Tuesday, August 31, 2010

बादल फटा नहीं तो बच्चे मरे कैसे


शमशेर सिंह बिष्ट
बागेश्वर। उतराखंड के बागेश्वर जनपद के कपकोट तहसील में सौंग-समुगढ़, सरयू व रेवती नदियों के घाटियों में 18 अगस्त को जो तबाही मची जिसमें सुमगढ़ में स्थित सरस्वती शिशु मन्दिर के 18 बच्चे जिंदा दफन हो गये पूरे देश में मीडियाने यह प्रचारित किया की बादल फटने से यह हादसा हुआ आज बिल्कुल झूठा साबित हो गया है।
मारे गये बच्चों के अभिभावकों ने जिलाधिकारी बागेश्वर को ज्ञापन दिया है, कि इस हादसे की पूरी मजिस्ट्रेटी जॉच की जाए । हादसे में मारी गई खूशबु के दादा जगदीश चन्द्र जोशी ने कहा है कि 18 अगस्त की सुबह इस स्कूल के 140 बच्चों में से सिर्फ 39 बच्चे ही आये थे। बच्चों ने जब कक्षा में पानी आने की शिकायत अपने आचार्यों (अध्यापकों) से की तो आचार्यों ने बच्चों को डांट दिया तथा बाहर से कक्षायें बंद कर दी अन्दर से बच्चें कक्षाओं में ही थे ।लगभग 100 मीटर दूरी पर सरयू नदी जर्बदस्त उफान मे थी। अध्यापकों को यह डर भी हो रहा था कि नदी में बने पुल से ही बच्चों को आना जाना था। कोई बच्चा नदी में हादसे का शिकार न हो जाए । इसीलिये अध्यापकों ने बच्चों को कक्षा में बंद कर दिया। इसी समय समुगढ़ के ठीक सामने वाले पहाड़ में जिसमें सिलिंग उडियार सप्तकुंड बसे है जर्बदस्त धमाके की आवाज हुई। सारे अध्यापक दूसरी तरफ क्या हुआ यह देखने में लग गये, क्योंकि उस तरफ इतना जर्बदस्त नाला आ गया, जिसने खड़क सिंह के पूरे मकान व दुकानों को ही नष्ट नहीं कर दिया, वरन वहॉं खड़ी, कार, आदि वाहनों को अपनी चपेट में ले लिया। इस तरफ जान माल को कोई नुकसान इसलिये नहीं हुआ क्योंकि सभी लोग पहले से ही सर्तक हो गये थे। इसीलिये दयाल सिंह दियारकोटी जिसकी सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान सहित चार दुकाने पूरी नष्ट हो गई, इनका कहना है, की लगभग छह लाख की हानि हुई है, फिर भी कहीं चोट तक नहीं आई। जिस समय सरस्वती शिशु मन्दिर के अध्यापक सिलिंग उडियारी तप्तकुड की तबाही का नजारा देख रहे थे। उसी समय उनके स्कूल क ऊपर भूस्खलन होने से स्कूल की कमजोर दीवार को तोड़कर मलवा कक्षाओं में भर गया तथा 18 बच्चे दबकर मर गये, ये बच्चे सभी 7,8 वर्ष से कम उम्र के थे, इस सुमगढ़ गॉव में इस स्कूल के अलावा कोई हानी नहीं हुई। यह स्कूल अवश्य नदी के समीप है, जबकी गॉव की आबादी नदी से दूर है। अध्यापको के लिये नदी के पार, सिलिंग उडियार तप्तकुड समीप पढ़ता है। लेकिन सरयू नदी के तेज उफान के कारण पुल का एक हिस्सा टूट गया था जिस कारण मदद देर से मिली। यह बात सच है यह क्षेत्र भूकंप के सबसे खतरनाक पाचवें जोन में बसा है, इसी स्कूल के कुछ दूरी पर उत्तर भारत हाइड्रों पावर कारपोरेशन द्वारा पहाड़ को खोदकर सुरंग भी बनाई जा रही है। इसलिये यह कहना गलत नहीं होगा की पहाड़ को खोदकर जो सुरंग बनाई जा रही है, उसका प्रभाव भी स्कूल के उपर आए भूस्खलन का कारण हो सकता है। स्कूल की लापरवाही तो मुख्य कारण है ही। सरस्वती शीशु मन्दिर का यह स्कूल था, इसलिये इस स्कूल की दीवार सिर्फ सिंगल ईट पर खडी होना निर्माण कार्य को घटिया साबित करना तो है ही ।
इस सरयू घाटी के लगभग 10 किमी0 क्षेत्र के अन्तर्गत पहाड़ो को छेदकर तीन बड़ी-बड़ी सुरंगे बनाई जा रही हैं। देश के जाने माने वैज्ञानिक क डा. खड़क सिंह वल्दिया इस क्षेत्र को संवेदनशील घोषित कर चुके है। लेकिन उत्तराखंड व भारत सरकार इस क्षेत्र के प्रति संवेदनशील नही है। जिसके कारण, उत्तराखंड के पहाड़ खतरनाक बनते जा रहे हैं। उत्तर भारत हाइड्रों पावर कारपोरेशन का कार्य इस क्षेत्र में तीन चरणें में होना है, द्वितीय व तृतीय चरण में तो कार्य चल रहा है, परन्तु प्रथम चरण का कार्य जनता के प्रतिरोध के कारण आरम्भ नहीं हो पाया है। सरयू हक-हकूक बचाओ संघर्ष समिति के नेतृत्व मे यह आन्दोलन नौ माह तक चला। कई प्रलोभनों, दमन के बाद भी यह आन्दोंलन टूट नहीं पाया। सरकार व कंपनी मिलकर भी विद्युत परियोजना का प्रथम चरण का कार्य आरम्भ नहीं कर पाये। पूर्व मुख्यमंत्री इसी क्षेत्र से विधानसभा सदस्य रहे हैं उन्होने इस आन्दोलन को तोड़ने का पूरा प्रयास किया। वे हमेशा कंपनी के पक्ष में खड़े रहे उनके लिए बिजली परियोजना का बनना ही विकास का मापदण्ड है, चाहे पहाड़ पूरे नष्ट हो जाए । इस क्षेत्र में हर वर्षा में जर्बदस्त तबाही होती है। इसी क्षेत्र सुडिंग में सन् 1957 में, मई 1991 में कमी में, सन् 1983-84 में रिखोड़ी-मोनांर तथा 2004 में पुनः सुड़िग में भारी जन धन की हानी हुई थी। लेकिन इन सबको भूलकर जनता के विरोध के बावजूद बॉध बनाने में सरकार अड़ी है। इसका पुरजोर समर्थन स्थानीय जन प्रतिनीधि भी करते है, क्योंकि चुनाव के लिये चन्दा इन्ही से मिलता है।
इस समय स्थानीय विधायक शेर सिंह गड़िया भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल अन्य नेता बिना पूछे ही यह कह रहे है कि इस हादसे में विद्युत परियोजना की कोई गलती नहीं हैं इनसे जब यह पूछा गया की सुमागढ़ में तो बादल फटा ही नहीं, 18 बच्चे कैसे मारे गये थें, तो बस इतना ही कहते हैं की कंपनी की गलती नहीं है।
सौंग बांध विरोधी नेता मोहन सिंह ताकुली कहते है की सुमगढ़ की घटना सुरंग बनाने से हुई। सौंग का क्षेत्र इसलिये बच गया, क्योंकि यहॉ हमने सुरंग बनने हीं नहीं दी आन्दोलन के ही एक नेता खड़क सिंद कुमल्टा कहते है की अब लोग समझ रहे हैं बॉध बनाना कितना खतरनाक है। 18 बच्चों के लिये देश की संसद ने श्रद्वान्जली अर्पित की लेकिन संसद को यह भी समझना होगा की कथित विकास व भ्रष्टाचार भी इन बच्चों की जान लेने में सहायक रहे है, प्राकृतिक नहीं, मानवी कृत्य इनके लिए अधिक घातक साबित हुआ है, लेकन दुखः यह है इनकी मौत का कउरण बादल फटना मान लिया गया। जबकि इनके स्कूल के ऊपर बादल फटा ही नही मंत्रियों के समझदारी का यह हाल है प्रभारी मंत्री व उत्तराखण्ड सरकार में राजस्व व आपूर्ति मंत्री दिवाकर भट्ट ने कहा है कि लोहारी नागपाल जल विद्युत परियोजना का जो विरोध कर रहे हैं वे सब सीआईए के एजेन्ट है। मंत्री जी को शायद यह मालूम नही कि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री निशंक ने ही केन्द्र सरकार से लोहारी नागपाल परियोजना बंद करने की मांग की थी।
इस समय कपकोट के विधायक शेर सिंह गड़िया ने सरकार को प्रस्ताव भेजा है कि एक अरब की हानि हुई है, तत्काल राहत देकर निर्माण कार्य कराया जाए । पहाड़ में आई विपदा ने ठेकेदारों व अधिकारियों की मौज कर दी है। अधिकांश ठेकेदार दलों के ही नेता हैं इसलिये जनता के नाम से लूटने का मौका मिल गया। इस क्षेत्र में भ्रमण करने के बाद यह मालूम हुआ कि रिखाड़ी की गंगा देवी को 10 किलों आटा, 5 किलो चावल, 6 मुठ्ठी दाल व एक चाय की पुड़िया के अलावा कुछ नही मिला। खड़क सिंह व जसमल सिंह का पूरा कारोबार समाप्त हो गया है। सुरंग के ऊपर का गॉव कफलानी में लोग इतने डरे है कि लोग रात में स्कूल में जाकर सोते है। सूमागढ़ का सभापति हरिचन्द्र सत्तारूढ़ दल का नेता है, पिता कानूनगो है। सरकारी सहायता इनसे आगे बढ़ नही पा रही है। विचला, मल्ला दानपुर क्षेत्र में जर्बदस्त हानी हुई है। लेकिन नेता, मंत्री दौरा कर कच्ची सुविधायें की घोषणा कर रहे है लेकिन नीति में बदलाव की बात नहीं कर रहे है। इसलिये हादसे होते रहेगें, नेता आते रहेगें, लोग मरते रहेगे, लाशों के नाम से ठेके लेते रहेगें।

Friday, August 27, 2010

राष्ट्रपति की दरवाजे पर भी दस्तक

कृष्णमोहन सिंह
नईदिल्ली। अनीता भारती, विमल थोराट और अंजलि सिन्हा की अगुवाईवाली एक महिला प्रतिनिधि मंडल ने राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल से मुलाकात करके ,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ,वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय को बर्खास्त करने की मांग की। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल इस विश्वविद्यालय की विजिटर हैं और उनके पति देवी सिंह पाटिल को विभूति नारायण राय ने किसी तरह से पटा लिया है। राष्ट्रपति ने प्रतिनिधिमंडल की बातें बहुत ही ध्यानपूर्वक और धैर्य के साथ सुनी। महिलाओं ने उनको बताया कि कुलपति वी.एन राय ने लेखिकाओं को छिनाल कहा है। सबूत के तौर पर संबधित दस्तावेज और विभिन्न अखवारों, पत्रिकाओँ और ब्लाग में छपे लेख और प्रतिक्रियाए भी दिखाया । ऐसे बयान देने तथा विश्विद्यालय में अपनी जाति के नकलची अध्यापकों को नियुक्त व प्रमोट करने वाले, चहेतों की मनमानी नियुक्तियां करने, चाटुकारों-चहेतों को मनमानी प्रोजेक्ट बांटने,ठेका देने ,जगह-जगह सेमिनार कराने के नाम पर अपने चहेतो को घुमाने वाले , चहेतों को पहले से तय कर सेंटर खोलने का चक्कर चलाने वाले विभूति नारायण राय को कुलपति पद पर बने रहना शर्मनाक बताया। मंडल ने वर्धा विश्वविधालय में दलित छात्र- छत्राओं , व शिक्षकों के साथ लगातार की जा रही जातीय उत्पीडन की खबरों का खुलासा करते हुए राष्ट्रपति महोदया को प्रोफेसर कारूण्यकारा को 6 दिसम्बर (दलित डिग्निटी डे) को डा. अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस के कैडल मार्च में शामिल होने पर कारण बताओ नोटिस दिए जाने का ज्रिक करते हुए कहा कि आज तक किसी भी भारतीय नागरिक को 2 अक्टूबर, 30 जनवरी या फिर किसी भी ऐतिहासिक दिवस पर शमिल होने के लिए कारण बताओ नोटिस नहीं मिला तो किसी प्रोफेसर को मात्र 6 दिसम्बर को विद्यार्थियों द्वारा आयोजित सभा में शमिल होने के लिए कैसे एक कुलपति. कारण बताओ नोटिस दे सकता है। जबति कारूण्यकारा उसी विश्वविद्यालय के 'अम्बेडकर चेयर के अध्यक्ष भी हैं, कायदे से इस कार्यक्रम में शमिल होना उनका फर्ज बनता है। महिला प्रतिनिधिओं ने राहुल काबंले के केस की भी चर्चा करते हुए राहुल कांबले द्वारा राष्ट्रपति को भेजा गया 'इच्छामृत्यु की अनुमति' वाला पत्र भी दिखाया । राष्ट्रपति को पूर्व मंत्री व सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह द्वारा लोकसभा में कुलपति द्वारा की गई टिप्पणी के संदर्भ में उठाए गए सवाल का दस्तावेज भी दिखाया । वर्धा विश्वविद्यालय परिसर में कुलपति के पुलिसिये हथकंडे और दमनकारी नितियों के बारे में भी बताया। लगभग 17 मिनट की बातचीत में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने ने पूरी बाते बडे मनोयोग से सुनी और संज्ञान लेने का आश्वासन दिया। प्रतिनिधि मंडल ने सभी अखबारों में वीएन राय की महिला संबंधी टिप्पणी के विरोध में लेख, प्रतिक्रियाएं विश्वविधालय में पदों से सम्बन्धित बरती जा रही नियमों की अनदेखी, घपले बाजी, और दलितों के जातीय उत्पीड़न सम्बन्धी दस्तावेज (लगभग 170-180 पेज) राष्ट्रपति महोदया को सौंपे। राष्ट्रपति ने उन सभी दस्तावेज को सम्बन्धित मंत्रालय में भेजवाने और उचित कार्रवाई करने का आश्वासन दिया ।

Sunday, August 22, 2010

खामोश हो गई आंदोलनों की आवाज ,नही रहे गिरदा’


उत्तराखंड के क्रांतिकारी जनकवि गिरीश तिवाड़ी ‘गिरदा’ नही रहे। नागार्जुन और त्रिलोचन की परंपरा के इस जनकवि का पूरा जीवन संघर्ष भरा रहा। उतराखंड आंदोलनों को क्रांतिकारी आवाज देने वाली यह आवाज आज खामोश हो गई । ' आज हिमाल तुमुं कै धत्युं छः जागो जागो ओ मेरे लाल , गीत की यह पंक्तिया महाप्रयाण से पहले गिरदा ने अंतिम बार गुनगुनाई थी ।
रविवार की सुबह हल्द्वानी में गिरदा का निधन हो गया। वे 68 वर्ष के थे। उनके परिवार में पत्नी और एक पुत्र है। गिरदा ने हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल में रविवार की सुबह करीब सवा ग्यारह बजे अंतिम सांस ली। वे पेट का अल्सर फटने के बाद पिछले 20 अगस्त को अस्पताल में भर्ती हुए थे। उनका 21 अगस्त को आपरेशन किया गया मगर आंत फटने के बाद हुए संक्रमण के कारण उन्हें बचाया नहीं जा सका। उनकी अंत्येष्टि सोमवार की सुबह नैनीताल में होगी।
‘गिरदा’ के नाम से मशहूर गिरीश तिवाड़ी के गीतों ने चिपको आंदोलन से लेकर, नशा नहीं रोजगार दो, अगल राज्य के आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलन सहित राज्य के चार बड़े जनांदोलनों में अलख जगाई। हुड़के की थाप पर ‘आज हिमालय तुमूकैं धत्यूं छौ, जागो-जागो ओ मेरा लाल’ और ‘ओ जैंता एक दिन तो आलो उदिन यौ दुनि में’ जैसे जनगीत गाते हुए गिरदा ने खुद भी जनांदोलनों में शिरकत की। उनके गीतों की तरह उनकी आवाज में भी गजब का जादू था। शेखर पाठक के साथ मिल कर लिखी गई उनकी एक पुस्तक ‘शिखरों के स्वर’ कुमाऊं विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल है। इसके अलावा ‘उत्तराखंड काव्य’ नाम की एक अन्य पुस्तक में उनके गीत संग्रहीत हैं।
उनके निधन पर शोक जताते हुए ‘पहाड़’ के संपादक प्रोफ़ेसर शेखर पाठक ने कहा कि वे सबके लिए बोलने वाले, पूरी मनुष्यता के लिए चिंता करने वाले और पूरी दुनिया के लिए सोचने वाले कलाकार थे, जो अब चले गए। प्रो. पाठक ने बताया कि इधर गिरदा के तीन संग्रहों के एक साथ प्रकाशन की तैयारी चल रही थी, जिनमें एक उनके कुमाऊंनी गीतों का, एक हिंदी गीतों का संकलन और एक अन्य पुस्तक उनके तीन नाटकों का संग्रह है। उन्होंने कहा कि इन तीनों पुस्तकों को हम शीघ्र प्रकाशित करेंगे। पत्रकार नवीन जोशी ने उन्हें पंद्रह दिन पहले ही लखनऊ के मेडिकल कालेज में दिखवा कर नैनीताल भेजा था । तब गिरदा ने कहा था वे ठीक है । आज नविन जोशी नैनीताल में उन्हें अंतिम विदाई दे रहे थे। लखनऊ में एक गिरदा के निधन पर एक शोक सभा कर उन्हें श्रधांजलि दी गई ।
वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन शाह ने कहा कि गिरदा सिर्फ कवि, गायक या रंगकर्मी नहीं थे, वे ऐसे बिरले बुद्धिजीवियों में से थे जो गोली खाने को भी तैयार रहता हो। गिरदा सचमुच लोगों के दिलों में राज करते थे। उत्तराखंड लोक वाहिनी के अध्यक्ष शमशेर सिंह बिष्ट ने कहा कि उनके गीतों ने हर जनांदोलन में उत्प्रेरक का काम किया। वे आज हमेशा के लिए सो गए पर उनके गीत हमें इसी तरह आगे भी उठ खड़े होने की ताकत देते रहेंगे। दिल्ली में पर्वतीय कला केंद्र ने उनके निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। पर्वतीय कला केंद्र के महासचिव चंद्रमोहन पपनै ने कहा कि गिरदा बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। उनके गीत हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, जो हमें हमेशा उनकी याद दिलाते रहेंगे और जगाते रहेंगे।

Friday, August 20, 2010

गले की हड्डी बना किसान आंदोलन

अंबरीश कुमार
लखनऊ, अगस्त। अलीगढ में टप्पल के जिकरपुर गाँव में चल रहा किसान आंदोलन मुख्यमंत्री मायावती के गले की हड्डी बन गया है । इसका राजनैतिक असर पूरे प्रदेश में पड़ रहा है जो सरकार और बसपा दोनों के लिए खतरे की घंटी है। किसानो की पंचायत में आज साफ कहा गया कि खेत उजाड़ कर सड़क नहीं बनने दी जाएगी । जब तक राज्य सरकार किसानो की मांगे नहीं मानती धरना जारी रहेगा ।आज दिन में करीब पच्चीस हजार किसानो की सभा में महेंद्र सिंह टिकैत ,कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ,प्रमोद तिवारी और भाकपा के राज्य सचिव डाक्टर गिरीश आदि बोले और सभी ने किसान आंदोलन का समर्थन किया । कल अमर सिंह के आलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई किसान संगठन के प्रतिनिधि भी पहुच रहे है । आज यह भी कहा गया की यहाँ के किसान कही नहीं जाएंगे जिस नेता को समर्थन करना हो वह टप्पल आए। यह एलान नौ गांवों के किसानो की ६१ सदस्यों वाली किसान संघर्ष समिति ने किया जिसके संयोजक मनवीर सिंह तेवतिया है । इस बीच कन्नौज , उन्नाव ,महोबा ,फतेहपुर के साथ लखनऊ में लीडा के खिलाफ खड़े हुए किसान सक्रिय हो गए है । पूर्वांचल में गंगा वे के खिलाफ आंदोलन करने वाले भूमि बचाओ मोर्चा के नेताओं ने अलीगढ के किसानो के समर्थन में राज्यपाल के नाम एक ज्ञापन बलिया ,गाजीपुर और मउ के कलेक्टर को सौंपा । इनका एक प्रतिनिधिमंडल आज टप्पल के लिए रवाना हो गया ।
उधर टप्पल में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने किसानो से कहा कि कांग्रेस पार्टी उनके आंदोलन के साथ है ।कांग्रेस ने हमेशा किसानो का साथ दिया है हरियाणा का उदाहरण सामने है । भूमि अधिग्रहण कानून बदला जाएगा और किसान की जमीन का जबरन अधिग्रहण नहीं होने दिया जाएगा । दिग्विजय ने जब यह कहा कि किसान दिल्ली आए राहुल गाँधी से उन्हें मिलवाया जाएगा । इस पर किसानो का एक खेमा बिगड़ गया और नारेबाजी होने लगी । धरना पर नारा गूंजा - राहुल चाहिए ,धरने पर । बाद में बताया गया कि सुरक्षा वजहों से जिस जगह संभव होगा राहुल गाँधी खुद किसानो से मिलेंगे । किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने कहा - शहर की दवा और गाँव की हवा बराबर होती है । अब गाँव में शहर बनने का क्या मतलब । खेत उजाड़कर किसान की जमीन नहीं लेने देंगे ।जमीन का जो मुआवजा एक जगह सरकार दे चुकी है उसे दूसरी जगह भी देना होगा ।
टिकैत ने राजनैतिक दलों को भी आगाह किया कि वे किसानो का साथ दे पर किसान के नाम पर राजनीति न करे । इशारा साफ़ था कि बिना किसान संगठनो को भरोसे में लिए राजनैतिक दल खुद कोई कार्यक्रम का एलान न करे । किसान संगठन के बीच यह भी विचार आया है कि इस सिलसिले में आंदोलन का नेतृत्व किसान संगठनो की संघर्ष समिति करे न की राजनैतिक दल ।
धरना पर बैठे किसानो को संबोधित करते हुए भाकपा नेता डाक्टर गिरीश ने कहा -कांग्रेस , भाजपा और सपा अपने शासनकाल में किसानो के हित के साथ खिलवाड़ करती रही है और अब घडियाली आंसू बहा रही है ।किसान इनसे सावधान रहे । उन्होंने यह भी कहा कि अब मुआवजा की मांग छोड़ कर उपजाऊ जमीन बचने की लड़ाई लड़नी चाहिए । गिरीश ने एलान किया कि भाकपा २८ अगस्त को अलीगढ और ३० अगस्त को प्रदेश भर में इस मुद्दे को लेकर धरना प्रदर्शन करेगी ।
इस बीच अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा ने किसानों को धोखा देकर उनकी जमीनें व्यवसायिक रेट से बेहद कम दाम पर जबरदस्ती छीनने के लिए मायावती सरकार की कड़ी निन्दा की है। ग्रेटर नाएडा में 880 रुपए वर्ग मीटर का रेट दिया गया, आगरा मे 580 रुपए का, अलीगढ़ व मथुरा में 570 रुपए का और करछना में केवल 120 रुपए वर्ग मीटर तथा लहोगरा बारा में केवल 60 से 120 रुपए वर्ग मीटर का। राज्य सरकार का करछना व बारा के इन इलाकों में स्टाम्प ड्यूटी का व्यवसायिक रेट है 2600 रुपए वर्ग मीटर। एआईकेएमएस ने केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा 1894 के अग्रेजों के भूमि अधिग्रहण कानून के अमल व इसके तहत किसानों के विस्थापन की आलोचना की है। बसपा पूरे उत्तर प्रदेश में कुल 23000 गांवों की जमीनें हाईवे, हाई टेक सिटी, शापिंग माल बनाने के लिए कब्जा करना चाहती हैं, जो प्रदेश के कुल करीब एक लाख गांवों के एक चौथाई हैं। इससे निश्चित रूप से प्रदेश व देश में खाद्य संकट बढ़ेगा। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी ने आरोप लगाया क्योकि बसपा सरकार भयादोहन और छलप्रपंच के जरिए किसानों में फूट डालकर उनके आंदोलन के बारे में भ्रम फैलाने में लगी है। किसान आंदोलित हैं और अपनी जमीन तथा रोजी रोटी की लड़ाई लड़ रहे है । यह सरकार उनकी जमीन छीनकर उनको बेरोजगार और बेघर करने पर तुली है। पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा कि सरकार को यह भी परवाह नहीं कि खेती की जमीन छिन जाने पर खाद्य समस्या का क्या होगा? इस सरकार की जन विरोधी नीतियों के चलते किसान लुट रहा है। समाजवादी पार्टी ने साफ़ कर दिया है कि गरीबों का खेत उजाड़कर सड़क और शहर का निर्माण नहीं होने दिया जाएगा। किसान अब पूरे प्रदेश में एकताबद्ध ढंग से आंदोलित है। किसानों ने अब तक सरकारी बहकावे में आकर समझौता नहीं किया है। मुख्यमंत्री ने चूंकि उद्योग समूह जेपी से अपना मोटा कमीशन पहले ही ले रखा है इसलिए वे किसानों में फूट डालकर राज करो की पुरानी अंग्रेजोवाली नीति अपना रही हैं। उनके अफसर पंचम तल का प्रशासनिक काम छोड़कर किसानों को आंतकित करने पटाने और भरमाने के काम में लग गए।

इस्लामी आतंकवाद क्या होता है विभूति !

फ़ज़ल इमाम मल्लिक
लगा फिर किसी ने मेरे गाल में जोर से तमाचा जड़ दिया। तमांचा मारा तो गाल पर था लेकिन चोट कलेजे पर लगी। चोट इस बार ज्यादा लगी। इस झन्नाटेदार तमांचे की धमक अब तक मैं महसूस कर रहा हूं। दरअसल पिछले कुछ सालों से इस तरह की चोट अक्सर कभी गाल पर तो कभी दिल पर झेलने के लिए भारतीय मुसलमान अभिशप्त हो गए हैं। आतंकवाद की बढ़ती घटनाओं ने हमेशा से ही देश भर के मुसलमानों पर सवाल खड़े किए हैं।
आतंकवाद की घटना कहीं भी घटे, देश भर के मुसलमानों को शक की निगाह से देखे जाते थे और कुछ क़सूरवार और कुछ बेक़सूर लोगों की धरपकड़ की जाती थी। उनके माथे पर भी आतंकवादी शब्द चस्पां कर दिया जाता रहा है जो आतंकवादी नहीं थे। लेकिन मुसलमान होने की वजह से सैकड़ों की तादाद में ऐसे मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया जिनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं था। अदालतों ने ऐसे बहुत सारे लोगों को बाद में बरी भी कर दिया जिसे भारतीय पुलिस ने आतंकवादी बताने में किसी तरह की कंजूसी नहीं की थी। लेकिन वही पुलिस बाद में उनके ख़िलाफ़ सबूत पेश नहीं कर पाई। ऐसे एक-दो नहीं ढेरों मामले हमारे सामने आए लेकिन इसके बावजूद आतंकवादी घटनाओं ने मुसलमानों के सामने बारहा परेशानी खड़ी की। वह तो भला हो साध्वी प्रज्ञा और उनके साथियों का जिसकी वजह से मुसलमानों की शर्मिंदगी बहुत हद तक कम हुई। इन कट्टर हिंदुओं ने मुसलमानों से बदला लेने के लिए वही रास्ता अपनाया जो मुसलमानों के नाम पर चंद कट्टर मुसलिम आतंकवादी संगठनों ने अपना रखा था। यानी ख़ून के बदले ख़ून। हत्या के इस खेल में काफ़ी दिनों तक तो यह पता ही नहीं चल पाया कि अजमेर या मक्का मस्जिद धमाके में कुछ हिंदू कट्टरवादी संगठनों का हाथ है। इसका पता तो बहुत बाद में चला। तब तक तो संघ परविार से लेकर भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता भी ‘इस्लामी आतंकवाद’ का ही राग अलाप रहे थे। लेकिन साध्वी की गिरफ्तारी के बाद जब ‘हिंदू आतंकवाद’ का राग अलापा जाने लगा और अख़बारों से लेक चैनलों तक में यह ‘हिंदू आतंकवाद’ मुहावरों की तरह प्रचलन में आने लगा तो अपने लालकृष्ण आडवाणी से लेकर संध परिवार के मुखिया तक को तकलीफ़ हुई और वे सार्वजनिक तौर पर कहने लगे कि किसी धर्म पर आतंकवाद का ठप्पा लगाना ठीक नहीं है। इतना ही नहीं आडवाणी और उनकी पार्टी के दूसरे नेता भागे-भागे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास तक जा पहुंचे थे और उनसे इस पूरे मामले में उच्चस्तरीय जांच की मांग तक कर डाली थी। भाजपा ने तो तब एक तरह से अपनी तरफ़ से फैÞसला तक सुना डाला था कि साध्वी बेक़सूर हैं। हैरत इस बत पर थी कि देश के पूर्व गृह मंत्री रह चुके आडवाणी ने अदालती फैसले से पहले ही फैसला सुना डाला था और साध्वी और उनके सहयोगियों को बरी क़रार दे दिया था। याद करें तब साध्वी को गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी हेमंत कड़कड़े को आडवाणी से लेकर नरेंद्र मोदी ने कम नहीं कोसा था। चुनावी सभाओं तक में भाजपा नेताओं ने हेमंत कड़कड़े की निष्ठा और ईमानदारी पर सवाल किए थे। लेकिन यही आडवाणी किसी मुसलमान की गिरफ्Þतारी पर इतने विचलित हुए हों कभी देखा नहीं। तब तो वे और उनके सहयोगी मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर ‘इस्लामी आतंकवाद’ का राग इतनी बार और इतने चैनलों पर अलापते थे मानो अदालत भी वे हैं और जज भी। लेकिन एक साध्वी ने उनके नज़रिए को बदल डाला। कांग्रेसी सरकार (यहां यूपीए भी पढ़ सकते हैं) के मुखिया मनमोहन सिंह ने भी आडवाणी को जांच का भरोसा दिला कर विदा कर डाला जबकि बटला हाउस या इसी तरह के दूसरे मुठभेड़ों को लेकर जांच की बार-बार की जाने वाली मांग पर अपनी धर्मनिरपेक्ष सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह और धर्मनिरपेक्षता की अलमबरदार सोनिया गांधी ने एक शब्द तक नहीं कहा।
दरअसल कांग्रेस के यहां भी कट्टरवाद के अलग-अलग पैमाने हैं। जहां हिंदू कार्ड चले वहां हिंदुओं को खुश कर डालो और जहां मुसलमानों को पुचकारना हो वहां मुसलमानों के लिए कुछ घोषणाएं कर डालो। नहीं तो कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी तौर पर बहुत ज्यादा फ़र्क़ तो नहीं ही दिखता है। एक खाÞस तरह की सांप्रदायिकता से तो कांग्रेस भी अछूती नहीं है नहीं। बल्कि कई लिहाज़ से कांग्रेस की सांप्रदायिकता ज्Þयादा ख़तरनाक है। कांग्रेस धीरे-धीरे मारने की कÞायल है जबिक भारतीय जनटा पार्टी या संघ परिवार जिंÞदा जला डालते हैं। यानी इस देश में कोई भी राजनीतिक दल मुसलमानों का सगा नहीं है। नहीं यह बात मैं किसी की सुनी-सुनाई नहीं कह रहा हूं। कुछ तो ख़ुद पर बीती है और कुछ अपने है जैसे दूसरे मुसलमानों पर बीतते देखी है। महाराष्ट्र पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने मुलाक़ात में कहा था कि महाराष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस सरकार ने आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को पकड़ने का मौखिक फ़रमान उन्हें जारी किया था। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। नतीजा उन्हें ऐसे विभाग में तबादला कर दिया गया जहां वे अछूतों की तरह रह रहे हैं और वहां उनके करने के लिए कुछ नहीं था। कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी फ़र्क़ नरम और गरम हिंदुत्व का है। नहीं तो अपनी सोनिया गांधी गुजरात जाकर ‘मौत का सौदागर’ का जयघोष कर नरेंद्र मोदी को तोहफे में दोबारा कुर्सी सौंप नहीं देतीं। कांग्रेस ने जितना नुक़सान हर सतह पर मुसलमानों का किया है, शायद भाजपा ने कम किया। सांप्रदायिक दंगों को छोड़ दिया जाए तो भाजपा के खाते में व्यवहारिक तौर पर ऐसा करने के लिए कुछ नहीं था जिससे मुसलमानों का नुक़सान हो। लेकिन कांग्रेस ने मुसलमानों को न तो सत्ता में सही तरीक़े से हिस्सेदारी दी और न ही उनकी आर्थिक हालात सुधारने के लिए कोई ठोस और बड़ा क़दम उठाया। राजनीतिक दलों ने इस देश के मुसलमानों को महज़ वोट की तरह इस्तेमाल किया। चुनाव के समय उन्हें झाड़-पोंछ कर बाहर निकाला, वोट लिया और फिर उन्हें उसी अंधेरी दुनिया में जीने के लिए छोड़ दिया जहां रोशनी की नन्नही सी किरण भी दाख़िल नहीं हो पाती है।
रही-सही कसर आतंकवाद ने पूरी कर दी। आतंकवाद के नाम पर भी मुसलमानों का कम दमन नहीं हुआ है। अब तो अपने मुसलमान होने पर अक्सर डर लगने लगता है। पता नहीं कब कोई आए और उठा कर ले जाए और माथे पर आतंकवादी लफ्Þज़ चस्पां कर दे। लड़ते रहिए लड़ाई और लगाते रहिए आदालतों के चक्कर अपने माथे पर से इस एक शब्द को हटाने के लिए। लेकिन माथे पर लिखा यह एक लफ्Þज़Þ फिर इतनी आसानी से कहां मिटता है। चैनलों से लेकर अख़ाबर बिना किसी पड़ताल के आतंकवादी होने का ठप्पा लगा देते हैं। ऐसे में ही अगर कोई ‘इस्लामी आतंकवाद’ की बात करता है तो लगता है कि किसी ने गाल पर झन्नाटेदार तमांचा जड़ दिया हो। संघ परिवार और उससे जुड़े लोग अगर इस इस्लामी आतंकवाद का राग अलापें तो क़तई बुरा नहीं लगता है क्योंकि 9/11 के बाद बरास्ता अमेरिका यह शब्द हमारे यहां पहुंचा है। वलर््ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका ने इस्लामी आतंकवाद का नया मुहावरा गढ़ा और भारत में भाजपा और संघ परिवार ने इसे फ़ौरन लपक लिया। साध्वी और उनके साथी की गिरफ्Þतारी के बाद ही भाजपा के कसबल ढीले पड़े थे क्योंकि तब चैनलों और अख़बारों ने ‘हिंदू टेररज्मि’ का नया मुहावरा उछाला। ज़ाहिर है कि संघ परिवारियों को इससे मरोड़ उठना ही था। उठा भी, उन्होंने इस मुहावरे के इस्तेमाल का विरोध किया और साथ में यह दलील भी दी कि इस्लामी आटंकवाद कहना भी ठीक नहीं है। यानी जब ख़ुद पर पड़ी को ख़ुदा याद आया। इस्लामी आतंकवाद के इस्तेमाल का विरोध करते हुए मैं तर्क देता था कि कोई भी धर्म आतंकवाद का सबक़ नहीं सिखाता, एक मुसलमान आतंकवादी हो सकता है लेकिन इस्लाम किस तरह से आतंकवादी हो सकता है। ठीक उसी तरह साध्वी प्रज्ञा के आतंकवादी होने से हिंदू धर्म को कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। धार्मिक व सामाजिक मंचों से भी इसका इज़हार करने में मैंने कभी गुरेज़ नहीं किया।
हैरानी, हैरत और अफ़सोस तब होता है जब इस्लामी आतंकवाद का इस्तेमाल पढ़ा-लिखा, साहित्यकार, ख़ुद को धर्मनिरपेक्षता का अलमबरदार कहने वाला कोई व्यक्ति करता है। यह अफ़सोस तब और होता है जब वह व्यक्ति किसी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति भी होता है। यानी उस व्यक्ति की समझ, शख़्सियत, इल्म पर थोड़ी देर के लिए तो किसी तरह का शक किया ही नहीं जा सकता लेकिन जब वह व्यक्ति इस्लामी आतंकवाद को राज्य की हिंसा से ज्यÞादा ख़तरनाक बतलाता है तो उसकी समझ, इल्म और धर्मनिरपेक्षता सब कुछ एक लम्हे में ही सवालों में घिर जाते हैं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय को लेकर मेरी धारणा भी अब इसी तरह की है। इसी दिल्ली में उन्होंने पढ़े-लिखे लोगों के बीच अपने भाषण में ‘इस्लामी आतंकवाद’ का ज़िक्र किया था और राज्य की हिंसा का समर्थन किया था। हैरत, दुख और तकलीफ़ इस बात की भी है कि सभागार में मौजूद पढ़े-लिखे लोगों में से किसी ने भी उन्हें नहीं टोका कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ जैसे मुहावरे का इस्तेमाल एक पूरी क़ौम की नीयत, उसकी देशभक्ति और उसके वजूद पर सवाल खड़ा करता है। न तो समारोह का संचालन कर रहे आनंद प्रधान ने इसका विरोध किया और न ही ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव ने, जिनका यह कार्यक्रम था। सभागार में मौजूद दूसरे लोगों ने भी इस ‘इस्लामी आतंकवाद’ पर उन्हें घेरने की कोशिश नहीं की। यक़ीनन इससे मेरे भीतर गुÞस्सा, ग़म और अफ़सोस का मिलाजुला भाव पनपा था। उस सभागार में मैं मौजूद नहीं था। अपनी पेशेगत मजबूरियों की वजह से उस समारोह में शिरकत नहीं कर पाया। अगर होता तो इसकी पुरज़ोर मुख़ालफ़त ज़रूर करता। लेकिन विभूति नारायण राय ने जो बातें कहीं वह मुझ तक ज़रूर पहुंची। उन्होंने जो बातें कहीं थीं उसका लब्बोलुआब कुछ इस तरह था- ‘मैं साफ तौर पर कह सकता हूं कि कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद और भारतीय राज्य के बीच मुकाबला है और मैं हमेशा राज्य की हिंसा का समर्थन करुंगा।’ उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए यह भी जड़ दिया कि हम राज्य की हिंसा से तो मुक्त हो सकते हैं लेकिन इस्लामी आतंकवाद से नहीं। मेरी कड़ी आपत्ति इन पंक्तियों पर हैं क्योंकि ऐसा कह कर विभूति नारायण राय ने एक पूरी क़ौम को कठघरे में खड़ा कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी या आरएसएस का कोई आदमी अगर इस तरह की बात करता तो समझ में आता भी है क्योंकि उनकी पूरी राजनीति इसी पर टिकी है लेकिन धर्मनिरपेक्षता को लेकर लंबी-चौड़ी बातें करने वाले विभूति इस तरह की बात करते हैं तो सवाल उठना लाज़िमी है।
इस समारोह में विभूति नारायण राय ने अपने भाषण में कई आपत्तिजनक बातें कहीं। उन पर बहस होनी चाहिए थी और उनसे सवाल भी पूछे जाने चाहिए थे। ख़ास कर कि राज्य हिंसा की वकालत करने और इस एक इस्लामी आतंकवाद के फ़िकÞरे उछालने पर। उन्होंने बहुत ही ख़तरनाक बातें कहीं थीं। किसी विश्वविद्यालय के कुलपति और एक साहित्यकार से इस तरह की उम्मीद नहीं थी, हां एक पुलिस अधिकारी ज़रूर इस तरह की बात कर सकता है। चूंकि विभूति पुलिस अधिकारी पहले हैं और लेखक बाद में इसलिए उनके पूरे भाषण में उनका पुलिस अधिकारी ही बोलता रहा और इस बातचीत में बहुत ही ‘सभ्य तरीक़े’ से उन्होेंने अपने विरोधियों को धमकाया भी। हो सकता है कि ‘हंस’ के इस कार्यक्रम के बाद उनके भाषण पर बहस होती। उनके ‘इस्लामी आतंकवाद’ के फ़तवे पर विरोध होता लेकिन इससे पहले ही उनकी ‘छिनाल’ सामने आ गई और इस ‘छिनाल’ ने उन्हें इस क़द्र परेशान किया कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ और ‘राज्य हिंसा की वकालत’ जैसी बातें गौण हो गईं। कुछ तर्क और ज्यÞादा कुतर्क के सहारे विभूति ने अपने ‘छिनाल’ को हर तरह से जस्टीफाई करने की कोशिश भी की लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए। उन्हें आख़िरकार इसके लिए माफ़ी मांगनी ही पड़ी। लेकिन सवाल यहां यह भी है कि जिस सभ्य समाज ने ‘छिनाल’ के लिए विभूति के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला और एक नौकरशाह-लेखक को माफ़ी मांगने के लिए मजबूर किया उसी सभ्य समाज या लेखक वर्ग ने विभूति के ‘इस्लामी आतंकवाद’ का उसी तरह विरोध क्यों नहीं किया जिस तरह ‘छिनाल’ को लेकर हंगामा खड़ा किया। मुझे लगता है यहां भी पैमाने अलग-अलग हैं। चूंकि मामला मुसलमानों से जुड़ा था इसलिए लेखकों को इस शब्द में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। यह भी हो सकता है कि बेचारा मुसलमान लेखकों के किसी ख़ेमे-खूंटे से नहीं जुड़ा है इसलिए उसके पक्ष में लामबंद होने की ज़रूरत किसी लेखक समूह-संगठन-मंच ने नहीं की।
विभूति नारायण राय ने ‘नया ज्ञानोदय’ में छपे अपने इंटरव्यू में ‘छिनाल’ शब्द पर तो यह तक सफ़ाई दी कि उन्होंने अपने इंटरव्यू में इस शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था, इंटरव्यू करने वाले ने अपनी तरफ़ से इस शब्द को डाल दिया। लेकिन ‘इस्लामी आतंकवाद’ का इस्तेमाल तो उन्होंने अपने प्रवचन में किया था सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में। यहां तो वह यह दलील भी नहीं दे सकते कि उन्होंने कहा कुछ था और छपा कुछ। यहां तो उनके ‘श्रीमुख’ से ही उनके विचार फूटे थे। लेकिन ‘छिनाल’ पर हायतौबा मचाने वालों के लिए ‘इस्लामी आतंकवाद’ का इस्तेमाल आपत्तिजनक नहीं लगा। उनके लिए भी नहीं जो वामपंथ की ढोल ज़ोर-शोर से पीट कर धर्मनिरपेक्षता और सेक्युलर होने की दुहाई देते हुए नहीं थकते हैं। उस सभागार में बड़ी तादाद में अपने ‘वामपंथी कामरेड’ भी थे लेकिन वे भी अपने ख़ास एजंडे को लेकर ही मौजूद थे, जिसकी तरफ़ विभूति नारायण राय ने भी इशारा किया था। और कामरेडों की यह फ़ौज भी विभूति नारायण राय के एक पूरी क़ौम को आतंकवादी क़रार देने के फ़तवे को चुपचाप सुनती रही। यह हमारे लेखक समाज का दोगलापन नहीं है तो क्या है। इसी दोगलेपन ने लेखकों और बुद्धिजीवियों की औक़ात दो कौड़ी की भी नहीं रखी है और यही वजह है कि विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया महिलाओं को ‘छिनाल’ कह कर भी साफ़ बच कर निकल जाते हैं और हम सिर्फ लकीर पीटते रह जाते हैं।
विभूति नारायण राय ने ‘छिनाल’ पर तो माफ़ी मांग ली है। कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार के मंत्री कपिल सिब्बल ने उनके माफ़ीनाम को मान भी लिया है। लेकिन ‘इस्लामी आतंकवाद’ का इस्तेमाल कर इस्लाम धर्म को मानने वाली एक पूरी क़ौम के माथे पर उन्होंने जो सवालिया निशान लगाया है, क्या इसके लिए भी वे माफ़ी मांगेंगे या यह भी कि उन्हें अपने कहे पर माफÞी मांगनी नहीं चाहिए। या कि कपिल सिब्बल उनसे ठीक उसी तरह माफ़ी मांगने के लिए दबाव बनाएंगे जिस तरह से उन्होंने ‘छिनाल’ के लिए बनाया था। क्या हमारा लेखक समाज विभूति नारायण राय के ख़िलाफ़ उसी तरह लामबंद होगा जिस तरह से ‘छिनाल’ के लिए हुआ था। लगता तो नहीं है कि ऐसा कुछ भी होगा क्योंकि फ़िलहाल ‘मुसलमान’ से बड़ा मुद्दा ‘छिनाल’ है, जिसका इस्तेमाल अपने-अपने तरीक़े से हर कोई कर रहा है ऐसे में किसे पड़ी है कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ पर अपना विरोध दर्ज कराए।

Thursday, August 19, 2010

गरीबों के खेत पर अमीरों की सड़क

अंबरीश कुमार
लखनऊ अगस्त । उत्तर प्रदेश में गंगा -यमुना के नाम पर मायावती सरकार गरीबों का खेत उजाड़कर जो पांच सितारा सड़क बनाई जाएगी उस पर अमीर ही चल पाएगा आम आदमी नहीं । यमुना एक्सप्रेस वे के नाम दोआबा की १६०००० ( एक लाख साठ हजार) हेक्टेयर उपजाऊ किसानो से ली जानी है जिससे ३१८ गाँव पूरी तरह ख़त्म हो जाएंगे । इसमे यमुना एक्सप्रेस वे औद्योगिक विकास अथारिटी की जमीन नहीं जोड़ी गई है जिसके दायरे में ८५० गाँव आ रहे है । और इसके बदले जो सड़क बनेगी उस पर अलीगढ से आगरा तक की करीब १६५ किलोमीटर की दूरी के लिए कर से जाने पर करीब हजार रुपए टोल टैक्स देना पड़ेगा । यह उस यमुना एक्सप्रेस वे का दूसरा पहलू है जिसकी बुनियाद भारतीय जनता पार्टी के राज में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के समय पड़ी थी । तब उत्तर प्रदेश औद्योगिक विकास प्राधिकरण एक्ट १९७६ के तहत इस सिलसिले में आठ गाँवो की जमीन लेने के अधिसूचना जारी की गई थी । जिसका विरोध किसान मंच के नेतृत्व में वीपी सिंह ने ग्रेटर नोयडा में किया था । अब किसान संगठन से लेकर राजनैतिक दलों ने निजी क्षेत्र की किसी भी परियोजना के लिए किसानो की जमीन लेने का भी विरोध शुरू कर दिया है । इन संगठनो ने एलान किया कि गरीबों का खेत उजाड़ कर सड़क नहीं बनने दी जाएगी ।
इस बीच अफसरों से राजनैतिक मुद्दों को सुलझाने में जुटी मायावती को फिर झटका लगा है । अलीगढ के बाद आगरा में भी किसानो ने सरकार की पेशकश ठुकरा दी । टप्पल में किसानो का आंदोलन समूचे प्रदेश के किसानो का केंद्र बन गया है । अब किसान आगे है और नेता पीछे । जो भी सरकार के झांसे में आया उसे किसान किनारे कर दे रहे है । राम बाबू कठेलिया उदाहरण है । टप्पल के किसान आंदोलन के समर्थन में भारतीय किसान यूनियन टिकैत ,किसान मंच ,दादरी किसान आंदोलन ,किसान यूनियन अम्बावता गुट ,किसान यूनियन चौधरी हरपाल गुट ,भूमि अधिग्रहण विरोधी प्रतिरोध समिति ,कृषि भूमि बचाओ मोर्चा उतर चुका है । जबकि किसान आंदोलन को समर्थन करने वाले राजनैतिक दलों में समाजवादी पार्टी ,लोकदल ,भाकपा ,माकपा ,जन संघर्ष मोर्चा ,भाकपा माले, राष्ट्रीय जनता दल ,फॉरवर्ड ब्लाक ,कांग्रेस और भाजपा भी शामिल है ।
यह बात अलग है कि एक तरफ जहाँ यमुना एक्सप्रेस वे की बुनियाद भाजपा के राज में पड़ी वही कांग्रेस सेज के नाम पर किसानो की जमीन लेने का रास्ता भी बना चुकी है । भूमि अधिग्रहण का कारगर ढंग से विरोध वीपी सिंह ने ही किया था और दादरी में अधिग्रहित जमीन पर ट्रैक्टर चलाकर आंदोलन छेड़ दिया था । उनके संगठन किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने कहा - यमुना वे हो या गंगा वे यह सब किसानो को बर्बाद करने की साजिश है जिसका किसान संगठन जमकर विरोध करेंगे । ऐसी सड़क पर कौन चलेगा जिसपर वाराणसी से दिल्ली तक करीब दो हजार रुपए टोल टैक्स पड़ेगा ।
गौरतलब है है कि अलीगढ से आगरा तक १६५ किलोमीटर की दूरी में १६ टोल टैक्स गेट होंगे और हर गेट पर कर के लिए ५५ रूपये टैक्स देना होगा । यह टैक्स जेपी समूह ३६ साल तक वसूलेगा । खास बात यह है की जिस किसान के खेत से यह सड़क गुजरेगी उसे भी सड़क पर कर अपने खेत में जाने के लिए टैक्स देना होगा क्योकि यह एक्सेस कंट्रोल हाई वे होगा । किसान की टोल गेट से टैक्स देकर ही अपने खेत में जाना होगा । राजद के प्रदेश अध्यक्ष अशोक सिंह ने कहा - सरकार किसानो पर जुल्म कर रही है जिसका सड़क पर उतर कर विरोध करेंगे । इस बीच जन संघर्ष मोर्चा ने २३ अगस्त के दिल्ली सम्मलेन में किसानो का सवाल पुजोर ढंग से उठाने का फैसला किया है ।
भारतीय जनता पार्टी ने मुआवजा मांग रहे किसानों के साथ लगातार हो रही पुलिस बर्बरता पर कड़ा रूख अपनाते हुए आज कहा कि बसपा सरकार एक औद्योगिक घराने को मुनाफा पहुंचाने वाली एजेंसी बन गई है। प्रदेश प्रवक्ता सदस्य विधान परिषद हृदयनारायण दीक्षित ने टप्पल अलीगढ़ के किसानों पर हुए लाठी, गोलीकाण्ड से सीख न लेकर आगरा में भी वही पुलिसिया तांडव दोहराने के लिये सरकार की कटु आलोचना की है।
किसानों पर पुलिस फायरिंग की जांच-पड़ताल के लिए अलीगढ़ गया भाकपा (माले) का दो सदस्यीय जांच दल घटनास्थल का दौरा कर आज लौट आया। इस दल में पार्टी की राज्य समिति के सदस्य अफरोज आलम और अखिल भारतीय किसाना महासभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रेम सिंह गहलावत शामिल थे।
जांच दल की रिपोर्ट आज यहां जारी करते हुए भाकपा (माले) के राज्य सचिव सुधाकर यादव ने कहा कि अलीगढ़ में किसानों के आंदोलन पर दमन के खिलाफ 23 अगस्त को भाकपा (माले) पूरे प्रदेश में काला दिवस मनायेगी। इसी दिन माले और किसान महासभा के कार्यकर्ता अलीगढ़ डीएम कार्यालय पर प्रदर्शन करेंगे।
जांच रिपोर्ट का हवाला देते हुए माले राज्य सचिव ने कहा कि अलीगढ़ के जिकरपुर में किसान हत्या की दोषी मायावती सरकार जे0 पी0 ग्रुप जैसे पूंजीपतियों के पक्ष में काम कर रही है। जिकरपुर में शांतिपूर्ण किसान आंदोलन को दमन के बल पर खत्म कराने की मायावती सरकार ने जिस तरह से कोशिश की, वह शर्मनाक है। यदि किसान आंदोलन के प्रति यही रवैया रहा, तो अलीगढ़ से शुरू हुुआ आंदोलन मायावती सरकार के लिए ‘सिंगूर व नंदीग्राम’ साबित हो सकता है। माले राज्य सचिव ने कहा कि यमुना एक्सप्रेस वे, गंगा एक्सप्रेस वे, हाईटेक सिटी, माडल सिटी आदि के नाम पर किसानों की बिना सहमति लिये व बिना उचित मुआवजा दिये उनकी जमीन की हो रही लूट रोकने के लिए अंग्रेजी राज में बने 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून व 2005 के ‘सेज कानून’ में आमूल परिवर्तन की जरूरत है। उन्होंने किसानों की मांगों के साथ एकजुटता प्रकट करते हुए फायरिंग के दोषी अधिकारियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग की।
जांच रिपोर्ट का ब्यौरा देते हुए भाकपा (माले) राज्य सचिच ने बताया कि अलीगढ़ में टप्पल ब्लाक के जिकरपुर में यमुना एक्सप्रेस वे के किनारे सर्वदल किसान संघर्ष समिति के नेतृत्व में 27 जुलाई से किसानों का धरना चल रहा था। किसान इस क्षेत्र में बनाये जा रहे मॉडल टाउन के लिए अपनी जमीन देने को तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि उन पर दबाव डालकर जमीन अधिग्रहण के समझौते कराये गये। उनकी सबसे बड़ी मांग थी कि इसी तरह की योजना में गौतमबुद्ध नगर (नोएडा) में दे वर्ष पहले ली गई जमीन का मुआवजा 870 रुपए प्रति वर्ग मीटर की रेट से दिया गया था, कम से कम वही रेट उन्हें भी दी जाये। सरकार व जेपी ग्रुप इसके लिए तैयार नहीं थे।
जांच रिपोर्ट के अनुसार 14 अगस्त की शाम पांच-छह बजे के बीच, टप्पल थानाध्यक्ष के नेतृत्व में सादी वर्दी में पुलिस बल व मुंह बांधे जेपी ग्रुप के गुण्डों ने किसानों के आंदोलन के नेता रामबाबू कटेलिया को धरना स्थल से उठा लिया। इसका विरोध कर रहे किसानों पर आंसू गैस के गोले व गोली चलायी गयी। जिसमें कई किसान घायल हुए। कटेलिया की गिरफ्तारी की खबर फैलते ही हजारों की तादाद में किसान धरना स्थल पर चारों तरफ से जुटने लगे। पीएसी ने किसानों पर फायरिंग कर दी। इसमें तीन किसानों की मौत हो गई। पीएसी का एक अधिकारी भी मारा गया। रात 11 बजे तक पुलिस-किसान संघर्ष होता रहा। अगले दिन बड़ी संख्या में जुटे किसानों ने पलवल-अलीगढ़ मार्ग जाम कर दिया। टप्पल से लेकर जट्टारी कस्बे दो दिन बंद रहे। मथुरा में भी आंदोलन फैल गया। घटनायें की जा रही है और सरकार बढ़ावा दे रही है। प्रवक्ता ने कहा कि अगर सरकार ने जल्द ही अपने दल के नेताओं पर अंकुश नहीं लगाया तो जनता सड़को पर उतरेगी।

आसमान से बरसती मौत






राजकुमार शर्मा
देहरादून.देवभूमि हिमालय में इन दिनों आकाश से मौत की बारिश हो रही है.बादल फटने से हो रही लगातार मौत का सिलसीला रूकने का नाम नही ले रहा है.प्रदेश में लोगों को सरकार के राज्य आपदा प्रबन्धन विभाग की कार्यप्रणाली से खासा आक्रोश बढ़ रहा है.उसी में राज्य के मुख्यमंत्री का आपदा ग्रस्त क्षेत्र में जा कर सरकारी मशीनरी को प्रबन्धन के कार्य से ब्यवधान पैदा कर अपनी राजनीति की रोटी सेकने की घटनायें जनता के जले पर नमक डालने का काम कर रही है.सूबे की सरकार ने स्वंय यह कानून बना रखा है कि कोई वीआईपी आपदा के स्थिति में सब कुछ ठीक होने के पूर्व उस इलाके में न जाए .सरकार भी मानती है कि ऐसी स्थिति में वीआईपी के क्षेत्र में जाने से आपदा प्रबन्धन में भारी बाधा उत्पन्न होती है.
बागेश्वर के कपकोट तहसील के सौंग-सुमगढ़ में बादल फटने से भारतीय शिशु मंदिर के 18 बच्चें बादल फटने से हुई बारिश से आए मलबें में विद्यालय में जिन्दा दफन हो गये थे.इस घटना में चौदह बच्चों को सुरक्षित बचा लिया गया,इसमें सात गम्भीर रूप से घायल है.इसमें एक स्कूल की शिक्षिका भी शामिल हैं. इस घटना के घटित होने के बाद गांव के लोगों के अथक प्रयास से देर शाम तक मात्र आठ बच्चों के शव को निकाला जा सका.घटना के दूसरे दिन ही सूबे के मुख्यमंत्री डा.रमेश पोखरियाल निंशक ने जिस तरह प्रभावित क्षेत्र में जाने की गलती किया उससे लोगों में नाराजगी है,जानकारों का मानना है कि उनके क्षेत्र में आने से प्रबन्धन में भारी असुविधा हुई. प्रशासनिक अमला माननीय निंशक के आवभगत में ब्यस्त रहा.इस घटना में जिंदा दफन होने वाले सभी मासूम कक्षा एक से चार तक के छात्र थे.इस शिशु मंदिर में पढ़ने वाले बच्चों के लिए बुधवार का दिन मौत का दिन सिद्ध हुआ.इस घटना के बारे में प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि साठ डिग्री पहाड़ी के नीचे स्थित स्कूल के पीछे बादल फटने से विद्यालय की दीवार ढ़ह गयी.जिसमें रमेश गड़िया,मुन्ना टाकूली,चन्द्रशेखर जोशी,नेहा दानू, खीम सिंह देवली,उर्मिला मिश्रा,तारा सिंह,दीपा कुमल्टा,योगिता मिश्रा,भारती जोशी,पंकज दानू,प्रेमा पांडया,खुसबू जोशी,मनीषा दानू,करन पाठक,प्रीति कुमल्टागोरव मिश्रा,तथा मोहित जोशी जिंदा दफन हो गये.इस घटना में सात बच्चे गम्भीर रूप से घायल है तथा 14 पुरी तरह सुरक्षित बताये गये हैं.इस घटना में सबसे अधिक क्षति नन्द किशोर मिश्रा की हुई जिसमें उनकी दो होनहार बेटीयों के साथ एक होन हार लाल खो दिया.इस विद्यालय की शिक्षिका थपेश्वरी डायराकोटी को भी चोट आयी.घटना के दिन विद्यालय में कुल 39 छात्र उपस्थित थे.बादल फटने की घटना दिन के 9.27 बजे घटी वर्षा का कहर इस क्षेत्र में इस कदर टूटा है कि इस क्षेत्र को जोड़ने वाले पुलों के बह जाने से पुरे इलाके का सम्पर्क सुमगढ़ गांव से कट गया,इस इलाके में पहुंचने के लिए बचाव दल एंव प्रशासन को चार किलोमीटर पैदल खतरनाक मार्ग से गुजर कर जाना पड़ा.भगवान के लगातार बारिश का कहर जारी रखने से बचाव में लगें लोग बेबस दिखें.इस जनपद में आपदा प्रबन्धन की जितनी बदतर हालत देखने को मिली उससे इस आपदा में फंसे कई लोगों को जिन्दा निकालने की उम्मीद ध्वस्त हो गयी.पुरा प्रशासन विना किसी प्रशिक्षण के साधन हीनता के साथ दिखा जिससे गांव वालों को जो यह उम्मीद थी कि प्रशासन आयेगा तो कुछ बच्चों को और भी जिंदा निकल पायेगा,यह सब उपकरण साधन के अभाव में नही हो सका.घटना के दिन से इस इलाके का संचार साधन भी पुरी तरह ध्वस्त हो गया.इलाके को संचारमाध्यम से पुरी तरह कटने से भी बचाव दल को भारी परेशानी हुई.सरकार ने जब यह देख लिया कि जिले का आपदा प्रबन्धन बिभाग पुरी तरह असफल है तो उसने आईटीबीपी के 150 जवानों को शवों को निकालने के लिए भेजा.क्षेत्र के लोग इन जवानों से अपने दबे पड़े बच्चों को जिन्दा निकलने की उम्मीदें थी,आपदा प्रबन्धन की असफलता के कारण ऐसा नही हो सका.आपदा पीड़ित गांव में पहुंच कर घटना के दूसरे दिन मुख्यमंत्री ने मृतक के परिजनों को एक लाख रूपये की धन राशि का चेक एंव घायलों को 25-25हजार रूपये प्रदान किया.मुख्यमंत्री स्वंय पहले एक शिशु मंदिर में प्रधानाचार्य रहे है इस लिए उन्होंने मारे गये लोगों से मिल कर अपनी गहरी संम्बेदना ब्यक्त की.देवी आपदा में जिस तरह के मदद की उम्मीद राज्य की जनता को राज्य के गठन के साथ थी उस पर सरकार के आपदा प्रबन्धन मंत्रालय के खरा न उतरने से लोगों के राज्य गठन की अपेक्षा पर पुरी तरह पानी फिर गया हैं.इस वर्ष ही इस राज्य में दैवी आपदा के चलते छःदर्जन से अधिक लोग काल के गाल में समा चुके है.सूबे की जनता अपने इन नेताओं के गाल बजाने झूठी बयानबाजी करने से तंग आ चुकी है.
बादल फटने की घटना हिमालयी राज्य उतराखंड में कोई नई नही है.सन1971 में जुलाई में धारचूला में बादल फटने की घटना घटी थी जिसमें एक दर्जन लोग मारे गये थे.1979 में तवाघाट में बादलफटे जिसमें 22 ग्रामीण काल के गाल में समा गये.1983में पुनः कर्मी,बागेश्वर में बादल फटे जिसमें 37 लोग मारे गए .जुलाई 1995 में रैतोली में बादल फटे जिसमें 16 लोग मारे गये.1999 में अगस्त माह में ही घटी भिषण विभिषिका को लोग कभी भूल नही सकते जिसमें 109 लोग काल के गाल में समा गये थे.जलाई 2000 में बादल फटने की घटना खेतगांव में घटी जिसमें 5 लोग मारे गए .उत्तराखण्ड राज्य के गठन के बाद 2002 में घटी बाल गंगा घाटी टिहरी की घटना में 29 लोग मारे गये थे.21जुलाई 2003 में डीडीहाट में घटी घटना में चार लोग जिंदा दफन हो गये थे.6जुलाई 2004 को घटी घटना में लामबगढ़ की घटना में 7 लोग मारे गये थे.12जुलाई 2007 देवपुरी में घटी घटना में आठ लोग मारे गये थे.इसी वर्ष 5सितम्बर 2007 को प्रकृति ने आपदा को दोहरा दिया और बरम,धारचुला में घटी घटना में 10 लोग मारे गये.इस वर्ष तो तीसरी घटना भी घटी जिसमें 6 सितग्बर 2007 को घटी लधार,धारचूला की घटना में पांच लोग मारे गये.17 जुलाई 2008 में अमरूबैंड में घटी घटना में 17 लोग मारे गये थे.राज्य गठन के बाद 8 अगस्त 2009 को पिथौरागढ़ के ला-झकेला में एक बार फिर मौत की बारिश ने मानवता को रूला दिया.इस घटना के बाद भी पूर्व मुख्यमंत्री जनरल खंण्डूडी ने घटना स्थल पर पहुंचने की भूल की थी जिससे बचाव राहत कार्य में भारी परेशानी आई थी.जो गलती भवुकता में जनरल ने किया था उसे एक बार बागेश्वर में दोहरा कर मुख्यमंत्री निंशक ने जनता के लिए परेशानी बढ़ा दी.
अभी एक सप्ताह पूर्व की घटना में अल्मोड़ा में एक बस के खाई में गिरने से 10 लोगों की मौत हो गयी थी हल्दानी में उसी दिन चार लोग एक दुर्घटना में मारे गए थे.अतिवर्षा की आफत से पुरा राज्य इन दिनों तंग है.अलकनन्दा में तीन जगह नेशनल हाईवे बादल फटने के कारण ध्वस्त हो गया था जिसके चलते कई हजार यात्री बुरी तरह फस गये थें.विष्णुप्रयाग के समीप पहाड़ी के ध्वस्त होने से मार्ग अवरूद्ध हो गया था. अति वर्षा से लामबगड़ के समीप 150 मीटर राज मार्ग ध्वस्त हो गया था.कंचनगंगा में बादल फटने से राजमार्ग बन्द हो गया था स्वतंत्रता दिवस के विहान जिस तरह वर्षा एंव बादल आफत बन कर आये उससे पुरा प्रदेश का जनमानस तंग है.गंगोत्री मार्ग पर हुई भू धसाव की घटना से भटवाड़ी के दर्जनों लोग बे घर हो गये.इस मामले में 3000 लोग प्रभावित हुए.जिसमें 2.25 करोड़ रूपये की जन संम्पक्ति की हानी हुई.राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने दैवी आपदा में तंग एंव पिड़ितों के प्रति गहरी संम्बेदना ब्यक्त की है.राज्य के प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत मुख्यमंत्री द्वारा दैवी आफत पर राजनीति की रोटीयां सेकने पर गहरी नाराजगी जताते हुए कहा कि सरकार को ईमानदारी से जनता की सेवा एंव आपदा प्रबन्धन से पुरी तैयारी करके करनी चाहिए.उन्होंने मौसम की सूचनाओं के आधार पर भारी वर्षा वाले इलाके में तेज वर्षा से स्कूली बच्चों को आफत से बचाने
के लिए स्कूल कालेज बन्द रखने का आदेश देने को कहा है.

Wednesday, August 18, 2010

पूरब में भी किसान आंदोलन

अंबरीश कुमार
लखनऊ , अगस्त । यमुना एक्सप्रेस वे के खिलाफ अलीगढ़ के टप्पल के जिकरपुर गाँव से शुरू हुआ किसान आंदोलन अब गंगा एक्सप्रेस वे इलाके तक पहुँच गया है । टप्पल में किसानो का धरना जारी है और अब मुआवजा की बजाय जमीन बचाने पर जोर दिया जा रहा है । खेती बचाओ - गाँव बचाओ आंदोलन के नेता डाक्टर गिरीश ने कहा - टप्पल में धरना दे रहे किसानो और खासकर महिलाओ का साफ कहना है कि मुआवजा नहीं जमीन चाहिए । इस बीच दादरी के किसानो ने बझेडा में पंचायत कर जहाँ समर्थन का एलान किया । जबकि गंगा एक्सप्रेस वे के खिलाफ आंदोलनरत कृषि भूमि बचाओ मोर्चा की बलिया में हुई बैठक में अलीगढ के किसानो के समर्थन में गुरूवार को हर जिले में विरोध जताने और फिर तीन दिन बाद धरना देने का एलान किया गया । इस बीच समाजवादी पार्टी ने मायावती सरकार पर फिरोजाबाद और इलाहाबाद में नए सिरे से भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू करने की निंदा की । पार्टी ने बताया कि इलाहाबाद ,फिरोजाबाद ,आगरा ,मथुरा जैसे कई जिलों में किसानो ने प्रदर्शन कर भूमि अधिग्रहण का विरोध किया है ।
टप्पल में धरना दे रहे किसानो को चौतरफा समर्थन मिलने लगा है । आज कल्याण सिंह भी किसानो के बीच पहुंचे और समर्थन का एलान किया । किसान मंच का एक प्रतिनिधिमंडल २१ अगस्त को टप्पल पहुँच कर धरना पर बैठेगा । किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने बताया कि अलीगढ के किसानो का समर्थन विदर्भ के किसानो ने भी किया है और यवतमाल ,वर्धा और नागपुर से कुछ किसान यहाँ आने का कार्यक्रम बना रहे है ।
भाकपा के राज्य सचिव और खेती बचाओ -गाँव बचाओ आंदोलन के नेता डाक्टर गिरीश ने टप्पल से लौटकर बताया कि अब वहां के किसान मुआवजा नहीं जमीन चाहते है । गाँव की एक महिला ने तो यह भी कहा कि खेती की जमीन देख कर शादी हुई थी अब जमीन कैसे दे देंगे । जमीन नहीं रहेगी तो खाएंगे क्या ?भाकपा का एक प्रतिनिधिमंडल २० को टप्पल जा रहा है जो किसानो के साथ धरना पर बैठेगा ।
गौरतलब है कि भूमि अधिग्रहण को ले कर अब नई बहस भी शुरूं हो गई है । जिन किसानो ने लखनऊ में इंदिरा नगर और गोमती नगर के लिए अपनी जमीन बेचीं थी उनमे से कुछ के घर की महिलाए आज उसी जमीन पर बनी कोठियों में चौका बर्तन करती है। इसी तरह नोयडा की तरफ जमीन बेचने वाले किसानो का पैसा घर बनवाने से लेकर आलिशान वाहन लेने और फिर किसानी छोड़ दूसरे धंधे में लगा । ज्यादातर की हालत अब खराब हो चुकी है । इसलिए अब किसान मुआवजा की बजाय जमीन बचाने की कोशिश में है । खास बात यह है कि जहाँ भी मुआवजा का सवाल उठा वहा लाठी गोली चली । जहा जमीन न देने का संघर्ष हुआ वहा किसान भरी पड़े । उदहारण है गंगा एक्सप्रेस वे का । बलिया से लेकर वाराणसी ,भदोही ,मिर्जापुर और इलाहाबाद में किसानो ने पैमाइश तक नहीं होने दी । कृषि भूमि बचाओ मोर्चा के उपाध्यक्ष बलवंत यादव ने कहा - अभी पिछले महीने ही मिर्जापुर में पदयात्रा कर किसानो की जमीन अधिग्रहण का विरोध किया था । लैड पार्सल के लिए जेपी समूह के लोग ४०० हेक्टेयर जमीन चाहते है पर किसान देने को तैयार नहीं है । हम लोगो ने तो पैमाइश भी नहीं होने दी । हम किसानो की जमीन लेने के खिलाफ है । अब अलीगढ के किसानो के समर्थन में पूर्वांचल में भी आंदोलन छेड़ेंगे । शुरुवात कल से होगी ।
उधर समाजवादी पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने आज कहा -अलीगढ़, आगरा, मथुरा, मेरठ में किसान आंदोलन थमा नहीं था कि जनपद फिरोजाबाद में 1725 एकड़ किसानों की जमीन के अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू हो गई है। ग्राम पचोखरा, देवखड़ा, छिकाऊ, हिम्म्तपुर तथा गढ़ीहरिया सहित 29 गांवों के किसान इसके विरोध में कई दिनों से धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। आज हजारों किसानों ने काली पटटी बांधकर विरोध जताया। इलाहाबाद में भी 75 लाख बीघा जमीन किसानो से छीनकर जेपी ग्रुप को दे दी गई है।
जनसत्ता

ब्लू फिल्मों के बीच मणिकौल की फिल्म

राजकुमार सोनी
इधर-उधर से अनुदान लेकर कला फिल्में बनाने वाले पटकथा लेखक, निर्माता एवं निर्देशक मणिकौल की फिल्म बादल द्वार इन दिनों ब्लू फिल्मों के बीच बिक रही है। उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले मणिकौल ने भास के अविमारक जायसी के पदामवत अंशों को आधार बनाकर बादल द्वार का निर्देशन किया था। निर्माता रेगीना त्सीगल की इस फिल्म में मुख्य भूमिका महेश भट्ट की आशिकी से हिन्दी फिल्मों में प्रवेश पाकर लंबे समय तक गायब होने वाली अभिनेत्री अनु अग्रवाल ने निभाई है। अनु कैसी अभिनेत्री है यह बात समीक्षक भी जानते हैं और दर्शक भी। कला फिल्मों में मिलने वाली छूट का लाभ लेकर मणिकौल ने अनु के ठीक-ठाक कपड़े उतार डाले हैं। अनु का प्रदर्शन ब्लू फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्रियों के जैसा तो नहीं है लेकिन उससे कम भी नहीं है।
छत्तीसगढ़ में लंबा समय बिताने वाले कवि मुक्तिबोध की सबसे धांसू रचना सतह से उठता आदमी पर मणिकौल ने वर्ष 1980 में एक बेहद बोरिंग फिल्म बनाई थी। जब यह फिल्म निर्मित की जा रही थी तब फिल्म के लिए जरूरी वित्तीय सहायता कलावाद को बढ़ावा देने वाले कवि अशोक बाजपेयी को जुटानी पड़ी थी। इसके बाद मणि ने प्रसिद्ध उपन्यासकार विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यास नौकर की कमीज पर फिल्म बनाई। फिल्म में भिलाई के एक कलाकार पंकज मिश्रा ने मुख्य भूमिका का निर्वहन किया था। पंकज को फिल्म में काम करने का कितना पारिश्रमिक मिला यह तो नहीं मालूम लेकिन जानकार बताते हैं कि मणि की ज्यादातर फिल्मों में काम करने वाले कलाकार अर्थाभाव का शिकार रहे हैं।
मणि को कुछेक समीक्षक हमेशा से एक अलग तरह का फिल्मकार बताने में जुटे रहते हैं लेकिन हकीकत यह भी है कि उनकी फिल्में मास तो दूर खास दर्शक वर्ग की नब्ज भी सही ढंग से टटोलने में नाकाम रही है। यदि आप बादल द्वार को देखेंगे तो अपना सिर धुनने के सिवाय और कुछ नहीं करेंगे। रीतिकालीन युग में महलों में जो कुछ घटता रहा है उसके एक अंश का चित्रण मात्र है बादल द्वार। फिल्म में अनु अग्रवाल का अनावृत वक्ष देखकर हिन्दी फिल्मों में सौंदर्यबोध को निहारने वाला दर्शक उबकाई ले सकता है। मणि ने अपनी फिल्म में अनु अग्रवाल को शायद इसलिए लिया हो क्योंकि इससे पहले वह खलनायिका, गजब तमाशा, किंग अंकल के अलावा एक कंडोम के विज्ञापन में धमाका मचा चुकी थी। इधर-उधर के जोड़तोड़ और जुगाड़ से फिल्म उत्सव- समारोह में स्थान बना लेने वाले मणिकौल की यह फिल्म भी कोई धमाका तो नहीं मचा पाई, अलबत्ता ब्लू फिल्मों के बीच जगह बनाने में कामयाब जरूर हो गई। मणि की फिल्म बादल द्वार .. छमिया वन- छमिया टू, सेक्स स्कैंडल दिल्ली का, बांबे का सेक्स रैकट जैसी फिल्मों के बीच जमकर बिक रही है। इतना ही नहीं अन्तरवासना नामक एक डाट काम में तो बकायदा अनु अग्रवाल के इस फिल्म का नए अन्दाज में प्रमोशन भी कर रखा है। डाट काम खोलते ही आपको पढ़ने मिलेगा। क्या आप अनु अग्रवाल को जानते हैं। महेश भट्ट की आशिकी वाली। आप वही सब देखना चाहते हैं न तो फिर देर किस बात की। डाउनलोड कीजिए।
इस बारे में जब मणिकौल के 09958722233 नंबर पर संपर्क किया गया तो उन्होंने अपनी टिप्पणी देने से इंकार करते हुए सिर्फ इतना कहा कि हां मैंने ब्लू फिल्म बनाई है जिसको देखना है देखें जिसको नहीं देखना है न देखें। खबर है कि मणिकौल इन दिनों इटली में हैं। जल्द ही वे विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यास दीवार में खिड़की रहती थी को लेकर फिल्म बनाने जा रहे हैं। श्री शुक्ल का यह उपन्यास दांपत्य सुख पर केद्रिंत है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कला फिल्मों के नाम पर मिलने वाली अतिरिक्त छूट का लाभ लेकर मणिकौल दांपत्य सुख को सुख रहने देते हैं या फिर वीभत्स ढंग के दुख में बदल डालते हैं।
http://sonirajkumar.blogspot.com/

कांग्रेस मोदी को बचाएगी ,भाजपा सरकार को

कृष्ण मोहन सिंह
नई दिल्ली।यूपीए की अध्यक्ष सोनिया की मनमोहनी सरकार अमेरिका व उसकी लाबी वाले देशों को लाभ पहुंचानेवाली परमाणु दायित्व बिल को संसद के इसी मानसून सत्र में पास कराने के लिए हर हथकंडा अपना रही है।क्योंकि उसको अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को भारत में आगवानी का तोहफा देना है।यह तभी संभव है जब ओबामा के आने के पहले ही बिल पास हो जाय। ओबामा के स्वागत में मनमोहन सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र समय से पहले ही बुलाने का लगभग निर्णय तो कर लिया है। सो उसके पहले इस मानसून सत्र में ही परमाणु दायित्व बिल पास कराने की जी – जान से कोशिश हो रही है। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेसी मैनेजरो ने इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद हर तरह से प्रयास शुरू कर दिया है।सूत्रो का कहना है कि इससे संबंधित मंत्रालय के स्टैंडिग कमेटी की रिपोर्ट पर सरकार बहुत गौर नहीं करेगी। वैसे भी जो कमेटी के चेयरमैन हैं वह कांग्रेसी हैं और कहा जा रहा है कि इसमामले में वह कांग्रेस की ही लाइन लेने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। सूत्रो के अनुसार भाजपा की आडवाणी मंडली से कांग्रेसी संकटमोचक व मैनेजरों ने बात की है। अभी आगे भी बात होनी है।कहाजाता है कि सौदेबाजी चल रही है। सूत्रों का कहना है कि भाजपा में परमाणु समझौते का सबसे बड़े विरोधी अरूण शौरी थे ,उनको लालकृष्ण आडवाणी ने कपट से किनारे लगा दिया,फिरसे राज्यसभा सांसद नहीं बनवाने दिया। क्योंकि अरूण शौरी ही थे जिन्होंने पार्टी की बैठक में परमाणु समझौते की तरफदारी कर रहे लालकृष्ण आडवाणी के सारे तर्कों को ध्वस्त करते हुए खुलकर विरोध किया था, और एक तरह से इस मामले में भी आडवाणी के दोहरे चरित्र को एक्सपोज कर दिया। परमाणु बिल तो जैसे-तैसे यूपीए-1 की मनमोहनी सरकार ने पास करा लिया।अब यूपीए-2 में परमाणु दायित्व बिल पास कराने के लिए सौदेबाजी शुरू हो गई है। भाजपा के कुछ नेताओं की 5 शर्तें हैं - (1) मनमोहन सरकार परमाणु दायित्व बिल में ही जोड़े की परमाणु रियेक्टर लगाने का काम केवल सरकार व उसकी सम्पूर्ण प्रभूत्ववाली कम्पनियां करेंगी , किसी प्राइवेट कम्पनी को इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं दिया जायेगा। (2) दुर्घटना होने पर लोकलबाडी से हर्जा खर्चा का व्यौरा लेकर उसके आधार पर हर्जाना देने, और वह भी 500 करोड़ रुपए से कम में ही निपटा देने का जो बैरियर है उसे खत्म किया जाय। (3) हर्जाने आदि की अतिअधिकतम सीमा 2000 करोड़ रुपए . वाला बैरियर खत्म किया जाय। (4) जोभी अमेरिकी या विदेशी कम्पनी परमामाणु रियेक्टर मशीन सप्लाई करे , परमाणु दुर्घटना होने पर उसको भी जिम्मेदार बनाया जाय। (5)अमेरिका में जिस तरह नियम है कि कोई भी परमाणु रियेक्टर आधरित प्लांट स्थापित करने के पहले एक लाख करोड़ रू से अधिक का गारंटी बांड भरवाया जाता है वही नियम भारत में भी लागू किया जाय, ताकि दुर्घटना होने पर कम्पनी के उस रकम से दुर्घटना के प्रभावितों को मुआवजा आदि दिया जा सके ,पर्यावरण में हुए प्रदूषण को दूर करने का उपक्रम हो सके।
सूत्रों के मुताबिक अमेरिका व उसकी लाबी वाले देशों को खुश करने के लिए किसी भी हद तक चले जाने वाले मनमोहन सिंह अमेरिकी दबाव में यह सब नहीं करेंगे। यानी भाजपा की ये शर्तें मनमोहन सरकार नहीं मानेगी। इसमें से एक- दो इधर –उधर करके बिल पास करवालेने की योजना है। सूत्रो का कहना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को सोहराबुद्दीन ,कौसरबी व अन्य मामलों में सीबीआई से बचाने के लिए भाजपा के जो नेता रात दिन एक किये हुए हैं,उनके पुरोधा से कांग्रेसी संकटमोचकों की बात हो गई है। कहा जाता है कि इशारे-इशारे में सौदेबाजी की बात चल रही है-कांग्रेस मोदी को सीबीआई से बचाये तब बदले में भाजपा परमाणु दायित्व बिल पास करायेगी।

Tuesday, August 17, 2010

अब खेत जोतते किसानो पर गोली

अंबरीश कुमार
लखनऊ , अगस्त । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ के टप्पल के जिकरपुर गाँव से शुरू हुआ किसान आंदोलन आज आगरा तक फ़ैल गया । आगरा की कोतवाली एत्मादपुर इलाके के नौ गांवों कुआखेड़ा,मदरा, भमरौली आदि में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन कर रह किसानों जब अपना खेत जोतने की कोशिश कर रहे थे तो पुलिस ने उन्हें रोका । बाद में नाराज किसानो व पुलिस में टकराव हुआ और पर पुलिस ने गोली चला दी। इसमें दो लोग गंभीर रूप से घायल हो गए है। टकराव में दो दर्जन से ज्यादा लोग घायल हो गए । इनमे पुलिस वाले भी शामिल है । उधर टप्पल में किसान संघर्ष समिति के साथ सरकार का समझौता सभी किसानो को रास नहीं आया और किसान नेता कल्लू सिंह बघेल खेमा ने आंदोलन तब तक जारी रखने को कहा जब तक नोयडा के बराबर मुआवजा नहीं मिल जाता । इस खेमे को दादरी के किसानो के साथ किसान मंच ,जन संघर्ष मोर्चा ,भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ,माकपा आदि ने समर्थन देने का एलान किया है । लोकदल के अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह ने जनसत्ता से कहा - हम तो किसानो के साथ है । अगर पंचायत आंदोलन जारी रखने का फैसला करती है तो हम भी साथ रहेंगे । वैसे भी आंदोलन फ़ैल रहा है । आगरा में भी पुलिस ने गोली चला दी है । समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा - मायावती सरकार लगातार किसानो पर लाठी गोली चलवा रही है । इस बीच १८९४ का भूमि अधिग्रहण कानून रद्द करने की मांग और तेज हो गई है ।
टप्पल का किसान आंदोलन आगरा तक बढ़ गया । आगरा की कोतवाली एत्मादपुर की कुमेरपुर चौकी के नौ गांवों कुआखेड़ा,मदरा, भमरौली आदि में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन कर रह किसानों पर पुलिस ने गोली चला दी। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा -आगरा में ताजमहल के निकट हरित पट्टिका की जमीन जेपी ग्रुप को देने का बुढ़ाना, कुआखेड़ा, मदरा आदि के किसान विरोध कर रहे हैं। यहां नौ गांवों की जमीन का अधिग्रहण कर उसे जेपी समूह को देने की योजना बनी। सर्किल रेट में भी हेराफेरी कर इस समूह को फायदा पंहुचाया जा रहा हैं इसी वजह से किसान आंदोलित थे। आज उनका गुस्सा भी फूट पड़ा। बाद में पुलिस ने गोली चलाई जिसमे रामकृष्ण सिकरवार का पुत्र राजू और एक अन्य गंभीर रूप से घायल हो गया है।
आगरा से मिली जानकारी के मुताबिक आंदोलन कर रहे एक युवक की पिटाई से नाराज गाँव वालों ने एक एसडीएम को बंधक बना कर पिटाई भी की । जिसके बाद पुलिस ने हवाई फायरिंग की । आगरा के आईजी विजय कुमार ने कहा - हिंसा पर आमादा गाँव वालो को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को हवा में गोली चलानी पड़ी । गाँव वालों के हमले में दर्जन भर पुलिस वालों को चोट आई है। आगरा में किसानो पर गोली चलाए जाने की चौतरफा निंदा की जा रही है । जनसंघर्ष मोर्चा के संयोजक अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहा - अलीगढ और आगरा में किसानो पर गोली चलने वाले पुलिस वालों को दंडित किया जाए । यह सब इसीलिए हो रहा है क्योकि हम १८९४ के भूमि अधिग्रहण कानून को रद्द नहीं कर रहे है । कांग्रेस प्रवक्ता सुबोध श्रीवास्तव ने आरोप लगाया कि आगरा में पुलिस की गोली से चार घायल हुए है और दर्जन भर से ज्यादा किसान जो अपना खेत जोतने जा रहे थे पुलिस से टकराव के बाद बुरी तरह घायल है । कांग्रेस ने गोली चलने वालों को बर्खास्त करने की मांग की । हिंद मजदूर किसान पंचायत के उपाध्यक्ष विजय नारायण ने कहा - केरल ( तब त्रावनकोर - कोचीन) में १९५३ निहत्थे लोगो पर गोली चलाए जाने पर राम मनोहर लोहिया ने अपनी सोशलिस्ट पार्टी की सरकार से ही इस्तीफा मांग लिया था । अब यह सरकार लगातार किसानो पर गोली चलवा रही है और बेशर्मी से सत्ता में टिकी हुई है । फॉरवर्ड ब्लाक के प्रदेश अध्यक्ष राम किशोर ने कहा कि अब मायावती को सत्ता में रहने का कोई हक नही है ।
बसपा सरकार ने टप्पल क्षेत्र में किसानों को आतंकित करने के लिए भारी संख्या में पुलिस पीएसी लगा रखी है। किसानों ने जिकरपुर में अभी भी अपना आंदोलन जारी रखा है। सरकार ने आधीरात समझौते की बात प्रचारित कर वस्तुतः धोखाधड़ी की है और किसानों की हमदर्द बनने का ड्रामा किया है। किसान नेता रामबाबू को बहूुत ज्यादा धमकाकर जमानत पर छोड़ा गया है। किसानों पर लाठी गोली चलाने वाले अफसरों के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है। मुकदमा भी दर्ज नहीं हुआ है। उनका ट्रांसफर किया गया, जो कोई सजा नहीं है।
इस सरकार ने जेपी ग्रुप को जमीन और टाउनषिप का ठेका देने के लिए किसानों के आंदोलन को जिस बुरी तरह से कुचलने का काम किया है उससे यह आषंका होती है कि मुख्यमंत्री की इस कंपनी के साथ विषेश साठगांठ है और उन्हें इससे वित्तीय लाभ मिलनेवाला है। आगरा काण्ड हो या अलीगढ़ का, इन सभी की न्यायिक जांच होनी चाहिए। बसपा सरकार के लोकतंत्र विरोधी चरित्र और आचरण का तभी पर्दाफाष होगा।
समाजवादी पार्टी आगरा के किसानों के प्रति सरकार के बर्बर और अमानवीय रवैये की तीव्र निन्दा करती है और केन्द्र सरकार से मांग करती है कि वह किसानों के खून से रंगी बसपा सरकार को तत्काल बर्खास्त करे। समाजवादी पार्टी किसानों के साथ कतई नाइंसाफी नहीं होने देगी। वह पूरी एकजुटता से उनकी मांगो की पूर्ति के लिए संघर्श में साथ देगी।
जनसत्ता

गाँधी की खादी बाजार के हवाले

लखनऊ, अगस्त । गाँधी के नारे के सहारे सत्ता के गलियारों तक पहुँचने वाली कांग्रेस ने अब उसकी खादी को बाजार के ताकतों के हवाले कर दिया है । कांग्रेस ने खादी से 20 फीसदी की सब्सिडी खत्म कर दी है । जिससे अब खादी लेने पर कोई छूट नहीं मिलेंगी ।
कांग्रेस सरकार ने खादी वस्त्रों पर हर साल गाँधी जयंती के उपलक्ष्य में दी जाने वाली २० फीसदी की छुट इस साल से बंद करने का निर्णय लिया है, जब की हर साल यह छूट आज़ादी मिलने के बाद से अभी तक बिना किसी रुकावट के मिलती रही है। खादी वस्त्रों पर हर साल केंद्र के अलावां उत्तर प्रदेश सरकार भी अपनी तरफ से १० फीसदी का छुट देती है जो आज भी जारी है| बहुजन समाज पार्टी की सरकार से एक बार छूट बंद करने की उम्मीद की जा सकती थी लेकिन यह निर्णय गाँधी के आदर्शों को ढोने वाली कांग्रेस सरकार ने लिया ।
यह प्रस्ताव दरअसल पूर्व में भाजपा नेतृत्व वाली (राजग) सरकार ने तैयार किया था, जिसे भाजपा ने यह सोच कर नहीं लागू कराया की उसके अपने ही संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ऊपर गाँधी की हत्या कराने के आरोप लग चुके हैं । पूर्व राजग सरकार जिस प्रस्ताव को लागू कराने का साहस नहीं कर पाई, उसको कांग्रेस सरकार ने बहुत आसान तरीके से लागू करा ।
उत्तर प्रदेश में इसे लेकर आन्दोलन शुरू हो गया है । १६ अगस्त को पुरे प्रदेश के उत्पाद और बिक्री केंद्र बंद रखे गए । २२ अगस्त से वर्धा में गाँधी वादी फिर से आन्दोलन की रूप रेखा बना रहे है । खादी पर यहे छूट आजादी के पहले १९२० से दी जा रही है, हर साल गाँधी जयंती २ अक्टूबर पर १०८ दिनों तक यह छूट दी जाती है । गाँधी आश्रम के सचिव रामेश्वर नाथ मिश्रा बताते है कि यही वो वक्त होता है, जिसमे करीब पूरे साल कि ८५ फीसदी की बिक्री होती है, शेष १५ फीसदी वर्ष भर में की जाती ।
पूरे देश में खादी के करीब १९५० मान्यता प्राप्त संस्थान है, जिसमे ५५००० से उपर वेतन भोगी कर्मचारी है,जिसमे कतिन बुनकरों की संख्या २.५ से ३लाख है और करीब उत्तर प्रदेश में २२००० समितियां है।
इन समितियों में करीब ५५ लाख स्त्री बुनकर व कातिन हैं । भारत सरकार नें राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी के खादी के प्रचार प्रसार की नीतियों पर कुठारा घात करते हुए वर्षों से खादी पर दी जाने वाली इस छूट को समाप्त कर उसके स्थान पर ०१ अप्रैल २०१० से विपणअन विकास सहायता देना लागू कर दिया है ।
इस योजना के प्रावधानों के अनुसार वर्षों से भारी छूट का लाभ उठाने के आदि हो चुके ग्राहकों को अब खादी के वस्त्रों पर अब ४ या ५ फीसदी छूट ही उपलब्ध हो पायेगी जिससे खादी की बिक्री निश्चीत तौर पर प्रभावित होगी और खादी संस्थाओं तथा उनसे जुड़े बुनकरों और कामगारों को भारी वितीय क्षति उठानी पड़ेगी । निजी और कॉरपोरेट संस्थाओं द्वारा अपने ग्राहकों को दी जा रही आकर्षक छूट व अन्य प्रलोभनों के चलते धीरे धीरे खादी संस्थाओं में ताले पड़ते जायेंगे ।
१४ अक्टूबर २००९ को प्रधानमंत्री को प्रतिवेदन दे कर उनकी खादी विरोधी नीतियों का विरोध करते हुए नए निर्णयों को लागू करनें में असमथर्ता प्रकट की । कुछ संस्थाओं द्वारा सरकार द्वारा खादी विरोधी नीतियाँ न वापस लेने के विरोध में असहयोग आन्दोलन की चेतावनी दे डाली|
इस पर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के महासचिव अशोक मिश्रा का कहना है यह खादी के ऊपर एक प्रहार है, सरकारी संरक्षण के बिना इसको नहीं चलाया जा सकता है। कांग्रेस गाँधीवाद की हत्या कर रही है और ये विश्व व्यापर के समर्थक है तथा इस उद्योग को मरनें नहीं दिया जायेगा ।
जनसत्ता में आशुतोष सिंह की रपट

Sunday, August 15, 2010

कमजोर है आमिर की पिपली लाइव


आशीष
मुम्बई .आमिर खान प्रोडक्शन की फिल्म पीपली लाइव की लम्बे वक़्त से प्रतीक्षा थी। इंटरनेट पर इसके लम्बे लम्बे रीव्यू मौजूद हैं जिनमे से ज्यादातर में इसे शानदार और पैसा वसूल फिल्म कहा गया है लेकिन फिर भी मैं अपनी समझ और अपने अनुभव के हिसाब से इसे एक कमज़ोर फिल्म ही कहूँगा।
सबसे बड़ी खामी है इस फिल्म की कमज़ोर पटकथा। फिल्म ठीक से बंधी हुई नहीं दिखाई देती। निर्देशक अनुषा रिज़वी ने दिखाना चाह है की किसी खबर को मीडिया इतना ज्यादा सनसनीखेज़ बना देती है की मूल खबर की संवेदनशीलता और गंभीरता ही ख़तम हो जाती है लेकिन बुरा संयोग ये है की अनुषा के साथ भी हकीकत में कुछ ऐसा ही हुआ है। मीडिया की भागमभाग और टीआरपी का चक्कर दिखाने के चक्कर में उनकी फिल्म मूल मुद्दे(किसानों की आत्महत्या) की संवेदना के साठ न्याय नहीं कर पाई है।
फिल्म का मुख्य पात्र आत्महत्या करने जा रहा है। आत्महत्या एक बड़ी विभीषिका है लेकिन अनुषा रिजवी लेकर मीडिया की भागमभाग दिखाने और राजनैतिक चूहा बिल्ली का खेल दिखाने के चक्कर में ही इतनी उलझ गयीं की उनका मुख्य किरदार नत्था आत्महत्या के मुहाने पर खड़ा होने के बावजूद दर्शकों के मन को उस तरह झकझोर नहीं पाता, आत्महत्या जिस तरह की त्रासदी है।
फिल्म अच्छी तब बनती जब नत्था की पीड़ा दर्शक उतनी ही शिद्दत से महसूस करते और उसके सापेक्ष मीडिया की भूमिका पर एक छोभ की स्थति बनती। अनुषा पत्रकार रहीं हैं इसलिए चैनल के न्यूज रूम की हकीकत और इस धंधे की मजबूरी को तो उन्होंने ठीक से उभरा है लेकिन इसको कुछ ज्यादा ठीक से दिखाने के चक्कर में नत्था पर न तो अपेक्षित तरीके से उनका ध्यान टिक पाया है न ही दर्शकों का। दूसरी बात फिल्म में मीडिया पर व्यंग्य होने की बात कही गयी है जबकि हकीकत में सारे घटनाक्रम पल दो पल का हास्य तो पैदा करते हैं लेकिन व्यंग्य की तीखी मार या पैनापन उनमें कहीं नज़र नहीं आता सिवाय एक दो जगह के।
मीडिया की भागम भाग दिखाने के चक्कर में अनुषा यही भूल गयी की उनकी फिल्म किसानों की आत्महत्या के सापेक्ष मीडिया और सियासत की भूमिका पर है या उनकी फिल्म मीडिया की भागमभाग और टीआरपी के खेल पर है।आत्महत्या के मुद्दे पर फिल्म पर्याप्त संवेदना हासिल नहीं कर पाती. इसी वजह से पूरी फिल्म में किसानसे सिर्फ एक ही जगह वास्तविक सहानुभूति होती है, और वो किसान भी नत्था न होकर वो होरी महतो है जो फिल्म में सिर्फ गड्ढा खोदते ही नज़र आता है।
अनुषा ने मीडिया की आपाधापी तो खूब दिखाई लेकिन रिपोर्टिंग के कुछ बुनियादी पहलू भुला गयीं। पोस्ट मार्टम रिपोर्ट आने से पहले ही कौन सा मीडिया भारत में किसी खबर को छोड़ देता है। कई स्पेशल बुलेटिन तो केवल इस्पे ही चलेंगे की जो मारा है क्या वो वाकई नत्था ही था। और पोस्ट मार्टम रिपोर्ट आने के बाद एक नए सिरे से नत्था की खोज शुरू होगी। जब एक गाँव में चौबीस घंटों के लिए कई चैनलों की टीमें किसान की मौत की खबर के लिए पड़ी हों और एक दूसरे से होड़ के चक्कर में मल मूत्र त्यागने की भी खबर बना रहीं हों तब होरी की मौत को कोई चैनल नहीं छोड़ेगा। वो उसको ट्रीट कैसे भी करे।
एक जगह अंग्रेजी पत्रकार जिले के स्ट्रिंगर से कहती है की अगर खबरों को इस तरह स्वीकार करना नहीं आता तो आप गलत पेशे में हैं, ये बात कमोबेश सही भले हो लेकिन फिर भी इसके प्रति विद्रोह को लेकर उस पत्रकार का एक संवाद तो डाला ही जा सकता था ताकि मीडिया में कुछ नए तेवरों की भी सम्भावना दिखाई दे। और उसपर भी जब वो पत्रकार मरने ही वाला था।अच्छी फिल्म में सन्देश और सवाल भाषण की तरह न होकर कहानी में ही गुंथा हुआ होता है। इस फिल्म mein सिर्फ एक baar सवाल खड़ा किया जाता है और उसपर भी अंग्रेजी पत्रकार के जवाब से बात ख़तम मान ली जाती है। सबसे बड़ा व्यंग्य, सवाल, सन्देश जिस गीत के जरिये दिया जा सकता था वह भी पूरा नहीं दिखाया गया फिल्म में । फिल्म में तेवर बिलकुल नहीं हैं ।
फिल्म में गालियों की भरमार है, जबकि ये अनिवार्य हों ऐसा बिलकुल नहीं है। इनकी बजाय अम्मा जी के देसी ताने ज़रूर अनिवार्य हैं। लेकिन बेवजह की गालियों के चलते फिल्म एक खास वर्ग को असहज करेगी।
फिल्म के अभिनय और संगीत में ज़रूर किसी कमी की गुंजाइश नहीं दिखाई देती। अम्मा जी, नत्था, बुधिया और इन सबसे ऊपर दीपक कुमार का अभिनय बेजोड़ है। फिल्म जब ख़तम होती है छत्तीसगढ़ का अनुपम लोकगीत बजता है जिसे हबीब तनवीर साहब की बेटी नगीन तनवीर ने गाया है लेकिन ज्यादातर बेसबर दर्शकों को तब तक स्टैंड पर खड़ी अपनी गाडी निकालने की चिंता हो जाती है और वे सीट छोड़ने लगते हैं। इस अद्भुत लोकगीत को छोड़ने वाले दर्शक वाकई अभागे ही कहे जायेंगे।
अनुषा की जो एकमात्र उपलब्धि है वह यह है की जिस दौर में हिंदी फिल्मों से भारत के शहर ही गायब हो रहे हैं, और गानों में हिंदी बोल ही नहीं नज़र आते हों, उस दौर में उन्होंने एक छोटे से गाँव पर आधारित और लोकगीतों और लोकभाषा से सनी एक फिल्म बनाने की हिम्मत दिखाई। अगर आप फिल्मों के अर्थशास्त्र को ज़रा भी जानते हैं तो मानेंगे अनुषा की ये हिम्मत वाकई महान है।

Saturday, August 14, 2010

झारखंड में शह-मात का खेल

वीना श्रीवास्तव
रांची। झारखंड में राष्ट्रपति शासन के जरिए कांग्रेस चुनाव की तैयारी की रणनीति पर चल रही है। कांग्रेस के साथी बाबूलाल मरांडी इस चाल को समझ रहे हैं लिहाजा वे अभी से कांग्रेस पर दबाव बनाने का खेल शुरू कर चुके हैं। भाजपा झामुमो से मिले झटके से उबरने के लिए मौके की तलाश में है और झामुमो हमेशा की तरह अपनी आदिवासी पैठ के बूते निश्चिंत बैठा है। झामुमो को पता है कि शिबू सोरेन की मौजूदगी भर उसका खेल खड़ा करने के लिए काफी है।
कांग्रेस को लगता है कि राष्ट्रपति शासन के जरिए यदि वह सूखे के नाम पर राज्य में 250-300 करोड़ बांट देगी तो उसका बेड़ा पार हो सकता है। लेकिन दिक्कत यह है कि कांग्रेस के पास कोई ऐसा नेता नहीं है जो भाजपा के अर्जुन मुंडा, झाविमो को बाबूलाल मरांडी या गुरूजी (शिबू सोरे्न) के सामने खड़े होने की हैसियत रखता हो। केंद्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय रांची से बाहर प्रभावशाली नहीं रह जाते और कांग्रेस राज्यपाल एमओएच फारुक को तो चुनाव लड़ा नहीं सकती। इसलिए कांग्रेस की रणनीति हर जिले में पैसा बांटकर अपनी स्थिति मजबूत करने की है। इसी के तहत कांग्रेस ने राज्य के 12 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया जबकि बोवनी 31 अगस्त तक चलनी है। मतलब यह कि यदि 20-25 अगस्त तक भी और बारिश हो जाती है तो आराम से बोवनी हो जाएगी। यहां यह बताते चलें कि उत्तर प्रदेश के विपरीत यहां धान की बोवाई 31 अगस्त तक होती है। रणनीति का अगला हिस्सा साफ-सुथरी छवि बनाने का है और इसके तहत कोड़ा कांड व अन्य प्रकरणों को सीबीआई के सुपुर्द किया जा रहा है। इसका एक फायदा कद्दावर नेताओं पर दबाव के रूप में भी कांग्रेस देख रही है।
पिछले चुनाव में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी कांग्रेस की चाल को समझ रहे है। लिहाजा उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्रियों से सुविधाएं वापस लेने के राज्यपाल के आदेश को मुद्दा बना दिया कि यह आदिवासी विरोधी कदम है। सभी पूर्व मुख्यमंत्री (बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा व शिबू सोरेन) आदिवासी हैं और कांग्रेस आदिवासियों को सुविधाएं लेते हुए नहीं देख पा रही है। इसके अलावा, मरांडी झारखंड दिसोम पार्टी के संस्थापक सल्खान मुर्मू, झारखंड जनाधिकार मंच के बंधु तिर्की जैसे नेताओं को पटा रहे हैं। ये लोग खुलकर कहने लगे हैं कि शिबू सोरेन को बेनकाब करना जरूरी है और इस बात का अभियान चलना चाहिए कि कैसे बाबूलाल मरांडी के हाथों ही आदिवासियों के हित सुरक्षित हैं। कांग्रेस मरांडी की चाल को समझ रही है लेकिन उसके पास इसकी कोई तोड़ फिलहाल नहीं है। मरांडी चाहते हैं कि कांग्रेस के साथ गठबंधन बना रहे लेकिन आधी सीटें कांग्रेस उनको दे। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने मरांडी को 82 में सो सिर्फ 19 सीटें दी थीं। इनमें से मरांडी 11 सीटें जीतने में कामयाब रहे थे और कांग्रेस सिर्फ 14।

पत्थरों पर रोशनी ,धरोहर पर अँधेरा

अंबरीश कुमार
लखनऊ , अगस्त। मूर्तियों ,पार्कों और और स्मारकों पर अरबों रुपये खर्च करने वाली सरकार ऐतहासिक धरोहरों को भगवान् भरोसे छोड़े हुए है। आज लखनऊ से लेकर जिलो जिलों में आजादी की सालगिरह की पूर्व संध्या पर रोशनी की जा रही है पर आजादी की लडाई की बहुत सी धरोहर अँधेरे में डूबी हुई है । पृथ्वीराज कपूर के मार्गनिदेशन आजमगढ़ में जो कला भवन बना उसको राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत से लाई अपनी उन दुर्लभ ऐतिहसिक महत्तव की वस्तुओं को इस भवन को देकर और समृद्ध कर दिया था ,उस कला भवन का ताला आज आजादी की सालगिरह की पूर्व संध्या पर टूटा मिला । आस पास के भवनों पर आजादी की सालगिरह के मोके पर रोशनी की जा रही है और यह भवन अँधेरे में डूबा है । राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से जो पत्थर लाए थे उनका एक बक्सा खाली हो चूका है और कुछ दुर्लभ पांडुलिपियाँ भी नदारत है । पूरा प्रदेश इस समय पत्थरों की वजह से नई पहचान बना रहा और दूसरी ओर जिलों जिलों में मौजूद इतिहास के पन्ने बिखरते जा रहे है । उदाहरण है आजमगढ़ में साहित्य, संस्कृति और कला को संजोने वाले हरिऔध कला भवन । यह भवन 1857 के कंपनी बाग जो आज कुंवर सिंह उद्यान के नाम से जाना जाता है उसके परिसर स्थापित है ।
इस कला भवन के वे दरवाजे आजादी की पूर्व संध्या पर खुले मिले जिन पर प्रशासन ने ताले लगवाए थे। इस संग्राहालय में जहां राहुल सांकृत्यायन ने अपनी दुर्लभ पांडुलिपियों और पुरातत्व की महत्व की वस्तुओं को दान किया था उसकी सुरक्षा के लिए कोई इन्तजाम नहीं है। हरिऔध कला भवन के संरक्षण के लिए लंबे समय से लड़ रहे स्थानीय रंगकर्मी अभिषेक पंडित ने बताया कि कुछ महीने पहले यहां किताबों और पांडुलिपियों के चोरी हाने का मामला सामने आया था। जिस पर लंबे आदोलन के बाद प्रशासन ने सिर्फ ताला लगवाने का काम किया। प्रशासन ने इसके संरक्षण के लिए एक बैठक बुलाने का आश्वासन दिया था जो अब तक नहीं हुयी। यहां गौरतलब है कि इस कला भवन का निर्माण 1954 में जनता के पैसे से स्थानीय कलाकारों द्वारा करवाया गया था। जिसका पृथ्वीराज कपूर ने मार्गदशन किया था। दक्षिण एशिया का इतिहास और घुमक्कड़ शास्त्र के रचयिता राहुल सांकृत्यायन जो आजमगढ़ के ही रहने वाले थे ने तिब्बत से लायी गयी अपनी उन दुर्लभ ऐतिहसिक महत्तव की वस्तुओं को इस कला भवन को देकर और समृद्ध कर दिया। आजादी की पूर्व संध्या पर इस खंडहर नुमा कला भवन पर बैठे रंगकर्मी राघवेंद्र मिश्रा, सुग्रिव विश्वकर्मा और बब्लू श्रीवास्तव ने कहा कि कला जो समाज में प्रतिरोध की भावना का विस्तार करती है उस चेतना को कुंद करने की यह कोशिश है। जिलाधिकारी कार्यालय से मात्र कुछ फर्लांग की दूरी पर स्थित होने के बावजूद जिलाधिकारी इसका हाल जानने के लिए कभी नहीं आते जबकि जिलाधिकारी इस हरिऔध कला भवन के अध्यक्ष हैं। कल स्वतंत्रता दिवस है पर यहां कोई सफाई नहीं की गयी है। आज हम लोग यहां की खुद सफाई कर रहे हैं।
पीयूसीएल के राजीव यादव और तारिक शफीक ने कहा कि जिले में कला, साहित्य और संस्कृति के लिए हरिऔध कला भवन की एक मात्र संस्थान हैं। पर इसको जिस तरह उपेक्षित किया जा रहा है वह हमारी सरकारों की मनोस्थिति को भी बताता है कि वे कला, साहित्य और संस्कृति से कितना डरती है। कई दशक से इस हरिऔध कला भवन संस्था का नवीनीकरण नहीं हुआ जिसका पदेन अध्यक्ष जिलाधिकारी है। यह तथ्य इस बात को दर्शाती है कि हमारी केंद्र और राज्य सरकारों के पास कला, साहित्य और संस्कृति को लेकर जिले स्तर पर कोई नीति नहीं हैं। कभी इस कला भवन में कैफी आजमी, बादल सरकार और अशोक भौमिक जैसे नामी लोगों के बैठके यहां हुआ करती थीं। इस कला भवन का कुछ हिस्सा डह गया है। जहां एक तरफ रवींद्र नाथ टैगोर की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ मनायी जा रही है वहीं इस कला भवन के ओपेन थिएटर में रवींद्र नाथ टैगोर सहित अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जैसी हस्तियों के आदम कद तैल चित्र के चीथड़े दीवारों पर टंगे हैं तो वहीं महात्मा गांधी और अशोक की लाट धूल फांक रही हैं। कला भवन के पुस्तकालय के आलमारियों के शीशे टूटे हुए हैं जिनमें अब भी बहुमूल्य किताबें हैं जो अपने चोरी होनी की बाट जोह रही हैं। अब यह कला भवन कुछ युवा रंगकर्मियों के भरोसे है जो इसे फिर से कला, साहित्य और संस्कृति के केंद्र के रुप में स्थापित करने में लगे हैं।

Friday, August 13, 2010

काशी में भी विभूति हटाओ का नारा

विजय विनीत
वाराणसी ,अगस्त।छिनाल प्रकरण पर अब पूर्वांचल में भी विरोध तेज हो गया है।वाराणसी में ढाई सौ लेखकों ने विभूति नारायण राय के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाया , बैठक की और राष्ट्रपति से इस मामले में न्यायिक जाँच करा कर उन्हें बर्खास्त करने की मांग की । ज्ञानोदय पत्रिका के 10 अगस्त के बेवफाई सुपर बेवफाई विशेषांक में विभूति नारायण राय, कुलपति, महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय द्वारा दिए गए साक्षात्कार पर 12 अगस्त मध्यान्ह हिन्दी विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के सभा कक्ष में काशी के सभी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों साहित्यिक सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों का कल एक सम्मेलन आयोजित किया गया। हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो श्रद्धानन्द सभी प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए राय द्वारा महिलाओं के लिए अमर्यादित तथा अशोभनीय करार दिया। हिन्दी में इस प्रकार के विवादों तथा टिप्पणियों के विरुद्ध सरकार से कड़ी कार्रवाई की मांग की। सभा में संचालन का दायित्व प्रो सत्यदेव त्रिपाठी को दिया गया। उन्होंने इस विषय पर चर्चा की शुरुआत कराई।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्राध्यापक डा0 रामाज्ञा राय ने राय की टिप्पणी को स्त्रियों के विरुद्ध अशोभनीय और अमर्यादित कहा। उन्होंने श्री राय को शासन से तत्काल बर्खास्त करने की मांग की। साहित्यकार डा0 वाचस्पति ने वक्तव्य की निन्दा करते हुए कहा यह अमर्यादित वक्तव्य है। उन्होंने विष्णु खरे के पूर्वांचल के साहित्यकारों को ‘हुडुक लूलू’ लिखने की भी निन्दा की।
उर्दू लेखिका प्रो शाहिना रिजवी ने कहा कि राय की महिलाओं को छिनाल कहने की टिप्पणी बेहद घटिया है। इसके लिए उन्हें कड़ा दंड मिलना चाहिए। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रो और कवि बलराज पाण्डेय ने अपने वक्तव्य में कहा कि मैं राय की टिप्पणी की निन्दा करता हूँ। उन्होंने कुछ हिन्दी के पत्रिकाओं के सम्पादकों पर कुछ महिला लेखिकाओं को अयोग्य रहते हुए आवश्यकता से अधिक सह देकर प्रमोट करने का आरोप भी लगाया। उन्होंने हिन्दी साहित्य में घटिया लेखन पर चिंता जताई।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की डा0 चन्द्रकला त्रिपाठी ने कहा कि महिलाओं के ऊपर श्री राय की यह अमर्यादित टिप्पणी कत्तई बर्दाश्त नहीं की जायेगी। उन्होंने मांग की कि राय को केन्द्रीय सरकार उनके पद से तत्काल बर्खास्त करे ताकि भविष्य में यह दुबारा दुहराया न जाए। प्रो0 चम्पा सिंह और डा0 श्रद्धा सिंह ने श्री राय की टिप्पणी को अपमान जनक और दुर्भाग्यपूर्ण बताया। युवा कवि व्योमेश शुक्ल ने कहा कि राय की टिप्पणी महिला विरोधी है। समूचे स्त्री समाज को अपमानित करना चिंताजनक है और उन्हें सरकार को तत्काल पद से बर्खास्त करना चाहिए। साहित्यकार दीनबन्धु तिवारी और और डा0 वशिष्ट नारायण त्रिपाठी ने वक्तव्य को घटिया और दुर्भाग्यपूर्ण बताया। काशी विद्यापीठ के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो सुरेन्द्र प्रताप ने कहा कि राय का वक्तव्य स्त्री अस्मिता और स्त्री विमर्श के विरुद्ध है। स्त्री को छिनाल कहना उनकी सामंती, बर्बर और घटिया मानसिकता का प्रतीक है। उन्होंने राष्ट्रपति से इसकी न्यायिक जाँच कराकर उन्हें तत्काल पद से बर्खास्त करने की माँग की।
सभा में डा0 चतुर्भुज तिवारी, डा0 योगेन्द्र सिंह, डॉ0 रामआसरे यादव, विनीता सिंह, सिद्धार्थ राय ने भी विचार व्यक्त किया। सभा की आम राय यह रही कि स्त्र्ाियों का अपमान और असंसदीय टिप्पणी के कारण कुलपति का पद कलंकित हुआ है। ऐसी स्थिति में भारत सरकार तत्काल प्रभाव से श्री राय को बर्खास्त कर न्यायिक जांच कराए अन्यथा उनके विरुद्ध शिक्षकों-साहित्यकारों का आन्दोलन जारी करेगा। श्री राय के कारनामों के विरुद्ध पूर्वांचल में व्यापक स्तर पर हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा है, जिसे राष्ट्रपति तथा मानव संसाधन मंत्रालय को प्रेषित किया जायेगा। सभा के अन्त में संयोजक प्रो0 सत्यदेव त्र्ािपाठी ने इस अभियान को आगे जारी रखने का संकल्प लिया और आगन्तुओं का धन्यवाद ज्ञापित किया।पूर्वांचल के साहित्यकारों द्वारा 250 हस्ताक्षर करके मानव संसाधन मंत्री और राष्ट्रपति को शीघ्र ही प्रेषित किया जाएगा ।

Thursday, August 12, 2010

जेपी के सिपाही भी मैदान में


अंबरीश कुमार
लखनऊ अगस्त । लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जनता सरकार की परिकल्पना को अमलीजामा पहनाने की वजह से क्रांतिकारी कवि नागार्जुन के साथ १९ महीने जेल काटने वाले महात्मा भाई को बिहार के नवगठित समाजवादी मोर्चा सिवान में जीरादेई विधानसभा क्षेत्र से चुनाव में उतारने जा रहा है । उनके चुनाव में बिहार आंदोलन के साथ जयप्रकाश नारायण की बनाई छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के पुराने कार्यकर्त्ता और बोधगया आंदोलन के लोग भी शामिल होंगे । साथ ही समाजवादी धारा के लोग महात्मा भाई के चुनाव में जुटने जा रहे है । महात्मा भाई ने आज लखनऊ में कई जन संगठनो के लोगो से मुलाकात कर जीरादेई आने की अपील की । उतर प्रदेश से कुछ विधायक और जन संगठन के नेताओं ने भी जीरादेई जाने का कार्यक्रम बनाया है ।
समर्थन जुटाने की मुहिम में उत्तर प्रदेश के दौरे पर आए महात्मा भाई ने कई संगठनो के नेताओं से मुलाकात की । गौरतलब है कि महात्मा बिहार आंदोलन के लिए बनी संचालन समिति के सदस्य थे और बाद में वाहिनी के संस्थापक सदस्यों में भी शामिल थे।जब जयप्रकाश नारायण ने जनता सरकार की की कल्पना की तो उसकी शुरुवात सिवान में महत्मा ने ही की थी जिसमे नागार्जुन शामिल हुए । महात्मा भाई ने बताया - अभी प्रखंड स्तर तक ही जनता सरकार का गठन किया गया था कि हम लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया । बाबा नागार्जुन भी साथ गिरफ्तार हुए और फिर छपरा ,सीवान और बक्सर जेल में १९ महीने कटे । उस दौर में नितीश कुमार भी
साथ थे पर आज जेपी सम्मान पेंशन योजना के लिए बक्सर जेल का रिकार्ड तक नहीं मिल रहा जिसमे नागार्जुन से लेकर नितीश कुमार ,सुशील कुमार मोदी आदि थे
खुद नितीश अब मुख्यमंत्री है । महात्मा यहाँ अपने पुराने समाजवादी साथी व समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी से मुलाकात कर पुराणी यादें ताजा की ।
इसी बीच उन्हें पटना से लोक मोर्चा के बिहार के प्रभारी विजय प्रताप ने बताया कि समाजवादी धारा के संगठनो और दलों की बैठक में संयुक्त लोकतान्त्रिक समाजवादी मोर्चा का गठन किया जा चुका है जो उन्हें जीरादेई से मैदान में उतारेगा ।
इस बैठक में रघु ठाकुर की लोकतान्त्रिक समाजवादी पार्टी ,लोकतान्त्रिक समता दल ,सोशलिस्ट पार्टी ( लोहिया ) ,लोकमोर्चा ,समाजवादी जनता पार्टी समेत छोटे बड़े दस संगठन और दल शामिल हुए । महात्मा भाई के मुताबिक यह मोर्चा करीब पचास सीटों पर चुनाव लडेगा । चुनाव को लेकर मोर्चा कई दलों से बात करेगा ।
बिहार विधान सभा के चुनाव में समाजवादी धारा के लोग कुछ क्षेत्रों में जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े लोगों को ताकत देकर नई पहल करने के मूड में है । जीरादेई उसी प्रयोग की दृष्टि से देखा जा रहा है । युवा भारत के राजीव के मुताबिक देश के अलग अलग हिस्सों से आंदोलनों से जुड़े लोग महात्मा भाई की मदद में आने वाले है । राजनैतिक दलों को भी चाहिए कि जयप्रकाश आंदोलन के इस सिपाही को ताकत दे और उमके खिलाफ कोई उमीदवार नहीं खड़ा करें ।
जनसत्ता

कश्मीर को बफर स्टेट बना देंगे ?

कृष्ण मोहन सिंह
नईदिल्ली,अगस्त ।क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पूरी तरह अमेरिका के इशारे पर चल रहे हैं। अमेरिका निर्देशित रक्षा नीति ,कृषि नीति,शिक्षा नीति ,आर्थिक नीति और विदेशनीति यानी त्वमेव सर्वमम देव देव: ।अमेरिका चाहता है जम्मू-कश्मीर एक स्वतंत्र बफर स्टेट बन जाय। केवल कहने के लिए भारत का अंग रहे। सारा संसाधन-खर्चा भारत से ले,लेकिन रहे स्वतंत्र।भारत का उसपर कोई लगाम,कन्ट्रोल नहीं रहे। अमेरिका यह काम करवाना चाहता है अपने यसमैन भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से। जिस दिन मनमोहन सिंह यह करदेंगे उस दिन उनको(मनमोहन) विश्वशांति पुरस्कार मिलना पक्का। वैसे अब तक मनमोहन ने भारत में जो भी नीतियां लागू की हैं उनसे सबसे अधिक फायदा अमेरिका व उसकी लाबी के देशों को ही हुआ है। न्यूकडील से सबसे अधिक फायदा किसको होगा, अमेरिका को। उसके परमाणु रियेक्टर बनाने वाले कारखाने बंद हो गये थे,उसमें काम करने वाले लोग बेरोजगार हो गये थे, इस समझौते के बाद जितने परमाणु रियेक्टर बनाने के आर्डर अमेरिका व उसकी लाबी देशों की कम्पनियों को मिलेंगे उतना ही उन देशों को फायदा होगा। परमाणु रियेक्टर आधारित पावर प्लांट लगाने के लिए अमेरिका व उसकी लाबी वाले देशों से भारत ऋण लेगा और ऊंचे व्याज दर पर लंबे समय तक चुकाता रहेगा। यानी अमेरिका मंहगे व्याज से भी कमायेगा और परमाणु रिएक्टर बेच करके भी कमायेगा। कोई दुर्घटना हुई तो रिएक्टर सप्लाई करने वाली कम्पनी की कोई जिम्मेदारी नहीं वाला बिल मनमोहन संसद के इस सत्र में पास कराने की साम-दाम दंडी योजना बना ही रहे हैं।पूरी तरह उसके ट्रेप में गुलाम रहेगी भारतीय परमाणु शोध व अर्थव्यवस्था। इसी तरह मंहगे और एकबार प्रयोग होने वाले बीज का प्रयोग करने के लिए भारत में जो सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर जोर-शोर से योजनायें चल रही हैं ,सब अमेरिकी व उसकी लाबी वाले देशों की बीज , कीटनाशक दवा व खाद कम्पनियों को भारी लाभ पहुंचाने और उनका भारत में बड़ा बाजार बनाने के लिए हो रहा है। यही शिक्षा के क्षेत्र में हो रहा है। भारत में जो भी बड़े विश्वविद्यालय हैं चाहे वह काशी हिन्दू विश्व विद्यालय वाराणसी ,अलीगढ़ मुस्लीम विश्वविद्यालय या शांतिनिकेतन हो, सबके सब अपने समय के बड़े लोगों ने भीख मांगकर बनाया था। आज मनमोहन और कपिल सिब्बल भारत को देशी –विदेशी शिक्षा माफियाओं का लूट का केन्द्र बनाने में लगे हैं।ये भारत में शिक्षा इतनी मंहगी करते जा रहे हैं कि आम आदमी व गरीब का बच्चा पढ़ ही नहीं सकता। जो पढ़ेगा वह ऋण में गले तक डूब जायेगा। यह सिब्बल नकलची शिक्षकों को नियुक्त करने वाले भ्रष्टाचारी व महिलाओं को छिनाल कहने वाले कुलपतियों तक को बचाने में लगे हैं,ऐसे कुलपतियों को नतो सस्पेंड करा उनके खिलाफ जांच करा रहे हैं ,नहीं उसके बर्खास्तगी के लिए राष्ट्रपति के यहां फाइल भेज रहे हैं। इस सिब्बल और इनके जातीय अमेरिका परस्त मनमोहन का एक मात्र एजेंडा भारतीय शिक्षा को देशी-विदेशी शिक्षा धंधेबाजो के हाथों में सौंपने के अमेरिकी एजेंडा को लागू करना है।इनसे आमगरीब जनता की भलाई का क्या उम्मीद किया जा सकता है। सूत्रों के मुताबिक जम्मू –कश्मीर के मामले में भी मनमोहन वही करने की कोशिश कर रहे हैं जो अमेरिका चाहता है। जिस दिन जम्मू-कश्मीर पूरा आटोनोमस हो गया उस दिन वह अमेरिका के ट्रेप में आ जायेगा। अमेरिका चाहता है कि जम्मू-कश्मीर एक स्वायत्त देश की तरह हो जाये।उसके अन्दर उसका अपना राज हो।भारत की सेना उस के अन्दर नहीं घुसे । भारत की सेना जम्मू-कश्मीर से सटे भारत की सीमा पर रहे। जम्मू-कश्मीर सीधे अमेरिका व उसके लाबी के देशों से तरह-तरह के संधि कर ले। वहां यूनाइटेड नेशंस की कुछ फौज शांति बनाये रखने व निगरानी के बहाने रहें। इस तरह जम्मू-कश्मीर पूरी तरह अमेरिका के अघोषित कब्जे में आ जाये।
मनमोहन सिंह ने 10 अगस्त की देर शाम को जम्मू-कश्मीर के लगभग सभी दलों के साथ बैठक के बाद जब यह कहा कि जम्मू-कश्मीर को संवैधानिक ढ़ांचे के तहत स्वायत्तता देने पर विचार किया जा सकता है ,तो मनमोहन के इस कहे का निहितार्थ स्पष्ट हो गया है। वह है जम्मू-कश्मीर पर अमेरिकी एजेंडा लागू करने की दिशा में पहल। उनके इस कहे के बाद अब यह आशंका होने लगी है कि मनमोहन सिंह व उनके सजातीय चहेते गृहमंत्री पी.चिदम्बरम अमेरिकी रणनीति व सोची-समझी योजना के तहत जम्मू-कश्मीर में हिंसा भड़कने दिये। मामला खूब तूल पकड़ लिया तो अब स्वायत्तता देने की बात करने लगे हैं।
सवाल है कि जब स्वायतत्ता ही देनी थी तो इसके रक्षार्थ अब तक हजारों-लाखों जवानों की बलि क्यों दी गई । क्या इसलिए कि उन जवानों में कोई किसी मनमोहन,चिदम्बरम,फारूख अब्दुल्ला, एंटोनी के लड़के ,दामाद नहीं थे।इनके तरह अमीर नहीं थे।
और जब जम्मू-कश्मीर को स्वायत्तता दे देंगे तब पूर्वोत्तर भारत के भी कई राज्यों को कैसे मना करेंगे मनमोहन सिंह जी ?

Tuesday, August 10, 2010

रवींद्र कालिया ने माफी मांगी

नईदिल्ली। ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक और ज्ञानपीठ के निदेशक रवींद्र कालिया ने हिंदी समुदाय में बढ़ते रोष के मद्देनजर ‘छिनाल’ शब्‍द के प्रकाशन के लिए माफी मांगी है। कालिया ने ‘जनसत्ता’ को एक पत्र में कहा है कि ज्ञानपीठ पुरस्‍कार वितरण समारोह के आयोजन के सिलसिले में वे आठ दिन गोवा रहे, इसलिए ‘संपादकीय दायित्‍व का निर्वाह करने में असमर्थ रहे।’ उन्‍होंने आगे कहा है कि ‘उन्‍हें इसका गहरा अफसोस और शर्मिंदगी है कि विभूति नारायण राय का साक्षात्‍कार जैसा का तैसा चला गया।’ इसके लिए वे ‘हिंदी जगत के समस्‍त पाठकों और रचनाकारों से क्षमाप्रार्थी हैं।’
कालिया का यह स्‍पष्‍टीकरण हिंदी लेखकों के गले शायद ही उतरे, क्‍योंकि उनके गोवा जाने से पहले ‘नया ज्ञानोदय’ का अंक तैयार हो चुका था। इतना ही नहीं, उन्‍होंने खुद अंक के संपादकीय में राय के साक्षात्‍कार को ‘सबसे बेबाक’ करार दिया था। बहरहाल, क्षमायाचना के साथ कालिया ने यह जानकारी भी दी है कि अगस्‍त का वह अंक ‘जहां जहां से उपलब्‍ध हो सके, वापस मंगवा लिया गया है तथा वीएन राय के साक्षात्‍कार से विवादास्‍पद तथा आपत्तिजनक अंश हटा दिये गये हैं।’
ज्ञानपीठ के भीतर यह चर्चा है कि कालिया की यह सफाई ज्ञानपीठ के न्‍यासियों को स्‍वीकार होगी या नहीं। न्‍यास मंडल की बैठक 23 अगस्‍त को मुकर्रर है। फिलहाल केवल आलोक जैन कालिया के तरफदार हैं।

नामवर सिंह की चुप्पी शर्मनाक

विष्‍णु खरे
विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया के कलुषित गठबंधन के विरुद्ध हिंदी में जो कार्रवाई हुई उसने हिंदी लेखक-लेखिकाओं की ताकतों, कमजोरियों और विरोधाभासों को भी उजागर करने में ‘मदद’ की। लेखिकाएं कपिल सिब्बल से मिलीं लेकिन कोई लिखित ज्ञापन नहीं ले गर्इं जिसमें विभूति नारायण के इस्तीफे या बर्खास्तगी की मांग की गई होती। वे राष्ट्रपति से नहीं मिलीं जिन्होंने कुलपति-पद के उम्मीदवारों की सूची से राय के नाम का अनुमोदन किया था। वे प्रधानमंत्री, उनकी पत्नी और उनकी बेटी से नहीं मिलीं। उन्होंने सोनिया गांधी से मिलने का प्रयास नहीं किया। जो धरना ज्ञानपीठ के सामने दिया गया वह रेस कोर्स रोड, जनपथ और राष्ट्रपति-भवन के सिंहद्वार पर भी दिया जा सकता था।
हम ‘जसम’ की विडंबना की बात कर चुके हैं, लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ, जिसके राष्ट्राध्यक्ष नामवर सिंह वर्धा गांधी विश्वविद्यालय में राष्ट्रपति के नामजद कुलाधिपति हैं, की चुप्पी शर्मनाक और निंदनीय है। यदि कुलपति लेखिकाओं को ‘‘छिनाल’’ कह सकता है तो ‘विजिटर्स नॉमिनी’ उसकी सार्वजनिक भर्त्सना अपना नैतिक कर्तव्य समझकर क्यों नहीं कर सकता? उधर हिंदी के कुछ लेखक-लेखिकाएं एक रहस्यमय विवशता में इस पूरे मसले पर या तो चुप हैं, या, जो और भी लज्जास्पद है, राय-कालिया का बचाव या समर्थन कर रहे हैं। इस लेखक ने विभूति राय और रवींद्र कालिया की बर्खास्तगी की मांग करने वाले एक सार्वजनिक पत्र पर दस्तखत किए हैं जिस पर करीब दो सौ हस्ताक्षर और हैं। इनमें शायद हिंदी की सभी विचारधाराओं के प्रतिनिधि होंगे। लेकिन यह कहना कठिन है कि उन सब ने सदिच्छा, ईमानदारी और क्षोभ के साथ इस अभियान में हिस्सा लिया होगा।
वर्तमान हिंदी परिदृश्य ने इतने व्यामोह और मनोविदलता को जन्म दिया है कि हर पार्टनर से उसकी पॉलिटिक्स पूछना अनिवार्य हो गया है। जब मैं इन हस्ताक्षरों को देखता हूं तो कुछ की कोई साहित्यिक पहचान नजर नहीं आती, कुछ कुप्रेरक या दोमुंहे प्रतीत होते हैं और कम-से-कम एक के बारे में मैं ही नहीं, सारा सुधी हिंदी संसार जानता होगा कि वह एक ऐसा ‘बहादुर’ है जो स्त्रियों को छिनाल से भी बदतर समझने में अपनी सिंह-विजय समझता है और मूलत: राय-कालिया बिरादरी का है।
किसी सोद्देश्य हस्ताक्षर-अभियान का अर्थ यह नहीं होता कि उसमें घुसपैठ कर कुछ धूर्त भी सुर्खरू हो लें- उसमें हमेशा एक जानकार, जागरूक ‘मॉडरेटर’ चाहिए। खुशी की बात है कि राय-कालिया टीम का भी एक हस्ताक्षर अभयान सामने आया है, और दुर्भाग्यवश उसमें कुछेक ऐसे समझदार दस्तखत भी हैं जो शायद पुरानी दोस्तियों को निबाह रहे हैं। लेकिन महज कुछेक। इन दोनों अभियानों की सूचियों ने हिंदी साहित्य के इतिहास में पहली बार एक आधारभूत गुणात्मक और नैतिक विभाजन को रेखांकित किया है। कुछ विवेक से काम लेते हुए यदि इन दोनों सूचियों को थोड़ा-सा संशोधित किया जाए तो यह पांडवों-कौरवों या द्वितीय विश्व-युद्ध के ‘एलाइड’ और ‘एक्सिस’ वाले पक्ष बन जाते हैं और इन दोनों पर अगले वर्षों तक एक सख्त नजर रखी जानी चाहिए।
इस मामले के कुछ और पहलू भी जागरूकता की मांग करते हैं। क्या वजह है कि कपिल सिब्बल से मिलने वाली किन्हीं भी लेखिकाओं ने उस मुलाकात का अपना ब्योरा और आकलन नहीं दिया है? कुछ दूसरी लेखिकाओं ने क्यों राय-कालिया का पक्ष लिया है या चुप्पी अख्तियार कर रखी है- हालांकि स्त्री-पुरुष दोनों लेखकों को यह अधिकार भी है कि वे इस मसले को इतना घिनौना समझें कि हलधर बलराम की तरह युद्ध से विरक्त हो जाएं। कुछ लेखक तो इसलिए गूंगे हैं कि वे आगामी वर्षों में स्वयं को ज्ञानपीठ पुरस्कार की ‘शॉर्ट-लिस्ट’ में देख रहे हैं लिहाजा उसकी ‘ब्लैक-लिस्ट’ से बच रहे हैं। यह भी है कि लेखिकाओं का एक बहुत छोटा प्रतिशत अपने ‘कैरिअर’ को गतिशील बनाने के लिए संपादकों, आलोचकों, सहधर्माओं, प्रकाशकों, प्राध्यापकों और निजी तथा सार्वजनिक साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों के बीच कुछ ज्यादा-ही सक्रिय है- यद्यपि यदि पुरुष लेखक वैसा करते हैं तो स्त्रियां क्यों न करें, लेकिन दक्षिण एशिया में औरत होने की ही ‘ऐसी ट्रेजिडी है नीच’- और मैं समझता हूं कि नारी-गरिमा के लिए कहीं भी अशोभनीय है और नैतिक रूप से संदिग्ध है। महिला- लेखक कम-से-कम पुरुष-लेखकों के पतन का अनुकरण तो न करें। इस प्रकरण में कुछ ब्लॉगों ने सक्रिय, जोशीली, पक्षधर भूमिका निबाही है लेकिन हिंदी का ब्लॉग-विश्व भी अत्यंत संदिग्ध प्रतिक्रियावादियों, कुंठित ‘लेखकों’, ‘पत्रकारों’, ‘पाठकों’, खुदाईखिद मतगारों, प्रगतिविरोधी तत्त्वों और देश के चतुर्दिक पतन से खलसुख प्राप्त करने वालों से बजबजा रहा है।
निस्संदेह कुछ अच्छे, सार्थक, विचारों के उत्तेजक टकराव वाले ब्लॉग भी हैं। लेकिन शेष अधिकांश हिंदी-समाज की गिरावट के प्रतिबिंब ही हैं। एक ही व्यक्ति अनेक नामों या अनामता से स्वयं अपने और दूसरों के ब्लॉगों पर आॅरवेलीय ‘डबलथिंक’ और ‘डबलस्पीक’ का लॅकैरीय ‘मोल’ या ‘डबल एजेंट’ बना हुआ है। कुछ महिलाओं के जाली नामों से लिख रहे हैं। कुल मिलाकर राय-कालिया जैसी उठाईगीर, बाजारू मानसिकता ने ब्लॉग जैसे सशक्त, कारगर माध्यम को कुछ ही समय में बर्बादी के कगार पर ला दिया है। वहां ‘छिनाल’ से भी ज्यादा अश्लीलता और चरित्र-हनन ‘माउस’ की एक ‘क्लिक’ पर कभी-भी, किसी के भी बारे में अवतरित हो सकते हैं। विडंबना यह भी है कि कंप्यूटरदु ि नया हिंदी में आज भी बहुत सीमित है। लेकिन ठीक राय-कालिया और उनकी बिरादरी की तरह कई ब्लॉग-टिटहरियां यह समझ रहीं कि हिंदी भाषा, साहित्य और पत्रकारिता का आकाश जैसा भी है उन्हीं की डेढ़ टांग पर टिका हुआ है। एक अजाचारी, समलैंगिक सुखभ्रांति चतुर्दिक व्याप्त है जिसमें आत्म-रति, अपना और अपने निरीह परिवार का विज्ञापन, गिरोहधर्मा अहोरूपम् अहोध्वनि, रूमानी भावनिकता, भेड़ियाधसान, पर्वतमूषकत्व आदि संचारी भाव हैं। कई ब्लॉग राय-कालिया मामले पर एक मौसेरे भाईचारे में चुप्पी साधे हुए हैं, क्योंकि उनके संचालकों को वृहत्तर अकादमिक और ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ परिवार से अनेक आशाएं हैं।
हिंदी में और अखिल भारतीय तंत्र में एक भयावह तत्त्व और है। यदि आप किसी भी क्षेत्र में मनसा-वाचा-कर्मणा वास्तविक नैतिक और विचारधारागत मतभेद रखते हैं तो आप न सिर्फ उस हलके में अवांछित (पर्सोना नॉन-ग्राटा) हो जाते हैं बल्कि आपका एक मौन-अलिखित बहिष्कार कुष्ठ या एड्सग्रस्त या अछूत दलित की तरह शेष हर क्षेत्र में होता जाता है। इसका आतंक अधिकांश भारतीयों को कायर, मौकाशनास, धूर्त और दोमुंहा बना देता है। दुर्भाग्यवश, आज के कठिन-सरल जीवन संघर्ष को देखते हुए अधिकांश युवा उसी की पनाह ले रहे हैं। इसलिए भी कि उनके अधिकांश वरिष्ठों ने उनके सामने कोई बेहतर उदाहरण नहीं रखा।
हिंदी संसार, वह जैसा-जितना है, एक और त्रासद विडंबना से ग्रस्त है कि हिंदी पत्रिकाएं और पुस्तकें ही नहीं, मानीखेज हलचलें भी कोलकाता-मुंबई की हिंदी बिरादरी तक कम या देर से पहुंचती हैं और तब भी उसे विशेष उद्वेलित नहीं कर पातीं। यह भी है कि भोपाल, इंदौर, पटना, इलाहाबाद, बनारस, जयपुर, कानपुर, लखनऊ, शिमला आदि नगरों-कस्बों के हिंदी लेखक, जिनमें खांटी वामपंथी भी शामिल हैं, राय-कालिया से भी कहीं गए- बीते सरकारी-गैरसरकारी सत्ताधारियों के साथ डेली बेसिस पर समझौते करते रहते हैं; महानगरों के शैतानों पर कभी-कभार प्रतीकात्मक पथराव कर देते हैं और छिनाल-जैसे मामलों पर या तो शिशुवत् भोलेपन का अभिनय करते हैं या कह देते हैं कि भैया ये तुम ‘दिल्लीवाले मठाधीशों’ का सत्ता-संघर्ष है, हमें इस कीचड़ में काहे को घसीटते हो, फिर माफी भी तो मांग ली गई है- और उसके बाद ‘ज्ञानोदय’ में रचना भेज कर ‘वर्धा’ का टिकट कटवा लेते हैं। जहां तक आम लुम्पेन हिंदीभाषी का प्रश्न है, राय- कालिया का मानसिक सहोदर होने के कारण वह सार्वजनिक क्षेत्रों में सक्रिय हर महिला को संदिग्ध ही समझता आया है।
यह कल्पना रोमांचक है कि यदि विभूति नारायण ने कार्पोरेट या राजनीतिक विश्व में निम्नोच्च स्तरों पर काम करने वाली महिलाओं को अपने प्रिय विशेषण ‘‘छिनाल’’ से नवाजा होता तो शास्त्री भवन, 7 रेसकोर्स रोड, 10 जनपथ, राष्ट्रपति भवन, तथा सरदार पटेल, बहादुर शाह जफर और कस्तूरबा गांधी के नामों पर रखे गए मार्गों पर क्या प्रतिक्रिया होती, फिक्की और एसोचैम उसके बारे में क्या कहते। यदि विभूति नारायण ने अंग्रेजी, मराठी, बांग्ला, उर्दू, मलयालम आदि भाषाओं की लेखिकाओं की शान में वह कसीदा पढ़ा होता तो नतीजों का तसव्वुर आसानी से किया जा सकता था। महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति उस मराठीभाषी क्षेत्र में बैठकर हिंदी लेखिकाओं को छिनाल कह रहा है जहां हिंदी साहित्य को लेकर अब भी बहुत स्नेह और सम्मान है, जहां चंद्रकांत पाटील सरीखा कवि- आलोचक-अनुवादक हाल ही में दस हिंदी कवयित्रियों को ‘संगिनी’ शीर्षक संग्रह के रूप में अनूदित कर चुका है। यदि विभूति नारायण को मालूम हो जाता तो मराठीभाषियों की चरित्र-रक्षा करने के लिए वे यह संग्रह ही रुकवा देते या उन्हें चेतावनी देने के लिए ‘संगिनी’ की जगह अपना पसंदीदा शब्द ‘बहुवचन’ में रखवा देते।
राय-कालिया जोड़ी ने ऐसा कारनामा अंजाम दिया है कि तीनों के लिए सिर्फ असंसदीय, अमुद्रणीय, घोर अपमानजनक शब्द ही जेहन और कलम की नोक पर आ-आकर लौट रहे हैं। दुर्भाग्यवश ‘ज्ञानोदय’ और ‘ज्ञानपीठ’ का प्रबंधन भी उन्हीं शब्दों को अर्जित करता लग रहा है-पाखंडी शालीनता में यकीन करना ऐसे मामलों को प्रोत्साहित करना ही होगा।
एक और अजीब कैफियत मुझ पर तारी हुई है। वेश्या-गमन से मुझे कोई आपत्ति नहीं है, बल्कि मैं उसे कानूनी वैधता प्रदान करने के पक्ष में हूं ताकि वेश्याओं का अपमान न हो। मुझे स्वयं कभी उन अभागी औरतों की दरकार नहीं हुई। बहरहाल, जो ‘‘बाजारीकरण’’ हमारे आसानीपरस्त, महदूद कहानीकार-कवियों का पिटा हुआ चहेता विषय हो चुका है उसी का विकराल स्वरूप इस शब्द के निर्लज्ज उपयोग और उसके बचाव के पीछे सक्रिय है। हमारे समाज और संस्कृति में बहुत कम गैरत और गुणवत्ता बची थी, बाजारीकरण उनका वेश्याकरण कर रहा है और ठीक इसी तरह साहित्यिक बाजारवाद बचे-खुचे सार्थक, श्रेष्ठ, प्रतिबद्ध लेखन के वेश्याकरण में जुटा हुआ है। जब ज्ञानपीठ का प्रबंधन यह कह रहा है कि रवींद्र कालिया ने ‘ज्ञानोदय’ और अन्य प्रकाशनों की बिक्री बढ़ा दी है, क्षमा मांग ली गई है, इसलिए उनके विरुद्ध और कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। चालीस वर्ष पहले ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ की निरामिष आत्मपावनता का यह आलम था कि किसी कहानी आदि में ‘शराब’, ‘अंडा’ और ‘गोश्त’ जैसे शब्द ‘जूस’, ‘आलू’ और ‘पराठा’ में बदल दिए जाते थे। आज पेंडुलम दूसरे आत्यंतिक छोर पर है जब ग्राहक बढ़ाने के लिए छिनाल चलाई जा रही है।
विभूति नारायण और रवींद्र कालिया से इस्तीफा लेना अब इसलिए बेमानी लगता है कि, जहां तक मेरा आकलन है, हिंदी साहित्य में उनकी प्रतिष्ठा यदि कभी थी भी तो आज फूटी कौड़ी की नहीं रह गई है। लेकिन अधिकांश ऐसे प्राणी, उनके सरपरस्त और समर्थक गंडक-चर्म में वाराहावतार होते हैं। उन्हें न व्यापै जगत-गति। फिर जिस समाज में हत्यारे, बलात्कारी, डकैत, स्मग्लर, करोड़ों का गबन करने वाले संसद तक पहुंच रहे हों वहां हिंदी, जो खुद गरीब की जोरू की तरह सबकी भौजाई या साली है, भले ही उसका एक गांधी विश्वविद्यालय हो, उसकी लेखिकाओं को छिनाल कह देना तो एक होली की ठिठोली से ज्यादा कुछ नहीं। हिंदी साहित्य को अब ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ से कुलटा, रखैल, समलिंगी, हिजड़ा, ‘निम्फोमैनिएक’ सुपर-विशेषांकों और ग्रंथों की विकल प्रतीक्षा रहेगी। पोर्नोग्राफी के जिस दैत्याकार मार्केट के लिए विदेशी कंपनियां लालायित हैं, ज्ञानपीठ-ज्ञानोदय उसे भारतमाता को कलुषित नहीं करने देंगे। इस तरह वे विदेशी मुद्रा बचाएंगे और खुद कमाएंगे। किसे मालूम कि उससे कभी ज्ञानपीठ पुरस्कार एक करोड़ या उससे भी अधिक का किया जा सके!
क्या हिंदी लेखकों में वह नैतिक बल और संकल्प है कि वे विभूति नारायण और रवींद्र कालिया के रहते हिंदी विश्वविद्यालय और ज्ञानपीठ का बहिष्कार कर सकें? क्या हिंदी के अधिकांश सक्रिय लेखक-लेखिकाएं राय-कालिया जैसी हरकतों के विरुद्ध कोई दृढ़, दीर्घावधि स्टैंड ले सकते हैं? क्या हम हर संभव दरवाजा पीट सकते हैं?
राय और रवींद्र कालिया के सम्मिलित छिनाल कांड ने जिस तरह बेहतर हिंदी लेखकों को जागृत और एकजुट किया है वह एक विडंबनात्मक वरदान है। प्रश्न यही है कि हिंदी के ये सभी स्वाभिमानी और जिम्मेदार लेखक अपमानित मुचकुंद की तरह इस कालयवनद्वय को भस्म कर पाएंगे या वही बने रहेंगे जिसे ‘छिनाल’ की तरह परिभाषित किया जाता रहे- जबकि वेश्या भी रंडी कहे जाने पर एक तमाचा तो मार ही देती है?
जनसत्ता से साभार

Monday, August 9, 2010

हरियाली ,हिमालय और सुर्ख होते सेब








अंबरीश कुमार
दार्जलिंग से शिवानी ने सतबुंगा जाने का कार्यक्रम इस शर्त पर बनाया कि मै गाइड के रूप में मुक्तेश्वर तक कई जगहों को दिखाने ले जाऊंगा .इस वजह से अचानक नैनीताल जाने का कार्यक्रम बना और रामगढ पहुंचा .गागर से नीचे उतरते ही बरसात की वजह से हरियाली ऐसी नज़र आई कि देखते मन न भरे .घर के बगीचे में फूल कम हो गए थे पर सेब के पेड़ लदे थे .दरवाजे पर लगा किंग डेविड प्रजाति का सेब सुर्ख हो चुका था तो बगीचे में डेलिशियस प्रजाति के पेड़ों में लगे सेब सुर्ख तो नहीं थे पर मिठास भरपूर थी .शाम तक बारिश और बादल के बीच आस पास घूमते रहे .गर्मियों के मुकाबले ठंढ ज्यादा थी इसलिए शाल से राहत मिली .रात में खाना बनाने का जिम्मा साथ आए एक मित्र ने लिया जो एक राष्ट्रीय अखबार के दिल्ली से बाहर के संपादक भी है .खाना बनाने के लिए सारा सामान बाज़ार से लेना था क्योकि गर्मियों में जो भी बचता है सब बहादुर को दे दिया जाता है .दूसरे साथ आए एक साथी मछली मुर्गे के बिना खाना अधूरा मानते है.गनीमत थी कि रोहू और टेंगन जैसी मछली भी उपलब्ध थी .खाना बनना रात आठ बजे शुरू हुआ और देर रात तक बैठकी चली .बीच बीच में थोड़ी देर के लिए बाहर निकल कर बरसात और ठंढ का अंदाजा लगाते .रात में ही तय हुआ सुबह सात बजे गाड़ी आने से पहले सभी तैयार मिले. पर रात भर रिमझिम के बाद भी सुबह भीगी नज़र आई .निकलते निकलते आठ बज चुके थे और सिंधिया एस्टेट से आगे का रास्ता घने बादलों के चलते नही दिख रहा था .फ़ॉग लाइट की मदद से धीमी गति आगे बढे .बारिश तो नही ओस जैसी बूंदे थी पर बादल बार बार घेर ले रहे थे .
सतबुंगा आते ही लगा पहाड़ों पर से पर्दा हटा दिया गया .आसमान भी खुल चुका था और सामने था हिमालय का अनंत विस्तार .घाटी के बीच पहाड़ी के सीढ़ीदार खेत और सेब के बड़े बड़े बागान.सेब के सुर्ख रंग देखकर बाहर के मित्र हैरान थे .ऐसे लदे थे जैसे अपने यहाँ देसी आम के पेड़ लद जाते है.रास्ते भर सेब , नासपाती और बब्बूगोसा के पेड़ों से फल तोड़कर खाते रहे .मुक्तेश्वर पहुंचे तो सबसे पहले जोशी जी की दूकान पर चाय पीने बैठे .सामने ही डाकखाना है .देवदार के पेड़ों से घिरे मुक्तेश्वर से लोग रानीखेत और अल्मोड़ा के भी दर्शन करा देते है .समूचे कुमायूं में इतने खूबसूरत जंगल ,पहाड़ और वादियाँ नहीं मिलेंगी .महाभारत के समय का एक शिव मंदिर पहाड़ी पर है जो सात हजार फुट की ऊँचाई पर है .जहाँ से आसमान साफ़ होने पर हिमालय की तीन सौ किलोमीटर लम्बी श्रंखला साफ़ दिखाई पड़ती है और लगता है कुछ ही किलोमीटर दूर बर्फ के पहाड़ है .एक दिन पहले ही लखनऊ में गर्मी से जान निकल रही थी और यहाँ ठंड से हालत खराब हो रही थी .
वापस सतबुंगा लौटे तो एक पतले रास्ते से पहाड़ पर चढ़ना था .ड्राइवर से छाता निकालने को कहा तो साथ चल रहे सतबुंगा के निवासी सत्यप्रकाश ने कहा - साहब अब घंटे दो घंटे बारिश नहीं होगी .फिर मैने छाता ले लिया .पहाड़ी पगडंडी पर का रास्ता कुछ देर बाद ही सीढ़ीदार खेतों और बगीचों के बीच चला गया .सतबुंगा की एक छोटी पर मंदिर है और उसके आगे घने जंगल .यह पूरा इलाका बाघ , गुलदार जैसे जानवरों का है .जंगल से पहले ही रास्ते में तेज बूंदे पड़ने लगी .पथरीले रास्ते पर तेज चलने से फिसलने का खतरा भी था .कुछ दुरी पर बच्चों का स्कूल नजर आया तो टिन की छत के नीचे शरण ली गई .पत्थरों से बने चार पांच घर थे पर कोई नज़र नही आ रहा था .पता चला यही पर विवादस्पद पचौरी का भी घर है जो गंगा ,ग्लेशियर पर अपने विचारों से विवाद में घिर गए थे .और नीचे भाजपा के सांसद पत्रकार चन्दन मित्र का घर भी लगभग तैयार हो गया है .
सतबुंगा की हरियाली ,हिमालय और बागान आपको आसानी से वापस नहीं लौटने देंगे .यही वजह है कि रामगढ पहुँचते पंहुचते रात हो गई .दूसरे दिन जब दिल्ली में आलोक तोमर और सुप्रिया को सेब की फोटो दिखाई तो सुप्रिया इस बात से नाराज थी कि सेब लेकर क्यों नहीं आया क्योकि उनके बगीचे पेड़ों में भी सेब लदे थे .मैंने बताया कि बगीचे के फल तो जून में ही बिक जाते है जिसके बाद सिर्फ एक दो पेड़ के फल चौकीदार के बच्चों के लिए छोड़ देते है .पर यह शिकायत वाजिब थी कि जब सत्तर रुपए बोरी वहा सेब मिल रहा हो तो लाना तो चाहिए था .