संजीत त्रिपाठी
रायपुर,सितंबर। टाटा की पैसेंजर श्रेणी में सफारी भले ही सबसे उन्नत कहलाने वाली टाटा सफारी भले ही सबसे आरामदेह मानी जाती हो लेकिन राजनीतिक लोगों के लिए इसकी सवारी एक अभिशाप की तरह साबित हो रही है। कुछ दिलचस्प आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि सफारी का उपयोग करने वाले राजनीतिज्ञों का कैरियर इस दौरान धूमिल होता गया। जबकि कुछ मामलों में धूमिल होते कैरियर के बीच जब इन दिग्गजों ने सफारी छोड़कर दूसरी गाड़ी पर सवारी शुरु की तो उनका कैरियर फिर से रास्ते पर आ गया। यह सिर्फ़ एक संयोग है या फिर वास्तु का प्रभाव या फिर कुछ और, कहना मुश्किल है, लेकिन ये आंकड़े कम से कम राजनीतिज्ञों को तो इससे दूर रहने के संकेत दे रहे हैं।
छत्तीसगढ़ पर नज़र डालें तो यहा के राजनीतिज्ञ दिग्गज वीसी शुक्ल नें 1998 में टाटा सफारी की सवारी शुरु की, तब से लेकर 2007 तक वे सफारी में ही चलते थे। लेकिन इस दौरान उनका राजनीतिक कैरियर डूबता ही चला गया। कांग्रेस छोड़कर उन्होनें एनसीपी से नाता जोड़ा लेकिन यहां भी खास सफलता नही मिली। राज्य विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता पाने से रोका जरुर लेकिन खुद का सिर्फ़ एक ही विधायक चुना गया। इसके बाद वे भाजपा में चले गए। वहां भी उन्नति कहलाने जैसा कुछ नही हुआ। भाजपा के बाद वे कांग्रेस में आने के लिए लंबे समय तक दरवाजा खटखटाते रहे। ठीक इसी दौरान उन्होनें सफारी छोड़कर लैंड क्रूज़र में सवारी शुरु की। सफारी से अलग होते ही न केवल कांग्रेस के दरवाजे उनके लिए खुल गए बल्कि प्रभाव में भी दिनोंदिन बढ़ोत्तरी होती गई। इसी तरह राज्य में भाजपा की सरकार बनने के बाद ताकतवर माने जाने वाले गृहमंत्रालय की कमान बृजमोहन अग्रवाल को मिली। इसी समय उन्होनें अपने बेड़े में टाटा सफारी शामिल की और उसमे सवारी शुरु की। सफारी के सफर के दौरान उनका प्रभाव तो कम हुआ ही उनके हाथ से गृह जैसा महत्वपूर्ण मंत्रालय भी फिसल गया। इसके बाद वे भी सफारी से तौबा करते हुए अंबेसडर पर सवार हो गए। इससे न केवल उनका प्रभाव बढ़ा बल्कि उनके विभागों ने नए कीर्तिमान रचते हुए पूरे देश में पहचान बनाई। इस बीच उन्हें मालखरौदा और केसकाल विधानसभा उपचुनावों
की जिम्मेदारी मिली,इसमें मालखरौदा में तो भाजपा की हालत बहुत खराब थी लेकिन इसके बाद भी वहां पार्टी विजयी हुई। इसके अलावा सरकार के दूसरे वजनी मंत्री अमर अग्रवाल ने भी मंत्री बनने के बाद सफारी का सफर शुरु किया। सफारी नें उन्हें भी गच्चा दिया, वे भी जब तक सफारी में चले परेशान ही रहे। बताया जाता है कि वे इस्तीफा देने गए तो भी सफारी में ही गए। इसके बाद उन्होनें सफारी को नमस्ते कह दिया और दूसरी गाड़ी पकड़ी। दूसरी गाड़ी पकड़ते ही उन्हें फिर से मंत्री पद मिला और राजनीति में प्रभाव भी बढ़ा।
इधर छत्तीसगढ़ कांग्रेस में पीसीसी के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ चरणदास महंत ने भी पहली बार राज्य कांग्रेस की जवाबदारी मिलने पर सफारी में सफर करना शुरु कर दिया। नतीजा यह हुआ कि कामयाबी उनके दरवाजे का रास्ता ही भूल गई। पार्टी में गुटबाजी बढ़ी, हालत यह हो गई कि कांग्रेस में संगठन नाम की चीज न के बराबर होकर रह गई। उस दौरान हुआ विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को कोई खास कामयाबी नहीं मिली। महंत आखिर तक अपनी कार्यकारिणी ही नही बना पाए और अंतत: उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष तक ही सीमित कर दिया गया है। दिलचस्प बात यह है कि महंत भी ही सफारी में ही सफर करते हैं। इसी तरह पीसीसी के नए अध्यक्ष धनेंद्र साहू भी सफारी में ही चल रहे हैं। अभी तक तो न ही उनकी कोई उपलब्धि है न ही आगे दिख रही है। उनके अध्यक्ष बनने के बाद भी कांग्रेस न तो किसी मुद्दे पर भाजपा को घेर पा रही है न ही अपनी उपलब्धियां जनता को बता पा रही है। अन्य नामों में देखें तो धमतरी के पूर्व विधायक गुरुमुख सिंह होरा ने भी सफारी के आरामदेह सफर का आनंद लेना शुरु किया तो महापौर का चुनाव ही हार गए। होरा जब तक सफारी में चले हाशिए पर ही रहे, अलबत्ता खबरों की मानें तो उन्होनें अब जाकर सफारी को अलविदा कह दिया है। भाजपा के छत्तीसगढ़ अध्यक्ष विष्णुदेव साय भी सफारी में ही चलते हैं। उनके खाते में भी उपलब्धि का कोई तमगा नही है। पूर्व सांसद पीआर खूंटे ने भी जब से सफारी का सफर चुना तब से ऐसे हाशिए पर चले गए कि अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए ही उन्हें संघर्ष करना पड़ रहा है।
अब बात मुख्यमंत्री रमन सिंह की करें तो उनका काफिला भी सफारी से भरपूर है, वे खुद सफारी में ही चलते हैं। लेकिन दिलचस्प यह है कि औसत रूप से रमन का कैरियर और प्रभाव दोनो ही बढ़े हैं।
चाहे वह राज्य भाजपा में हो या आलाकमान के सामने। जनता के सामने भी उनकी इमेज बेदाग और सरल बना हुआ है। लेकिन सफारी के आंकड़ों को मानने वालों का कहना है कि अभी तक रमन सफारी पर भारी पड़े हैं लेकिन आने वाले विधानसभा चुनाव में यह सफारी फैक्टर भारी पड़ गया तो…………………।
इसी तरह विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पांडे भी सफारी पर ही चलते हैं। प्रभाव उनका भी बढ़ा है, सारी दुनिया घूम आए हैं। सदन में नई परंपराओं का कीर्तिमान उन्होनें रचा है लेकिन कहा जाता है कि उनकी सीट पर उनका असर कम होता जा रहा है, मतलब यह कि इन पर भी सफारी फैक्टर असर दिखा सकता है।
सफारी फैक्टर पर नज़र डालने लायक तो यह पुराने लेकिन दिलचस्प तथ्य भी हैं केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह ने सफारी पर सवार हो कर ही सीधी और होशंगाबाद से चुनाव लड़ा था, और पराजित हुए। कांग्रेस नेता कमलनाथ उपचुनाव में क्षेत्र में सफारी पर ही घूमे थे, चुनाव हार गए। मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह सफारी से ही राज्य भर में घूमे, राज्य भर में कांग्रेस हारी और सत्ता छूट गई।
अशोक गहलोत ने भी सफारी पर चढ़कर ही चुनाव लड़ा और हार गए।जयललिता ने मुख्यमंत्री रहते हुए सफारी की सवारी की, उनकी पार्टी ही सत्ता से बाहर हो गई।कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने छत्तीसगढ़ में सफारी से ही रोड शो किया, जहां-जहां किया वहां-वहां कांग्रेस हार गई।
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