ़ कोई ख़बर नहीं है। वहां क्या हालात हैं और बाढ़ से तबाह हुए लोगों को क्या कुछ राहत मिला है या मिल रहा है उस पर एक भी खोजपरक रिपोर्ट बिहार के अख़बारों में देखने को नहीं मिली। जबकि उन गांवों को फिर से बसने में सालों लग जएंगे। सरकारी स्तर पर कोसी के बाढ़ प्रभावित इलाकों में एेसा कुछ नहीं किया गया है जिसे लेकर उसकी पीठ ठोंकी जए। पर बिहार के अख़बार एेसा कर रहे हैं। सरकारी दावों व आंकड़ों को पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापा ज रहा है और बाढ़ की त्रासदी को कम से कम दिखाने की कोशिश की जती रही है। महीनों बीत जने के बाद भी किसी पत्रकार ने यह हिम्मत नहीं जुटाई कि कोसी के सच को सामने लाया ज सके। 
बिहार में सामाजिक न्याय और समाजवाद पर कभी बड़ी-बड़ी बातें कहने वाले और लालू यादव के ‘कुंबा प्रेम’ पर पन्ने के पन्ने स्याह करने वाले किसी पत्रकार ने नीतीश कुमार के जतीय और नालंदा प्रेम को उजगर करने की ाहमत नहीं उठाई। नालंदा जिला के नीतीश कुमार जति से कुर्मी हैं और उन्होंने पार्टी के महिला व युवा अध्यक्ष पद पर अपने ही जिला के कुर्मी नेताओं को बैठाया है। किसी ने कभी कहा था कि ‘नशेमन लुट ही जने का ग़म होता तो क्या ग़म था, यहां तो बेचने वालों ने गुलशन बेच डाला है’। नीतीश पर यह बात पूरी तरह लागू होती है। सिर्फ़ इन दो पदों पर ही वे अपनी बिरादरी और जिले के लोगों को बिठाते तो कोई बात नहीं थी। उन्होंने तो मानव संसाधन विकास मंत्री, मुख्य सचेतक विधानसभा व विधानपरिषद, लोकायुक्त, वरिष्ठ उपाध्यक्ष नागरिक परिषद, मुख्यमंत्री के प्रधान व निजी सचिव, अध्यक्ष संस्कृति परिषद व राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के जिलाधिकारी, पटना के ग्रामीण एसपी व पटना मेडिकल कॉलेज के सुपरिटेंडेंट के पदों पर अपनी बिरादरी व गृह जिला के लोगों का ला बिठाया है। थोड़ी पड़ताल की जए तो यह सूची और भी लंबी हो सकती है पर नीतीश के इस जतीय प्रेम पर पटना के मीडिया में कोई सुगबुगाहट तक नहीं है। बिहार में पत्रकारिता का यह नया चेहरा है जो नीतीश ने गढ़ा है और उनकी सरकार इसे आकार देने में लगी है। वर्ना क्या कारण है कि कर्मचारियों की हड़ताल की वजह से उत्पन्न स्थिति पर अख़बारों में ख़बरें अंदर के पन्नों पर जगह पाती हैं जबकि इस हड़ताल से बिहार में पूरा तंत्र चरमरा गया है और कामकाज ठप है। लेकिन मीडिया चुप होकर सारा तमाशा देख रही है। हड़ताल पर सरकार अपना पक्ष रखते हुए अख़बारों में विज्ञापन देती है, अगले दिन उसी विज्ञापन के आधार पर अख़बार इसे लीड ख़बर बना कर कर्मचारियों को विलेन बताने की कोशिश में जुट जती है। कभी भारतीय जनता पार्टी चाल, चरित्र और चेहरा की बात करती थी। बिहार के मीडिया के संदर्भ में अब यह कहा ज सकता है कि उसका चाल, चरित्र और चेहरा इन तीन सालों में पूरी तरह बदल गया है।
बिहार में मीडिया इन दिनों भीतर व बाहरी दबावों से जूङा रहा है। बाहरी दबाव पत्रकारों का वह पुराना ‘लालू प्रेम’ है, जिसने सुशील कुमार मोदी के बयानों को आधार बना कर ‘स्पेशल स्टोरी’ बनाई। पर यह बाहरी दबाव बहुत ज़्यादा ख़तरनाक नहीं है। भीतरी दबाव नीतीश कुमार की तानाशाही है और यह यादा ख़तरनाक है। नीतीश और उनके सलाहकारों ने बहुत ही सलीक़े से पत्रकारों को अपना मुसाहिब बनाने के लिए हर वह हथकंडा अपनाया, जो सत्ता में बने रहने के लिए ारूरी है। नीतीश के कुछ नादीकी लोगों की बात मानें तो बिहार में पत्रकारों को पालतू व भ्रष्ट बनाने के लिए बाक़ायदा मुहिम छेड़ी गई और पत्रकार इसका शिकार बन कर सरकार के क़सीदे पढ़ने लगे। सरकारी विज्ञापनों का इस्तेमाल कर प्रबंधकों को भी स्याहको सफ़ेद करने के लिए ललचाया गया। ाहिर है कि एेसे में खोजपरक ख़बरें तो छपने से रहीं। बिहार के कुछ पत्रकारों ने ही यह भी बताया है कि अख़बारों को भेजे गे विपक्षी दलों के बयान तक छपने से पहले मुख्यमंत्री की टेबल पर पहुंचाए जते हैं। समाचार एजंसियों तक में ख़ुफ़िया विभाग के अधिाकीर घूमते रहते हैं कि कहीं कोई ख़बर सरकार के खि़लाफ़ तो चलाई नहीं ज रही है। यहां तक कि दिल्ली से चलाई गई ख़बरों को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय से निर्देश आते हैं कि सरकार की नकारात्मक छवि वाली ख़बरें नहीं चलाईं जएं। एेसा ही निर्देश अख़बारों के दफ़्तरों तक भी पहुंचाए जते हैं। ाहिर है कि इसके बाद दिल्ली से जरी कोई ख़बर बिहार के अख़बारों में नहीं छपतीं और छपती भी हैं तो सरकार की नकारात्मक छवि को गौण करने के बाद। बिहार में यह अघोषित सेंसरशिप बहुत ही सुनयिोजित ढंग से लागू किया गया है और अख़बारों को अपने हित में इस्तेमाल कर उसे राज्य सरकार का भोंपू बना डाला गया है। फै़ा अहमद फैज ने कभी कहा था कि ‘मताए लौह-ओ-क़लम छिन गया तो क्या ग़म है, कि ख़ून-ए-दिल में डुबो दी हैं उंगलियां मैंने’, पर बिहार में मीडिया पर पहले बिटा दिए गए हैं और ख़ून-ए-दिल में उंगिलियां डुबोने वाला कोई नजार नहीं आ रहा है। बिहार में जगन्नाथ मिश्र के अख़बारों पर लगाए गए प्रतिबंध को काला क़ानून बताते हुए कभी देश भर के पत्रकारों ने इसका विरोध किया था, आज नीतीश कुमार के अघोषित काला क़ानून पर कहीं कोई सुनगुन तक नहीं। यह बड़ी चिंता की बात है।

Tuesday, January 13, 2009

जनादेश अब नए तेवर के साथ

जनादेश अब नए कलेवर और नए तेवर के साथ दूसरे वर्ष में प्रवेश कर चुका है। राजनीति की विशेष खबरों के साथ पर्यटन, साहित्य, संस्कृति और मीडिया पर हमारा फोकस बना हुआ है। इन न्यूज वेबसाइट की सफलता का प्रमाण हमारी मौजूदा रैंकिंग है जिसने हमें देश की चुनिंदा हिन्दी न्यूज वेबसाइटों में शामिल कर दिया है। इसके साथ ही करीब दो दजर्न से ज्यादा देशों में जनादेश को देखा ज रहा है। 
इस पोर्टल का शुभारंभ एक जनवरी, 2007 को चेन्नई में लोकनायक जयप्रकाश नारायण और मीडिया जगत के भीष्म पितामह रामनाथ गोयनका के सहयोगी स्वतंत्रता सेनानी शोभाकांत दास के हाथों हुआ था। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनादेश में पहला लेख लिखकर इसका शुभारंभ किया था। पिछले एक वर्ष में इस वेबसाइट में जिन लोगों की रिपोर्ट और लेख छपे हैं, उनमें प्रभाष जोशी, सुरेन्द्र किशोर, कुलदीप नैयर आलोक तोमर, सुशील कुमार सिंह, शंभु नाथ शुक्ल, अभय कुमार दुबे, अरूण शौरी, सुप्रिया राय, प्रभात रंजन दीन, राज कुमार सोनी, राज नारायण मिश्र, मयंक भार्गव, रीता तिवारी, संदीप पौराणिक, नंदनी मिश्र, संजीत त्रिपाठी और प्रोफेसर प्रमोद कुमार शामिल हैं। दूसरी तरफ कार्टूनिस्ट  इरफान का योगदान भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहा।
अब यह वेबसाइट डाइनमिक हो चुकी है। इसकी गुणवत्ता में लगातार सुधार का प्रयास जरी रहेगा। इस वर्ष हमारा लक्ष्य देश के अलग-अलग हिस्सों से राष्ट्रीय स्तर के पचास संवाददाताओं की टीम बनाना है। इसके लिए पहल हो चुकी है। छत्तीसगढ़ के बस्तर से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों की विशेष खबरें हमने दी हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम विधानसभा चुनाव की कवरेज भी जनादेश ने की। आप सभी ने जनादेश को जो सहयोग दिया है, उसे जारी रखकर हमारा हौसला बढ़ाएं।

सविता वर्मा
www.janadesh.in

Monday, January 12, 2009

मीडिया पर नया हमला, फ़िर आ रहा है काला कानून

मीडिया पर नया खतरा मंडराने लगा है .इस खतरे को लेकर देश के 15 संपादको ने प्रधामंत्री को पत्र लिखकर विरोध जताया है .इन संपादको में राजदीप सरदेसाई,बरखा दत्त,अजित अंजुम ,दीपक चौरसिया ,कमर वाहिद नकवी ,सुप्रिय प्रसाद ,आशुतोष,अर्नब गोस्वामी,विनय तिवारी आदि शामिल है.खतरा टीवी चैनल से सुरु होकर समूचे मीडिया की तरफ़ बढ़ने वाला है .खतरे की तरफ़ इशारा करती एक रपट. इस बारे में हर घटनाक्रम की जानकारी जनादेश पर दोनों भाषाओ में .
चौथे स्तंभ को दफनाने की तैयारी
शाज़ी जमां
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को दफनाने की तैयारी शुरू हो चुकी है। आवाम के आंखों पर काली पट्टी बांधने की साजिश रची जा चुकी है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग मीडिया की धार भोथरी करने का फैसला कर चुके हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए कंटेट कोड को अंतिम रूप दिया जा चुका है। माना जा रहा है कि ये कोड इस जनवरी के अंत तक जारी कर दिया जाएगा। वैसे तो इस कोड के ज़रिये उन परिस्थियों में मीडिया कवरेज को रेगुलेट करने की बात कही गई है, जब राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई ख़तरा हो। लेकिन गौर से देखे तो ये साफ है कि इस काले कानून की आड़ बहुत आसानी से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सेंसरशिप लागू किया जा सकता है।
सरकार की ओर से तैयार कंटेट कोड में ये साफ है कि आतंकवादी हमला, सांप्रादायिक दंगा, हाईजैकिंग या बंधक बनाये जाने जैसी किसी भी वारदात के दौरान मीडिया अपनी ओर से कोई कवरेज नहीं कर पाएगी। न्यूज़ चैनलों को सिर्फ वही फुटेज दिखाना पड़ेगा जो सरकारी अधिकारी उपलब्ध कराएंगे। यानी घटना को लेकर सरकारी अमला अपनी कहानी पकाएगा और मीडिया कनपटी पर बंदूक रखकर उसे बाध्य किया जाएगा कि वो उस कहानी जनता के सामने उसी तरह पेश करे। मामला यहीं खत्म नहीं होता। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा और आपत्तकालीन स्थिति को सरकारी अधिकारी अपने हिसाब से परिभाषित करेंगे और इस तरह वो ख़बर दबा दी जाएगी, जिससे सरकारी तंत्र कटघरे में खड़ा होता हो। क्या ये मीडिया का गला घोंटने की साजिश नहीं है? 
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सेंसरशिप से शुरु हुआ ये सिलसिला प्रिंट और दूसरे प्रसार माध्यमों तक जाएगा। मीडिया के हाथ से लोकतंत्र के पहरेदार की भूमिका छिन जाएगी और मुमकिन है, हमें उसी दौर में लौटना पड़े जो इमरजेंसी के वक्त था। लोकतंत्र की हत्या के इस काले कानून के विरोध के लिए हमने अभियान चलाने का फैसला किया है। आप भी जुड़िये इस अभियान से।
अपनी ज़रूरत और सुविधा के मुताबिक फतवा खरीदा जा सकता है! संसद में सवाल पूछने और काम करवाने के लिए सांसद दोनों हाथों नोट बटोर सकते हैं! किसी बेगुनाह को मारने के लिए पुलिस वाले सुपारी ले सकते हैं और उस बेरहम कत्ल को बड़ी सहजता से एनकाउंटर का नाम दे सकते हैं! मेटरनिटी होम के डॉक्टर बच्चों की खरीद-फरोख्त कर सकते हैं! अनाथालयों में पल रहे मासूमों को खरीदकर गुनाह के रास्ते पर धकेला जा सकता है! इतना ही नहीं एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष कैमरे पर दिन-दहाड़े रिश्वत लेते हुए नज़र भी आ सकते हैं। 
आपको इन तस्वीरों की याद दिलाने की ज़रूरत नहीं। पिछले कई बरसों में टीवी चैनलों पर ये तस्वीरें आपने अनगिनत बार देखी होंगी। इन ख़बरों ने देश को हिलाया था और सच परदा हटाया था। टीवी पत्रकार होने के नाते हमें इन ख़बरों पर नाज हैं। लेकिन ये ख़बरे हमारे जेहन में अचानक इसलिए बार-बार कौंध रही हैं क्योंकि न्यूज़ चैनलों के ख़िलाफ सत्ता के गलियारे में एक ख़तरनाक खेल चल रहा है। मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद टीवी चैनलों को बदनाम करने की सुनियोजित साजिश के तहत बकायदा एक अभियान चलाया रहा है। सरकारी हलकों से कंटेंट कोड की खुसफुसाहट लगातार सुनाई दे रही है। वही कोड जिसका मकसद पत्रकारिता की धार को पूरी तरह कुंद करना है और न्यूज़ चैनलों पर नकेल डालकर उन्हे पालतू बनाना है। कंटेंट कोड एक बेहद ख़तरनाक साजिश है और आंख मूंदकर इसका समर्थन करने से पहले ये समझ लेना चाहिए कि मीडिया और पूरे देश पर इसका असर क्या होगा।
निरंकुश सत्ता हमेशा ख़तरनाक होती है। निरंकुशता चाहे सरकार की हो, न्यायपालिका या फिर मीडिया की, वो अच्छी नहीं है। इतना हम भी समझते हैं कि किसी भी सभ्य समाज में मीडिया के लिए भी कोई ना कोई लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए। लेकिन बड़ा सवाल है-- ये लक्ष्मण रेखा कौन खीचेगा। हम बचपन से पढ़ते आये हैं कि लोकहित में सरकार के हर कदम पर नज़र रखना मीडिया की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र की ये एक बुनियादी शर्त है। लेकिन कंटेट कोड के ज़रिये उल्टी गंगा बहाने की तैयारी है। यानी मीडिया सरकार पर नहीं बल्कि सरकार मीडिया पर नज़र रखेगी। जब सरकार ये तय करने लगेगी कि पब्लिक इंट्रेस्ट क्या है, तो फिर तमाम चैनल दूरदर्शन जैसे बन जाएंगे। क्या पब्लिक कभी ये चाहेगी कि इस देश के सारे चैनल दूरदर्शन मार्का हो जायें।मैं दूरदर्शन जैसे सरकारी प्रसारण तंत्र के ख़िलाफ इसलिए नहीं हूं कि वो नीरस और उबाउ है, बल्कि असल में दूरदर्शन जनता के प्रति बिल्कुल भी उत्तरदायी नहीं है, जैसा कि इसे बताया जाता है।
मैं टीवी पत्रकारिता से जुड़े कुछ लोगों की सरकारी अधिकारियों से मुलाकात का एक दिलचस्प वाकया पेश करना चाहूंगा। इस मुलाकात में कुछ अधिकारियों ने ये शंका जाहिर की कि अपने काम करने के अंदाज़ से न्यूज़ चैनल दंगा करवा सकते हैं। इस पर मेरे एक पत्रकार मित्र ने जवाब दिया है-- ये क्षमता सिर्फ एक ही चैनल में है और वो है- दूरदर्शन। अपनी इस क्षमता का नमूना दूरदर्शन ने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के कवरेज़ में पेश कर दी थी, जब भयंकर सिख विरोधी दंगे भड़के थे। ज़ाहिर है, जब सत्ता से जुड़े ऐसी समझ वाले लोग हमारी निगरानी करेंगे तो फिर उनपर नज़र कौन रखेगा। 
हमें अपनी कमजोरियों का पता है। इसलिए न्यूज़ चैनलों ने सेल्फ रेगुलेशन की व्यवस्था बनाई है। कंधार विमान अपहरण कांड जैसे ही खत्म हुआ सरकार ने मीडिया को संयम बरतने के लिए धन्यवाद दिया। लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ उससे हमारे प्रति सरकार का नज़रिया बदल गया। क्या इसकी वजह ये थी कि न्यूज़ चैनल जनता के आक्रोश को सामने लाने का मंच बन गये? मुझे इसमें शक है। सच तो ये है कि पब्लिक के गुस्से की कहानी जब मीडिया के ज़रिये सामने आई और ये साफ हो गया कि पूरा तंत्र अपने नागरिकों की हिफाजत में नाकाम है, तो सरकार बुरी तरह हिल गई। जब हुक्मरान और सियासतदां हिले तो ऐसे-ऐसे बचकाने बयान सामने आये जो पहले कभी नहीं सुने गये। बतौर बानगी.. `ये लिपिस्टिक लाली लगाकर हमारी बहने प्रदर्शन करती हैं'-- 
इस तरह के बयान सत्ता और राजनीतिक तंत्र की नाकामी के अभूतपूर्व नमूने थे। 24 घंटे चलने वाले हमारे न्यूज़ चैनलों ने इन बयानों पर नेताओं की बखिया उधेड़कर रख दी। 
26 नवंबर के आतंकवादी हमले के बाद सरकार ने चैनलों को सुझाव दिया कि वो इसके असर को दबा दें। क्या ये जनता के सच जानने, देखने और समझने के अधिकार का हनन था? हमने भी ये महसूस किया कि मुंबई वारदात की कवरेज़ से जुड़ी तस्वीरे दिखाने से पहले उन्हे आम आदमी की संवेदनशीलता की कसौटी पर कसा जाना चाहिए था। लेकिन क्या ये सरकार तय करेगी कि आम आदमी की संवेदनशीलता कैसी और कितनी होनी चाहिए? क्या हम सुरक्षा में हुई ऐतिहासिक चूक की वो तस्वीर हमेशा के लिए मिटा दें जो एक अरब लोगों के दिलो-दिमाग़ में कैद हो चुकी हैं। या फिर हम ये तय करे कि 26-11 को हम कभी नहीं भूलेंगे और ऐसी घटनाओं की पुनरावृति नहीं होने देंगे।
अगर सरकार ने न्यूज़ चैनलों पर कंटेट कोड लागू कर दिया तो आप वो तस्वीरे और ख़बरें नहीं देख पाएंगे जिनका जिक्र मैंने अपने लेख की शुरुआत में किया था। समझा जा सकता है कि कंटेट कोड के क्या नतीजे होंगे और इससे क्या हासिल होगा। 
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प्रधामंत्री को पत्र 
letter to the prime minister from tv editors


12th January 2009


Mr. Manmohan Singh,
The Prime Minister of India.

Dear Manmohan Singhji,

We are sure you are aware that the proposed measures to gag the electronic media have caused immense disquiet in the journalistic fraternity and amongst all those who believe in the freedom of expression.

As editors, we believe that the media is the watchdog to keep democracy and democratic principles alive. If instruments of the state begin to regulate us, the damage to democracy and all stakeholders in democracy would be irreparable. It is all the more surprising that this is happening when you are directly holding charge of the ministry of Information and Broadcasting.

We are aware that our right to keep a vigil also brings with it a responsibility to function according to the highest standards of ethics and national interest. We firmly believe that in a democracy media needs self-regulation and not regulation. The electronic media fraternity has already made significant movement in this direction. In view of this, we urge you to immediately suspend the proposed measures.

We would like to personally meet and impress upon you the historical blunder that these measures would be. They would for all times taint this government as one that tried to impose draconian measures on media and forever remind us that the emergency is not yet a closed chapter in this country.

Hoping for an appointment at the earliest.


Best regards
1. Ajit Anjum, News 24
2. Arnab Goswani, Times Now
3. Ashutosh, IBN 7
4. Barkha Dutt, NDTV 24X7
5. Deepak Chaurasia, Star News
6. Milind Khandekar, Star News
7. N K Singh, ETV
8. Pankaj Pachauri, NDTV India
9. QW Naqwi, Aaj Tak
10. Rajdeep Sardesai, CNN IBN
11. Satish K Singh, Zee News
12. Shazi Zaman, Star News
13. Supriya Prasad, News 24
14. Vinay Tiwari, CNN IBN
15. Vinod Kapri, India TV

चौथे खंभे को धराशायी करने की साजिशः सुप्रिय प्रसाद
लोकतंत्र के सबसे चौथे खंभे को उखाड़ने की कोशिशें सिर उठा रही हैं। इस खंभे को कमजोर करने की कोशिश कोई दुश्मन नहीं कर रहा है। मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप थोपकर केंद्र सरकार उसे नख दंतविहीन बना देना चाहती है। अपने हक की लड़ाई लड़ रही जनता पर अगर सरकारी दमन हुआ और उसके फुटेज आपके पास हैं तो उसे आप दिखा नहीं पाएंगे। मुंबई पर हुए हमलों की कवरेज का बहाना बनाकर सरकार अपना छिपा एजेंडा लागू करना चाहती है। वो न्यूज चैनलों को अपना गुलाम बनाना चाहती है। अगर सरकार अपनी मंशा में कामयाब हो गई तो कोई दावा नहीं कर पाएगा कि सच दिखाते हैं हम। क्योंकि सच वही होगा, जो सरकार कहेगी। आपके फुटेज धरे के धरे रह जाएंगे। दंगा हो या आतंकवादी हमला। इमरजेंसी की हालत में सरकारी मशीनरी ज्यादातर मूक दर्शक बनी रहती है। सरकार चाहती है कि मीडिया भी उसी तरह मूक दर्शक बनी रहे। हाथ पर हाथ धरे तमाशा देखती रहे। ये वक्त हाथ पर हाथ धरकर बैठने का नहीं है। मीडिया पर सेंसरशिप लगाने की इस साजिश को नाकाम करने का वक्त है। (सुप्रिय प्रसाद न्यूज 24 चैनल के न्यूज डायरेक्टर हैं। )


पाक मीडिया हमसे ज्यादा आजादः विनोद कापड़ी
-सबसे ब़ड़ा सवाल ये है कि सरकार पर नजर रखने के लिए मीडिया बनी है या मीडिया पर नजर रखने के लिए सरकार बनी है। मीडिया का काम ही यही है कि वो सरकार पर नजर रखे, जनता की बात जनता तक पहुंचाए, सरकार को बताए कि वो ये गलत कर रही है। लेकिन यहां तो स्थिति बिल्कुल उलटी हो चुकी है। सरकार मीडिया को बता रही है कि ये गलत है और ये सही है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसे सही नहीं ठहराया जा सकता। आप पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की हालत देखिए। कितनी अराजकता है, लोकतंत्र नाम की चीज नहीं है, लेकिन वहां का मीडिया हमसे ज्यादा आजाद है। हमारी सरकार को क्या ये नहीं दिखाई देता। मीडिया पर सेंसरशिप का सरकारी ख्याल कतई लोकतांत्रिक नहीं है। ये प्रेस की आजादी पर हमला है।
(विनोद कापड़ी इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडिटर हैं)

सरकार को इतनी जल्दी क्यों हैं -आशुतोष
इस रेगुलेशन से सरकारी मंशा पर सवाल खड़े होते हैं..। क्योंकि टीवी चैनल पर कुछ दिनों पहले ही पूर्व चीफ जस्टिस जेएस वर्मा के नेतृत्व में एक इमरजेंसी गाइड लाइन बनाई गई थी। सारे चैनलों ने इसे लागू करने की बात भी कही थी, लेकिन सरकार ने इस इमरजेंसी गाइडलाइन को ही सिरे से नकार दिया, जबकि सरकार को इस गाइडलाइन के तहत चैनलों को काम करने देना चाहिए, जो उसने नहीं किया। सवाल ये है कि सरकार इतनी जल्दी में क्यों है? वो सेल्फ रेग्यूलेशन के खिलाफ क्यों है? ये एक बड़ा सवाल है। (आशुतोष आईबीएन 7 के मैनेजिंग एडिटर हैं)

प्रेस की आजादी पर हमला-सतीश के सिंह
आजाद भारत के इतिहास में प्रेस की आजादी पर इससे बड़ा अंकुश लगाने की, इससे बड़ी कोशिश कभी नहीं हुई। सरकार न सिर्फ टीवी बल्कि प्रिंट और वेब मीडिया पर भी अपना अंकुश लगाना चाहती है। सरकार की ये कोशिश किसी मीडिया सेंसरशिप से कम नहीं है। प्रेस के लिए बाकायदा कानून हैं। अगर कोई विवाद की स्थिति होती है तो संस्था और पत्रकारों पर मुकदमे चलते ही हैं, लेकिन सरकार अब जो करने की कोशिश कर रही है वो प्रेस की आजादी पर हमला है, फंडामेंटल राइट्स के खिलाफ है। (सतीश के सिंह जी न्यूज के एडिटर हैं)






Wednesday, January 7, 2009

भाजपा में ठाकुरवाद हावी-साहू

संजीत त्रिपाठी
रायपुर, जनवरी । भारतीय जनता पार्टी से 6 साल के लिए निष्कासित किए गए दुर्ग के सांसद ताराचंद साहू ने पार्टी को दिमागी रूप से दिवालिया करार देते हुए कहा है कि योजनापूर्वक षड़यंत्र कर उन्हें शिकार बनाया गया है क्योंकि पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पांडे को विधानसभा चुनाव में हरवाने के लिए तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, मुख्यमंत्री रमन सिंह समेत संगठन महामंत्री सौदान सिंह की मौन सहमति थी। उन्होंने अपने भावी कदमों का खुलासा न करते हुए कहा कि वे छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के तहत आंदोलन को गांव-गांव तक पहुंचाएंगे। दुर्ग सांसद ने कहा कि वे जगदलपुर सरगुजा को छोड़कर अन्य स्थानों पर भाजपा को नुकसान पहुंचाने में सक्षम हैं।
स्थानीय प्रेस क्लब में खचा-खच भरी संवाददाताओं की भीड़ में उन्होंने मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को 'निरीह प्राणी' बताते हुए कहा कि मुख्यमंत्री, पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ रविशंकर प्रसाद व सौदान सिंह ने षड़यंत्र कर उन्हें पार्टी से निकाला है। यह पहली ऐसी राजनैतिक पार्टी होगी जिसने चार साल पहले की घटनाओं पर कारण बताओ नोटिस जारी किया है। हालांकि एक घटना हाल में हुए विधानसभा चुनाव की है। 
उन्होंने कहा कि उन्होंने गैर छत्तीसगढ़ियों को डराने-भगाने या मारने की बात कभी नहीं कही बल्कि सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि वे शासन व शोषण की बातें सोचें भी नहीं दुर्ग सांसद ने आरोप लगाया कि छत्तीसगढ़ भाजपा में बाहरी लोग हाबी हैं जो इसे उपनिवेश मानकर शोषण कर रहे हैं। जो इनकी जी-हजूरी नहीं करते स्वाभिमान की बात करते हैं उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। जो छत्तीसगढ़ की माटी, स्वाभिमान व तरक्की की बातें करते हैं। उनके लिए कोई स्थान भाजपा में नहीं है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि पार्टी छोड़ने वाले समर्थकों की कतार लग जाएगी। वहीं जान का खतरा होने के सवाल पर उनका कहना था कि वे जान हथेली पर लेकर निकले हैं। उन्होंने कहा कि 6 महीने बाद यह एहसास होगा कि रमन कर गद्दी खतरे में है या नहीं। उन्होंने कहा कि जो रविशंकर प्रसाद खुद एक सरपंच नहीं बन सकते वे अगर हमें अनुशासन का पाठ पढाएंगे तो कतई बर्दाश्त नहीं होगा। 
  भाजपा में 'सिंह' लॉबी हावी
निष्कासित सांसद ने आरोप लगाया कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में 'सिंह' लॉबी हावी है। उन्होंने कहा कि पार्टी के दुर्दिन आ रहे हैं। एक तरफ भावी प्रधानमंत्री के रूप में अडवाणी को प्रोजेक्ट किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ पूर्व उप राष्ट्रपति शेखावत कह रहे हैं कि वे अडवाणी को प्रधानमंत्री पद पर उम्मीदवार नहीं बनने देंगे व खुद चुनाव लडेग़े। इसी से साबित होता है कि पार्टी का अंदरूनी हाल क्या है। 
रमन छत्तीसगढ़िया नहीं बल्कि प्रतापगढ़िया
पार्टी से निष्कासित किए गए ताराचंद साहू ने कहा कि मुख्यमंत्री रमन सिंह खुद छत्तीसगढ़िया नहीं बल्कि प्रतापगढ़िया हैं। उनका मूल स्थान यूपी का प्रतापगढ़ है। इसी तरह उनकी सूची में किसी अन्य नेता का भी नाम शामिल होने के सवाल पर उन्होंने भाजपा नेत्री सरोज पांडेय का नाम लिए बगैर स्वीकार किया कि हां एक महिला नेत्री के खिलाफ भी वे मुहिम चलाएंगे।