Monday, September 26, 2011

घटता सरोकार,बढ़ता प्रसार



अंबरीश कुमार
भूख, भुखमरी और कर्ज में डूबे किसानों का सवाल हो या फिर जल, जंगल, जमीन के मुद्दे, अखबारों में इनकी जगह कम होती जा रही है। अस्सी के दशक में जब हमने पत्रकारिता शुरू की थी तो उस समय समाज के बारे में, जन आंदोलनों के बारे में लिखने का रूझान था। आपातकाल के बाद छात्र आंदोलन खासकर जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े नौजवानों का एक वर्ग पत्रकारिता में भी आया। इसका सकारात्मक असर भी दिखा। अस्सी के दशक में ही हिन्दी पत्रकारिता की याचक व सुदामा वाली दयनीय छवि को पहले रविवार ने तोड़ा फिर जनसत्ता के उदय ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। उससे पहले हिन्दी पत्रकार का वह रूतबा नहीं होता था जो अंग्रेजी के पत्रकार का होता था। सन १९८४ के दंगों में सिखों के कत्लेआम की खबरें जनसत्ता ने जिस अंदाज में दीं, उसने इस अखबार को नई ऊंचाई पर पहुंचाया। इसके बाद के राजनैतिक घटनाक्रम और मीडिया कवरेज में हिन्दी मीडिया की भूमिका बदली। उस समय तक दिल्ली की पत्रकारिता में अंग्रेजी का वर्चस्व था।
इसी दौर में राजनैतिक घटनाओं की कवरेज हिन्दी मीडिया ने अंग्रेजी मीडिया से लोहा भी लिया। उस दौर में प्रसार संख्या का वह दबदबा नहीं था जो आज है। यह भूमंडलीकरण के पहले के दौर की बात है। तब किसी अखबार में प्रबंधक यह नहीं समझ सकता था कि कैसी खबरें लिखी जाएं? पर नब्बे के दशक के बाद हालात तेजी से बदले। पहले मंडल फिर कमंडल ने मीडिया को भी विभाजित कर दिया। सन १९९२ में बाबरी मस्जिद ध्वंस के साथ ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने वाली खबरें थीं तो दूसरी तरफ सांप्रदायिकता का मुकाबला करने वाले पत्रकार थे। उत्तर प्रदेश में कुछ अखबारों की प्रसार संख्या उसी दौर में तेजी से बढ़ी भी। इसके बाद उदारीकरण का नया दौर शुरू हुआ और सामाजिक सरोकार से जुड़ी खबरें हाशिए पर जने लगीं। नब्बे के दशक के बाद से ही संपादक नाम की संस्था खत्म होने लगी। प्रबंधन तंत्र में मार्केटिंग विभाग का दबदबा बढ़ने लगा। अब प्रबंधन संपादकों को प्रसार और विज्ञापन बढ़ाने के नए तौर-तरीकों पर फोकस करने का दबाब डालने लगा।
उसी दौर में हमारे नए संपादक ने बैठक कर सवाल किया कि हमारे अखबार की यूएसपी क्या है? यूएसपी जैसा शब्द सुनकर संपादकीय विभाग के पुराने लोग कुछ समझ नहीं पाए। तब बताया गया कि इस शब्द के मायने यूनिक सेलिंग प्वाइंट यानी अखबार को बेचने की खासियत क्या होगी? उसके बाद राजनैतिक और सामाजिक सवालों को किनारे कर प्रसार और विज्ञापन बढ़ाने वाले कवरेज पर ध्यान देना शुरू किया गया। मसलन, दिल्ली के बाजार में सबसे ज्यादा चाट बेचने वाले व्यवसायी के बारे में क्यों न लिखा जए। इसके बाद सनसनीखेज खबरों और समाज के अभिजात्य वर्गीय लोगों के बारे में कवरेज पर जोर दिया जाने लगा। उसी दौर से पेज-थ्री की नई परिकल्पना शुरू हो गई जो आज और समृद्ध हो चुकी है। पहले अंग्रेजी मीडिया ने इसे ज्यादा तबज्जो दी पर धीरे-धीरे हिन्दी में भी इसने पैर जमा लिए।
इस बीच हिन्दी और भाषाई मीडिया ने प्रसार के मामले में अंग्रेजी अखबारों को पीछे ढकेल दिया। जनकारी के मुताबिक-हिन्दी मीडिया में दैनिक जगरण, भास्कर, अमर उजला और हिन्दुस्तान अंग्रेजी अखबारों से काफी आगे निकल गए। दैनिक जगरण ५३६ लाख, भास्कर ३०६ लाख, अमर उजला २८२ लाख पाठकों के साथ अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया के १३५ लाख पाठकों के मुकाबले काफी आगे जा चुके हैं। जबकि क्षेत्रीय अखबार भी अंग्रेजी अखबारों को पीछे छोड़ चुके हैं। तमिल अखबार डेली थांती २०९ लाख पाठकों के साथ सबसे ऊपर आ चुका है। उसके बाद मराठी अखबार लोकमत २०७ लाख पाठकों के साथ दूसरे नंबर पर जा पहुंचा जबकि बंगाल का आनंद बाजर पत्रिका १५८ लाख, तेलगू का इनाडु १४२ लाख पाठकों के साथ अंग्रेजी अखबारों से आगे हैं। एकल संस्करण के मामले में बंगाल का आनंद बाजार पत्रिका १२,३४,१२२ प्रसार संख्या के साथ पहले नंबर पर है जबकि दूसरे नंबर पर द हिन्दू ११,६८,०४२ पाठकों के साथ है।
बढ़ती प्रसार संख्या के बावजूद इन अखबारों में सामाजिक सरोकार घटता जा रहा है। अंग्रेजी अखबार अभिजात्य वर्गीय समाज पर ज्यादा फोकस कर रहे हैं। हिन्दी मीडिया भी इसी रास्ते पर है। सामाजिक सरोकार के मामले में भी अंग्रेजी मीडिया ने जो रास्ता अपनाया, हिन्दी उसी राह पर चलती दिख रही है। विदर्भ की बात छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड की दशा कहीं ज्यादा खराब है। बुंदेलखंड में पिछले छह साल से सूखा है और कर्ज में डूबे किसानों की खुदकुशी का सिलसिला रूक नहीं रहा है। पर ज्यादातर हिन्दी या अंग्रेजी अखबारों ने अपने संवाददाताओं को बुंदेलखंड का दौरा करने नहीं भेज। राहुल गांधी जब बुंदेलखंड गए तो जरूर कुछ वरिष्ठ पत्रकार वहां पहुंचे। इन अखबारों में देश में सबसे ज्यादा बिकने का ढिढोरा पीटने वाले अखबार हैं तो आजादी के आंदोलन से निकले अखबार समूह भी हैं। संपादक को छोड़ भी दें तो अखबारों के ब्यूरो चीफ, विशेष संवाददाता और राजनैतिक संपादकों ने भी ऐसे इलाकों में जाने की जहमत नहीं उठाई। यह अखबारों की बदलती प्राथमिकता का नया पहलू है।
बुंदेलखंड में पानी के लिए जंग शुरू हो चुकी है। कई जिलों में आए दिन मारपीट और हंगामे हो रहे हैं। बरसाती नदियां तो पहले ही सूख गईं। तेज प्रवाह वाली बेतवा से लेकर केन नदी तक की धार कमजोर हो गई है। सूखे और पानी के संकट के चलते ३५ लाख से ज्यादा लोगों का पलायन हो चुका है लेकिन लखनऊ के अखबारों में पहले पेज पर आईपीएल मैच की रंगीन फोटो व खबरें छपती हैं। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर में मालिक से लेकर संपादक तक सभी की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। यही वजह है कि पत्रकारिता में आने वाले नए लोगों के लिए भी समाज खासकर गांव का समाज कोई मायने नहीं रखता है। वे सरकार के विभिन्न विभागों की कवरेज करते हैं, नेताओं की प्रेस कांफ्रेंस कवर करते हैं या फिर पांच सितारा होटलों में चमचमाते सितारों की खबर लाते हैं। आज अखबार के लिए खबर से ज्यादा महत्वपूर्ण पैसा है, जो खबर पैसा लाने में मददगार हो, वही खबर बन रही है।
सामाजिक सरोकार के संदर्भ में ऐसी ही स्थिति जल, जंगल और जमीन की है। कृषि का रकबा कम हो रहा है और जंगल कट रहे हैं। वन्य जीवों का सफाया हो रहा है। सरिस्का की राह पर उत्तर प्रदेश का दुधवा राष्ट्रीय उद्यान भी जा रहा है। अचानक किसी दिन खबर आएगी कि अब दुधवा में बाघ नहीं रहे लेकिन इस बारे में समय रहते खबर नहीं बनती। जिला के स्तर पर माफिया, पुलिस और अफसर के गठजोड़ में जाने अंजाने पत्रकार भी होता जा रहा है। यही वजह है कि न तो सामाजिक सरोकार की खबरें आती हैं और न ही जन आंदोलनों की। हम राष्ट्रीय अखबारों की बात कर रहे हैं। ढाई कोस पर बोली बदलती थी पर अब तो ढाई कोस पर अखबारों के संस्करण भी बदल जाते हैं। राष्ट्रीय अखबारों के अब जिले के संस्करण निकलने लगे हैं जो जिलों के लोगों का दायरा जिले से बाहर जाने नहीं देते। उदाहरण के लिए गोरखपुर के पाठक को फैजबाद जिले तक की जनकारी अखबारों में नहीं मिलती। दूसरे छोटे-छोटे राजनैतिक दलों खासकर वामपंथी दलों के बारे में मीडिया की भूमिका और रोचक है। एक अंग्रेजी अखबार के संपादक ने मेरे सामने ही सीपीआई एमएल के आंदोलन की खबर लेकर आए एक संवाददाता से पूछा-इनकी फालोइंग कितनी है, संवाददाता का जबाब था-ज्यादा नहीं है, सर। इस पर संपादक महोदय ने खबर फेंकते हुए कहा-फिर क्यों जगह खराब कर रहे हो?
मीडिया में पहले दो वर्ग थे. आज तीन हो गए हैं.रेल सेवा के तीसरे, दूसरे और पहली श्रेणी की तरह. इनमें पहला भाषाई प्रिंट मीडिया है, दूसरा अंग्रेजी का प्रिंट मीडिया है और तीसरा अभिजात्य वर्ग है इलेक्ट्रानिक मीडिया.वेतन-भत्तो और सुख-सुविधाओं के लिहाज से यह तीसरा वर्ग सब पर भारी है। दूसरे इसका नजरिया भी अन्य वर्गो के प्रति हिकारत वाला है। हालांकि इलेक्ट्रानिक मीडिया में गए सभी लोग प्रिंट के कभी दूसरे या तीसरे दर्जे के पत्रकार होते थे। पर आज वेतन और चैनल की चमक-दमक के चलते ये अपने आप को सबसे अलग मानते हैं। यह बात अलग है कि आज भी खबरों के नाम पर नब्बे फीसदी प्रिंट मीडिया का फालोअप ही उनके पास होता है। अपवाद एक दो चैनल हैं पर सामाजिक सरोकार की बात करें तो इलेक्ट्रानिक मीडिया का हाल प्रिंट से ज्यादा बदहाल है। यह तो पूरी तरह बाजार की ताकतों से संचालित होता है।
(काफी पहले लिखा गया मीडिया पर यह लेख दोबारा दिया जा रहा है ,प्रसार के आंकड़े पुराने है )

Saturday, September 24, 2011

जंगलों के पार आदिवासी गांवों में



अंबरीश कुमार
नागपुर से छिंदवाडा के भी आगे जाने के लिए बुधवार की सुबह मेधा पाटकर का इंतजार कर रहे थे । वे चेन्नई से बंगलूर और फिर नागपुर आ रही थी ।एक दिन पहले भी कई गांवों की ख़ाक छानते हुए होटल द्वारका पहुंचे तो रात के बारह बज चूके थे।प्रताप गोस्वामी की मेहरबानी से खाने पीने का प्रबंध हो गया था वर्ना बारह बजे के बाद कुछ मिलना संभव नहीं था।उन गांवों में गए जो पेंच परियोजना के चलते डूब क्षेत्र में आने वाले है । साथ में नर्मदा बचाओ आंदोलन के मधुरेश और किसान नेता विनोद सिंह भी थे । गांवों में कई सभाएं देखी और गांवालों ने उपहार में जो कच्ची मूंगफली दी वह लखनऊ तक ले आए । बहुत ही हरा भरा और खुबसूरत इलाका है यह ।रास्ते में घने जंगल है और पहाड़ियां ऊंचाई तक ले जाती है । करीब आधे घंटे तक यह अहसास होता है कि किसी हिल स्टेशन पर है ।
यह एक दिन पहले की बात है । करीब नौ बजे मधुरेश का फोन आता है कि नीचे रेस्तरां में में आ जाएँ मेधा पाटकर पहुँच गई है और वे भी कमरे से पांच मिनट में
में वहां पहुँच जाएगी । नीचे पहुंचा तो सभी इंतजार कर रहे थे । नाश्ता कर दो गाड़ियों से रवाना हुए । कई साल बाद मेधा पाटकर के साथ फिर लंबी यात्रा कर रहा था । छूटते बोली -अंबरीश भाई बस्तर की यात्रा और जो हमला हुआ वह सब याद है । करीब आठ साल पहले जब जनसत्ता का छत्तीसगढ़ संस्करण देख रहा था तब नगरनार प्लांट इ विरोध में चल रहे आंदोलन को देखने मै जा रहा था । संयोग से मेधा पाटकर भी जाने वाली थी और उन्हें मेरे जाने की जानकारी मिली तो वे भी साथ चली । बाद में जगदलपुर के सर्किट हाउस में जहाँ मै रुका था दुसरे दिन सुबह जब मेधा पाटकर आई तो कांग्रेस के लोगों ने नगरनार प्लांट का विरोध करने के लिए मेधा पाटकर पर हमला कर दिया । अपने स्थानीय संवाददाता वीरेंद्र मिश्र और एनी लोगों के चलते बड़ी मुश्किल से बेकाबू कांग्रेसियों पर नियंत्रण पाया गया था । यह तब जब मेधा पाटकर खुद अजित जोगी को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में रही थी । रात में अजित जोगी से जब उनकी मुलाकात हुई तो जोगी ने उनके दौरे पर नाराजगी भी जताई थी । वह सब याद आया ।
मेधा पाटकर से रास्ते में लंबी चर्चा हुई खासकर अन्ना आंदोलन को लेकर । पर यह सब निजी जानकारी के लिए । मेधा बिसलरी का पानी नही पीती है इसलिए छिंदवाडा के जंगलों से पहले एक ढाबे में उनके लिए नल का पानी लिया गया तो उन्होंने चाय पीने की भी इच्छा जताई । वे जन आंदोलनों में सालों से शिरकत कर रही है और जो भी रास्ते में मिलता है खा लेती है और नल का पानी पीती है । हम लोग ऐसे जीवन के अभ्यस्त हो चुके है जहाँ अब यह सब संभव नहीं है । रास्ते में उन्होंने अपने मित्र अरुण त्रिपाठी के लेखन पर दोबारा एतराज जताते हुए कहा -मेरे ऊपर किताब का दूसरा संस्करण भी प्रकाशित कर दिया पर एक बार भी बात नही की । यह किताब अभय कुमार दुबे के संपादन में लिखी गई थी जिसमे मैंने भी एक पुस्तक लिखी थी । मैंने मेधा जी बताया कि अरुण त्रिपाठी का कहना है कि उन्हें आपने बातचीत का समय नहीं दिया ।खैर जनसभा बहुत सफल रही और फिर लौटने की जल्दी हुई क्योकि साढ़े छह बजे नागपुर में प्रेस कांफ्रेंस थी तो उसके बाद अन्ना टीम की बैठक और रात में ही उन्हें जबलपुर निकलना था । पांच घंटे का रास्ता काफी तेज रफ़्तार से तय करना पड़ा । फिर भी साढ़े सात बजे प्रेस क्लब पहुंचे तो मीडिया इंतजार में था । वे मीडिया को लेकर कुछ आशंकित भी थी पर दूसरे दिन भूमि अधिग्रहण का मुद्दा सरे अख़बारों में प्रमुखता से आया था । महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के दौरे से क़ल लौटा तो खबरों में उलझ गया । इस बीच अपना ब्लॉग विरोध डिलीट हो गया तो जनादेश पर शिफ्ट हो रहा हूँ ।

Friday, September 23, 2011

कंपनी सरकार किसानो की खेती की जमीन छीन रही



अंबरीश कुमार
मोहगांव, सितंबर । आज इस गांव में हुए किसान पंचायत में सर्वसम्मत से फैसला किया कि किसी भी तरह कि परियोजना के लिए अब आस पास के किसान एक इंच भी जमीन नहीं देंगे | नागपुर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर छिंदवाड़ा जिले के इस आदिवासी अंचल में आज पांच राज्यों के किसान संघटनों के प्रतिनिधियों के अलावा हजारों कि संख्या में किसान जुटे । इस मौके पर नर्मदा बचाओ आंदोलन कि नेता मेघा पाटकर ने खेती कि जमीन लुटने कि साजिश से किसानों को आगाह किया ।
मेघा पाटकर ने आगे कहा - देश के विभिन्न राज्यों में कंपनी सरकार किसानो की खेती की जमीन छीन रही है। जिसके खिलाफ अब बड़ी लड़ाई लड़नी होगी । उन्होंने कंपनी सरकार शब्द की व्याख्या करते हुए कहा की वह सरकार जो कंपनियों से सांठ - गांठ करके चलती हो उसे कंपनी सरकार मानना चाहिए। दुर्भाग्य यह है कि कंपनी सरकार कि यह प्रवृति अब सर्वदलीय हो रही है । मेघा पाटकर ने खेती कि जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ नवम्बर से राष्ट्रीय किसान यात्रा अभियान शुरू करने का एलान किया जिसमे देश के विभिन्न जन संघटन,किसान संघटन,आदिवासी व मजदूर संगठन भी शिरकत करेंगे । गौरतलब है कि इस इलाके में पेंच राष्ट्रीय पार्क है जिसका दक्षिणी हिस्सा नागपुर के जंगल में पड़ता है और वहां अडानी की बिजली परियोजना के खिलाफ जब आंदोलन हुआ तो उन्हें काम बंद करना पड़ा । जबकि दूसरा सिरा छिंदवाडा के इस अंचल में पड़ता है और यहां के किसान इस परियोजना के खिलाफ आंदोलनरत है |इसके अलावा इस छेत्र में एसकेएस पावर प्रोजेक्ट, मेक्सो प्रोजेक्ट, पेंच डाई वर्जन प्रोजेक्ट और एसइजेड के लिए किसानो की जमीन ली जा रही है | इसको लेकर काफी नाराजगी है । किसानों की यह नाराजगी आज की किसान पंचायत में उभर कर सामने आई है । किसान पंचायत ने जो प्रस्ताव पास किया है । उसमे कहा गया है कि राज्य सरकार ने 1985 -86 में जो जमीन बिजली घर बनाने के नाम पर पांच से दस हजार एकड़ में ली गई थी । अब वही जमीन अडानी समूह को बिजली घर बनाने के लिए साढ़े तेरह लाख रूपए एकड़ के भाव बेचीं गई है । पूरे खेल में राज्य कि भाजपा और केंद्र की कांग्रेस सरकार कंधे से कंधा मिला कर चल रही है ।
आज की किसान पंचायत में पुलिस की रोक टोक के बावजूद हजारों की संख्या में किसानों का पहुंचना एक बड़े किसान आंदोलन की जमीन तैयार करना नजर आ रहा है । इस किसान पंचायत में महिलाओं की जबरदस्त हिस्सेदारी थी । जैसे ही मेघा पाटकर, किसान मंच के नेता विनोद सिंह और इंडियन सोशल एक्सन फोरम के महासचिव चितरंजन सिंह मोहगांव पहुंचे नगाड़े और पटाखों से उनका स्वागत किया गया । गांव की महिलाएं अपने घरों से बहार निकल आई और वे नारे लगाते हुए मेघा पाटकर के साथ पंचायत स्थल पर पहुंची । इस मौके पर नारा लग रहा था - जब तक जेल में चना रहेगा आना जाना लगा रहेगा, जमीन हमारी आपकी - नहीं किसी के बाप की जैसे कई नारे गूंज रहे थे । जिला मुख्यालय से करीब 35-40 किमी दूर इस गांव में पुलिस का जबरदस्त बंदोबस्त था । इस इलाके में पहली बार किसान आक्रामक तेवर के साथ गोलबंद होते नजर आ रहे थे । इस मौके पर बोलते हुए किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने दादरी आंदोलन से सबक लेते हुए किसानों से लम्बी लड़ाई के लिए तैयार रहने को कहा । उन्होंने कहा कि विपक्ष में मध्य प्रदेश से लेकर उत्तर प्रदेश तक भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानो का गुस्सा बढ़ रहा है| इस बात को राज्यों व सरकार को समझना चाहिए वरना जिस तरह दादरी आंदोलन के चलते मुलायम सिंह की सरकार गई उसी तरह यह सरकारें भी सत्ता से बेदखल हो जाएंगी | इंसाफ के महासचिव चितरंजन सिंह ने केंद्र सरकार को आगाह करते हुए कहा कि अगर छिंदवाड़ा को नक्सल प्रभावित क्षेत्र घोषित करने की कोशिश की गई तो इसका अंजाम भुगतना होगा | उन्होंने इस महाराष्ट्र से लेकर मध्य प्रदेश तक बिजली घरों के नाम पर सवा लाख एकड़ से ज्यादा जमीन छिनने की साजिश पर सरकार को आगाह किया | उन्होंने कहा कि अब जमीन की यह लूट ज्यादा दिन नहीं चल पाएगी|
इस मौके पर किसान संघर्ष समिति के संयोजक डा सुनील ने कार्पोरेट क्षेत्र को चुनौती देते हुए कहा कि अगर खेती की जमीन ली गई तो किसान आर पार की लड़ाई लड़ने को मजबूर होंगे | अब यह लड़ाई गांव से लेकर दिल्ली तक होगी | jansatta

सवा लाख एकड़ जमीन पर संकट के बादल

अंबरीश कुमार
वर्धा, सितंबर । महात्मा गांधी की कर्मभूमि में सवा लाख एकड़ खेती की जमीन पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं । वर्धा में पचासी थर्मल पवार प्रोजेक्ट परियोजना प्रस्तावित हैं ।इन परियोजनाओं में अमरावती जिले की सोफिया बिजली परियोजना,यवतमाल की जिम्मूविश परियोजना, वर्धा लेनको बिजली परियोजना,गोंदिया की अदानी परियोजना व चंद्रपुर की बिजली परियोजना का विस्तारीकरण भी शामिल है । जिसमे दर्जन भर से ज्यादा परियोजनाओं पर काम शुरू हो चुका है । जिसके चलते किसानों की पचास हजार हेक्टेयर जमीन इन परियोजनाओं की भेंट चढ़ने वाली है । ख़ास बात यह है की .समूचे महाराष्ट्र में बिजली की समस्या से निजात पाने के लिए 7000 मेगावाट बिजली की अतिरिक्त जरुरत है पर योजनाएं पचपन हजार मेगावाट उत्पादन की बनाई जा रही है । नतीजन आने वाले समय में इस अंचल में पानी का घनघोर संकट तो पैदा होगा ही साथ ही साथ पर्यावरण को भी बड़े पैमाने पर नुकसान उठाना पड़ेगा । इन बिजली घरों से चार लाख सड़सठ हजार मेट्रिक टन फ्लाई ऐश निकलेगा जिसे खपाते खपाते यहां का पर्यावरण चौपट हो जाएगा । मामला सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है बल्कि सीमापर मध्यप्रदेश तक पहुंच चूका है । इन बिजली परियोजनाओं को लेकर जो राजनीति चल रही है उसके परिणाम घातक हो सकते हैं । यही वजह है कि वर्धा यवतमाल से लेकर छिंदवाडा तक बड़ी बिजली परियोजनाओं के खिलाफ आंदोलन गरमाने लगा है। आज अदानी समूह की बिजली परियोजना को लेकर छिंदवाडा के आदिवासी अंचल में खेत बचाओ जमीन बचाओ यात्रा का समापन हुआ तो कल राष्ट्रीय किसान पंचायत भूलामुह गांव में होने जा रही है । मेघा पाटकर कल नागपुर पहुंच रही है जहां वह किसानो के सवाल पर बैठक करेंगी तो दूसरी तरफ वे भूलामुह गांव की किसान पंचायत में हिस्सा लेंगी । यह किसान पंचायत नागपुर से एक सो पचास किलो मीटर दूर मध्यप्रदेश के छिंदवाडा जिले के एक आदिवासी गांव भूलामुह में हो रही है । इस किसान पंचायत में हिस्सा लेने के लिए कई जन संघटन और किसान संघटन के प्रतिनिधि आज नागपुर पहुंच गए हैं । किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह , मेघा पाटकर के सहयोगी और नर्मदा बचाओ आंदोलन के मधुरेश आज खेती बचाओ जमीन बचाओ यात्रा के समापन में शामिल हुए । इस यात्रा का नेतृत्व किसान संघर्ष समिति के मुखिया डा सुनीलम कर रहे है । डा सुनीलम ने जनसत्ता से कहा-इस अदानी पावर प्रोजेक्ट के अलावा एसकेएस पावर जनरेशन और पेंच परियोजना को लेकर किसानो का आंदोलन जोड़ पकड़ता जा रहा है । इस अंचल की जमीन काफी उपजाऊ है जिसके चलते अगर खेती की जमीन इन परियोजनाओं के लिए ली गयी तो हजारो किसान बर्बाद हो जाएंगे ।jansatta

मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में घमासान


अंबरीश कुमार
लखनऊ , सितंबर । उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा चुनाव को लेकर सत्ता की दौड़ से बाहर जाती दोनों राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा और कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की होड़ बढ़ती जा रही है । भारतीय जनता पार्टी में जहां इसे लेकर टकराहट अब कड़वाहट में बदल रही है वही कांग्रेस में भी गोलबंदी तेज हो गई है । भाजपा में तो इस दौड़ में कई राष्ट्रीय नेता शामिल है तो कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष से लेकर केंद्रीय मंत्री तक । भाजपा के राष्ट्रीय नेता इस अभियान को और हवा दे रहे है ।मुख्यमंत्री पद के संभावित दावेदारों में राजनाथ सिंह ,कलराज मिश्र ,विनय कटियार ,लालजी टंडन जैसे नेता भाजपा के है तो कांग्रेस में केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा , श्रीप्रकाश जायसवाल ,आरपीएन सिंह जैसे पिछड़ी जातियों के नेता से लेकर अगड़ी जातियों में रीता बहुगुणा जोशी ,प्रमोद तिवारी ,जगदंबिका पाल ,जितिन प्रसाद, ,संजय सिंह और दलित नेताओं मी पीएल पुनिया का नाम शुमार किया जा रहा है । यह बात अलग है कि अपने बूते पर यह पार्टिया तीसरे और चौथे नंबर की लड़ाई लडती नजर आ रही है ।
भाजपा के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने इस अभियान को यह कर कर गर्म किया कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का नाम तय है तो पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कल बरेली में कहा -उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए नाम तय हो चुका है पर यह समय आने पर ही बताया जाएगा । पार्टी के एक कार्यकर्त्ता प्रकाश सिंह ने कहा - मुख्यमंत्री का नाम छुपा कर क्यों रखना चाहते है राजनाथ सिंह । पार्टी के वरिष्ठ नेता कलराज मिश्र पहले ही यह चुके है कि मुख्यमंत्री का नाम घोषित कर चुनाव लड़ना चाहिए । सपा और बसपा के मुख्यमंत्री पद के नाम पहले से तय होते है । ऐसे में इनसे मुकाबला करने
जा रही भाजपा को भी अपने मुख्यमंत्री का ना नाम प्रोजेक्ट करना चाहिए । गौरतलब है कि भाजपा एक बार फिर कल्याण सिंह को लेकर विवाद में घिरी हुई है जो पार्टी के तीन में से एक पूर्व मुख्यमंत्री है । पिछली बार उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया पर उनके समर्थको का आरोप है कि टिकट बंटवारे में उनकी नहीं चली और पार्टी सत्ता की दौड़ में पिछड़ गई । उनके अलावा राजनाथ सिंह दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री है जिन्हें एक तबका मुख्यमंत्री पद का अघोषित दावेदार माना जा रहा है । यही वजह ही कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की टकराहट बढ़ रही है ।
कोंग्रेस का हाल भी ठीक नहीं है । प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी का समर्थन करते हुए पार्टी के एक नेता ने कहा - कांग्रेस में यह परंपरा रही है कि चुनाव अभियान जिस अध्यक्ष के नेतृत्व में चलता है उसे ही सफलता मिलने पर कमान सौपी जाती है । अशोक गहलौत से लेकर दिग्विजय सिंह उदहारण है । कांग्रेस विधायक दल के नेता प्रमोद तिवारी का इस पद के लिए दावा करने का कोई औचित्य ही नहीं है । वे तो सालों से से कांग्रेस में इस पद पर है पार्टी का क्या हाल है सबके सामने है । फिर दावेदारों की कमी कहाँ है । पिछड़े तबके में बेनी प्रसाद वर्मा ,श्रीप्रकाश जायसवाल और आरपीएन सिंह है तो राजपूत नेताओं में संजय सिंह ,जगदंबिका पाल और राजकुमारी रत्ना सिंह है । दलित बिरादरी से पीएल पुनिया है । इसलिए उनलोगों को ज्यादा ख़्वाब नहीं देखना चाहिए जो पार्टी को पीछे ले जा चुके है । jansatta