अंबरीश कुमार
हिन्दी में वेब साइटों की बढ़ती संख्या, पत्रकारों की ब्लाग की दुनिया में बढ़ती दिलचस्पी एक नए युग की शुरूआत कर रही है। पर दिलचस्प बात यह है कि वेब पत्रकार की परिभाषा तक अभी गढ़ी नहीं ज सकी। वर्किग जनर्लिस्ट एक्ट में इस नई विधा के पत्रकारों के लिए कोई नियम-कानून नहीं है। देश में अभी तक साइबर कानून भी नहीं है। सारे मामले भारतीय दंड संहिता के तहत देखे ज रहे हैं। यही वजह है कि पत्रकार सुशील कुमार सिंह को लेकर वेब पत्रकारों के हितों को लेकर नई बहस छिड़ गई है। यदि जल्द ही वेब पत्रकारों को परिभाषित करते हुए उनका संगठन नहीं बना तो आने वाले समय में इस तरह की चुनौतियां और बढ़ेंगी। पेशेवर पत्रकारों को अगर छोड़ दें तो बड़ी संख्या में ब्लागर आए हुए हैं जो अपने ब्लागों पर पूरी आजदी के साथ लिख रहे हैं। कई बार इनका लेखन प्रिंट मीडिया के नियम-कानूनों को तोड़ता हुआ आगे भी बढ़ जता है। चाहे सांप्रदायिकता की बहस हो या फिर जतिवाद का मामला। सुशील कुमार सिंह को जिस तरह के मामले में फंसाया गया है, उसके आधार पर चले तो कई राज्यों में पुलिस सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने, जतीय उत्पीड़न, मानवाधिकार के नाम पर आतंकवाद को बढ़ावा देने और ईलता के बहाने किसी भी ब्लागर या वेब पत्रकार के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत आपराधिक मामला दर्ज कर सकती है। यदि ब्लागर छत्तीसगढ़ या मध्य प्रदेश का है और असम की पुलिस ने कोई मामला दर्ज कर दिया तो संबंधित ब्लागर-पत्रकार के सामने दूसरे राज्य में जकर जमानत लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा।
ब्लाग पर आमतौर पर किस्सा, कविता और ज्ञान-विज्ञान की बातें हो रही हैं। पर अब अखबारों से पहले खबर देने का काम भी ब्लाग पर शुरू हो चुका है। यह ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि जो खबरें प्रिंट मीडिया के लोग रोकने का प्रयास करते हैं, उसे वेब पत्रकार अंतर्राष्ट्रीय वेब मंडी में डाल देते हैं। यह प्रिंट मीडिया के मठाधीशों के लिए नया खतरा बन रहा है। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका-इराक युद्ध के दौरान बगदाद के ब्लागर की जनकारी और फोटो का इस्तेमाल अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने भी किया। दूसरी तरफ अमेरिका में सीनेटर ट्रेन्ट लोन्ट के खिलाफ ब्लागरों की मुहिम ऐसी चली कि उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। भारत में भी आधी दुनिया के मानवीय सवालों को उठाने वाले बेटियों काब्लाग को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिला। यह एक पहलू है। पर दूसरा पहलू यह है कि एक्सप्रेस समूह में एक दशक से ज्यादा समय गुजरने वाले सुशील कुमार सिंह, एनडीटीवी और सहारा न्यूज चैनल में महत्वपूर्ण पदों पर रहे लेकिन उनके खिलाफ पुलिस उत्पीड़न की कार्रवाई पर कोई भी अखबार और चैनल नहीं बोला। इन अखबारों में वे अखबार भी शामिल हैं जो जनर्लिज्म ऑफ करेज का नारा देते हैं और वे भी जो अपने को विश्व का सबसे बड़ा अखबार घोषित करते रहे हैं। यह वेब पत्रकारिता के नए खतरों को चिंहित भी कर रहा है। चाहे ब्लागर हों या फिर वेब पत्रकार, न इनका कोई संगठन है और न यूनियन। कई तो इन्हें पत्रकार मानेंगे ही नहीं। कल को यदि ये संकट में फंसे या किसी ने फर्जी मुकदमा कर दिया तो इनके सवाल को लेकर कौन खड़ा होगा? वक्त आ गया है वेब पत्रकारिता करने वाले साथी इस पर गंभीरता से सोचें। वेब पत्रकारों का न सिर्फ एक संगठन बने बल्कि वर्किग जनर्लिस्ट एक्ट में संशोधन कर इनके हितों की रक्षा की जए। हर राज्य में वेब पत्रकारों के संगठन को मान्यता दिलाई जए। साथ ही वेब पत्रकार के हितों को सुरक्षित किया जए। वरना जिस तरह प्रिंट मीडिया के लोग अपने पत्रकार के फंसने पर उससे न सिर्फ नाता तोड़ते हैं बल्कि उसे नौकरी से बाहर कर उसकी खबर तक नहीं छपने देते हैं। और उनके संगठन उनके पक्ष में आवाज तक नहीं उठाते हैं। यही सुशील कुमार सिंह 1990 के दशक में राम नाथ गोयनका के अखबार द इंडियन एक्सप्रेस पर सत्तारूढ़ दल के हमलों के खिलाफ सड़क के संघर्ष में हमारे साथ थे। पर आज वह अखबार उनको पहचानता नहीं है। तब जनसत्ता के पत्रकारों ने न सिर्फ गुण्डों की लाठियां खाई बल्कि उन पर तेजब भी फेंका गया। यही वजह है कि अब वेब पत्रकारों को इन सब मुद्दों पर गंभीरता से सोचना है।
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