Saturday, February 9, 2008

तिब्बत को भूल गए दलाई लामा?

विजेन्द्र शर्मा

धर्मशाला, फररी-तिब्बत की आजदी का धुधंलाता सपना तिब्बत पर १९५९ में चीन के हमले के ल्हासा के पाटाला महल से भारत आते क्त २५ र्षीय आध्यात्मिक गुरू दलाईलामा ने एक सपना देखा था कि एक दिन वे तिब्बत को चीन के चंगुल से मुक्त कराकर स्देश लौटेंगे। आज आज ४८ र्ष के बाद तिब्बतियों के र्साेच्च धर्मगुरू की बूढ़ी होती आंखो में यह सपना अब धुंधला पड़ने लगा है।

चीन सरकार के अड़ियल रैए के चलते दलाईलामा की स्देश लौटने की आस भी अब दम तोड़त़ी प्रतीत हो रही है। यह सही है कि १९५९ से पहले तिब्बत के आीस्तत् अैर इतिहास के बारे में श्वि समुदाय लगभग अनजन था तब तिब्बत को अंतराष्ट्रीय मान्यता भी प्राप्त नहीं थी, लेकिन यह भी सच्चाई है कि सदियों से तिब्बत एक सधीन शांतिप्रिय देश था। जहां भारत के साथ तिब्बत के सांस्तिक , धार्मिक और ैचारिक संबंध थे हीं आर्थिक और व्यसायिक जरूरतें पूरी करने के लिए तिब्बत चीन पर निर्भर था।

इतिहास साक्षी है कि तिब्बत का आस्तित् कई बार खतरे में पड़ा और चीनी शासकों ने कई बार इस देश पर कब्ज किया , लेकिन २0ीं शताब्दी के मध्य में यह एक सधीन राष्ट्र था। चीन ने १९५९ में एक जबरन संधि के तहत तिब्बत पर कब्ज करके दलाईलामा को देश छोड़ने के लिए मंजबूर कर दिया। सन् १९५९ में भारत पहूंचने के बाद कई जगहों पर चिार करने के बाद भारत सरकार ने दलाई लामा के लिए धर्मशाला के मैक्लोड़गंज को चुना और उनके नए आास का निर्माण पूरा होने तक उन्हें मौजूदा क्षेत्रीय पर्तारोपण संस्थान के भन में ठहराया गया।

आासीय परिसर बनने पर दलाईलामा हां चले गये, लेकिन युवा धर्मगुरू दलाईलामा के मन में आस कायम थी कि वे जल्द ही स्देश लौटेंगे। इस दलाईलामा के साद्गी भरे सच्चे प्रयासों का प्रतिफल ही कहा ज सकता है कि श्वि समुदाय और प्रभाशाली राष्ट, जिनके लिये १९५९ में तिब्बत के कोई मायने नहीं थे , आज उसके चीन के साथ चल रहे ािद को पूरी तरह जनते हैं। तिब्बत मसले की शांतिपरूक तरीके से सुलङाने के दलाईलामा के प्रयासों को श्विभर से भरपूर समर्थन भी मिल रहा है। जहां दलाईलामा के धार्मिक प्रचनों से प्रभाति होकर इस भौतिकादी युग में दिेशियों ने बड़ी संख्या में बौद्घ धर्म अपनाया है, हीं उनके प्रयासों से भारत और दूसरे देशों में रह रहे र्निासित तिब्बती सम्मान के साथ जीन यापन कर रहे हैं। यह दलाईलामा की सोच थी कि तिब्बत की समृद्घ संस्तिऔर धार्मिक रिासत को संजोये रखने के प्रयास हुए। इसकी ङालक र्निवासित तिब्बत सरकार और संगठनों के बनाए भनों , धार्मिक अनुष्ठानों और उनकी दस्तकारी में देखने को मिलती है। अपने अहिंसात्मक अंदोलन के कारण दलाईलामा को शांति के लिए नोबल पुरस्कार से से भी नाज गया है।

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