एक बूढ़ी बीमार औरत। जो ठीक तरह से चल फिर भी नहीं सकती। घर के लोग उस बूढ़ी औरत को लेकर सशंकित रहते हैं और उसे अकेला नहीं छोड़ते। पर बाज़ार उस बूढ़ी औरत को बिस्तर से
उठा कर शहर के शापिंग अड्डा में पहुंचा देता है। आदमी के जीवन में बाजर की घुसपैठ इस तेजी से हुई है कि उपभोक्ता हैरान भी है और परेशान भी कि आखिर वह इन दो आंखों से क्या-क्या
देखे और सीमित साधनों में क्या-क्या ख़रीदे। शहर के उस बड़े से शापिंग माल (शापिंग अड्डा) सामानों की ख़रीदारी पर बुज़ुगों को एक ख़ास दिन रियाअत देने का एलान करता है। नतीज यह
निकलता है कि बिस्तरों पर बीमार पड़े बुजुर्गों का महतव अचानक उनके घर वालों के लिए बढ़ जता है।बुजुर्गों को ङाड़पोंछ कर तैयार किया जता है और फिर बाजार में उन्हें चलाने की होड़ लग
जती है। बाज़ार उन बुजुर्गों को उस शापिंग माल में ला खड़ा करता है, जहां हर माल पर छूट मिल रही है। जो बुजुर्ग कल तक घर वालों के लिए बोङा थे और अपने ही घर के किसी कोने में
बेकार वस्तु की तरह पड़े रहते थे। शापिंग माल का एक एलान उन्हें रातोंरात काम की वस्तु में बदल देता है और उन्हें घरवाले उन्हें बाजार में बिकने के लिए छोड़ आते हैं। दरअसल बाजार
आज तरह-तरह के चमत्कार कर रहा है और उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के तमाशे दिखा रहा है। किसी जदूगर की तरह अपनी ङालियों से लुभावनी स्कीमें निकालता है और
लोगों को अपनी तरफ़ खींचता है। हम जिसे घर-परिवार समङाते हैं, उपभोक्तावादी संस्कृति ने उसे भी बाज़ार में बदल डाला है। कभी बाजर में हर माल बारह आने और सवा रुपया के हिसाब से
बेच कर लोगों को आकषिर्त किया जता था। शा¨पग मालों में गिफ्ट स्कीमों और एक के साथ एक फ्री के बढ़ते चलन और बाजर पर कब्जे के गलाकाटू होड़ ने इसे और व्यापक बना कर हमारे
सामने रखा है। शा¨पग मालों की संस्कृति ने बाजर को जिस तरीक़े से परिभाषित किया है वह अब डराने लगा है। क्योंकि धीरे-धीरे बाजर के इस खेल में रिटेल के बहाने वे लोग भी शमिल हो
रहे हैं जिनका लक्ष्य लोगों की जेबों पर डाका डाल कर दुनिया को मुट्ठी में करना है। गौतम घोष की फिल्म ‘यात्रा’ में इस बाजार को देखा जा सकता है।
यों भी सामाजिक सरोकार गौतम घोष की फिल्मों का मूल स्वर रहा है। वे उन गिने-चुने निर्देशकों में से हैं जिनके लिए फिल्म बनाना सिर्फ मनोरंजन नहीं है। बाजर और व्यवयासायिक
नजरिए से परे उन्होंने फ्लिमें एक मकसद के तहत बनाईं और ज़ाहिर है कि उनके मकसद में बाजार और व्यवसाय शामिल नहीं रहा है। कला और समानांतर फिल्मों के दौर में ‘पार’ बना कर
गौतम ने अपनी निर्देशकीय क्षमता से कायल किया था। दरअसल उस फिल्म में एक दलित की जिस पीड़ा को बड़े परदे पर गौतम ने उतारा था उसने रातोंरात उन्हें गंभीर निर्देशकों की कतार में
ला खड़ा किया था। गौतम घोष ने ‘अंतरजलि यात्रा’ और ‘पतंग’ से उन्होंने अपने निर्देशन कला को और विस्तार दिया। गौतम ने अपनी फिल्मों में उस आम आदमी के ही सच को सामने रखने
की कोशिश की जो समाज में क़तार में सबसे पीछे खड़ा होता है। अपनी तीनों ही फिल्मों में उस आम आदमी के सपनों, उसकी जीजिविषा, उसकी मजबूरी, उसकी बेबसी, उसकी लाचारी और
सपनों की टूटने की पीड़ा को ही गौतम घोष ने परदे पर उकेरा है।
‘पार’ में वह आदमी एक दलित था तो ‘अंतरजलि यात्रा’ में वह आदमी चांडाल के रूप में हमारे सामने आता है। ‘पतंग’ में उसका किरदार बदल जता है और वह ङाीलकट बन कर परदे पर
आता है। पर इन तीनों ही फिल्मों के किरदार हमारी उस सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था का किसी न किसी रूप में शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं। गौतम घोष ‘यात्रा’ में भी उस आम
आदमी और उसके सपनों को लेकर ही हमारे सामने हैं। पर पिछली फिल्मों से थोड़ी अलग राह उन्होंने अपनाई है। उन्होंने अपनी इस ताज़ा फिल्म में रोमानियत के नाजुक एहसासों को भी
दर्शकों के सामने रखा है। हालांकि इसमें कई जगह वे थोड़ा भ्रमित भी दिखे हैं लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म को फिर वे एक क्लासिक मोड़ पर ले जकर ख़त्म करते हैं। यात्रा में बाज़ारवाद को
बहुत ही शिद्दत से गौतम घोष ने उठाया है। कहानी यों तो लाजवंती के सुख-दुख, ख़ुशी-ग़म को केंद्र में रख कर ही गौतम ने लिखी है लेकिन बाज़ार में बदलती दुनिया का ज़्िाक्र, उसकी
खू़बी-ख़ामियों का िाक्र शिद्दत के साथ उन्होंने की हैं। चूंकि कहानी, संवाद, फोटोग्राफी और पटकथा भी गौतम घोष की ही है इसलिए उन्होंने कई जगह कैमरे से अपनी बात कही है तो कहीं
संवादों के जरिए जीवन में फैले स्याह-सफ़ेद रंगों को दर्शकों के सामने रखा है। बाज़ार ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है और रिटेल स्टोरों का मायाजल व डिस्काउंटों की चकाचौंध ने
हर वर्ग को प्रभावित किया है। चैनलों और अशलील एसएमएस के बाज़ार को भी गौतम घोष ने छुआ है और बाज़ार के फैलते इस जल को वे बहुत ही सलीक़े से हमारे सामने रखते हैं। चैनलों की
मारामारी और समाचारों में अधकचरे तरीक़े से सच को परोसने की होड ने जिस तरह ख़बरों को भी बाज़ार का एक हिस्सा बना डाला है, गौतम उस पर बहुत ही ख़ूबसूरती के साथ अपनी बात
रखी है। हालांकि अजीज मिर्जा ने शाहरुख खान की होम प्रोडक्शन की पहली फ़िल्म ‘फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ में चैनलों की मारामारी को बहुत ही विस्तार से सामने रखा था। पर उसमें
भव्यता के साथ चैनलों के जिस बाजार को दिखाया गया है, ‘यात्रा’ में बिना चीख़े-चिल्लाए इस सच को सामने रखा गया है।
दशर्थ जोगलेकर (नाना पाटेकर) साहित्यकार हैं और उन्हें उनके ताज उपन्यास ‘जनाज़ा’ पर बड़ा सम्मान मिलता है। लाजवंती से लाजो बाई (रेखा) की इस यात्रा में कई किरदार पड़ाव की तरह
आते हैं और यात्रा को आगे बढ़ाते हैं। लाजवंती को केंद्र में रख कर लिखे उपन्यास ‘जनाज़ा’ की चर्चा दशर्थ अपनी दिल्ली की यात्रा के दौरान युवा फिल्मकार मोहन1 9 से करता है। पेशे से
तवायफ लाजवंती को किन्हीं कारणों से बनारस छोड़ कर आदिलाबाद में ठिकाना बनाना पड़ता है। अपने वजूद व नृत्य-संगीत को बचाने के लिए ज़मींदार (जीवा) की वह रखेल बन जती है।
लेकिन उसका मोह तब भंग होता है जब एक दिन अपने व्यवासायिक हितों के लिए ज़मींदार लाजवंती को कुछ अफसरों के आगे परोसना चाहता है। लाजवंती न सिर्फ़ इसका विरोध करती है
बल्कि उसका घर छोड़ कर भी निकल जती है। पर ज़मींदार लाजवंती को रास्ते में ही पकड़ लेता है और अपने उन अफ़सरों दोस्तों को उसके साथ बलात्कार के लिए प्रेरित करता है। लुटी-पिटी
लाजवंती को अगले दिन सुबह स्कूल मास्टर सतीश यानी दशर्थ सहारा देता है और उसे घर ले जता है। सतीश की पत्नी (दीप्ति नवल) और बेटे व बेटी का साथ पाकर लाजवंती धीरे-धीरे अपने
ग़म को भूल जती है। लेकिन एक रात जमींदार के लोग वहां पहुंच जते हैं और तब लाजवंती को सतीश हैदराबाद लेकर चला जता है। संगीत से लगाव होने की वजह से सतीश लाजवंती के यहां
अक्सर जने लगता है। पत्नी के साथ उसका मनमुटाव तो होता है लेकिन बाद में वह पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ लेखन से जुड़ जता है और एक अच्छा कहानीकार बन जता है। पर इन
सबके बीच उसके भीतर लाजवंती कहीं न कहीं जिंदा रहती है और उसे लिखने के लिए प्रेरित भी करती है। घर-परिवार की जिम्मेदारियों के बीच लाजो मास्टर सतीश की जिंदगी को नए अर्थ
देती है। दशर्थ जोगलेकर संबंधों की इस डोर को तोड़ने की कोशिश भी नहीं करते। ‘जनाजा’ में इस सच को वे बार-बार रेखांकित करते हैं। दरअसल गौतम इन किरदारों के जारिए हमें रोमान
और फंतासी की एक एसी दुनिया में ले जतें हैं जहां सपने हैं, ख़ुशिया हैं, दुख हैं, समाज है और इन सबके बीच विकराल रूप धारण किए बाजर है जो हमसे हमारे सपने, हमारी मुस्कुराहटें,
हमारी हंसी, हमारे सुख-दुख छीन कर ले ज रहा है और दे ज रहा है एक एसी काली-अंधेरी दुनिया जहां सेंसेक्स गिरता-उतरता रहता है। दशर्थ जोगेलकर भी दुनिया को बा्जार में बदलते देख
कर ¨चतित है और इस बदलती दुनिया को केंद्र में रख कर वह अगला उपन्यास ‘बाज़ार ही लिखना चाहता था, पर मौत ने उसे मोहलत नहीं दी।
दशर्थ सम्मान पाने के बाद वह उस लाजवंती यानी लाजो के पास फिर पहुंचता है जो समय के साथ मिस लीला बन चुकीं थीं और कथक की यह बेहतरीन नृत्यांगना भी उसी बाज़ार के रंग-ढंग
में ढल जती हैं और ‘कहीं आर, कहीं पार’ जसे खूबसूरत गीत की रिमिक्स पर कमर हिलाती हैं। पेट भरने के लिए आख़िरकार बाज़ार की तरह ही तो चलना पड़ता है, लाजवंती ने भी एेसा ही
किया। हालांकि दशर्थ को अपने घर देख कर जजबाती हो जती है और उस रात वह फिर से महफिल सजती है, दर्शथ के लिए।
रेखा की अदाकारी और नृत्य में उनका आंगिक अभिनय, नफासत और नज़ाकत ‘उमराव जन’ की याद ताज़ा कर देता है। उम्र के इस पड़ाव पर भी रेखा ख़ू़बसूरत तो दिखती ही हैं, अभिनय भी
कमाल का किया है। नाना पाटकर को लंबे समय बाद एक यादगार भूमिका मिली है और वे मायूस नहीं करते। दीप्ति नवल के हिस्से में जितने भी दृश्य आए, उन्होंने अपना होना साबित किया।
ख़य्याम के संगीत की ताजगी बरकरार है (हालांकि गौतम ने भी संगीत दिया है पर ख़य्यमाम के संगीत के सरगम ज्यादा सुरीले और मधुर हैं)। मजरूह, नक्श लायलपुरी, अहमद वसी और
क़ादिर पिया के गीतों को सुनना अच्छा लगता है।भारतीय सिनेमा में सत्यजीत राय, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, कुमार शाहनी की परंपरा को ही गौतम घोष ने आगे बढ़ाया।
फ़जल इमाम मल्लिक
Saturday, February 23, 2008
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