Monday, October 20, 2008

मणिपुर-तीन दर्जन उग्रवादी गुट सक्रिय


रीता तिवारी, इंफाल से 

 इंफाल .15 जुलाई 2004. यह तारीख सुन कर कुछ याद आता है आपको? दुनिया के बाकी हिस्सों के लोग अब भले इस दिन को भूल गए हों, पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर की महिलाओं को लगता है मानो यह कल की ही बात हो। उस दिन सुरक्षा बलों की ओर से मनोरमा देवी नामक एक महिला के अपहरण व बलात्कार के बाद उसकी हत्या के विरोध में राजधानी इंफाल में कम से कम 30 महिलाओं ने अपने कपड़े उतार कर प्रदर्शन किया था। उनलोगों ने अपने हाथों में जो बैनर ले रखे थे उन पर लिखा था कि भारतीय सेना हमारे साथ भी बलात्कार करो। हम सब मनोरमा की माताएं हैं। अगले दिन वह तस्वीर देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर के अखबारों में छपी थी। उस घटना के पहले तक इस घाटी की औरतें राजनीतिक तौर पर बहुत सक्रिय नहीं थीं। लेकिन  मनोरमा के साथ बलात्कार व उसकी हत्या ने राज्य में तैनात असम राइफल्स के प्रति उनका आक्रोश भड़का दिया था। असम राइफल्स के मुख्यालय कांग्ला फोर्ट के सामने बिना कपड़ों के प्रदर्शन करने वाली महिलाओं में शामिल एक महिला थाओजामी कहती है कि हम कभी मनोरमा से मिले तक नहीं थे। लेकिन उसके क्षत-विक्षत शव को देखने के बाद हम अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके। उस घटना के बाद राज्य में हिंसा भड़क उठी थी, जो बाद में असम राइफल्स से कांग्ला फोर्ट को खाली कराने के बाद ही थमी थी। लेकिन  घाटी में हालात अब भी जस के तस हैं। लोगों के मन में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को लेकर भारी नाराजगी है। इस अधिनियम ने राज्य में तैनात सुरक्षा बलों को असीमित अदिकार दे दिए हैं। इन अधिकारों का अक्सर दुरुपयोग ही होता रहा है। मनोरमा कांड भी इसी अधिकार की उपज था। लोगों में इस अधिनियम को लेकर नाराजगी तो पहले से ही थी। मनोरमा कांड ने इस चिंगारी को पलीता दिखाने का काम किया।
हाल में राज्य के कांग्रेसी व विपक्षी विधायकों के घर से भारी तादाद में हथियार समेत  एक दर्जन खूंखार उग्रवादियों की गिरफ्तारी की घटना से एक बार फिर साबित हो गया है कि राज्य में उग्रवाद व राजनीति का चोली-दामन का साथ है। हालांकि उन विधायकों ने आरोप लगाया है कि उनके घर पुलिस के छापे राजनीति से प्रेरित थे और सिर्फ उनलोगों के घरों पर ही छापे मारे गए जो मुख्यमंत्री ईबोबी सिंह के नेतृत्व से असंतुष्ट थे। लेकिन इससे यह हकीकत नहीं बदल सकती कि उन नेताओं के घर से उग्रवादियों को हथियार समेत गिरफ्तार किया गया। इस घटना से चिंतित केंद्र सरकार ने राज्य के बड़े अधिकारियों के साथ दिल्ली में एक आपात बैठक कर स्थिति की सममीक्षा की है। उग्रवादियों को गिरफ्तार करने के बावजूद पुलिस ने इस मामले में अब तक किसी भी विधायक को गिरफ्तार नहीं किया है। इन गिरफ्तारियों ने पूठछताछ के दौरान कबूल किया है कि  वे वीआईपी आवास में रह कर दवा कंपनियों व विभिन्न व्यापारियों को उगाही के लिए धमकी भरे पत्र भेजते थे। इससे घाटी की हालत का अनुमान लगाया जा सकता है। जहां सत्ताधारी लोग ही उग्रवादियों को शरण देते हों, वहां आम आदमी की क्या हैसियत हो सकती है?
मणिपुर में बढ़ती उग्रवादी गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1980 में यह कानून लागू किया गया था। इसके तहत सुरक्षा बलों को एक तरह से  बिना किसी सबूत के किसी की भी हत्या का लाइसेंस दे दिया गया है। मोटे आंकड़ों के मुताबिक, इस अधिनियम के लागू होने के बाद से मणिपुर में 20 हजार से भी ज्यादा लोग सुरक्षा बलों के हाथों मारे जा चुके हैं। मनोरमा कांड के बाद स्थानीय लोग इस अधिनियम को वापस लेने की मांग में लामबंद हो गए थे। लेकिन ऐसा करने की बजाय हिंसा बढ़ते देख कर सरकार ने इस अधिनियम के संवैधानिक, कानूनी व नैतिक पहलुओं की समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति उपेंद्र आयोग का गठन कर दिया। लेकिन  इस समीक्षा का कोई खास नतीजा सामने नहीं आया। हालांकि सरकार ने अब तक इस आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है। लेकिन  जानकार सूत्रों का कहना है कि अपनी रिपोर्ट में आयोग ने उक्त अधिनियम को और लचीला व पारदर्शी बनाने की सिफारिश की थी। उसने इसे एक नागरिक कानून का दर्जा देकर देश के तमाम अशांत क्षेत्रों में लागू करने की भी बात कही थी। फिलहाल यह अधिनियम सिर्फ पूर्वोत्तर राज्यों में ही लागू है। सरकार की सोच है कि इस अधिनियम के बिना इलाके में उग्रवाद पर काबू पाना संभव नहीं है। वैसे, इस अधिनियम के लागू होने के 26 वर्षों बाद भी राज्य में उग्रवाद की घटनाएं कम नहीं हुई हैं। यहां छोटे-बड़े लगभग तीन दर्जन उग्रवादी गुट सक्रिय हैं। म्यामां से सटी अंतरराष्ट्रीय सीमा ने भी इसे उग्रवाद पनपने के आदर्श ठिकाने के तौर पर विकसित करने में अहम भूमिका निभाई है।
राज्य के कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी मानते हैं कि विशेषाधिकार अधिनियम ने सुरक्षा बलों व आम लोगों के बीच की दूरी बढ़ाई है। उग्रवाद पर काबू पाने में तो कोई खास कामयाबी नहीं मिली है। इस अधिनियम का विरोध करने वाले दलील देते हैं कि इसके लागू होने के पहले मणिपुर में सिर्फ चार उग्रवादी संगठन ही सक्रिय थे। लेकिन  अब यहां इनकी तादाद देश के किसी भी राज्य के मुकाबले ज्यादा है। जिसकी लाठी उसकी भैंस के तर्ज पर हर संगठन अपने इलाके में सक्रिय है। वे लोगों से जबरन धन उगाही व अपहरण जैसी घटनाओं को कामयाबी से अंजाम दे रहे हैं। ऐसे में उक्त अधिनियम खोखला ही लगता है। अपनी खीज मिटाने के लिए इस अधिकार का इस्तेमाल कर सुरक्षा बल अक्सर बेकसूर नागरिकों को ही अपना निशाना बनाते हैं।
इस राज्य की कई समस्याएं हैं। पहले तो यह कई आदिवासी समुदायों में बंटा है। पड़ोसी राज्य नगालैंड से सटे इलाकों में नगा उग्रवादी संगठन तो सक्रिय हैं ही, ग्रेटर नगालैंड की मांग भी यहां जब-तब हिंसा को हवा देती रही है। यहां उग्रवादी संगठनों के फलने-फूलने व सक्रिय होने की सबसे बड़ी वजह है साढ़े तीन सौ किमी लंबी म्यांमा सीमा से होने वाली मादक पदार्थों की अवैध तस्करी। मादक पदार्थों के सेवन के चलते ही राज्य में एड्स के मरीजों की तादाद बहुत ज्यादा है। नगा बहुल उखरुल जिले में तो नगा संगठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल आफ नगालैंड यानी एनएससीएन के इसाक-मुइवा गुट का समानांतर प्रशासन चलता है। वहां उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं डोलता। वहां हत्या से लेकर तमाम आपराधिक मामलों की सुनवाई भी नगा उग्रवादी ही करते हैं। लोग सरकार व अदालत के फैसलों को मानने से तो इंकार कर सकते हैं लेकिन एनएससीएन नेताओं का फैसला पत्थर की लकीर साबित होती है।
यहां का दौरा किए बिना जमीनी हकीकत का पता नहीं लग सकता। राज्य के बाकी तीन जिलों में हालात अपेक्षाकृत कुछ बेहतर है, लेकि  सुरक्षा की कोई गारंटी वहां भी नहीं है। पुलिस व प्रशासन के अधिकारी भारी सुरक्षा कवच के बीच ही निकलते हैं। उनके दफ्तरों व घरों के इर्द-गिर्द भी सुरक्षा का भारी इंतजाम रहता है। दिलचस्प बात यह है कि यहां इतने उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं कि लोग नहीं चाहते केंद्रीय बलों को यहां से हटा लिया जाए। इंफाल में एक व्यापारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि हम विशेषाधिकार अधिनियम को रद्द किए जाने के पक्ष में हैं, केंद्रीय बलों की वापसी के नहीं। केंद्रीय बलों को वापस भेज देने की स्थिति में राज्य में गृहयुध्द शुरू हो जाएगा। वे कहते हैं कि लोग उग्रवादी संगठनों के अत्याचारों व जबरन वसूली से भी उतने ही परेशान हैं जितना राज्य सरकार की उदासीनता से। बड़े पद पर बैठा हर सरकारी अधिकारी उग्रवादी संगठनों से मिला हुआ है।
इलाके के लोग कहते हैं कि राज्य में लागू युध्दविराम के बावजूद जीने के अदिकार के लिए हमारा संघर्ष जारी है। जब तक विशेषाधिकार अधिनियम की राज्य से विदाई नहीं होती, तब तक विकास की कौन कहे, राज्य में चैन से सांस लेना भी दूभर है। लेकिन राज्य सरकार और केंद्र को क्या यह जमीनी हकीकत नजर आएगी? इस लाख टके के सवाल का जवाब न तो मुख्यमंत्री के पास है और न ही किसी बड़े पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी के पास। उन सबने राज्य के आम लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है

2 comments:

वर्षा said...

ये दिक्कत कुछ कम हो सकती थी यदि मीडिया भी पूर्वोत्तर में सक्रिय भूमिका निभाता। लेकिन यहां तो टीआरपी का चक्कर है। मेरा एक मणिपुरी मित्र है, उससे वहां के वाकये सुनते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

Bahadur Patel said...

purvottar ka mamla to hahut khofnaak hai. koi bhi sarkar ho atyachar ki parakastha hai vahan par.achchhe lekh hain kuchh ko bad me padhakar tippani doonga.