अरूण कुमार त्रिपाठी
नई दिल्ली, फरवरी-लखनऊ से अंबरीश कुमार ने तिवारी जी के जाने की खबर दी तो तमाम आदर्शवादी सपनों का पूरा जमाना याद आ गया।आज जब विचार से केन्द्र की यात्रा करने की होड़ लगी हो तब चंद्रदत्त तिवारी जसे राजनीतिक कार्यकर्ता अपने विचार केन्द्र से परिधि की ही यात्रा करते रहे। इस यात्रा में दो ही उपकरण उनके साथ रहे, एक साइकिल और दूसरी वैचारिक ईमानदारी। बाकी सब लोग और सामान आते-जते रहे और दुग्धधवल कुर्ता-पायजमा पहने तिवारी जी अपने जीवन को वैसे ही साफ सुथरा और कलफ की क्रीज लगा छोड़कर चले गए। आज समाजवाद के नाम पर गठित उत्तर प्रदेश की एक पार्टी का चुनाव चिन्ह भले साइकिल है, पर उसके नेताओं के दौरे के लिए हर समय चार्टर प्लेन खड़ा रहता है। वे परिधि से केन्द्र की यात्रा में दिन-रात लगे हैं। तिवारी जी इस प्रवृत्ति के ठीक उलटे थे। सन १९८0 में जब पुनीत टंडन और अतुल सिंघल ने रहस्यपूर्ण तरीके से लखनऊ विश्वविद्यालय के हास्टल के कमरे से उठाकर पेपर मिल कालोनी के उस पहली मंजिल के फ्लट में पहुंचाया तो विचारों की दुनिया ही बदल गई। आचार्य नरेन्द्र देव के चित्र लगे तिवारी जी के ड्राइंग रूप में तरह-तरह के विचारों और विभूतियों के दर्शन हुए और बड़े-बड़े लोगों से तर्क-वितर्क करने की समङा और हिम्मत आई।
यही पर एसएन मुंशी जसे रेडिकल ह्यूमनिस्ट से मुलाकात हुई। यही दर्शन शास्त्र की प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा, समाजवादी नेता सर्वजीत लाल वर्मा, कम्युनिस्ट नेता जेड ए अहमद, रमेश चंद्र सिन्हा, समाजवादी नेता सुरेन्द्र मोहन, संस्कृति समीक्षक कृष्ण नारायण कक्कड़, चित्रकार रणवीर सिंह विष्ट, केजी मेडिकल कालेज के पूर्व प्रिंसपल व जेपी के सहयोगी डाक्टर एमएल गुजराल, गिरि इंस्टीट्यूट के निदेशक डाक्टर पपोला, अर्थशास्त्री डाक्टर पीडी श्रीमाली, समाजवादी शिक्षक भुवनेश मिश्र, छात्र नेता और समाज शास्त्री आनंद कुमार, निर्मला श्रीनिवासन, समीक्षक वीरेन्द्र यादव और मुद्रा राक्षस जसी चर्चित विभूतियों से मिलने और उनके ज्ञान और विचार की चर्खी पर अपने को शान चढ़ाने का मौका मिला।
यहीं राजीव, प्रमोद और आशुतोष मिश्र जसे अग्रज मिले और यहीं चंद्रपाल सिंह, हरजिंदर, अंबरीश कुमार, अनूप श्रीवास्तव, शायर अशोक हमराही और जनेन्द्र जन जसे मित्र भी मिले। हर इतवार को होने वाली इस गोष्ठी में इतना जोश भर दिया कि हम लोग पढ़ाई-लिखाई छोड़कर क्रांति के ही बारे में सोचने लगे। इसी केन्द्र के प्रभाव में मैंने अंतद्र्वद्व शीर्षक से एक कविता लिख डाली। उसमें एक युवा छात्र के मन की वही दुविधा थी कि पिता से सपनों पर खड़े होकर कैसे करूंगा क्रांति।
साहित्यिक प्रतिभा के धनी अतुल सिंघल की सलाह पर उसे दिनमान में भेज तो दो-तिहाई पेज में छप गई। एक तरह मैं कवि के रूप में चर्चित हुआ तो दूसरी तरफ विचार केन्द्र में डाक्टर रूप रेखा वर्मा ने इस दुविधा के चलते मेरी क्रांतिकारिता पर संदेह किया। तिवारी जी की खिचड़ी खाते हुए विचारों के अदहन पर हम लोग इतना खदबदाने लगे कि एक दिन कृष्ण नारायण कक्कड़ ने बाहर चाय की दुकान पर पूछ ही लिया कि क्या यहां तुम लोग विद्वानों को धोबी की तरह पछीटने के लिए बुलाते हो। इसी केन्द्र के लोगों के साथ लखनऊ में पचासों बार धरने और प्रदर्शन में शामिल हुआ और विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति को प्रभावित किया और इसी केन्द्र की ईमानदारी का असर था कि चुनाव लड़ने से पीछे हट गया।
हममें से तमाम लोग लखनऊ के विचार छोड़कर केन्द्र की तरफ आए और तिवारी जी से संपर्क छूट गया। लगभग दस साल बाद तिवारी जी दिल्ली के आईटीओ स्थित नरेन्द्र निकेतन में मिले तो मुङो पहचान नहीं पाए। जब राजीव और प्रमोद कुमार ने याद दिलाया तो प्रेम से गले लगा लिया और फिर खिचड़ी खिलाकर ही विदा किया। तिवारी जी के जने की खबर अंबरीश ने दी तो तमाम आदर्शवादी सपनों का पूरा जमाना याद आ गया। मुंशी जी के निधन पर केजी मेडिकल कालेज में टहलते हुए तिवारी जी ने देह दान को एक आदर्श बताते हुए वैसा ही करने का संकल्प जताया था और किया भी। समाजवाद को हिन्दुत्व की ओर मोड़ने में लगे भुवनेश जी बहुत पहले चले गए थे। कक्कड़ साहब और विष्ट जी जसे लोग भी लखनऊ जने पर नहीं मिलेंगे। पुनीत टंडन के सहारे दिल्ली आया था पर वे पहले ही छोड़ गए। अनूप श्रीवास्तव की संवाद शली हंसाकर प्रसन्न कर देती थी पर उन्हें भी जने की जल्दी थी। इस बड़े खालीपन के बावजूद तिवारी जी के विचार केन्द्र में सादगी और विचारों की ईमानदारी की जो चाभी भरी है, उससे ये मन केन्द्र में रहते हुए भी बार-बार परिधि के लोगों की तरफ भागता रहता है। एक समर्पित समाजवादी का यह क्या कोई कम योगदान है?
लेखक- हिन्दुस्तान, दिल्ली के वरिष्ठ समाचार संपादक हैं।
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