रीता तिवारी
कभी मल्ल राजाओं की राजधानी रहा बांकुड़ा (पश्चिम बंगाल) का विष्णुपुर शहर टेराकोटा के मंदिरों, बालूचरी साड़ियों व पीतल की सजावटी वस्तुओं के अलावा हर साल दिसंबर के आखिरी सप्ताह में लगने वाले मेले के लिए भी मशहूर है। यह विष्मुपुर मेला कला व संस्कृति का अनोखा संगम है। यहां दूर-दूर से अपना हुनर दिखाने कलाकार आते हैं तो उनकी कला के पारखी पर्यटक भी आते हैं। साल के आखिरी सप्ताह के दौरान पूरा शहर उत्सव के रंगों में रंग जाता है। मल्ल राजाओं के नाम पर इसे मल्लभूमि भी कहा जाता था। यहां लगभग एक हजार वर्षों तक इन राजाओं का शासन रहा। उस दौरान विष्णुपुर में टेराकोटा व हस्तकला को तो बढ़ावा मिला ही, भारतीय शास्त्रीय संगीत का विष्णुपुर घराना भी काफी फला-फूला।
वैष्णव धर्म के अनुयायी इन मल्ल राजाओं ने 17वीं व 18वीं सदी में जो मशहूर टेराकोटा मंदिर बनवाए थे, वे आज भी शान से सिर उठाए खड़े हैं। यहां के मंदिर बंगाल की वास्तुकला की जीती-जागती मिसाल हैं। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से कोई दो सौ किमी दूर बसा यह शहर राज्य के प्रमुख पर्यटनस्थलों में शामिल है। खासकर मेले के दौरान तो यहां काफी भीड़ जुटती है। मल्ला राजा वीर हंबीर और उनके उत्तराधिकारियों-राजा रघुनाथ सिंघा व वीर सिंघा ने विष्णुपुर को तत्कालीन बंगाल का प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। शहर के ज्यादातर मंदिर भी उसी दौरान बनवाए गए।
यहां स्थित रासमंच पिरामिड की शक्ल में ईंटों से बना सबसे पुराना मंदिर है। 16वीं सदी में राजा वीर हंबीरा ने इसका निर्माण कराया था। उस समय रास उत्सव के दौरान पूरे शहर की मूर्तियां इसी मंदिर में लाकर रख दी जाती थीं और दूर-दूर से लोग इनको देखने के लिए उमड़ पड़ते थे। इस मंदिर में टेराकोटा की सजावट की गई है जो आज भी पर्यटकों को लुभाती है। इसकी दीवारों पर रामायण, महाभारत व पुराणों के श्लोक खुदाई के जरिए लिखे गए हैं। इसी तरह 17वीं सदी में राजा रघुनाथ सिंघा के बनवाए जोरबंगला मंदिर में भी टेराकोटा की खुदाई की गई है। शहर में इस तरह के इतने मंदिर हैं कि इसे मंदिरों का शहर भी कहा जा सकता है।
टेराकोटा विष्णुपुर की पहचान है। यहां इससे बने बर्तनों के अलावा सजावट की चीजें भी मिलती हैं। मेले में तो एक सिरे से यही दुकानें नजर आती हैं। इसके अलावा पीतल के बने सामान भी यहां खूब बनते व बिकते हैं। इन चीजों के अलावा यहां बनी बालूचरी साड़ियां देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर हैं। इन साड़ियों पर महाभारत व रामायण के दृश्यों के अलावा कई अन्य दृश्य कढ़ाई के जरिए उकेरे जाते हैं। बालूचरी साड़ियां किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इन साड़ियों ने अपनी अलग पहचान कायम की है। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि इन रंग-बिरंगी चमकीली साड़ियों को बनाने वाले कलाकारों की जिंदगी में अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं है। छोटे-अंधेरे कमरों में बैठ कर अपने दक्ष हाथों व पावर लूम की सहायता से बालूचरी साड़ियों पर पौराणिक गाथाएं उकेरने वाले इन कलाकारों को एक साड़ी बनाने के लिए महज दो से तीन सौ रुपए ही मिल पाते हैं। एक बालूचरी साड़ी बनाने में कम से कम एक सप्ताह का वक्त लगता है। दो लोग मिल कर इसे बनाते हैं। लेकिन सरकारी उपेक्षा, कच्चे माल के अभाव व बिचौलियों की सक्रियता के चलते इन कलाकारों के लिए लागत निकालना भी मुश्किल हो रहा है। राज्य के मुर्शिदाबाद जिले के बालूचर गांव में शुरूआत करने वाली बालूचरी साड़ियों ने बीती दो सदियों के दौरान एक लंबा सफर तय किया है। नवाब मुर्शीद अली खान 18वीं सदी में बालूचरी साड़ी की कला को ढाका से मुर्शिदाबाद ले आए थे। उन्होंने इसे काफी बढ़ावा दिया। बाद में गंगा नदी की बाढ़ में बालूचर गांव के डूब जाने के बाद यह कला बांकुड़ा जिले के विष्णुपुर पहुंची। अब विष्णुपुर व बालूचरी एक-दूसरे के पर्ययाय बन गए हैं। पहले विष्णुपुर में मल्ल राजाओं का शासन था। उस दौरान यह कला अपने निखार पर थी। मल्ला राजाओं ने इलाके में टेराकोटा कला को काफी बढ़ावा दिया था। वहां टेराकोटा के मंदिर हर गली में बिखरे पड़े हैं। बालूचरी साड़ियों पर भी इन मंदिरों का असर साफ नजर आता है। इन साड़ियों की खासियत यह है कि इन पर पौराणिक गाथाएं बुनी होती हैं। कहीं द्रौपदी के विवाह का प्रसंग है तो कहीं राधा-कृष्ण के प्रेम का। महाभारत के युध्द के दौरान अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए भगवान कृष्ण की तस्वीर भी इन साड़ियों पर नजर आती है।
लेकिन रेशम के बारीक धागों से इन कहानियों को साड़ी पर उकेरना कोई आसान नहीं है। दो मजदूर मिल कर एक सप्ताह में एक साड़ी तैयार करते हैं। काम की बारीकी के हिसाब से उस साड़ी की कीमत एक से दस हजार रुपए तक होती है। लेकिन बुनकरों या कलाकारों को इसका फाययदा नहीं मिल पाता। एक कलाकार रमेन तांती का कहना है कि हाल में कच्चे माल की कीमतें काफी बढ़ गई हैं। लेकिन हम मजबूरी में दाम नहीं बढ़ा पाते। ऐसे में हमें दो से तीन सौ रुपए ही मिल पाते हैं। असली मुनाफा बिचौलिए लूट लेते हैं। विष्णुपुर से निकल कर बड़े शहरों की दुकानों तक पहुंचते-पहुंचते इन साड़ियों की कीमत दोगुनी से ज्यादा हो जाती है। रमेन के मुताबिक, सरकार ने इस कला को बढ़ावा देने या कलाकारों के संरक्षण की दिशा में कोई खास कदम नहीं उठाया है। बुनाई के बाद साड़ियों पर चमक लाने के लिए उनकी पालिश की जाती है। किसी जमाने में यह साड़ियां बंगाल के रईस या जमीदार घरानों की महिलाएं ही पहनतीं थी। अब भी शादी-ब्याह के मौकों पर यह साड़ी पहनी जाती है।
बालूचरी साड़ी बनाने वालों का कहना है कि राज्य सरकार को इस कला के संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाना चाहिए।
यहां अगस्त में एक सांप उत्सव भी आयोजित किया जाता है। कोलकाता से विष्णुपुर पहुंचने के लिए कई ट्रेनें और बसें चलती हैं जो लगभग चार घंटे में पर्यटकों को यहां पहुंचा देती हैं। विष्णुपुर मेले के दौरान पांच दिनों तक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। यहां मेले के प्रति पर्यटकों की बढ़ती दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए कई नए होटल बन गए हैं। इसलिए रहने की कोई दिक्कत नहीं है।
2 comments:
विष्णुपुर के मंदिरों, टेराकोटा, पीतल के बर्तन, साड़ी आदि पर बड़ी रोचक जानकारी के लिए आभार.
http://mallar.wordpress.com
रोचक जानकारी के लिए आभार.
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